Thursday, June 30, 2016

नानक दुखिया सब संसार।

- वीर विनोद छाबड़ा
कल सुबह चार बजे मूसलाधार बारिश हुई तेज हवाओं के साथ। बादल भी जोर से गरजे और बिजली भी कड़की। ऐसे माहौल में बिजली न जाए, यह संभव नहीं। सुबह दस के आस पास लौटी। बिजली नहीं तो पानी नहीं। गुज़री रात भी बिजली ने परेशान किया था। पानी नहीं मिला था। नतीजा टैंकी खाली। टॉयलेट के एसी से टपकते पानी से भरे ड्रम का इस्तेमाल किया। शुद्ध पानी की एक बॉल्टी है। तीन लोग नहाने वाले। हम चार की जगह दो लोटे पानी से नहाये, आधे अधूरे से।

तैयार हुए। देखा एयरटेल का इंटरनेट गायब। फौरन शिक़ायत दर्ज कराई। आश्वासन मिला शाम चार बजे तक ठीक हो जाएगी। तभी बेटी ने बताया कि उसके कमरे के एसी का स्टैबलाइजर नहीं चल रहा। अभी महीना भर पहले ही तो बदलवाया था। शिकायत दर्ज करा दी। इधर मेमसाब का मूड भी जाने क्यूं ख़राब था। गुज़री शाम तो  राजमां का मीनू बन रहा था। अब सब्ज़ी वाले से लौकी के बारे में पूछ रही थीं।
हम बैंक निकल लिए, टीडीएस सर्टिफिकेट के लिए। मैडम सर पर हाथ रख कर बैठी थीं। सुबह से ही सरवर ही डाउन है। हम एटीएम मशीन की तरफ चल दिए। कार्ड डाला। लिख कर आ गया - नॉट वैलिड, कॉन्टैक्ट यूअर बैंक। लगातार चौथा दिन है। हम संबंधित बैंक गए। मैडम ने मशीन पर कुछ लिखा-पढ़ी की। शिकायत दर्ज करा दी है। आप कल फिर चेक लें, प्लीज़। प्लीज़ में इतनी मिठास थी कि आगे कुछ कहते ही नहीं बना। वापसी पर एक मिल्क बूथ पर रुके। दही चाहिए। बाऊजीदही, मठ्ठा, पेड़ा सब ख़त्म। कैमिस्ट के पास गए। अभी आपकी दवा नहीं आई है। शाम को देख लें।

घर लौटे। इंटरनेट अभी तक आउट ऑफ ऑर्डर। फिर हेल्पलाईन लगाई। तीन बजने को हैं, अभी तक किसी बंदे ने विज़िट नहीं किया। जैसे तैसे शाम पांच बजे को एक बंदा आया। इधर से उधर चेक किया। लाईन में फॉल्ट है जी। लाईन वालों को बता दिया रहै। एक-डेढ़ घंटे में पक्का सही हो जाएगा।
शाम गहरी होने लगी। हम अपने घर के आप-पास के ढाई किलोमीटर एरिया की सघन जांच कर आए। एयरटेल का कोई बंदा नहीं मिला काम करता हुआ। हमने फिर शिकायत की। बताया गया कि काम चल रहा है। सुबह दस बजे तक सब ठीक हो जाएगा।
टीवी ऑन किया कि बत्ती ही चली गई। इंवर्टर सीटी बजाने लगा। बत्ती दस मिनट आती है और घंटा भर गायब रहती है। इंवर्टर घंटा चार्ज होगा? यह शुक्र करो कि दो अदद  ईएफएल और पंखे चल रहे हैं।
दिल हल्का करने के लिए मित्र राजन को फोन किया। उसने न्यौता - आजा मेरे कोल, इक कप चा पीजा।

