- वीर विनोद छाबड़ा
बात १९६५ की है। हम
हाई स्कूल में थे। गर्मी की छुट्टियों थीं। स्कूल-कॉलेज लंबी अवधि के लिए बंद थे। हम
छुट्टियां मनाने लाला जी (दादाजी) के पास दिल्ली चले गए। उन दिनों बाड़ा हिंदू राव में
रहा करते थे वो।
मौज-मस्ती कर रहे थे।
एक शाम कुछ ज्यादा ही मस्ती सूझी। गहरे नीले रंग की पतलून पहनी। भूरे रंग की कॉलर वाली
टी-शर्ट। कोई बढ़िया कंबीनेशन नहीं। काले जूते। फर्स्ट क्लास पॉलिश। चलने पर चूं-चूं
करता लेदर सोल। आईने के सामने खड़े होकर कई बार कई एंगल से निहारा खुद को। थोड़ा पॉवडर-शाउडर
लगाया। सर पर ब्रिल क्रीम। चेहरे पर नीविया क्रीम पोती। कॉलर खड़े किये। आत्ममुग्ध हो
गए खुद पर। फिर लगा कुछ कमी है। बाहें चढ़ा ली। डोले दिखने लगे अच्छे खासे। बस एक ही
कमी रह गयी। होंटों में सिगरेट नहीं दबी थी। पीते नहीं थे उन दिनों।
चार बजे का वक़्त रहा
होगा। हम चुपचाप घर से निकल पड़े। बारह टूटी सदर-कुतब रोड होते हुए हम पैदल ही चांदनी
चौक घूमने निकल गए। खूब घूमे। चाट-शाट भी खाई।
मई का महीना था। अँधेरा
देर से होता था। घड़ी थी नहीं। किसी से टाईम पूछा। साढ़े आठ।
बाप रे! शामत आई अब
तो। सब तलाश रहे होंगे। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाये। घर पहुंचते पहुंचते नौ बज गए। सबको
दरवाज़े पर तकते हुए पाया।
हम डरे-डरे और शर्मिंदा
होते हुए हाज़िर हुए। हमसे कोई सफ़ाई नहीं मांगी गयी। लेकिन हम देना चाहते थे।
मगर छोटे चाचा ने कोई
मौका नहीं दिया। रसीद दिया एक ज़न्नाटेदार तमाचा।
तमाचे के इफ़ेक्ट से
हम गिरते-गिरते बचे। हम रो भी नहीं सके। ग़लती तो हमारी थी। बस तकिये में मुंह छुपा
कर लेट गए। खाने के लिए दादी ने पूछा और चाची-बुआ ने भी। लाला जी भी समझाने आये। हमने
मना कर दिया।
दूसरे दिन सुबह-सुबह
चाचा ने जगाया। हमें गले लगा कर प्यार किया। हम फूट-फूट कर रो दिए - ग़लती हो गयी। आइंदा
से बता कर जाऊंगा।
उन्होंने कहा - ठीक
है। लेकिन यह तमाचा मैंने तुम्हें इसलिए नहीं लगाया कि तुम बिना बताये गायब हो गए या
देर से लौटे। मुझे गुस्सा आया तुम्हारी ड्रेस पर, शर्ट का कॉलर खड़ा करने
पर और बाहें चढ़ा कर डोले दिखाने पर। बिलकुल एक नंबर के लोफ़र दिख रहे थे। कहीं से भी
शरीफ़ नहीं।
पचास साल हो गए हैं।
कभी-कभी गाल पर हाथ चला जाता है। याद आ जाता है चाचा का तमाचा। अभी कल ही बात हुई थी
उनसे।
लेकिन रास्ता दिखाने
वाले ऐसे चाचा मिलते नहीं हैं।
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