Friday, February 27, 2015

कोई चमत्कार ही यूएई के विरुद्ध टीम इंडिया को हरा सकता है।

-वीर विनोद छाबड़ा

विश्वकप क्रिकेट में कल टीम इंडिया का दिन कैसा होगा?

मुक़ाबला यूएई से है। ग्रुप - बी में वो पाकिस्तान से बॉटम में पाकिस्तान से ऊपर है। दो मैचों से  उसके पास कोई पॉइंट नहीं है। लेकिन रन रेट ने उसे पाकिस्तान से पहले जगह दी है।

टीम इंडिया की परफॉरमेंस अब तक सुपर्ब रही है। एक रोहित शर्मा को छोड़ कर। मुझे ऐसा लगता है अगर रोहित की टीम में जगह बनी रही तो कल का दिन रोहित का होगा।


वर्ल्ड कप में कोई भी दिन रिलैक्स करने का नहीं होता और कोई भी टीम हल्की नहीं होती। चाहे वो ग़ैरमुल्की खिलाड़ियों से बनी यूएई जैसी टीम ही क्यों न हो।  साउथ अफ़्रीका को हराने के बाद से अब तक के दिनों में टीम इंडिया ने दो दिन छुट्टी मनाई है। ये छुट्टी अपने से काफी कमजोर टीम को सामने देख कर दी गयी है। अगर सामने वेस्ट इंडीज होती तो शायद ये रिस्क नहीं लिया जाता। मेरे विचार से यूएई को भी वही भाव देना चाहिए था।  

यूएई की टीम के पास खोने को कुछ है नहीं और पाने को बहुत कुछ है। जबकि टीम इंडिया को अपनी रेपुटेशन की फ़िक्र ज्यादा होनी चाहिए। इस नाते टीम इंडिया पर जीत का सिलसिला बनाये रखने का भार ज्यादा है। इस सिलसिले में मुझे कछुए - खरगोश की वो प्रसिद्ध कहानी याद आती है जिसमें तेज़ तर्रार खरगोश ने ये कछुए को सुस्त समझ कर नींद की झपकी लेने की ऐतिहासिक भूल कर दी थी। और कछुआ जीत गया था।

एक दिनी में अगर टीम मैदान में उतर गयी तो रचित प्लान में फेर बदल की गुंजाईश कम ही होती है।

क्रिकेट में कुछ अलिखित नियम हैं। मामला एक दो टीमों का नहीं। १४ टीमों के मध्य है। किसी को कमजोर मत समझो और जितनी बुरी तरह पीट सकते हो पीटो। इतना ज्यादा कि अगले मैच में वो बेदम और टूटे-फूटे मनोबल के साथ खेले। टीम इंडिया को इस तथ्य की जानकारी तो है ही।

टीम इंडिया एडवांटेज पर है, उसे विनिंग कंबीनेशन के साथ ही खेलना चाहिए, तब तक जब तक कि सेमीफाइनल में जगह पक्की न हो जाए। परंतु तेज गेंदबाज़ मो.शमी चोटिल हैं। वो इस मैच में नहीं खेलने जा रहे। ये अच्छी खबर नहीं। फिर इसका असर पूरे मैच के आसार पर पड़ने नहीं जा रहा है। 

Thursday, February 26, 2015

निहायत ही खूसट किस्म का आदमी!

-वीर विनोद छाबड़ा

बहुत साल पहले पढ़ा एक लतीफ़ा याद आया है आज।

अपने शब्दों में पेश कर रहा हूं।

एक सज्जन की पत्नी बहुत खूबसूरत थी। शादी हुए अभी महीना भर भी न गुज़रा था। एक साहब ने उनकी पत्नी की खूबसूरती की तारीफ़ कर दी। न जाने क्यों उन्हें पत्नी की नेक-नीयती पर शक हो गया - इतनी खूबसूरत पत्नी के आशिक़ ज़रूर रहे होंगे और उन्हीं में किसी एक आशिक़ से पत्नी के भी ताल्लुकात रहे होंगे। और हो सकता है कि अभी तक ये ताल्लुकात जारी हों।