Wednesday, June 29, 2016

तीसरी क़सम की ट्रेजडी

-वीर विनोद छाबड़ा
रावलपिंडी में २३ अगस्त १९२३ को जन्मे शंकरदास केसरीलाल उर्फ़ शैलेंद्र अपने दौर के बहुत प्रसिद्ध गीतकार थे और अनन्य मित्र राजकपूर के अलावा तमाम निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद। अच्छी भली ज़िंदगी चल रही थी। मगर उन्हें लगता था कि सिर्फ गाने लिखने से उनके भीतर के सृजक की प्यास नहीं बुझने वाली। क्यों न फिल्म बनाई जाए? हमदर्दों ने समझाया - ये सपनों की नगरी है, प्यारे। जितने चाहे देखो, एक से बढ़ कर एक हसीन सपने, बिलकुल मुफ़्त में। एक ठोकर पड़ी और टूट गए। गाने लिखना तुम्हारा काम है, यही करो। और फिर गीतकार की हैसियत ही कितनी होती है?
लेकिन निर्माण के कीड़े का ज़हर शैलेंद्र जी के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह असर कर चुका था। उन्हें सुप्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की रचना 'मारे गए गुलफ़ाम' बहुत पसंद थी। इस कहानी को चुनने की एक वजह यह भी थी कि इसमें बिहार की पृष्ठभूमि थी और शैलेंद्र जी के पुरखे बिहार से थे। बासु भट्टाचार्य निर्देशन के लिए तैयार थे ही। अनन्य मित्र राजकपूर भी हां बोल चुके थे। बल्कि कभी-कभी याद भी कराते थे कि पुल्किन तुम्हारी फिल्म का क्या हुआ। राजकपूर शैलेंद्र को प्यार से कभी पुल्किन और कभी कविराज भी पुकारते थे। 
WaheedRahman&RajKapoor
शैलेंद्र जी ने बैंक खाली कर दिया। लेकिन, बाकी रकम? वादा करने वाले दोस्त पलट गए। अभिन्न मित्र राजकपूर महंगी फ़िल्में बनाते थे। जितना कमाया सभी अगली फिल्म में लगा दिया। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। दरअसल, जिस सब्जेक्ट पर शैलेंद्र फ़िल्म बनाने जा रहे थे, उसमें रिटर्न नामुमकिन था। मजबूर होकर भारी ब्याज पर मार्केट से कर्ज़ लिया। उन्हें पक्का यक़ीन था कि फ़िल्म अच्छा बिज़नेस करेगी और वो पाई-पाई चुका देंगे।
आख़िर फ़िल्म फ्लोर पर जाने के लिए तैयार हो गयी। राजकपूर तो मुद्दत से तैयार थे। लेकिन फिर भी एक औपचारिक 'हां' तो ज़रूरी थी। शैलेंद्र पहुंचे राजकपूर के बंगले। राजसाहब को वादा याद कराया। उन्होंने कहा, हां, बिलकुल याद है। मगर पहले यह तो बताओ प्रोजेक्ट क्या है? बजट कितना है? मुझे  फीस कितनी दोगे? साईनिंग एमाउंट कहां है? एग्रीमेंट फार्म कहां है?
Raj Kapoor
शैलेंद्र जी के हाथों से तोते उड़ गए। मैं जो सोच कर आया था वैसा तो यहां कुछ नहीं घटा। बल्कि सवाल पर सवाल? बहरहाल, उन्होंने ने जैसे-तैसे हिम्मत बटोरी - ये रहा एग्रीमेंट फार्म। जो आपकी फीस हो इसमें भर दीजिए। और ये रहा आपका साईनिंग एमाउंट। यह कहते हुए शैलेंद्र जी ने जेब में हाथ डाला। पांच-छह हज़ार... जितना भी जेब में पैसा था, निकाल कर रख दिया।
राजकपूर ने शैलेंद्र जी को सर से पांव तक घूर कर देखा। फिर मुस्कुराए। उनके कंधे पर हाथ रखा। एक रुपया उठाया - पुल्किन, यह रहा मेरा साईनिंग एमाउंट और यही मेरी फीस भी है। यह कहते हुए राजकपूर ने उन्हें सीने से लगा लिया। शैलेंद्र जी के गले से आवाज़ नहीं निकली। सिर्फ आंसू थे आंखों में। आगे इतिहास गवाह है कि राजकपूर ने तीसरी कसम में जो पावरफुल परफारमेंस दी थी वो उनके कैरीयर की सर्वश्रेष्ठ में से एक थी।
दो राय नहीं कि 'तीसरी कसम' बेहतरीन फ़िल्म थी। सुपर्ब गीत-संगीत - चलत मुसाफ़िर मोह लियो... दुनिया बनाने वाले... पान खाएं सैंया हमार... सजनवा बैरी होय गए हमार...सजन रे झूठ मत बोलो... क्रिटिक्स ने बहुत सराहा। लेकिन बाक्स ऑफ़िस पर नाकाम रही। रिपीट वैल्यू नहीं थी।

