Saturday, January 31, 2015

काजू वाली बरफ़ी!

काजू वाली बरफ़ी!
-वीर विनोद छाबड़ा
बचपन से सुनता आ रहा हूं ये शब्द - काजू।

लोग कहते थे काजू खाने वाले का दिमाग तेज होता है। पड़ोस में रहने वाले टिल्लू को उसकी मां रोज़ सुबह शाम दस-दस काजू खाने को देती थी। मगर वो फिर भी निठल्ला का निठल्ला ही रहा। चलिए ये वहम तो दूर हो गया कि काजू खाने से कोई फर्स्ट नहीं आता। लेकिन महंगा होने के कारण काजू स्टेटस सिंबल बना रहा। हम मूंगफली को गरीबों का काजू समझ दिल को समझाते रहे कि इसमें काजू से ज्यादा ताकत है। मैं ऐसी एक फैमिली को जानता हूं जिन्होंने काजू स्टेटस सिंबल होने के कारण बेटे का नाम काजू रखा।

बचपन में कभी-कभी मैंने भी काजू देखा और एक-आध दाना चुगा भी। दूसरा उठाने लगा तो पिता जी ने आंखें तरेर दीं। तमीज़ के दायरे में रहो। वहीं छोड़ दिया। काजू वीआईपी आइटम है। अगर आव-भगत में आइटम में काजू है तो समझ लीजिये आप वीआईपी हैं। सुना है मंत्री और बड़े कॉरपोरेट लेवल पर काजू ज़रूर परोसा जाता है। महफ़िलों में भी इसकी धूम है।

हमारे जीजा जी जब भी आते तो उनके समक्ष काजू परोसा जाता था। उनके जाते ही मां काजू छुपा देती। गाजर के हलवे में डालने के लिए। उस वक़्त दिल में ख्याल आता था कि कभी हम भी दामाद बनेंगे। हमारा भी स्वागत काजू से होगा। और वो दिन भी आया। हम शादी के बाद पहली बार ससुराल गए। व्रजपात हुआ। दालमोठ और किसी लोकल ब्रांड बिस्कुट से हमारा स्वागत हुआ। मैं समझ गया ये तो हमसे भी गए बीते हैं।

एक दिन शाम थका-हारा दफ्तर से लौटा। पत्नी और बच्चों को बहुत खुश देखा। पत्नी ने बताया - ये कोई गिफ्ट दे गया है। बता रहा था, मिठाई है। साहब ने भिजवाई है। वो बाहर गए हैं। फ़ोन पर बात कर लेंगे।

मैंने देखा एक बड़ा से पैकेट है। लेकिन कौन था वो? देखने में कैसा? क्या रंगरूप था? पत्नी कुछ नहीं बता पायी। कहने लगी - अँधेरा सा था और स्कूटर पर था। ज़बरदस्ती टिका कर चला गया।

बड़ा गुस्सा आया। मेरा व्रत टूट गया। न जाने कितनों के काम किये। लेकिन उस एवज़ में चाय की प्याली भी नहीं पी। किसी को घर का पता भी नहीं दिया। विगत महीने भर में जितनों के भी काम किये सबको छान मारा। लेकिन कोई हां बोलने वाला नहीं मिला। दो दिन तक परेशान रहा। क्या करूं इस मिठाई का? फ़ेंक दूं या दान कर दूं। अचानक पत्नी ने एक सुझाव दिया - क्यों न मेहमानों को खिला दी जाए?

मन ही मन पत्नी को धन्यवाद दिया। पहली बार समझदारी की बात की। लेकिन दो दिन गुज़र गए। कोई आया ही नहीं। पत्नी बोली - मैंने आजू-बाजू सबको बोला तो था। बेला की मम्मी, पिंकी और टिंकू की मां। और वो जोशियाइन को भी। मगर किसी के मेहमान आये हैं और किसी को बच्चों को स्कूल लेने जाना।

मैंने कहा - ऐसा करो गाय को खिला दो। दर्जनों इधर उधर घूमती-फिरती हैं। पुण्य का काम हो जाएगा।

Wednesday, January 28, 2015

मां - पल पल दिल के पास।

-वीर विनोद छाबड़ा  
२८ जनवरी २००१। चौदह साल पहले। आज ही का दिन था वो।

मां बिस्तर पर लेटी है। कराह रही है, उसके बदन में भयंकर पीड़ा है। ऐसी स्थिति पिछले एक महीने से है। डॉक्टर की बताई दवा देते है तो थोड़ी देर के लिए दर्द कम हो जाता है।
डॉक्टर ने कह दिया है- सेवा करो, जितनी कर सकते हो। ईश्वर के कमाल के बारे में कुछ कह नहीं सकता।

सेवा तो कर ही रहा हूं। पिछले करीब पांच बरस से। पैरालिसिस अटैक था वो। आधे जिस्म पर। चेहरे पर नहीं। फीज़िओ ने खड़ा कर दिया। थोड़ा चलने-फिरने लायक बना दिया। उनका अपना १०० किलो से ज्यादा वज़न मूवमेंट में आड़े आता था। मां अजीबो-गरीब बातें भी करती कभी-कभी। बिलकुल बच्चों की तरह।