उन सज्जन की रातों को नींद उड़ गयी। जब भी आँख बंद करें पत्नी को किसी गैर-मर्द की आगोश में पाते। नींद आती भी तो सपने में बड़बड़ाते।

पत्नी बार-बार पूछती - जबसे शादी हुई है। आप परेशान हैं। कुछ तो बताइये।

लेकिन वो सज्जन असली बात बता कर बेवफ़ा पत्नी को अलर्ट करना नहीं चाहते थे, बल्कि रंगे-हाथ पकड़ना चाहते थे। कई जतन किये। खुद जासूसी की। उसके ऑफिस जब-तब बिना पूर्व सूचना के पहुंच जाते उसे हैरान करने के लिए। मगर हासिल कुछ नहीं कर पाये।

शक़ यकीन में बदलता गया। उन्होंने तय किया कि पत्नी को तलाक़ दे देंगे, बस एक पुख्ता सबूत मिल जाए। इस प्रयोजन हेतु उन सज्जन ने एक प्राइवेट जासूस कंपनी को फ़ोन किया। और डिटेल में सारी बात बतायी।

जासूस शिरोमणी नाम की उस कंपनी के चीफ ने कहा - ठीक है। मामला संगीन है। मैं खुद जासूसी करूंगा। ऐसे बड़े-बड़े केस पकडे हैं मैंने। कुछ आपने बताया वो लिख कर भेज दें और साथ में पत्नी की तस्वीर भी रख दें। पंद्रह दिन में रिपोर्ट मिल जायेगी उस प्रेमी के साथ अय्याशियां करते।

पंद्रह दिन बाद जासूस शिरोमणी कंपनी की और से उन सज्जन को एक लिफाफा मिला। ये जासूस की रिपोर्ट थी।

Sunday, February 22, 2015

आज फिर ऊंठ ने भारत के पक्ष में करवट ली है!

-वीर विनोद छाबड़ा 

भारत ने दक्षिण अफ्रीका को १३० रन से हरा दिया। ये भारत के लिए बहुत बड़ी जीत है और दक्षिण अफ्रीका की ज़बरदस्त हार। बधाई।

भारतीय दृष्टिकोण से ये छोटी-मोटी विजय नहीं। पाकिस्तान पर प्राप्त विजय से भी कहीं बड़ी। मौजूदा दौर में सबसे अच्छी टीमों में एक। और उसे विश्वकप का फेवरिट भी माना जा रहा था। वो हर डिपार्टमेंट में भारत से बीस था।
 

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में ज़िक्र किया था कि इस मैच में भारत की हार या जीत तय करेगी कि भारत का विश्व कप में भविष्य क्या होगा। अपनी पोस्ट में तीन-चार महत्वपूर्ण बातें कही थीं-
१) दक्षिण अफ्रीका को फ़िक्र जयादा होगी अपना विजित रिकॉर्ड अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए।
२) स्पिन डिपार्टमेंट। दक्षिण अफ़्रीकी इस शस्त्र/तिलिस्म को आज तक नहीं समझ पाये हैं।
३) एक दिनी में वही जीतता है जो उस दिन अच्छा खेले।
४) मैच के दिन ऊपरवाला किस मुल्क का बैठा है। 

मगर मेरा ये नजरिया गलत हुआ कि यदि स्पिन पर सिर्फ अश्विन के भरोसे भारत रहेगा तो  नाकामी मिल सकती है। लेकिन अश्विन ने खोयी लए पाकर मुझे गलत साबित कर दिया।

आज की जीत में अश्विन (३/४१) की स्पिन की महत्वपूर्ण भूमिका है।

तेज गेंदबाज शमी और मोहित द्वारा दो-दो विकेट चटकना कम महत्वपूर्ण नहीं था। कतिपय विशेषज्ञ इन्हीं को हीरो मान रहे हैं। 