Tuesday, June 28, 2016

हम भी आदी हो गए हैं

-वीर विनोद छाबड़ा 
आज किसी भी प्रदेश की राजधानी को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। आये दिन प्रदेश के दूर-दूर कोनों से आये हज़ारों मज़दूर और कर्मचारी चीख रहे हैं - अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है...जब तक भूखा इंसान रहेगा धरती पे तूफ़ान रहेगाहर जोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है...इंकलाब, ज़िंदाबाद...मगर न कोई सुनने वाला और समझने वाला। भीड़ बेकाबू हो गई...पुलिस गुस्सा हो गई...लाठी चार्ज।
नतीजा घंटो का जाम। शहर के ट्रैफिक जुगराफिया भी कुछ इस किस्म का है। एक जगह जाम लगा नहीं कि साइड इफ़ेक्ट गली-गली तक पहुंच गए। ऊपर से बिजली की आवाजावी, पीने के पानी की किल्लत, नाकाफ़ी स्वास्थ्य सुविधाएं, बजबजाती नालियों, उफनाते सीवर, जगह-जगह फैली गंदगी और अवैध कब्ज़े। आम आदमी की ज़िंदगी पूरी तरह बदहाल और नरक बन गई। 
भरी दोपहरिया में स्कूल से लौटते मासूम बच्चे बिलबिला उठते हैं। एक नहीं कई एम्बुलैंस भीड़ में फंस गईं। नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित कई बंदे बीच रास्ते में दम तोड़ गए। प्रसूता बीच सड़क पर बच्चे को जन्म देने को विवश हो गई। अंतिम यात्रा पर निकले मुर्दे भी कराह उठे - अमां, यहीं किनारे कहीं फूंक दो। जाना तो एक ही जगह है। अब इंतज़ार बर्दाश्त से बाहर है। 
निर्दयी प्रदर्शनकारी आजू- बाजू  से निकलने की कोशिश कर रहे गरीब रिक्शे वालों के पहियों की हवा निकाल देते हैं। स्कूटियों और बाईकर्स की चाबियां निकाल लीं। किसी की ट्रेन छूटी, तो किसी की बस और किसी का प्लेन। कोई परीक्षा देने जा रहा है तो कोई इंटरव्यू। किसी को शादी में और किसी को ग़मी में जाना है। बार-बार न कोई जीता है और न मरता है। छूट गया न 'वन्स इन लाईफ़टाईम' का मौका। सर के बाल नोचो और सरकार को भद्दी गालियां दो। इसके सिवा कोई कर भी क्या सकता है?
प्रशासन के सीने में भी दिल नहीं है। न नेता और न मंत्री, स्थिति को सुलझाने में कोई रूचि लेते नहीं दिख रहा है। सब मांगें नाजायज हैं। मुख्यमंत्री से मिलो या प्रधानमंत्री से। बराक ओबामा तक पहुंच जाओ। सुप्रीमकोर्ट में गुहार लगाओ। दंगा करो या जाम लगाओ या आत्मदाह करो। मेरी बलां से।
प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधि भी खुश हैं। वो यही चाहते हैं। समस्या को भेजो तेल लेने। अगर सब ठीक हो जाए तो नेतागीरी कैसे चमकेगी? इसी बहाने पर्दे के पीछे कुछ फ्लैट और काम्प्लेक्स बन जाएंगे। बच्चों का भविष्य उज्जवल रहेगा।

Sunday, June 26, 2016

हे अंतर्यामी, जिसके हों लौटा देना


- वीर विनोद छाबड़ा
हमें बचपन की एक घटना याद आ रही है। १९५९-६० की बात है। हम नौ-दस साल के रहे होंगे। गर्मी की छुट्टियां थीं। अपने पड़ोसी मित्रों के साथ सुबह सुबह टहलने जा रहे थे।

अचानक एक मित्र को ज़मीन पर पड़ा दो रूपए का नोट दिखा। दूसरे ने लपक कर उसे उठा लिया। मैला सा नोट था। कुछ मुड़ा-तुड़ा सा था। वो लोग ख़ुशी से उछल पड़े।
हम बाखबर चार क़दम आगे निकल चुके थे। उनका आह्लाद सुन कर पलटे और माज़रा पता चला। आगे की टहल का प्रोग्राम कैंसिल हो गया। तय हुआ कि इसे बांट लिया जाए। एक जिसने देखा और दो जिसने उठाया।
हम ठन ठन गोपाल। हमारा कंट्रीब्यूशन ही क्या था? हम निराश से घर लौटे। थोड़ी देर बाद दरवाज़े पर खट खट हुई। हमारे वही दो मित्र खड़े थे। उनमें से किसी के पिता ने सलाह दी थी कि पैसा दो के नहीं तीन के भाग्य से मिला है। इसलिए तीन हिस्सेदारियां होंगी। चूंकि इस पावत में मित्रों की भूमिका अधिक थी, अतःउनकी जेब में ग्यारह-ग्यारह आने और हमारे हिस्से दस आने।
मज़ा आ गया। उस ज़माने में एडल्ट की हेयर कटिंग दुअन्नी में हुआ करती थी और चिल्ड्रन इकन्नी में निपटाए जाते थे। लेकिन हमने सड़क किनारे बोरा बिछा कर बैठे नाई बाल कटाना बेहतर समझा। सिर्फ दो पैसे में। यहां कुर्सी की बजाये ईंट पर बैठना होता था। हम लोग इन्हें 'गुम्मा कट हेयर कटिंग सैलून' कहते थे। इकन्नी की जलेबी ली। भरपेट खायी। मज़ा आ गया।

