-वीर विनोद छाबड़ा
किसी भी लखनऊ वाले से पूछ लीजिये। सबसे ज्यादा परेशान आटो वालों से होता मिलेगा। बस का तो कोई निश्चित टाईम है
नहीं। भरोसा नहीं कि आयेगी भी। लिहाज़ा आम आदमी उसके होने या न होने को कोई त्वज़ो नहीं देता। रिक्शा हालांकि सर्वसुलभ है। परंतु महंगी और स्लो होने के कारण लोग नज़दीकी दूरी के लिये भी आटो के इस्तेमाल को ही प्राथमिकता देते हैं। लंबी दूरी के लिये तो आटो ही
एकमात्र सहारा है। सुबह-शाम
आफिस टाईम पर इन आटो वालों की पौ-बारह
होती है। कई स्कूलों का भी लगभग यही टाईम है। हर आदमी को गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी रहती है। यों आटो की तादाद अच्छी-खासी
है। मगर ये आटो वाले डिमांड बढ़ाने के लिये जरूरत से कम आटो सड़क पर उतारते हैं। ऐसे में डिमांड&सप्लाई का बैलेंस बिगड़ता है। आप आटो के पीछे भागते हो। ये नज़ारा देख आटो वाला खुद को मुख्तार समझता है। आपको मुंशी पुलिया से आठ किलो मीटर दूर जवाहर भवन जाना है, मगर आटो वाला 12 किलोमीटर दूर चारबाग की सवारी बैठाता है। आपकी गरज़ हो तो चारबाग का किराया देकर बीच रास्ते जवाहर भवन उतर जाओ। यही हाल पूरे लखनऊ का है। मुए किराया भी अनाप-शनाप
लेते हैं। तय भाड़ा आठ रुपये हैं, मगर आटो चालक दस से कम पर राजी नहीं होता। सवारी झिक-झिक
करती है तो दूसरे यात्री चिल्लाते हैं- अरे जाने भी दो न... दो ही रुपये की तो बात है...
जल्दी करिये... हमें भी आफ़िस की देर हो रही है... आपके चक्कर में मेरा क्रास लग जायेगा... आधी सीएल चली जायेगी...।
बंदे को हैरानी होती है कि ऐसे मारा-मारी
के माहौल में भी कुछ आटो वाले स्टैंड से तनिक हट कर आराम फ़रमाते होते हैं। कोई-कोई
खाली आटो तो सामने से मुंह चिढ़ाते हुए सरपट निकल जाता है।
आराम करते हुओं से आप अति विनम्रता से निवेदन करते हो-
‘भैया फलां जगह चलोगे?’ ज्यादातर तो आपको त्वज़ो ही नहीं देंगे। अगर किसी ने मुड़ कर जवाब दे भी दिया तो तय बात है कि उसमें जग प्रसिद्ध लखनऊ की गंगा-जमुनी
तहज़ीब के कुछ अंश बाकी हैं या फिर आपने सुबह&सुबह किसी भलेमानुस के दीदार किए हैं।
इनकी हरकतों से दुखी बंदे ने सिक्सटी प्लस होने के बावजूद रिसर्च करने की ठानी। क्या इन निठल्ले चालकों के आटो में खराबी है?