फील्डिंग आज दोषरहित थी। सीमारेखा से सटीक थ्रो भी रहे। जिसकी बदौलत दो रन आउट (डी विलियर्स और डेविड मिलर) किये। मेरे विचार से तो यही टर्निंग पॉइंट थे। बाल की फ़ील्ड में अच्छी गैदरिंग भी रही।

दक्षिण अफ्रीका ने आज फिर साबित किया कि तमाम खूबियों के बावजूद वो तीन व अधिक देशों के टूर्नामेंट वाले मैचों में जब प्रेशर गेम होता है तो वो चोक हो  जाते हैं। वो भी ऐसी स्थिति में जब उनकी टीम ज़बरदस्त फॉर्म में चल रही थी - दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाज़, लाजवाब पेस अटैक और हवा में कैच लेने की अद्भुत क्षमता। लेकिन आज कुछ न चला। हैरान करती है उनकी आज की परफॉर्मेस। दक्षिणी अफ्रीका की इतनी डरी हुई टीम कभी नहीं देखी गई। 

शिखर धवन का शानदार शतक(१३७)। कोहली की ४६ रन की पारी और अजिंक्य रहाणे  के चमत्कृत करते ७९ रन। शिखर धवन और विराट कोहली (१२७ ) और शिखर और रहाणे (१२५) रन की  दो शतकीय साझेदारियां।

अगर पाकिस्तान के विरुद्ध कोहली के शतक के साथ सुरेश रैना का अर्धशतक न होता और आज शिखर के शतक के साथ अगर रहाणे का अर्धशतक न होता तो भारत के लिए ३०० प्लस का स्कोर बनाना मुश्किल होता। हालांकि भारतीय टीम की कमजोरी अभी बनी हुई है कि फिनिशिंग अच्छी नहीं हो रही है। जहां बनने चाहिए वहां विकेट गिरते हैं। पच्चीस-तीस रन शार्ट बन रहे हैं। पिछले दोनों मैचों में तो यही हुआ।

Friday, February 20, 2015

डॉ तुलसी राम - सामाजिक बदलाव वर्ग और वर्ण के एक साथ होने से आएगा।

-वीर विनोद छाबड़ा

'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' जैसे कालजई आत्मकथ्यों के माध्यम से समाज ही नहीं संपूर्ण साहित्य तक को झकझोरने वाले जेएनयू के प्रोफेसर तुलसी राम का शुक्रवार को दिल्ली के निकट फ़रीदाबाद के एक अस्पताल में निधन हो गया था।


उन्हें लखनऊ की इप्टा, जलेस, प्रलेस, जसम, अर्थ एवं सांझी दुनिया जैसी संस्थाओं से जुड़े साहित्यकारों ने १४ फरवरी २०१५ को इप्टा कार्यालय में आयोजित शोक सभा में अपने शब्दों में याद किया। अध्यक्षता प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने की।

संचालन करते हुए राकेश ने याद किया - प्रोफेसर तुलसीराम तर्क और विवेक शक्ति के साथ दलित विमर्श की बात करते थे।

वीरेंद्र यादव विद्यार्थी जीवन से उनको पसंद करते रहे-  उनका अध्ययन समाजशात्रीय है। वो बौद्ध दर्शन और मार्क्स के प्रकांड विद्वान थे। अंबेडकरवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद के मध्य एक पुल बनाने की चाह थी। उनका जीवन पूर्णतया साहित्य को समर्पित था। वो अस्वस्था के बावजूद अंत तक साहित्य सेवा और सृजन करते रहे। उन पर कई जगह पर शोध चल रहा है।

नलिन रंजन ने बताया - तुलसीरामजी से जब उनकी पहली मुलाकात हुई तो जाने कब बातों-बातों में वो जान गए कि मैं भी आज़मगढ़िया हूं। तुरंत वहां की प्रचलित भाषा में बात करने लगे। आत्मीयत बढ़ गयी। वो खंडन करते हैं कि दलित ही दलित विमर्श की बेहतर बात/व्याख्या कर सकता है। उन्होंने वर्ग संघर्ष पर बल दिया। उनकी विचारधारा मार्क्सवादी है। दलित विमर्श को समझने के लिए दलित संघर्ष को समझना ज़रूरी है।