Saturday, June 25, 2016

सुपर स्टार नहीं, मिथक थे राजेश खन्ना


-वीर विनोद छाबड़ा
मध्यम कद, साधारण रंग-रूप और नैन-नक्श। चेहरे पर कई जगह पिंपल। एक नज़र में कुछ भी नहीं। लेकिन इसके वो बावजूद सुपर स्टार बना। यकीनन वो मिथक ही हो सकता है। इसका नाम था राजेश खन्ना उर्फ काका। वो १९६५ में आयोजित युनाईटेड प्रोड्यूसर टेलेंट हंट की खोज थे। आते ही कलाबाज़ियां शुरू हो गईं। उन्हें सबसे पहले नासिर हुसैन ने 'बहारों के सपने' के लिए साईन किया, लेकिन रवींद्र दवे की राज़ सबसे पहले फ्लोर पर गयी। और रिलीज़ के मामले में बाज़ी चेतन आनंद की आख़िरी ख़त मार ले गई। बाक्स आफ़िस पर कोई कमाल नहीं हुआ। हां, समालोचकों ने ज़रूर दबे लफ्ज़ों में ऐलान किया कि बंदे में काफ़ी दम है। बस एक हिट चाहिए। और यह ब्रेक मिला शक्ति सामंत की 'आराधना' से।
और उसके बाद शुरू हुआ सुपर स्टार से मिथक बनने का दौर। 'हाथी मेरे साथी' बहुत से साथियों को याद होगी। विषय था, इंसान का जानवरों से प्यार। बच्चे क्या, बड़े-बूढ़े तक राजेश के दीवाने हो गए। वो राजेश से काका हो गए, ब्वाय लिविंग नेक्सट डोर। आज भी यह रहस्य कि जनता किसमें क्या देख कर फर्श से अर्श पर बैठा देती है। तब तो आज जैसा मीडिया हाईप भी नहीं था, जिस पर राजेश को सुपर स्टार बनाने का इल्ज़ाम लगता। वो बात अलबत्ता दूसरी है कि चार साल पहले राजेश की मौत को ज़रूर मीडिया ने खूब भुनाया। चौथे के बाद अस्थि विसर्जन तक मीडिया कैमरों ने पीछा नहीं छोड़ा। मौजूदा पीढ़ी ने भी जाना कि कभी राजेश खन्ना नामक मिथक रूपी सुपर स्टार होता था।

यकीनन राजेश खन्ना बहुत अच्छा कलाकार थे। पात्र की खाल में घुसने की चेष्टा में लगे रहते। खुद को परिमार्जित करते रहते। उनमें रेंज और वैरायटी भी ज्यादा थी। मगर बावजूद इसके १७० फिल्मों के इस कलाकार की ज्यादातर फिल्मों में उनका सुपर स्टार होने का अहम छाया रहा। चंद फिल्में ही हैं जिनमें सुपर स्टार के भार से दबा कलाकार बाहर आया - आख़िरी ख़त, खामोशी, आराधना, अमर प्रेम, दो रास्ते, आनंद, इत्तिफ़ाक़, सफ़र, बावर्ची, नमक हराम, दाग़, अविष्कार, प्रेम कहानी, आपकी कसम, अमरदीप, अमृत, अवतार, थोड़ी सी बेवफ़ाई, अगर तुम न होते, जोरू का गुलाम, आखिर क्यों, सौतन और पलकों की छांव में। इसकी एक बड़ी वजह परफॉरमर तलाशने वाले निर्देशक भी थे।

Friday, June 24, 2016

भलाई का ज़माना नहीं रहा!

