Thursday, October 30, 2014

खड़ूस आदमी!

-वीर विनोद छाबड़ा

हरेक की ज़िंदगी में अच्छे के अलावा खराब और खड़ूस किस्म के दोस्त आते हैं। ,मगर ये नियमित नहीं होते। बीच बीच में हैरान-परेशान करने चले आते हैं।

हमारे भी एक खड़ूस दोस्त हैं। चमड़ी जाए, पर दमड़ी नहीं किस्म के। हमेशा इसकी सिद्धांत पर यकीन किया। दूसरों का खाया, उड़ाया और पीया।

जब अपना नंबर आया तो ठनठन गोपाल बन गए - यार घर में बड़े खर्चे हैं, नाना प्रकार की बिमारियों से ग्रस्त बूढ़े मां-बाप। तिस पर दो लड़कियां। एजुकेशन लोन ले रखा है। बैंक से हाउसिंग लोन ले कर मकान बनवाया है। पैसा बचता ही नही है।

ऑफिस आने - जाने के लिए घंटों उनकी निगाहें लिफ्ट देने वाले को तलाशती रहीं। जब थक-हार जाते तो बस, ऑटो-टेम्पो में थक्के खाते हमेशा दो घंटे देर से गंतव्य पर पहुंचते।

कई बार राय दी गयी - एक अदद स्कूटी या साइकिल लेलो।

मगर वही रोना - पैसा कहाँ है? उधार दे-दो। किश्तों में अदा कर दूंगा।

अरे भाई, जब किश्तों में अदा कर सकते हो तो बैंक से लोन ले लो। मगर बड़े सयाने हैं। वहां से नहीं लेंगे। मूल के साथ सूद भी चुकाना पड़ता है।

तीन चार-साल पहले ऑफ़िसर पद पर प्रमोशन हुआ। अफ़सरी हनक के लिए एक अदद सेकंड हैंड कार खरीदी। बोले- दफ्तर आने-जाने के लिए बसों, ऑटो-टेम्पो में धक्के खाते-खाते परेशान हो गया हूं। अब प्रमोशन भी तो हो गया है। अच्छा नही लगेगा कि क्लास -टू ऑफ़िसर ऑटो से उतर रहा है। फिर ऑफ़िसर को टाइम पर ऑफिस भी तो पहुंचना होता है।

हमने कहा- स्कूटर ली होती। कार से भी पहले पहुंच जाते। सड़क पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा होता है। 

बोले - इतनी अच्छी पोस्ट है। अच्छा नही लगता कि स्कूटर पर चलूं।

उनके साथ एक दिक्कत और भी है। ड्राइविंग नहीं आती। स्कूटर तक तो कभी चलाया नहीं। कार क्या चलाएंगे? ऐसा नहीं कि बढ़ती उम्र में ड्राइविंग सीखना उनके बस की बात नहीं। बात ये है कि मुफ़्त में कौन सिखाये। दोस्तों ने भी हाथ खड़े कर दिए। इतनी फुरसत कहाँ किसी के पास। थक हार कर ड्राइवर रख लिया।

उनके एक भुक्तभोगी मित्र बोले - पैसा इफ़रात में है। मगर दिल छोटा है। बीवी का जन्मदिन पर दोस्तों से केक के लिए पैसा उधार लेता है। किसी बढ़िया होटल में खाना खाता है। आज तक उधार लिया पैसा कई तकादों बाद वापस किया। और वो भी आधा-अधूरा कई टुकड़ों में चवन्नी-अठन्नी करके। कंजूस ही नहीं मक्खीचूस भी है। थोड़े दिन में औकात पर जायेगा। अरे कार है। पानी से तो चलेगी नहीं! पेट्रोल से चलेगी और पेट्रोल मिलता है पैसे से। फिर ड्राइवर की तनख़्वाह। जिसकी अपने पैसों से एक कप चाय पीने से फटती हो वो साला

आखिर वही हुआ। उनकी मीन-मेख निकालने की आदत से परेशान होकर ड्राइवर नौकरी छोड़ गया। पुराना सिलसिला फिर शुरू हो गया। बसों-ऑटो में धक्के खाना या दूसरों से लिफ्ट मांगना। परिवार के साथ जब कहीं जाना होता था तो किसी किसी दोस्त की सेवाएं ले लेते।

Wednesday, October 29, 2014

ओ चाल भाई चाल!