कौशल किशोर ने डॉ तुलसीराम को इस तरह याद किया - एक दलित का आजमगढ़ के एक छोटे से गांव से जेएनयू के प्रोफ़ेसर बनने तक कि यात्रा स्वयं में बहुत बड़ा संघर्ष है। उनका चिंतन व्यापक है। वामपंथ के गंभीर अध्येता थे वो। अंबेडकरवाद, बुद्ध और मार्क्स चिंतन को आपस में जोड़ा। आज साम्राज्यवादी शक्तियां सर उठा रही हैं। ये आत्मचिंतन का दौर है। इसमें डॉ तुलसीराम का होना ज़रूरी है। उनकी मृत्यु से उबरने में समय लगेगा।


अखिलेश ने डॉ तुलसीराम को बड़ी भावुकता से याद किया - मुझे लगा कतिपय कारणों से वो नाराज़ हैं वो। एक समारोह में मिले वो। बात हुई। वो कहने लगे कोई नाराज़गी नहीं। कुछ माह बाद मेरी पत्रिका 'तदभव' में ही डॉ तुलसीराम की 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' कई कणियों में प्रकाशित हुआ। तदभव के २५वें अंक के समारोह में वो दो वर्ष पूर्व लखनऊ आये थे। वो अस्वस्थ थे। उन्हें विमान का किराया ऑफर किया। लेकिन नहीं लिया। बोले - मेरा भी तो कुछ फ़र्ज़ बनता है।

शिवमूर्ति जी कहा - मैंने उन्हें 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' से ही जाना है।  इतने अल्प समय में और अस्वस्था के मध्य इतना अधिक लिखना और उस लिखे का कालजई बन जाना वास्तव में हैरान करता है।

Monday, February 16, 2015

अपना विश्वकप तो हो गया!

-वीर विनोद छाबड़ा
कल मैंने अपनी पोस्ट में लिखा था कि भारत-पाकिस्तान का कोई भी मैच प्रेशर गेम है। विराट कोहली का बल्ला और धोनी का धैर्य चाहिए। नतीजा कुछ भी हो। मेरा दिल भारत के लिए धड़कता है। ये भी कहा था कि कमजोर दिल वाले इसे न देखें। और मैंने ये मैच नहीं देखा।

शाम पटाखों की आवाज़ सुनी तो समझ गए कि सैंया छटी बार भी कोतवाल हो गए।

विश्वकप में भारत की पाकिस्तान पर जीत विश्वकप जीतने से कम नहीं। और इस लिहाज़ से हमने छटी बात विश्वकप जीत लिया। बाकी मैच मात्र महज रस्म अदायगी हैं।


आज की जीत को बहुत बड़ी जीत बताया जा रहा है। है भी। जीत के बाद कमियों की बात कौन करता है?

पिछले विश्वकप (२०११) में भारत ने सेमी फाइनल में पाकिस्तान को हराया था। इसमें सचिन तेंदुलकर ने ८५ रन बनाये थे। बेशक रन महत्वपूर्ण थे लेकिन कैसे मर-मर कर बने ये स्वयं सचिन भी जानते हैं। इस पर पर्दा ही पड़ा रहा।

एडिलेड का मौजूदा मैच भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ। बिना गलती किये कोई  भारतीय बल्लेबाज़ नहीं खेला। पाकिस्तान की कमजोर फील्डिंग ने भी जिताने में मदद की। खैर ये सब क्रिकेट का हिस्सा हैं।

यों पाकिस्तान को हराने के मायने ही कुछ और हैं। क्रिकेट का मैदान न हो गया युद्ध का मैदान हो गया। मज़ा आता है। बुझे पाकिस्तानी चेहरे देख कर हम बहुत खुश होते हैं।

लेकिन पाकिस्तानी भी इतने ही खुश होते हैं हमें हारा हुआ देख कर। क्या हम भूल पाये १९८६ वाले शारजाह के उस मैच को जिसमें चेतन शर्मा की आखिरी फुलटॉस गेंद पर मियांदाद ने छक्का मार कर मैच जीता दिया था।