- वीर विनोद छाबड़ा
पार्क में बच्चे खेल रहे हों और झगड़ा न हो, यह हो नहीं सकता। ऐसा अक्सर होता ही रहता है। थोड़ी देर बाद सब शांत भी हो जाता है। आपस में ही झगड़ा सुलटा लेते थे।
उस दिन कुछ ज्यादा ही हो गया। मार-पीट हो गई। कई लोग तमाशा देख रहे थे। बड़े होने के नाते हमसे बर्दाश्त नहीं हुआ। अतः हमने हस्तक्षेप किया। लड़ते हुए बच्चों को अलग किया। एक का सर फट गया और दूसरे की टांग टूट गई। पांच-छह अन्य बच्चों को हाथ-पैर पर मामूली खरोचें लगीं। एक की कोहनी छिल गई। बच्चों को डॉक्टर के पास ले गए। मरहम-पट्टी कराई। डॉक्टर ने दवा भी दी खाने को। अच्छा-खासा पैसा भी खर्च हुआ। फिर उनको हम घर ले आए। चाय-नाश्ता कराया। उन्हें समझा-बुझा कर घर भेज दिया।
मेमसाब ने कहा - तुम कोई मजिस्ट्रेट हो मोहल्ले के कि करे कोई और भरे कोई। क्यूं कराई दवा-दारू। बच्चे जानें और उनके मां-बाप।
अभी मेमसाब का भाषण चालू था और हम उनको जवाब देने की तैयारी कर रहे थे कि दो सिपाही आ गए। आप होते कौन हैं? जानते हैं बच्चों के माता-पिता ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज कराई है। अब यह पुलिस केस बन गया है। पुलिस की ड्यूटी थी मेडिकल कराने की। आप ख़ामख़्वाह ही बीच में चौधरी बन गए। अब चलिए पुलिस स्टेशन। दरोगा जी ने बुलाया है।

Thursday, June 23, 2016

आउट ऑफ़ सर्विस।

- वीर विनोद छाबड़ा
एटीएम कार्ड का प्रयोग करने के मामले में हम बेहद काहिल हैं। महीनों गुज़र जाते हैं। परिणामतः डिएक्टिवेट हो जाता है। दोबारा-तिबारा बनवाते हैं। मगर हर बार इतिहास ने खुद को दोहराया।

लेकिन इस बार क़सम खाई कि ऐसा नहीं होगा। हम बैंक पहुंचे। गार्ड ने मैडम की तरफ ठेल दिया। हमें अच्छा लगा। इसलिए कि विचार से बैंकों में लेडीज़ ज्यादा और जल्दी काम करती हैं। बहरहाल, मैडम ने हमारी व्यथा सुनी। एक कागज़ दिया। एक्टिवेट करने की एप्लीकेशन लिख दें। फिर उन्होंने परसों आने के लिए कहा।
चार दिन बाद गए। मैडम ने कहा कि सर्वर डाउन है। हम हफ्ते बाद फिर गए। एक महोदय बैठे थे। उन्होंने बताया कि मैडम छुट्टी पर हैं। दो दिन बाद आएं। हम चार दिन बाद गए। मैडम ने कुछ कागज़ात उलटे पलटे। उनके माथे पर कुछ बल पड़े। शायद कुछ परेशानी है। हम ग़लत नहीं निकले। अनुपस्थिति में किसी ने सब उल्टा-पुल्टा कर दिया था। वैसे भी कई दिनों से हम देख रहे थे कि वो कई काम करती हैं, जिसमें हर किस्म की एफडी भी शामिल थीं और पीपीएफ वालों को झेलना भी। जो भी आता था, दस सवाल ज़रूर पूछता था। सीनियर सिटीज़न तो एक बार बैठे तो उठने का नाम भी नहीं लेते थे। सवाल दर सवाल। और महिला सीनियर सिटीज़न तो तौबा समझिए। जैसे बहु से स्पष्टीकरण  मांग रही हों। बहरहाल, वो हमसे बोलीं कल, देख लीजिएगा।
हमने फिर पर्याप्त समय दिया उनको। हफ्ते बाद गए। अब हम बिना कुछ कहे ही उनके लिए सवालिया निशान बन चुके थे। अपना सर पकड़ कर बैठे गईं। सर्वर डाउन है।

इस बार हमारे धैर्य का बांध गया। कहा तो कुछ नहीं, लेकिन हम गुस्से से लाल पीले हो गए। यह तो हमारी भीष्म प्रतिज्ञा पर पानी फेरने पर तुली है। महीना गुज़र चुका है। सीनियर सिटीजन हैं हम, कोई मज़ाक नहीं। बहरहाल, अगले दिन हम पूरी तैयारी के साथ पहुंचे। साथ में ब्यौरेवार एक शिकायती अर्जी भी ले गए।
लेकिन हमारा सारा गुस्सा काफ़ूर हो गया। दुःख हुआ कि क्रोध करके खामख्वाह ही इतनी एनर्जी जाया की। मैडम मानों हमारा ही इंतज़ार कर रही थी। हमें देखते ही एक लिफाफा पकड़ा दिया। यह रहा आपका नया एटीएम कार्ड और पिन कोड भी। हम बेहद खुश हुए। अब तक जो हुआ उस पर स्वाहा डाली।
लेकिन असली पिक्चर तो अभी बाकी है दोस्त। कार्ड लेकर हम घर आ गए और फिर वही काहिलपन सवार हो गया। करीब महीना भर गुज़र गया।