इस बीच पिताजी का देहांत हुआ। बामुश्किल संभाला मां को।

तीन साल बाद मां को दूसरा अटैक आया। इस बार चेहरे का कुछ हिस्सा अटैक की जद में आया। फिजियो ने फिर मेहनत की।

मां फिर उठ बैठी। परंतु पॉटी कुर्सी तक। मगर एक आंख खुली रह गई। बंद नहीं होती थी। हर वक़्त सुर्ख रहती थी। डॉक्टर ने पेपर टेप चिपकाने की सलाह और कुछ ड्रॉप्स लिख दिए।

मां सुबह-सुबह आवाज़ देती है। पत्नी और मैं सारे काम छोड़ कर लपकते हैं। पॉटी साफ़ करते हैं फिर धोई। सलाह देने वालों की कमी नहीं -'कोई नौकरानी या आया रख लो।' हम कहते - क्या सोचते हो? कोशिश नहीं की। पॉटी साफ करने के लिए कोई तैयार नहीं।' नहीं मिली तो क्या हुआ? हम तो हैं। हमें कोई उलझन नहीं है। मां ही तो है। बचपन में उसने हज़ारों दफ़े गूं-मूतर साफ़ किया है। अब मेरी बारी है। मैं अकेला नहीं। पत्नी भी साथ खड़ी है। हमारे लिए मां बच्चो के समान है। जैसे मां ने हम तीनों भाई-बहन को पाला है। अब हम उसे वही ट्रीटमेंट दे रहें हैं। नहलाते-धुलाते हैं। पाउडर-क्रीम और लिपस्टिक भी लगाते हैं। लंगोट भी सिलवाये हैं।

पिछला एक महीना बहुत भारी चल रहा है। हम पति-पत्नी बारी-बारी से रात भर ड्यूटी देते हैं। मां के वज़न पर कभी हम मज़ाक करते थे -मां तुझे लिफ्ट करने के लिए क्रेन करनी पड़ेगी। मां हंस देती थी -'भगवान ने चाहा तो ऐसा नहीं होगा।' अब मां बहुत कमजोर और हलकी हो गई है। हड्डियों का ढांचा भर रह गई है। मैं उसे गोद में भी उठा लेता हूं। पत्नी नीचे की पेशाब से भरी चादर हटा कर बदल देती है। ये कवायद दिन में कई बार करनी पड़ती है। दोपहर में पत्नी का साथ ऊपर रहने वाली छोटी बहन देती है। वो एक स्कूल में पढ़ाती है। उसे सुबह जल्दी जाना होता है।

मां की हालात बिगड़ती ही जा रही है। पिछले दस दिन से मां अपनी दिवंगत बहनों और ननदों का नाम लेकर कराहती है। कभी-कभी तो डरा भी देती है -'सरला कहां चली गयी। अभी तो बैठी थी।' कभी निर्मला तो कभी मोतिया तो कभी दर्शन का नाम लेकर कहती है -'खड़ी क्यों हो बैठ जाओ।' फिर मुझे कहती है - 'तुम्हारे पिताजी आये हैं। उनको बैठने दो।' मैं उठ कर दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता हूं। 

जनवरी का दूसरा पखवारा है। तेज़ सर्द हवाएं चल रही है। कभी-कभी लूज़ सिटकिनी वाली खिड़की अचानक फटाक से खुल जाती हैं। मैं डर जाता हूं। मेरी बगल से हवा का तेज झोंका सरसराता हुआ गुज़रता है। लगता है कोई गुज़रा है मेरी बगल से। मैं सर से पांव तक सिहर उठता हूं। पसीना-पसीना हो जाता हूं। लेकिन तुरंत गायत्री मंत्र जाप करके मन को मज़बूत बनाता हूं। ये मन का वहम है। सुना था ऐसी चलाचली की स्थिति में प्रियजन की आत्मायें विजिट करती हैं। ये पवित्र हैं। मरणासन्न को हौसला देती हैं। चुपचाप आती हैं और चली जाती हैं।

दो दिन हुए दिल्ली से चाचाजी के दामाद यानी मेरे बहनोई आये थे। वो दिल्ली में नामी आई सर्जन हैं। मां को देखा और भलभला कर रो पड़े। मां का कराहना नहीं देखा गया उनसे। मेरा हौसला बढ़ाने आये थे। उलटे मुझे उनको संभालना पड़ा।
मेरे कई रिश्तेदार, हमदर्द पडोसी और मित्र सलाह देते हैं- भगवान से मां की मुक्ति की प्रार्थना करो।

मैं रो देता हूं। कभी गुस्सा भी होता हूं - जिसने मुझे कोख़ में रख नौ महीने कष्ट सहा, अपना दूध पिलाया। मेरे दुःख सुख में जाने कितनी रात जागी। कैसे कहूं भगवन उठा ले। अरे मैं तो दरख़्वास्त करता हूं -मुझे और शक्ति दे। मां की खूब सेवा करूं। शायद कोई चमत्कार हो जाए। लेकिन चमत्कार नहीं होता।