इनका हाज़मा खराब है या पेचिश की शिकायत हैं? बीवी की डांट खायी है? या उससे कोई झंझट हुआ है? इनके पेट पहले से इतने भरे हैं कि इन्हें अब और पैसे की ज़रूरत नहीं है? इसी तरह के कई सवाल ज़हन में पैदा होते हैं।
तभी बंदा देखता है कि एक खाली आटो चालक बड़ी बेसब्री से बार-बार
एक खास दिशा की तरफ देख रहा है। बीच-बीच
में घड़ी भी देखता रहता है। उसे शायद ‘किसी’ का इंतजार है। अचानक आटो चालक के चेहरे पर संतोष की लहर तैरती है, आंखों में खुशी चमकती है। वह अपनी सीट पर मुस्तैदी से बैठ जाता है। फिर जाने कहां से एक सजी-धजी
जवान लड़की आटो में धम्म से आ बैठती है। चालक पीछे मुड़ कर
नहीं देखा। पूछा भी नहीं कि कहां चलना है। उसे दूर से आता देख आटो चालक ने पहले से ही आटो स्टार्ट कर लिया था। उसने तुरंत पिक-अप
लिया और देखते ही देखते वाहनों की भीड़ में गुम हो गया। बंदा सोचता है कि हो सकता है महीने भर का कांट्रेक्ट हो। लेकिन ऐसा होता तो घर से पिक करता। फिर अचानक उसकी आंखों से सामने चालक का इंतजार में बेसब्र चेहरा घूमा। ओह तो ये कुछ इश्क-विश्क
का मामला है! अब ये एक तरफा है या दो तरफा। हमारी बलां से। माफ़ किया आटो चालक को।
एक दूसरे निठल्ले आटो चालक ने बंदे की अरज़ी बेदर्दी से ठुकरा दी। क्योंकि बंदा आम आदमी है। जबकि आटो चालक को ‘खास’ की तलाश में है। बंदा खास तभी हो सकता है, जब उसके साथ उसकी
प्रेमिका हो। या नवेली दुल्हन। या खूबसूरत पत्नी। अफ़सोस, अब सिक्सटी प्लस बंदे के साथ तो ये मुमकिन नहीं हो सकता न! मगर जिनके साथ ऐसा मुमकिन है, आटो चालक उनकी कमजोरी फौरन ताड़ने में एक्सपर्ट होते हैं। वो जानता है कि साथी कतई नहीं चाहेगा कि उसकी साथिन किसी दूसरे के साथ जरा सा भी टच हो। ऐसी सूरत में फुल्ल आटो ही सूट करता है। ऐसे लोग घात लगा कर बैठे आटो चालक के पलक झपकते ही आसान शिकार बनते हैं।
एक और किस्म है शिकार की। आप एक अदद बीवी और तीन बच्चों को साथ लेकर निकले हैं। ढेर सा सामान भी साथ में है। ऐसी सूरत में तो फुल्ल आटो ही चलेगा न। घाट-घाट
का पानी पिया घाघ चालक आपकी मंशा को भांपने में माहिर है। वो गंतव्य तक पहुंचाने के दो सौ रुपये की डिमांड करता है जो
बहुत ज्यादा है। आप आटो वाले से तनिक झिक-झिक
करते हैं। फिर पत्नी की ओर देखते हैं। पत्नी आंखों ही आंखों में कहती है-
‘बड़ी ढींगे हांका करते थे कि मैं बड़ा पैसे वाला हूं। स्वाभीमानी हूं। घिस्सू किस्म का आदमी नहीं हूं। अब क्या हुआ?’ आटो वाले से आप जीत नहीं सकते। हारना आपको मंजूर नहीं है। उधर ट्रेन छूटने का भी डर है। ऐसी असमंजस्य की स्थिति में आपके सामने सरेंडर करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। परंतु आप भी किसी घाघ से कम नहीं। फौरन ही सरेंडर करने के स्थान पर एक गर्वीली मुद्रा धारण करते है- ‘चलो यार, अब सफ़र पर निकले हैं तो सौ-दो
सौ कम-ज्यादा का क्या मुंह देखना।’ आटो वाला आपकी ऐसी नकली गर्वीली स्थिति को पहचान कर मंद-मंद
मुस्कुराता है और फिर तरस खाकर थोड़ी सी मरहम-पट्टी
करता है, सामान रखने में आपकी मदद करके।
सुबह आप जिन आटो वालों के पीछे-पीछे
भागते थे, उनमें से ज्यादातर दोपहर होते-होते
