-वीर विनोद छाबड़ा
अभी कल ही की
तो बात है। मैं गजेटेड पोस्ट पर नया-नया प्रमोट हुआ था। वो कहते हैं न कि खुदा जब हुस्न
देता है नज़ाकत आ ही जाती है। मुझे भी गजेटेड पद की महिमा और गरिमा बनाये रखने के कई
स्थापित मानक खुद ब खुद ज्ञात हो गये। मसलन, ढाबे पर खड़े होकर चाय नहीं पीनी, कोई नमस्ते
करे तो उसका जवाब सिर हिला कर देना। यदि नमस्ते करने वाली महिला हो तो हौले से मुस्कुरा
देना। चैयरमैन के रूम में घुसने से पहले शर्ट के बटन ऊपर गले तक बंद कर लेना और आस्तीन
नीचे हाथों तक गिरा लेना। वगैरह, वगैरह। मगर घर में मेरी बिसात में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
पत्नी ने फ़रमान जारी
किया- ‘‘अफ़सर होगे आफ़िस में। घर में सिर्फ पति और बच्चों के पिता
हो और जो अब तक करते आये हो वही पहले की तरह करने रहो।’’ निर्वहन हेतु इन्हीं प्रदत्त
कार्यों में था- चूहेदानी में फंसे चूहे की कहीं दूर रिहाई। यह भी सख्त ताकीद दी गयी
कि ध्यान रहे- ‘‘चूहा मारना पाप है। गणेशजी की सवारी है।’’
मैं सुबह सबसे
मूषक महाराज को मेन रोड के परली तरफ बडे़ नाले में विदा करता था। चूहेदानी का मुंह
खुलते ही चूहा छलांग लगा कर बाहर कूदता और फिर पलट कर बंदे की तरफ यों देखता मानों
चिढ़ा रहा हो - ‘‘बच्चू तैयार रहना लौट कर आ रहा हूं।’’ मुझे लगता था कि सारी मूषक बिरादरी
को मुझसे एलर्जी थी। एक दिन मुझे संदेह हुआ कि चूहा इतनी दूर से भीड़-भाड़ भरी सड़क क्रास
करके कैसे मेरे घर लौट आता है। एक दिन कैदी चूहे पर मैंने लाल स्याही छिड़क दी। ताकि
पता चल सके कि वो वाकई लौटता है या नहीं। लेकिन लाल स्याही वाला चूहा मुझे नहीं दिखा।
तब मुझे इत्मीनान हुआ कि चूहा मुझे चिढ़ा नहीं रहा बल्कि आज़ाद करने का शुक्रिया अदा
कर रहा है।
चूहेदानी में
लगभग रोज़ाना एक आध-चूहा फंसता था। कभी छोटा तो कभी बड़ा। मुझे गुस्सा तब आता था जब रास्ते
चलते मोहल्ले के स्वयंभू ज्ञानी-ध्यानी रोक कर चूहे की साईज़ की बावत पूछते लगते। कोई
बड़े चूहे को राजसी या खलिहानी बताता और कमजोर को गरीब। कभी-कभी लांछन सुनने को मिलता
- ‘‘लगता है आप के घर में कुछ खास खाने को मिलता नहीं। वरना इतना कमजोर नहीं होता।’’
एक साहब बेसुरी आवाज़ में गाने लगे- ‘‘कैद में है बुलबुल सैय्याद मुस्कुराये....।’’
हद तो तब हो गयी जब एक साहब ने चुहलबाजी की - ‘‘अच्छा, तो चूहा फंसा है। लगता है छोड़ने
जा रहे हैं?’’ मुझे बहुत गुस्सा आता था कि चूहेदानी में चूहा या छछूंदर ही फंसता है
कोई हाथी नहीं। मुझे हैरानी होती कि मैंने अपने अलावा किसी अन्य को चूहेदानी के साथ
कभी नहीं देखा। क्या उनको चूहे का सुख नसीब नहीं है? बहुत गये गुज़रे हैं ये लोग। एक
बार मैंने पता चलाया। मुझे यह शक़ भी था कि मेरे घर में चूहेदानी होने का फायदा उठाते
हुये पड़ोसी अपने घर के चूहों को मेरे घर डायवर्ट करता है ताकि उसके सिर पर गणेश जी
की सवारी को पकड़ने का पाप न चढ़े। बीकानेर में देवी जी का एक ऐसा मंदिर भी है जहां हज़ारों-हज़ार
चूहे हैं जो वहां बेखटके घूमते हैं।