आज ही एक मित्र मिले। मैंने कहा - मुबारक़ हो यार विश्वकप में पाकिस्तान पर भारत की छटी जीत यानी छक्के की।

वो बोले - दर्जनों बार हम विश्वकप में पाकिस्तान को हरा दें। लेकिन यार मियांदाद वाला छक्का आज भी कटोचता है।

मुझे लगता हैं मित्र ठीक कह रहे थे। जब तक वो पीढ़ी ज़िंदा है जिसने आखिरी गेंद पर मियांदाद को छक्का मार कर पाकिस्तान को जीतते हुए देखा है ये कटोच नहीं ख़त्म होगी। 

पाकिस्तान की बदकिस्मती है कि विश्वकप में वो हमें हरा नहीं पाये। आज के उन्मादी माहौल में हम एक-दूसरे की ख़ुशी भी शायद बरदाश्त नहीं कर पाते हैं। दुःख में शामिल होते हैं तो दूसरे ही दिन कोई वारदात हो जाती है। हमारा दुख में शामिल होना बेमानी बता दिया जाता है।

Thursday, February 12, 2015

प्राण - किसी व्यक्ति नहीं एक लींजेंड का नाम!

प्राण - किसी व्यक्ति नहीं एक लींजेंड का नाम!
(12 फरवरी को उनके जन्म दिवस पर)
-वीर विनोद छाबड़ा

प्राण किसी व्यक्ति या एक्टर का नाम नहीं, बल्कि एक लीजेंड का नाम है। प्राण ने फिल्मों में जितने भी किरदार किए शायद ही किसी को अगली किसी फिल्म में दोहराया हो।

मैंने अपने पिता की उंगली पकड़ कर प्राण की जो पहली देखी थी वो थी-मनमोहन देसाई की छलिया। मुझे इस फिल्म की कहानी थोड़ी थोड़ी याद है। वो पाकिस्तान से आया खान था, अपनी हिंदू बहन की तलाश में। उसकी उसने कभी सूरत नहीं देखी थी। उसके पैरों की पाजेब से पहचानता था। यहां उसकी मुलाकात राजकपूर से हुई। उसके घर में उसने अपनी बहन को उसकी पाजेब से पहचाना। दोनों में जबरदस्त जंग हुई। मुझे बस एक ही फिक्र थी कोई मारा न जाए। ये जंग तब खत्म हुई जब प्राण को असलियत पता चली कि नूतन भी राजकपूर के घर बतौर अमानत है और उसके पति की तलाश कर रहा है।


उसके बाद बड़े होकर मैंने अनगिनित फिल्में नई देखीं प्राण की। दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद को छोड़ जब-जब हीरो प्राण के हाथों पिटा तो हम लोगों ने खूब ताली बजाई। पहली बार मैंने मधुमतीरी-रन पर देखी। दिलीप कुमार के लिये नहीं बल्कि विलेन प्राण को मुंह से सिगरेट के धूंयें के छल्ले निकालते हुए। बाद थोड़ा अरसा बाद जब सिगरेट पीनी शुरू की तो सबसे पहले प्राण की तरह छल्ले बनाना सीखा।

बहरहाल, धूंयें के छल्ले सबसे पहले प्राण साहेब ने बड़ी बहन (1949) के लिये बनाये थे। बरसों ये छल्ले उनका ट्रेड मार्क बने  रहे। हीरो के लिये प्राण साहब से मार खाना इज्जत की बात होती थी। यों तो प्राण साहब और उनकी फिल्मों के बारे में दुनिया जानती है। प्राण साहब की जिंदगी और उनकी फिल्मों के बारे में कुछ खास बातें जो मुझे याद हैं उन्हें बिंदूवार प्रस्तुत कर रहा हूं-
 
