Monday, November 23, 2015

नो शॉपिंग, विदआउट बारगेनिंग !

-वीर विनोद छाबड़ा 
चप्पल वाली गली। दोनों तरफ सैंडिल-चप्पल की गुमटियों की दूर तक लंबी कतारें। भीड़ इतनी कि तिल रखने की जगह नहीं। मेमसाब एक गुमटी पर रुकीं। दर्जन भर सैंडिल निकलवायीं। पसंद नहीं आई। अगली गुमटी। तीसरी और चौथी भी। वही नाक सिकोड़ी। पसंद नहीं। और अब दसवीं गुमटी। मुन्ना चप्पल भंडार।

बंदा पस्त हो चुका है । लेकिन मेमसाब के चेहरे पर दूर-दूर थकान का चिह्न तक नहीं। 
शुक्र है, यहां मेमसाब को सैंडिल पसंद आ गयी। पेंच फंसा दाम पर। मुन्ना बोला, सौ। टंच माल। पांच साल की गारंटी मुफ्त में। मेमसाब ने बीस का दाम लगाया। मुन्ना बुरी तरह झल्ला गया। वाह, बहिन जी वाह! आधा घंटा ख़राब किया और अब माल की बेइज़्ज़ती कर रही हैं। चलिए आगे बढ़िए। दूसरी दुकान देखिये।
बंदे को गुस्सा आया। नालायक। लेडीज़ से ऐसे बात की जाती है? लेकिन मेमसाब ने हाथ पकड़ लिया। जाने दीजिये। अभी ये खुद ही खुशामद करेगा।
सचमुच दो कदम आगे आगे बढ़े ही थे कि पीछे से मुन्ना की आवाज़ आई। अरे बहिन जी, आप तो नाराज़ हो गयीं। चलिए अस्सी दीजिये। मेमसाब वापस पलटीं। नहीं ये दाम भी ज्यादा है। मुन्ना को मालूम है लेडीज़ से कैसे डील किया जाये। अरे आप कोई नई तो हैं नहीं। हरदम आती हैं। कभी प्रॉफिट लिया आपसे? भाई समझ कर दो पैसे पेट भरने के लिए ज़रूर लूंगा।
अब बात रिश्तेदारी पर आ गयी। मेमसाब को इस पर ऐतराज़ नहीं। नहीं भैया चालीस से ज्यादा तो एक धेला भी नहीं।
मुन्ना ने हथियार डाल दिए।  अच्छा चलिए हटाइये। न मेरी और न आपकी। पचास दीजिये। घर का मामला है। उसने सैंडिल पैक कर दी। मेमसाब न पसीजी।  चालीस  पकड़ाए और चल दीं। मुन्ना कुछ न बोला। उसे मालूम है कि चालीस से ज्यादा एक छदाम नहीं मिलेगा। लेकिन बहस की औपचारिकता तो निभानी थी। वरना माल न बिकता। वो गर्दन झटक कर दूसरे ग्राहक से निपटने लगा।
मेमसाब खुश। मगर घंटा भर तो ख़राब हो गया। पंद्रह दिन गुज़रे। सैंडिल नमस्कार कर गए। मेमसाब को गुस्सा आया। फिर चलो बाज़ार।
यह कोई नई बात नहीं है। झल्लाया बंदा एक जगह खड़ा हो गया। एक घंटे बाद यहीं मिलेंगे। मगर मेमसाब दो घंटे लौटेगी। उसे विश्वास है पति छोड़ कर भागेगा नहीं।

बंदे के एक तजुर्बेकार दुकानदार मित्र ने राज़ की बात बताई। दुकानदार ग्राहक का चेहरा देख कर समझ जाते हैं कि ये कितना मार्जिन खायेगा। पहले से ही ज्यादा रेट बताते हैं। लेकिन कभी-कभी ग्राहक जिद्दिया जाता है। घाटा सह लेते हैं। ग्राहक को जाने नहीं देंगे। अगली बार सही।
बंदे का भी अपना तजुर्बा है। आईटम और पैसे की रेंज पहले से तय कर लेता है। ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट और आइटम पैक्ड। दुकानदार को पैसा पकड़ाया। उसका टाईम वेस्ट नहीं किया। दुकानदार पहचानता है। हरदम यहीं तो आते हैं। उसने दस परसेंट डिस्काउंट कर दिया।
नतीजा, बंदा बिना झिक-झिक किये जो आईटम डेढ़ सौ का लाता है, मेमसाब घंटा मगज़ मार कर दो सौ में लाती हैं। बंदा जूता भी फिक्स्ड रेट वाली शॉप से लेता हैं। नो बारगेनिंग। और मेमसाब को ऐसी शॉप इसीलिए पसंद नहीं हैं।
ये तेरी-मेरी कहानी है।
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प्रभात ख़बर में दिनांक २३ नवंबर २०१५ को प्रकाशित।
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