आज सुबह बीकानेर बड़ी बहन को फ़ोन किया - अब आ जाओ। माता जी को आखिरी बार मिल ले।

राजस्थान में चुनाव का दौर है। एक टेलीग्राम भेज दो। इसी आधार पर छुट्टी मिल सकती है। मैं दोपहर जीपीओ में टेलीग्राम देकर घंटे भर में वापस लौटा। घर के बाहर भीड़ देखी।

गयी मां। यही मुंह से निकला। मेरे लौटने का इंतज़ार नहीं किया। मेरे नसीब में नहीं था।

ढाई का टाइम है। दिल्ली भोपाल और बीकानेर फ़ोन कर दिया है। सुबह तक सब पहुंचेंगे।

इसी बहाने मुझे मां के साथ एक रात और काटने का मौका मिलेगा। मेरा फुफेरा भाई योगी, दोस्त सूरज और के.के.चतुर्वेदी मेरे बैठे हैं। पडोसी विजय भी बीच बीच में चक्कर लगा रहा है। उस रात पलक नहीं झपक सका। हम बातें करते रहते हैं। कभी-कभी हम लंबी चुप्पी साध लेते हैं।
इस बीच मैं मां को अपलक देखता हूं। सर से पांव तक ढकी है। आज कोई हलचल नहीं है। चुपचाप ज़मीन पर निस्तेज लेटी है। नीचे मोटा गद्दा दे दिया है और ऊपर रज़ाई। ताकि ठंड ने लगे। हंसी भी आती है। अब इनके लिए ठंड के क्या मायने। आज सर्द हवा तेज नहीं है। अगर बत्ती और धूप के धुंए से कमरा में धुंधलापन छा गया है।


मां के साथ बीता जीवन मन-मस्तिष्क में चलचित्र की तरह चल रहा है। मां सोलह साल की थी जब ब्याह हुआ था। चाचाजी बताते थे - गुड़िया की तरह छमछम करती लंबा घूंघट काढ़े आई थी तुम्हारी माताजी। तबसे जाने कितने तूफ़ान और मौसम देखे । आज़ादी का सुख नही बल्कि पार्टीशन की खूंरेज़ी त्रासदी देखी। किसी तरह छह महीने की बेटी को छुपा कर लाहोर से जलंधर पहुंची थी। मैं मां को माताजी कहता था और मेरे बच्चे अम्मा। वो मेरे पिताजी की शकुंतला थीं। प्यार से वो कुंतल कहते थे। उस दौर के जाने कितने हिंदी-उर्दू के साहित्यकारों ने उसके हाथ के मस्त आलू/गोभी पराठे खाए। फ़िराक़ गोरखपुरी साब कई दफे मेरे घर ठहरे। मां के हाथ बना खाना बहुत अच्छा लगता था उन्हें। जब लखनऊ से गुज़ारना होता था तो हफ्ता भर पहले चिट्टी आ जाती कि पंजाब मेल से गुज़रूँगा। शकुंतला के हाथ का बना खाना स्टेशन पर भिजवा देना। हमारे परिवार की सबसे दबंग महिला थीं। कल उसी मां को मुखाग्नि देनी है।

अचानक बाहर खट की आवाज़ होती है। अख़बार आया है। सुबह होने को है। इसी के साथ यादों का सिलसिला टूट जाता है। 

पड़ोस से जोशी जी और भटनागर जी के घर से चाय आ जाती है। और इसी के साथ अंतिम यात्रा का प्रोग्राम बनना शुरू हो जाता है।

-वीर विनोद छाबड़ा २९-०१-२०१५ mob 7505663626

Monday, January 26, 2015

पहली बार पिताजी ने सिगरेट पीते देखा।

-वीर विनोद छाबड़ा
सन १९७१. जून का महीना खत्म होने को है। बी०ए०फाईनल के रिजल्ट का शिद्दत से इंतज़ार। लखनऊ यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार आफ़िस में नोटिस बोर्ड पर रोज़ाना देर शाम को किसी न किसी विभाग का रिजल्ट चिपका मिलता। उस दिन बी०ए०फाईनल का रिजल्ट चिपकाया गया। मगर दिलजलों ने फाड़ दिया। कागज़ के चंद टुकड़े ही मिले। इन्हें समेटा। लाख कोशिशें की जोड़ने की। मगर कुछ हासिल नहीं हुआ।