Wednesday, June 22, 2016

ज़रूरी है दिलों में ज़िंदा रहना।

- वीर विनोद छाबड़ा
प्राण कृष्ण सिकंद उर्फ़ प्राण बहुत बड़े कलाकार थे। अभिनय के हर रंग को जम कर जिया उन्होंने। प्राण साहब आदमी भी बड़े दिल वाले। वो अवार्ड के कभी मोहताज़ नहीं रहे। बल्कि अवार्ड स्वयं सम्मानित होने के लिए उनके पीछे पीछे रहा। प्राण साहब के ज़माने में यूं तो फ़िल्मी पुरस्कार देने वाली कई संस्थाएं थीं, लेकिन फिल्मफेयर अवार्ड का मयार सबसे ऊंचा माना जाता था। आज दर्जनों अवार्ड हैं, लेकिन फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड की मान्यता आज भी सबसे ऊपर है। इसे हॉलीवुड की तर्ज पर आस्कर अवार्ड भी कहते हैं। लेकिन कभी कभी इससे क्लासिक भूल भी होती रही है।
बात १९७२ की है। एक फ़िल्म आई थी - बेईमान। प्राण ने इसमें एक ईमानदार पुलिसवाले रामसिंह के किरदार को बहुत ही सहज जीया था। लोग कहते थे मुर्दा किरदार में प्राण फूंक दिए प्राण साहब ने। उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड मिला। इस फ़िल्म में शंकर-जयकिशन का संगीत भी शानदार था। उसी साल कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' भी रिलीज़ हुई थी। गुलाम मोहम्मद का बेहतरीन संगीत। इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा...चलो दिलदार चलो...ठाड़े रहियो...  आज भी जन-जन की ज़ुबान पर हैं। जबकि इस बीच दो पीढ़ियां बदल चुकी हैं। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा थी। लेकिन पलड़ा साफ साफ गुलाम मोहम्मद के पक्ष में भारी था। लेकिन अवार्ड गया शंकर जयकिशन  की झोली में। संगीत प्रेमी सन्न रह गए।
प्राण साहब को भी बहुत हैरानी हुई। उन्हें बहुत खराब लगा। अवार्ड देने वाली ज्यूरी से कहीं न कहीं भूल हुई है। लेकिन फ़िल्मफ़ेयर ने माना कि शंकर-जयकिशन का संगीत गुलाम मोहम्मद से बेहतर है। प्राण साहब ने विरोध स्वरूप अवार्ड लेने नहीं गए। 
फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड के विवादों के घेरे में आने का यह पहला अवसर नहीं था। इससे पहले सन १९६० में प्रदर्शित के.आसिफ की 'मुगल-ए-आज़म' का नाम तो सभी ने सुना होगा। क्लासिक फिल्म थी। १९७५ में रिलीज़ हुई 'शोले' से पहले तक भारत की सबसे महंगी और सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म थी। निर्माण, गीत-संगीत, भव्यता, फोटोग्राफ़ी, अदाकारी आदि हर पक्ष में बेहतरीन। लेकिन जब अवार्ड घोषित हुए तो हिस्से में सिर्फ तीन ही आए - बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायलॉग और बेस्ट फोटोग्राफ़ी। क्लासिक बात तो यह हुई कि उन्हीं दिनों आसिफ़ के दोस्त गुरुदत्त 'चौदहवीं का चांद' बना रहे थे। अपने सेट के लिए 'मुगल-ए-आज़म' के सेट का कुछ सामान उधार ले गए। और बेस्ट आर्ट डायरेक्शन का अवार्ड पा गए। सबसे बड़ा धक्का तो दिल की मरीज़ मधुबाला को लगा। उसने जान की बाज़ी लगा दी थी, अनारकली के किरदार को ज़िंदगी देने में। लेकिन अवार्ड मिला 'घूंघट' की बीनाराय को। हर शख्स हैरान और परेशान था कि उलटा-पुलटा हुआ कैसे? आसिफ़ और उनकी टीम इतनी मायूस हुई कि अवार्ड फ़ंक्शन ही अटेंड नहीं किया।