खाली हो जाते हैं। तब ये आपके पीछे भागना शुरू कर देते हैं। सवारी को दूर गली से आता देख कर आटो रोक देंगे। वो चाल से भांप जाते हैं कि आप बस की सवारी नहीं हैं। मगर आप भूल कर भी यह न समझियेगा कि आप शिकार नहीं हैं। वो आपके हाथ में सामान और चेहरे की व्यग्रता से भांप लेते हैं कि आपकी गाड़ी या बस छूटने में ज्यादा वक़्त नहीं बचा है। यही तो वक़्त है जब ये भोला सा, याचक
सा दिखता आटो चालक आपको आफ़र देता है कि ऐसे रास्ते से नान-स्टाप
ले चलूंगा कि जिस पर भीड़ नहीं होगी, जाम नहीं मिलेगा। पैसा वो फिक्स फेयर से ड्योड़ा मांगता है। आप के समक्ष झुकने के सिवा अन्य विकल्प भी तो नहीं है।
अपवाद छोड़ दें तो आप हमेशा खुद को आटो वालों का शिकार होते हुए पाएंगे। इनकी लाख शिकायत करें। इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ज्यादा भाड़ा लिये जाने की शिकायत पर संबंधित अधिकारी कुछेक को दबोचते ज़रूर दिखते हैं, मगर दूसरे ही दिन बंदा फिर इन्हें सड़क पर फर्राटा भरते हुए पाता है। अंततः होता यही है कि आटो वालों द्वारा तय फेयर लिस्ट ही प्रशासन फाईनल मानने को मजबूर हो जाता है। पुलिस के डंडे से ये नहीं बल्कि डंडा इनसे डरता है। जहां नहीं डरता, वहां ये लोग स्ट्राईक की धमकी देंगे। स्ट्राईक का मतलब तो सभी को मालूम है कि शहर की ज़िंदगी को पंगू बना देना। कोई
टाईम पर दफ़तर नहीं पहुंच पाता। शाम को घर लौटने के लिये आपको किसी ऐसे स्कूटर-बाईक
या कार वाले की चिरौरी करनी पड़ेगी जिन्हें आप कतई पसंद नहीं करते हैं। महिलायें शाम देर से घर लौटती हैं। बच्चे परेशान मिलते हैं। रात खाना देर से बनता है। पति झल्लाता है। खामख्वाह की चिक-चिक
होती है। पब्लिक का गुस्सा भी आटो वालों पर कम और प्रशासन पर ज्यादा निकलता है कि ऐसी नौबत आने ही क्यों दी।
मगर सब आटो वाले ऐसे नहीं होते। पांच-दस
प्रतिशत ही सही। भक्ति भाव से सेवा करने से प्राप्त धन को मेवा समझ कर ग्रहण करते हैं। अभी उस दिन की बात है। बंदे के पड़ोसी को हरदोई से फोन आया कि मां सख्त बीमार है। कैसरबाग बस अड्डे पहुंचना था। एक निठल्ला बैठा आटो वाला तैयार नहीं होता। चिरौरी की।
मुंह मांगी
रकम की पेशकश की। नहीं माना। परंतु जब विपदा बताई तो फौरन तैयार हो
गया। बोला-‘पहले
बताना था न।’ पड़ोसी ने हरदोई पहुंच कर फोन किया- ‘मां अब ठीक है। ठीक टाईम पर वह पहुंच गया था। मां को अस्पताल में दाखिल करा दिया था। यह तो भला हो उस आटो वाले का जिसने वक्त पर बस अड्डे पहुंचा दिया था। बस तो बस छूटने ही वाली थी। और हां, मैंने उस आटो वाले का नाम और मोबाईल नंबर नोट कर लिया है। उसने पैसे भी नहीं लिये थे। बोला था कि जैसे आपकी मां, वैसे ही मेरी भी। लौट कर उसे चाय पर ज़रूर बुलाना है।’
अखबार में कभी-कभी
ही आटो वालों की ईमानदारी की खबर छपती है। इन्हें प्रमुखता से छापना चाहिए और सम्मानित भी किया जाना चाहिए ताकि दूसरों को भी इससे इबरत हासिल हो। काश, ऐसा हो पाये!
शिक्षा- इस लेख का अभिप्राय यह बताना है कि आप भूल कर भी आटो वाले का शिकार करने की कोशिश न करें, क्योंकि आप खुद शिकार हैं, और शिकार होना आपकी नियति है।
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- वीर
विनोद छाबड़ा
डी 2290,
इंदिरा नगर,
लखनऊ -
226016
मोबाईल नंबर 7505663626
दिनांक 13 .04
.2014
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