मन मसोस कर घर पहुंचा। मेहनत के दृष्टिगत पास होना यकीनी था। मगर डिवीज़न? श्योर नही थी। इसलिये एडवांस में जानने की उत्कंठा थी। रात भर नींद नहीं आएगी। करवट पे करवट बदलूंगा। दिल की धड़कनें तेज रहेंगी। छत पर और सड़क पर प्यासी आत्मा समान भटकता फिरूंगा। इससे बचने का एक ही विकल्प था। नेशनल हेराल्ड के अख़बार के दफ़तर चला जाए। वहां प्रेस में एक पहचान का था। साईकिल उठायी और हेराल्ड प्रेस पहुंचा। पहचान वाले से संपर्क साधा। मैटर कम्पोजिंग में था। जैसे-तैसे वो खबर लाया - बधाई हो, सेकेंड डिवीज़न।

हेराल्ड प्रेस कै़सरबाग़ में था। नवजीवन और क़ौमीआवाज़ भी वहीं से छपते थे।थोड़ी दूर पर क़ैसरबाग़ बस अड्डा। सूबे के तमाम ज़िलों से मुसाफ़िर वहां पहुंचते थे। उनका भी बहुत सा बोझ उठाता था क़ैसरबाग़ चौराहा। अलावा इसके शहर का सबसे बड़ा दवाखाना खालसा मेडिकल स्टोर भी वहीं पर था जो देर रात तक खुला रहता। जहां हर किस्म की दवा मिलती थी। आस-पास कई सिनेमाहाल भी थे। नाईट शो खत्म होने पर इसी चौराहे से होकर ज्यादातर लोग घरों को लौटते। लिहाज़ा रिक्शा-टांगे वालों का जमावड़ा भी हर वक़्त जमा दिखता। चाय, पान-सिगरेट की दुकानें आबाद रहती। लिहाज़ा क़ैसरबाग़ चौराहा रातभर आबाद रहता था।

उस दिन रात बारह बजे का वक़्त रहा होगा। जब मैं हेराल्ड प्रेस से बाहर निकला। सेकेंड डिवीज़न में पास होने की खुशी में चाय-सिगरेट तो बनती ही थी। सिगरेट पीने का असली मज़ा चाय के बाद मिलता था। आमतौर पर यों खुलेआम मैं सिगरेट नहीं पीटा था। लेकिन इतनी रात गये यहां कौन देखता होगा? यह सोच कर मैंने बेहिचक होंटों में सिगरेट दबा कर सुलगायी।

साईकिल क़ैसरबाग़ से चारबाग की तरफ़ बामुश्किल पचास मीटर ही चली होगी कि पीछे से मुझे किसी ने पुकारा।

Thursday, January 22, 2015

कटहल वाले मिश्राजी!

-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ के गोलागंज मोहल्ले के 'मिश्रा भवन' के प्रांगण में लगे कटहल के इस पेड़ से गहरी यादें जुडी हैं। 

पहली बार इसे १९७१ में मैंने तब देखा था जब मित्र रवि प्रकाश मिश्रा मुझे अपना घर दिखाने लाये थे।

ढेरों कटहल लटक रहे थे। मुझे डर लगा कि कोई टन्न से मेरी खोपड़ी पर न गिर पड़े। मिश्राजी के लाख समझाने पर भी मेरा डर गया नहीं। और आजतक बरक़रार है।

इस कटहल के पेड़ के कारण ही मिश्रा भवन 'कटहल वाली कोठी' भी कहलाता था।


चाय-शाय के बाद जब मैं वापस होने को हुआ तो साइकिल के कैरियर पर एक मोटा और बड़ा सा कटहल बंधा हुआ पाया। मैंने मिश्राजी की ओर 'ये क्या है' वाली दृष्टि से देखा।

वो प्यार से बोले - मोमेंटो है। पहली दफे आये हो न।

उसके बाद भी कई दफ़े मिश्राजी ने वापसी पर कटहल पकड़ाये।

मगर त्रासदी ये थी कि मैं क्या मेरे पुरखों ने भी कोई कटहल नहीं खाया था। मेरा विवाह भी नहीं हुआ था। अतः ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि जो बने खाना पड़ेगा। हमें कटहल पड़ोसियों में बांटने पड़ते थे।

अरसा गुज़रा। हम लोगों की नौकरियां लगीं। विवाह हुए।

मिश्राजी जी ने डिनर पर बुलाया। डर लगा कि वापसी पर ग्यारह-इक्कीस की जगह कटहल का मोमेंटो न पकड़ा दें। नवेली पत्नी क्या कहेगी? कटहल की सब्जी से भी डर रहा था। उन दिनों कई शादियों के डिनर में कटहल सर्व होते मैंने देखा था और खास पार्टियों में भी। शायद शुभ माना जाता रहा हो। 

उन दिनों मिश्राजी सपत्नीक किसी की घर भी जाते तो मिठाई-शिठाई की जगह चार-पांच कटहल के ले जाते। उनका नाम कटहल वाले मिश्राजी पड़ गया। आगे चल कर वो कटहल वाले अंकल कहलाये। 

मेरे घर तो बड़ा बोरा भर लाये। बोले - इस बार पेड़ ने बहुत ज्यादा दिए हैं। आसपास भी खूब बांटा है।

मारे शर्म के मिश्राजी को मैं ये न बता सका कि आपके घर से आये कटहल पसंद न होने के कारण पड़ोसियों में बांट देते हैं। उस दिन भी यही हुआ। हमने अपने पड़ोसियों को बांट दिए।

दूसरे दिन मैं एक पड़ोसी मित्र के घर गया। मित्र भोजन कर रहे थे। खाने-खिलाने के शौक़ीन।

Sunday, January 18, 2015

बारगेनिंग का शौक!