Tuesday, June 21, 2016

कर भला, हो भला

- वीर विनोद छाबड़ा
कृष्ण एक दिन अर्जुन को समझा रहे थे - जो आदमी किसी दुखी की मदद करता है वो वास्तव में सीधे भगवान की मदद कर रहा होता है।
अर्जुन ने पूछा - वो कैसे प्रभु?
तभी अर्जुन से एक भिखारी टकराया। वो बहुत ग़रीब था और कई दिन से भूखा भी। अर्जुन को उस पर तरस आ गया। अर्जुन ने उसे सोने की सौ मुद्राएं दे दीं।
भिखारी बहुत खुश हुआ। लेकिन उसकी ख़ुशी क्षणिक रही। एक लुटेरे ने उससे वो मुद्राएं छीन लीं।
भिखारी ने सोचा कि उसके भाग्य में भीख मांगने ही लिखा है। वो फिर से भीख मांगने लगा।
अगले दिन अर्जुन का फिर उधर से गुज़रना हुआ। देखा उस भिखारी की स्थिति जस की तस है। वो अभी भी भीख मांग रहा है।
अर्जुन ने इसका कारण पूछा तो उस भिखारी ने सब सच बता दिया।
अर्जुन को तरस आ गया। उन्होंने उसको एक मणिक दिया - यह बहुत कीमती है। तुम्हारे सब दुःख दूर हो जाएंगे।
भिखारी ने माणिक को एक घड़े में छुपा दिया।
इधर थोड़ी देर बाद भिखारी की पत्नी को ख्याल आया कि पानी ख़त्म हो गया है। चल कर नदी से पानी ले आऊं।
भिखारी की पत्नी ने वही घड़ा उठाया जिसमें माणिक छुपा कर रखा गया था। उसने जैसे ही नदी में घड़ा डुबोया, माणिक बह गया।
भिखारी, भिखारी ही रह गया।
अर्जुन दो दिन बाद उधर से फिर गुज़रे। देखा वो भिखारी अभी भिक्षा स्थल पर ही है। उन्हें बहुत निराशा हुई। इस आदमी के भाग्य में सुख है ही नहीं।
लेकिन इस बार कृष्ण को तरस आया। उन्होंने ने उस भिखारी को दो पैसे दिए।
भिखारी खुश हुआ। उन पैसों से खाने-पीने की वस्तुओं का बंदोबस्त करने चल दिया।
रास्ते में भिखारी ने देखा कि एक मछुआरे के जाल में एक मछली तड़प रही है। भिखारी को यह दुखदायी दृश्य बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने उन दो पैसों से मछली को छुड़ा लिया और वापस नदी में डालने चल दिया।
भिखारी मछली को नदी में डालने ही जा रहा था कि मछली ने कुछ उगला। वो टन्न से ज़मीन पर गिरा।

Monday, June 20, 2016

बिजलीकर्मी की व्यथा।

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह होने को थी। अचानक कॉलोनी में हाहाकार मच गया। बंदा हड़बड़ा कर उठ बैठा। सचिवालय वाले पड़ोसी पांडे ललकार रहे थे - बाहर निकलो। मालूम है, ट्रांसफारमर फूंक गया है। बम जैसे दगने की आवाज़ आई है। अब भुगतो चौबीस घंटे। नहाना तो दूर, पीने तक के लिए पानी नहीं है। बताइये, नाश्ता-पानी कैसे बनेगाइंनवर्टर की बैटरी भी दुई घंटे बाद टा-टा कर देगी। मगर आपको इस सबसे क्या मतलब? आप तो ठहरे रिटायर्ड बिजली बाबू।
पांडेजी ने एक सांस में दिल की सारी भड़ास बंदे पर उड़ेल दी। बंदा अभी संभला भी नहीं था कि पांच-छह पड़ोसी और आ गए। उनके तेवर तो पांडेजी से भी सख्त थे। बंदा डर गया कि कहीं पिट न जाए।
भयाक्रांत बंदे ने सबको ढांढ़स बंधाया। धैर्य रखो भाइयों। ख़बर कर दी है सब-स्टेशन पर। एसडीओ से भी बात हो गयी है। ट्रांसफारमर का बंदोबस्त हो रहा है। चार-पांच घंटे में सब नार्मल हो जाएगा। और फिर देखिए, गर्मी भी कितनी भीषण है! घर घर में एसी-कूलर चैबीसों घंटे चलते हैं। ज्यादा लोड बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा बेचारा ट्रांसफारमर।
बंदे के स्पष्टीकरण से स्थिति शांत होने की बजाए घी में आग का काम कर गई। सबने बंदे को बेतरह घूरा। बिजली विभाग और उनके बंदों के लिए चुनींदा अभद्र शब्दों का प्रयोग किया। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। बंदे के गले पर छुरी चल गई जब परिवार ने भी पाला बदल लिया। जब कभी बिजली जाती है यही होता है। जैसे बिजली की समस्या की वजह बंदा ही है।
वो उनसे विनम्र निवेदन करता है कि सूबे में बिजली की भयंकर किल्लत है। फिर प्रचुर स्टाफ़ नहीं है। मेंटीनेंस के लिए धन नहीं है। फिर भी दिन हो या रात जाड़ा हो या गर्मी, आंधी हो या तूफान बेचारे बिजली वाले खंबे पर चढ़े दिखते हैं। मगर जनता को निर्बाध बिजली आपूर्ति चाहिए। पूरे हक़ से जानना चाहती है कि मंत्रियों, दबंगों-रसूखदारों, बड़े सरकारी अफ़सरों के आलीशान आवासों में अंधेरा क्यों नहीं होता? उनकी कॉलोनी का ट्रांसफारमर क्यों नहीं दगता? तार क्यों नहीं टूटता?
जैसे तैसे भीड़ छंटती है। इधर बंदा अंदर ही अंदर पुलकित है। बड़ा मज़ा आएगा जब ट्रांसफार्मर बदलने की जटिल प्रक्रिया देखने को मिलेगी।