चाल भाई चाल!

-वीर विनोद छाबड़ा

कल आदरणीय श्री दिनेशराय द्विवेदी जी का कान में जनेऊ पहन मल-मूत्र त्याग करने संबंधी एक मज़ेदार संस्मरण पढ़ा। मुझे भी ऐसी ही एक घटना याद गयी। 

१९५७-५८ की घटना है ये। चाचाजी की ससुराल दिल्ली के किंग्सवे कैंप (गुरु तेग बहादुर नगर) में थी। मेरा ददिहाल कुतब रोड पर था।

एक दिन मैं चाचाजी के साथ उनकी ससुराल गया। सात-आठ साल की उम्र रही होगी मेरी। रात ज्यादा हो गयी। सो वहीं रुकना पड़ा।

उन दिनों शौचालय पंचायती थे, जिन्हें शायद बम-पुलिस भी बोला जाता था। सुबह-सुबह चाचाजी पकड़ कर ले गए। एक लाइन से दस शौचालय थे। हर शौचालय के बाहर दस-पंद्रह लोगों की लाइन थी। सबके हाथ में पानी से भरा टीन का डिब्बा।

जब भी कोई शौचालय के भीतर जाता तो हर आधे मिनट के बाद बाहर खड़ा अगला बंदा दरवाज़ा पीट-पीट कर चिल्लाता - , चाल भाई, चाल।

ऐसा वो तब तक हर आधे मिनट बाद दोहराता, जब तक कि भीतर गया आदमी बाहर नहीं जाता।  इसके बाद 'चाल भाई चाल' कहने वाला बंदा भीतर जाता और 'चाल भाई चाल' की ड्यूटी बाहर खड़ा वो बंदा संभाल लेता जिसका नंबर लगा होता था।

सबसे बड़ी दिक्कत तो आखरी बंदे की होती। तब उसे किसी से गुजारिश करनी होती थी कि बाहर खड़े होकर हर आधे मिनट पर 'चाल भाई चाल' करता रहे।  मुझे याद है ये देख कर मुझे तो 'उतरी' ही नहीं। बस दूर खड़े होकर तमाशा देख खुश होता रहा, जब तक कि चाचाजी बाहर नहीं गए।

लखनऊ लौट कर कई मित्रों को मैंने ये घटना सुनाई। हम खूब हंसे। कई दिन तक तो इस घटना को याद करके मैं अकेले ही हंसता रहा।

फिर कई बरस गुज़र गए। मैं उस घटना को भूल गया। ज़माना कहीं से कही पहुंच गया। बम-पुलिस ख़त्म हो गए। चाचाजी में मॉडल टाउन में कोठी खड़ी कर ली।


उस घटना के करीब पंद्रह साल बाद चाचाजी हमारे घर आये। सुबह वो टॉयलेट गए। करीब दस मिनट बाद निकले। थोड़े परेशान दिखे। करीब आधे घंटे बाद वो फिर टॉयलेट गए। दस मिनट बाद निकले। इस बार भी परेशान दिखे। मैंने पूछा- चाचाजी पेट तो ठीक है ?

बोले - सब ठीक है। बस कभी-कभी होता है। दो-दफ़े जाना पड़ता है।

लेकिन जब थोड़ी देर बाद जब उन्होंने फिर टॉयलेट का रुख किया तो मुझसे नहीं रहा गया - चाचाजी ज़रूर कोई बात है। आप छुपा रहे हैं। आप वापस आइये। फिर डॉक्टर के पास चलते हैं।