-वीर विनोद छाबड़ा 
लखनऊ का अमीनाबाद बाज़ार। इसकी टक्कर के अनेक बाज़ार शहर के कई हिस्सों में विकसित हो चुके हैं। तमाम शॉपिंग माल्स भी उग आये हैं। अब यहां दूर-दूर इलाकों से खरीदार नहीं आते। उन्होंने अपने इलाके के बाजार आबाद कर लिए हैं। लेकिन बावजूद इसके अमीनाबाद में आज भी उतनी ही भीड़ है जितनी कि कल थी और पच्चीस-तीस साल पहले भी। वज़ह है कि आज भी यहां बारगेनिंग यानी भाव-ताव का खेल खूब है। सड़क पर लगी गुमटियों और ठेलों पर लगा सौ का सामान २० की बोली से शुरू होता है और ४०-५० में फ़ाइनल होता है।
कई बरस पहले की बात।
मैं पत्नी के साथ शॉपिंग के लिए गया। हालांकि उनका ऊपरी तौर मकसद मुझे ये सिखाना था कि शॉपिंग और बारगेनिंग कैसे की जाती है? लेकिन दरअसल मक़सद स्कूटर पर मुफ्त ढुलाई और डोसा खाना होता था।

बहरहाल स्कूटर स्टैंड पर खड़ा कर मैं उनके साथ चला। चप्पल वाली गली में घुसे। यहां दोनों तरफ सैंडिल-चप्पल की गुमटियों की लंबी कतारें। फुटपाथ पर भी तमाम सजी थीं। पत्नीजी एक गुमटी पर रुकीं। दर्जन भर सैंडिल निकलवायीं। नहीं पसंद आई। अगली गुमटी। वही कहानी। तीसरी और चौथी भी। दसवीं गुमटी। मैं पस्त हो चुका था। थोड़ा थोड़ा हांफ भी रहा था। पत्नी के चेहरे पर थकान का चिन्ह दूर-दूर तक नहीं। मगर शुक्र है इस दसवीं गुमटी पर आधी दुकान पलटवा देने के बाद पत्नी को एक अदद सैंडिल पसंद आ गयी।
दुकानदार बोला - १०० रूपए। असली माल। पांच साल की गारंटी मुफ्त में।
मेमसाब बोलीं - २० से ज्यादा एक पैसा नहीं। 
दुकानदार बुरी तरह झल्ला गया - वाह मैडम जी वाह! एक तो आधा घंटा ख़राब किया और अब १०० के माल २० लगा कर माल की बेइज़्ज़ती कर रही हैं। चलिए आगे बढ़िए। दूसरी दुकान देखिये।
मुझे गुस्सा आया। कुछ सुनाने का मूड भी बनाया। किस कदर बदतमीज़ी से बोल रहा है ये नालायक। लेडीज़ से ऐसे बात की जाती है। लेकिन पत्नी ने हाथ दबा दिया  - जाने भी दो। देखना अभी ये खुद ही खुशामद करेगा।
और सचमुच। हम अभी दो कदम आगे बढ़ कर अगली दुकान पर पहुंचे ही थे कि पीछे से आवाज़ आई - अरे बहिन जी आप तो नाराज़ हो गयीं। चलिए ८० दीजिये।
पत्नी वापस पलटीं -  नहीं ये ज्यादा है।
दुकानदार - अरे आप कोई नई तो हैं नहीं। हरदम यहीं तो आना होता है। आपसे कभी प्रॉफिट नहीं लिया। भाई समझ कर दो पैसे पेट भरने के लिए ज़रूर मांग लिए।
बात अब रिश्ते पर आ गयी।
पत्नी बोलीं - नहीं भैया ४० से ज्यादा तो एक पैसा नहीं।
दुकानदार ने हथियार डाल दिए - अच्छा चलिए हटाइये। न मेरी और न आपकी। ५० ही दे दीजिये, इस भाई को। घर का मामला है।
दुकानदार ने फ़ौरन उसने सैंडिल पैक कर दी।
पत्नी ने ४० पकड़ाते हुए चल दी  - ले भैया।
दुकानदार कुछ न बोला। उसने गिने भी नहीं। वो गिनते हुए देख भी चुका था। उसे पक्का मालूम था ४० से ज्यादा एक छदाम नहीं मिलेगा। गर्दन झटक कर दूसरे ग्राहक से निपटने लगा।
पत्नी खुश। मगर घंटा भर जाया कर दिया।
सैंडिल ने पंद्रह दिन में नमस्कार कर लिया।

Thursday, January 15, 2015

जीपीएफ एडवांस!