Sunday, June 19, 2016

एनएससी बनाम बड़े बाबू

- वीर विनोद छाबड़ा
पिछले दो दिन से पोस्ट ऑफिस जा रहा था। तेज उमस भरी धूप और ऊपर से आठ किलोमीटर का सफ़र। पसीने से तर-बतर हो गए। मकसद था, एक एनएससी का भुगतान प्राप्त करना। जब नौकरी में थे तब खरीदी थी। ऑफिस के पीछे ही पोस्ट ऑफिस था।

मगर बड़े बाबू मौजूद नहीं मिलते थे। बताया गया कि किसी ज़रूरी काम से निकलें हैं। थोड़ी देर इंतज़ार करें। हम घंटा भर इधर-उधर घूम-घाम कर लौटे। लेकिन बाबू जी नदारद। छोटे बाबू ने बताया गया कि मालूम नहीं कब आएंगे। छोटा सा पोस्ट ऑफिस, कुल जमा तीन बंदों का स्टाफ। पैसे के लेन-देन के हिसाब का अधिकार बड़े बाबू को ही है। हमें बहुत गुस्सा आया। कैसा टाईम आ गया है?किसी को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास तक नहीं है। 
कल हम फिर पहुंचे। तीसरा दिन था। दूर से ही खिड़की पर बैठे दिख गए बड़े बाबू। आज खरी-खोटी सुना कर ही जाएंगे। आने-जाने पर खर्च हुए पेट्रोल, ऊर्जा और टाईम का हिसाब भी मांगेगे।
बड़े बाबू किसी का हिसाब निपटा रहे थे। हम अपनी बारी के इंतज़ार के साथ-साथ बड़े बाबू की फेस रीडिंग भी करने लगे। हमें लगा बंदा कुछ उदास है। चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं, जो कभी आती हैं और कभी जाती हैं। माथे पर पसीने की मोटी बूंदे भी हैं। गौर किया तो पाया कि उंगलियों की स्पीड भी कम है। लेखनी रफ़्तार पकड़ती है और फिर यकायक रुक जाती है। बड़े बाबू का जिस्म तो यहां है मगर चित्त कहीं और। फिर उन्होंने मोहर उठाई और ठप्पा लगाया। लेकिन ठप्पा लगाने में जिस ज़ोर की ज़रूरत होती है वो गायब था। दूसरे बाबू को ईशारा किया। उसने ज़ोर का ठप्पा लगा कर दोबारा मोहर लगाई। साफ था कि उनके साथ सब कुछ नॉर्मल नहीं था।
अब हमारा नंबर आया। हमारा गुस्सा अब तक काफ़ूर हो चुका था। हमने एनएससी सर्टिफिकेट पेश किया। न जाने क्यों अनायास ही हम पूछ बैठे - भैया, लगता है कुछ परेशानी है आपको।

बड़े बाबू का हाथ रुक गया। वो हमें देखने लगे। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वो सोच रहे हैं कि यह अंजान आदमी कौन है? इसे मेरी फ़िक्र क्यों है? उन्होंने हमें जवाब नहीं दिया। सर झुका कर हमारी एनएससी देखने लगे।
हमने फिर पूछा - अगर आपको कोई दिक्कत हो रही है, तो हम दो दिन बाद आ जायें?
बड़े बाबू ने गर्दन हमारी ओर घुमाई। उनको हममें एक दर्द बांटने वाला हमदर्द मिल गया था। बहुत कातर स्वर में बोले - क्या बताऊं आपको? मेरी बेटी की तबीयत खराब है। कल उसका ट्रॉमा सेंटर में पेट का ऑपरेशन हुआ है। अभी तक खतरे से बाहर नहीं है। पूरा घर अस्पताल में है और मैं यहां। दिल-दिमाग वहीं हैं। ड्यूटी भी तो करनी है।
हमें बड़ी ग्लानि हुई कि हम एक दुःखी पिता को नाहक ही कोस रहे थे। हम भी तो ऐसी परिस्थितियों से गुज़र चुके थे। हमने उनको ढांढ़स बंधाया - ईश्वर सब ठीक करेगा। मेरा काम छोड़ें। अब कुछ दिन बात आऊंगा।