-वीर विनोद छाबड़ा

अब तक की ज़िंदगी में मिश्र लोग बहुत मिले। सब एक से बढ़ कर एक, महान, इंटेलीजेंट, मनीषी, विदूषी। कुछ इनसे बिलकुल पलट। उनके सामने कई बार नतमस्तक होना पड़ा।

ऐसे ही एक मिश्र जी हुए हैं। अभी कुछ दिन पहले सरे राह चलते टकराये थे। उन्हें देख कर एक वाक्या याद आया।

उन दिनों मैं इस्टैब्लिशमेंट में था। अक्सर अधिकारी हो या कर्मचारी लोग झूठे बहाने गढ़ कर जीपीएफ एडवांस लिया करते थे।ये सिलसिला युगों युगों से चल रहा है। और ये हर दफ़्तर में होता है।

उस दिन मिश्रजी ने भवन मरम्मत की ज़रूरत हेतु एडवांस का फॉर्म जमा किया। मैंने फॉर्म चेक किया। दो महीने पहले ही उन्होंने इस मद में एडवांस लिया था। नियमानुसार इतनी जल्दी दिया जाना संभव नहीं था। मैंने उन्हें बुलाया। मज़बूरी बताई।

मिश्रजी भी ने भी मज़बूरी बताई। दो महीने पहले भवन की मरम्मत में पैसा ज्यादा खर्च कर बैठे थे। पत्नी की फरमाइश के कारण किचन में टाइल्स ही टाइल्स जो लगवाये थे। किसी से उधार लिए थे। अब वो तकादा कर रहा था। उसके पिताजी बहुत बीमार थे। जल्द चुकता करना ज़रूरी था।

मैंने उनको सुझाव दिया - एक मेडिकल सर्टिफिकेट लगा कर बीमार पत्नी के ईलाज के लिए एडवांस ले लो।

वो ऐसा पहले भी कई बार कर चुके थे। मेडिकल सर्टिफिकेट बनवाना तो उनके बाएं हाथ का काम था। साले साहब डॉक्टर जो थे। खुश होकर बोले - हां, ये ठीक रहेगा।

मैंने कहा- और इस फॉर्म में करेक्शन कर दो - भवन मरम्मत के स्थान पर पत्नी का ईलाज़। मेडिकल सर्टिफिकेट कल सेक्शन में जमा कर देना।

दूसरे दिन मिश्रजी की फाइल फेयर ड्राफ्ट सहित आर्डर एवं हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत हुई।

इस्टैब्लिशमेंट में वर्क प्रेशर के कारण कई काम अधीनस्थों पर विश्वास करते हुए करने पड़ते हैं। उस दिन भी यही हुआ। मैंने असिस्टेंट से पूछा - गुप्ताजी, सब देख लिया है।

गुप्ता जी बोले - यस सर। आपको सिर्फ सिग्नेचर करना है।

Monday, January 12, 2015

दाढ़ी वाला बकरा!

-वीर विनोद छाबड़ा
बरसों पहले की बात है। शायद १९८३ की। छह साल बाद दिल्ली आया था, एक ऑफिस के काम से। इस बीच १९८२ के एशियाड खेलों ने दिल्ली की हुलिया ही बदल डाली थी।

बहरहाल सुबह पहुंचते ही सबसे पहले मैंने दफ्तर का काम निपटाया। दोपहर ढल गयी। शाम होने वाली थी।

बड़े चाचाजी मॉडल टाउन में रहते थे। रास्ते में किंग्सवे कैंप पड़ा। यहां मेरे कज़िन राजू का प्रेस था। सोचा यहीं रुक लेता हूं। कुछ सरप्राइज भी हो जायेगा।

दिल्ली के साथ-साथ मेरी हुलिया भी काफी बदल चुका था। चेहरे पर घनी काली दाढ़ी थी। पगड़ी रख लूं तो शर्तिया सरदार वीर सिंह दिखूं। कभी-कभी तो आईने में खुद को देख कर कन्फ्यूज़ हो जाता था। पत्नी के मायके वाले तो डर ही जाते थे।

शर्तिया राजू भी चकरा जायेगा। लेकिन चाचाजी तो पहचान जायेंगे। उनकी गोद में खेला हूं।

छह बज रहा है। आठ बजे तक प्रेस बंद हो जाता है। राजू के साथ घर चला जाऊंगा। इस बीच कुछ गप्पें-शप्पें हो जाएंगी। ये सोच कर मैं बस से उतर लिया।

प्रेस पहुंचा। दिल्ली वालों की आदत है और खासियत भी। मिलते दिल खोल कर हैं, ज़बरदस्त जफ्फी के साथ।

और वही हुआ। राजू पहचान नहीं पाया। परिचय दिया तो वही दिल्ली स्टाइल गले लगाना और गर्मागर्म जफ़्फ़ी भी।

पांच मिनट गप्पें-शप्पें मारी ही थीं कि राजू को कहीं से फ़ोन आया। बोला  - भापाजी ज़रूरी काम आन पड़ा है। बस गया और आया। ये कहते-कहते उन्होंने स्कूटर उठाया और फुर्र।

दिल्ली वालों की 'ये गया-वो आया' घंटे भर से कम की तो होती नहीं।

राजू को गए अभी दस मिनट भी न गुज़रे होंगे कि एक स्मार्ट लड़की दाखिल हुई। सीधे अंदर प्रेस में चली गयी। थोड़ी देर में वापस आई और टेबुल पर रखे काग़ज़ उलटने-पलटने शुरू किये। फिर कुर्सी खींच कर बैठ गयी। कागज़ पर कुछ लिखा और फिर अंदर प्रेस में चली गयी। ऐसा उसने तीन-चार बार किया। फटाफट कुछ प्रूफ भी पढ़े।

Thursday, January 8, 2015

चवन्नी क्लास दर्शक!

-वीर विनोद छाबड़ा
फिल्म इतिहास के सफ़र का ज़िक्र हो। परंतु उसमें फ्रंटबेंचर यानि चवन्नी क्लास की बात न हो तो इतिहास अधूरा ही समझिये। आम चलन में चवन्नी क्लास का मतलब है कम दिमाग का होना। लेकिन फिल्मी संदर्भ में ये फिल्मबाज़ों की वो जमात है जिसकी जो अगली सीट पर बैठना पसंद करती है। इस संदर्भ में मुझे साठ, सत्तर और अस्सी के दशक की याद आ रही है।

प्रवेश दर चवन्नी के आधार पर इस क्लास के दर्शकों को चवन्नी क्लास कहा गया। इनके दिमाग में कोई कमी नहीं। सस्ते मनोरंजन की अभिलाषा में समाज के निर्धन वर्ग ने इसे आबाद किया। कामगार, दिहाड़ी मजदूर, होटलों-गैराजों में काम करने वाला अल्प आय वर्ग दिखा। शरीर पर कायदे के वस्त्र भी नहीं। यहां अभिजात्य, इलीट और अमीर वर्ग अर्थात जेंटरी क्लास का उसे खौफ़ नहीं। यहां वो खुद-मुख्तियार है। निडर बीड़ी सुलगाता है। गेटकीपर द्वारा हड़काने पर अपमानित नहीं महसूस किया। यह उसकी अपनी दुनिया है। अपनी सोच है, प्राथमिकताएं हैं। यह ज्यादा भावुक है। करूणामयी दृश्यों पर रोती है। फूहड़ हास्य पर भी दिल खोल कर हंसती है। धांयू डायलाग पर ताली पीटती है। भद्दे दृश्यों पर फिकरे कसने में संकोच नहीं करती। मुजरों पर सिक्के भी उछालती है। किसी फिल्म को बार-बार देखने में कोई परहेज़ नहीं। मैंने इस क्लास के साथ बैठ कर अनगिनित फिल्में देखी हैं। सचमुच असली मज़ा आया।

पहले दिन, पहले शो के बाद बाक्स आफ़िस पंडितों की निगाहें इसी क्लास पर टिकी रहीं, ये जानने के लिए कि भैया फिल्म कैसी लगी? फिल्म की रिपीट वेल्यू का फैसला यही क्लास करती रही। इस क्लास को इस मामले में अपनी कद्र बखूबी मालूम रही। और बड़ी ईमानदारी अपनी प्रतिक्रिया बता कर व्यक्त की। बाज़ बाक्स आफिस एक्सपर्ट तो चेहरे पर पैसा वसूलवाली तैरती मुस्कान से ताड़ गये फिल्म सुपर डुपर हिट होने जा रही है।

कई बार एक्सपर्ट बाकायदा भेष बदल इनके बीच बैठ कर इनकी प्रतिक्रिया नोट करते दिखे गये। अगर इस क्लास को पहले शो में उबकाई आ गयी या पेशाब ज्यादा होने लगी तो अगले हफ़्ते ही फिल्म थियेटरों से खदेड़ दी गयी। कभी-कभी फिल्मकार के विपक्षी खेमे ने पहले दिन, पहला शो देखकर निकले किसी चवन्नी क्लास से कहलवाया - भैया टिकट बेच कर मूंगफली खा लो।

Wednesday, January 7, 2015

शर्म आती है ऐसे बयान सुन कर

-वीर विनोद छाबड़ा
साक्षी महाराज ने जो कहा आप सबने सुना/पढ़ा होगा।

हिन्दू महिलाओं से बोलते हैं - चार पैदा करो। एक साधु/महात्मा को दे दो। दूसरा सीमा पर भेज दो।


इनका आशय शायद ये है चारों लड़के पैदा करो।

इनका ज्ञान इतना सीमित है कि इनको ये नहीं मालूम कि ये किसी स्त्री/या पुरुष के बस में नहीं है कि वो चारों लड़के हों। लड़कियां हुई तो क्या करेंगे? ऐसी सोच वाले इस प्रश्न का जवाब बेहद घटिया ही देंगे।

अरे महाराज, किसी मां से पूछ। अपने जाए को कितने महीने कलेजे से लगा कर रखती है। अपनी मर्ज़ी से कोई मां नहीं कहती कि जा बेटा सीमा पर गोली खा। विरली माताएं होती हैं जो ख़ुशी-ख़ुशी भेजती हैं। और फिर ये हालात पर भी निर्भर करता है। देश पर संकट हो तो साठ क्या उससे ऊपर वाले भी जवान बन जाते हैं। सीमा पर जाने के लिए बेताब हो उठते हैं। 

आप बोलते हो - एक साधू महाराज को दे दो। कोई व्यसायिक संस्थान है आपका आश्रम, जहां बच्चे को भेज दे? किसी मां से पूछो। क्या वो अपने बच्चे को राजा/महाराजा से कम पोस्ट पर देखती है। वो कहती है एक चाय वाला प्रधानमंत्री बन गया तो ऐसा सपना मैं क्यों न देखूं। और आप हैं कि.

क्या आपने सोचा है या आंकलन किया है कि आपके इस बयान पर हिन्दू महिलाओं पर क्या प्रतिक्रिया हुई है? फैक्ट्री समझ रखा है क्या? काम-धाम छोड़ बच्चे पैदा करें। फिर खून-पसीना बहा कर उसे बड़ा करे। यही है उसकी ज़िंदगी?  

हैरानी होती है कि ऐसी कुपित बुद्धि वाला भी साधू/महात्मा हो सकता है?

Monday, January 5, 2015

छेती छेती चन्ना ले के आजा बारात!

-वीर विनोद छाबड़ा
११ सितम्बर। जबसे अमरीका के वर्ल्ड  ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ है, ये तारीख इसी याद के लिए जानी जाती है।

वरना इससे पहले इस तारीख को बंदे की शहादत के तौर पर याद रखा जाता था। उस पर श्रद्धा सुमन चढाने वालों का अल सुबह से देर रात तक तांता बंधा रहता था। तेरह साल हो गए। कोई याद दिलाने नहीं आया। चलो अच्छा हुआ। फुरसत मिली याद दिलाने वालों से। मुफ़्तखोरों पर होने वाला खर्चा पानी बचा। 

लेकिन जाने क्यों बंदा आज खुद को बहुत तन्हा महसूस कर रहा है। दोस्तों रिश्तेदारों को तो अपनी ही मुसीबतों से फुरसत नहीं। उन्हें क्या याद होगा ये दिन? कुछ तो ऊपर ही चले गए हैं। वहां से भी अफ़सोस का पैगाम नहीं आता।

सबसे बड़ा अफ़सोस तो ये है कि पत्नी को भी वो दिन याद नहीं आता। हर साल बंदा ही याद कराता है। बदले में वो मुंह बिचका लेती है। हिकारत से देखती है। शायद अफ़सोस करती रही होगी कि काश इस नाशुक्रे बंदे के बदले उस दिन कोई राजकुमार सेहरा सजा के आया होता तो वो रानी होती आज किसी स्टेट की। बंदे पर नास्टैल्जिया हावी होने लगता है। दिमाग के पर्दे पर फ्लैशबैक चालू हो गया है। 

बंदे को वो नज़ारा, वो 'मुबारक' घड़ी याद आती है। वो सज-धज के पिताजी के दोस्त कुलदीप सिंह जी की कार में बैठ कर अपनी 'बैटर-हाफ' लेने के लिए रवाना होता है। दिन भर खूब बारिश हुई है। बंदे को फ़िक्र लगी हुई है बारात कैसे जाएगी?

लेकिन बाकी सब बेफिक्र हैं। जैसे सब जानते हैं कि शाम होते-होते आसमान साफ़ हो जायेगा। और वाकई सब अंतरयामी निकले। लेकिन सड़क पर बेतरह कीचड है। और उमस ज़बरदस्त। सर पर साढ़े सात किलो का भारी भरकम चांदी का मुकुट है। इसे उसकी मां चौक वाले किसी पुजारिन से मांग कर लायी है।  और अपने कद के बराबर की तलवार भी है। ये पड़ोस के करतार सिंह जी के घर से आई है। 

मगर बंदे को ये सब कतई अखर नहीं रहा है। उसे तो दुनिया की सबसे बड़ी नियामत जो हासिल होने जा रही है। अब ये बात अलबत्ता दूसरी है कि कुछ ही दिनों में रियालाइज़ हो गया कि बैठे-बिठाये एक इन्क्वायरी कमेटी सर पे बैठा ली, उम्र भर के लिए।

बहरहाल ठीक सात बजे तक़रीबन ३०० मित्रो-रिश्तेदारों का जुलूस बैंड -बाजे और पंजाबी ढोल की बेसुरी धुनों पर नाचते-गाते और झूमते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ता है।

आज सभी नशे में हैं। सबके नशे अलग-अलग हैं। कोई शुभ अवसर के नशे में चूर है तो कोई बोतल के। और किसी किसी को नाचने का नशा है। कोई कोई तो इन सबको देख कर मस्त है।