1- प्राण प्रोफेशनल फोटोग्राफ़र बनना चाहते थे। उन दिनों वो शिमला में थे। एक रामलीला चल रही थी। सीता का पार्ट उन्हें दे दिया गया। राम का पार्ट मदनपुरी कर रहे थे। बाद में दोनों ही विख्यात विलेन/चरित्र अभिनेता बने।

2-लाहोर में पहली फिल्म मिली-पंजाबी की यमला जट। नूरजहां ने इसमें चाइल्ड आर्टिस्ट थी।

3-बतौर हीरो पहली फिल्म थी-खानदान। हीरोइन थी नूरजहां। उस वक्त उसकी उम्र महज 15 साल थी। कद भी पूरा नहीं निकला था। उसके पैरों तले ईंटे रखी गयीं।

4-पहली फिल्म का मेहनताना प्राण को महज रुपये 50/-मिला। रु.200/-की फोटोग्राफी की नौकरी छोड़ दी।

5-पार्टीशन के बाद प्राण भारत आये तो लाहोर में 22 फिल्में कर चुके थे। लेकिन बंबई में ढाई-साल तक भटकते रहे। सआदत हसन मंटो और हीरो श्याम के कहने पर शाहिद लतीफ़ ने ज़िद्दीमें काम दिया। नायक देवानंद थे और नायिका कामिनी कौशल थी। कई बरस बाद मनोज कुमार अभिनित शहीदमें दोनों साथ दिखे। इसमें कामिनी शहीद भगत सिंह की मां थी और प्राण एक खूंखार डाकू, जो भगत सिंह के देश के प्रति जज्बे से प्रभावित होकर खुद फांसी पर चढ़ने को तैयार हो जाता है। इसी फिल्म में एक और विलेन प्रेम चोपड़ा भी इंकलाबी की भूमिका में थे।


6-बाद में प्राण ने मनोज कुमार के साथ उपकारमें मलंग चाचा का अच्छा किरदार किया। इसके बाद प्राण ने अपवाद छोड़ कर कभी विलेन की भूमिका नहीं की। मनोज के पूरब और पश्चिम, सावन की घटा, बेईमान आदि कई फिल्में कीं।

7-‘बेईमानफिल्म के लिये प्राण ने फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता का एवार्ड लेने से मना कर दिया। उनका मानना था कि पाकीजाके लिए गुलाम मोहम्मद को सर्वश्रेष्ठ म्यूज़िक का पुरूस्कार मिलना चाहिए था।

Tuesday, February 10, 2015

हनुमानगढ़ जंक्शन से दिल्ली।

-वीर विनोद छाबड़ा

बात सत्तर के दशक के पूर्वार्ध की है। हनुमानगढ़ में ब्याही अपनी बड़ी बहन से मिलने गया था।

वापसी पर मुझे सादलपुर होकर जाने वाली ट्रेन में बैठा दिया गया। ट्रेन करीब घंटे भर विलंब से चली। और तीस-चालीस किलोमीटर आगे एतनाबाद स्टेशन पर रुक गयी। अचानक भगदड़ सी मची। यात्री उतर-उतर कर रेलवे लाइन क्रॉस कर दूसरे प्लेटफार्म की ओर भागने लगे।

माज़रा क्या है? पता चला कि पीछे से कोई एक्सप्रेस ट्रेन आ रही है जो इस ट्रेन को पछाड़ देगी। परिणामस्वरूप अब सादलपुर से दिल्ली का कनेक्शन नहीं मिलेगा। दूसरी ट्रेन दोपहर बाद दिल्ली पहुंचाएगी। मैंने भी भीड़ तंत्र को अपनाया। रेलवे लाइन क्रॉस करके दूसरे प्लेटफार्म की ओर भागा। देखा ट्रेन आ रही है और मैं अभी पटरी पर खड़ा हूं । मानो यमराज आ रहे हैं। किसी भलेमानुस ने मेरा हाथ पकड़ कर ऊपर खींच लिया। जान बची। उस भलेमानुस को थैंक्स कहना चाहा। लेकिन बेतरह भीड़ में वो गुम हो गया।

डिब्बों के बाहर लोग लटके हुए हैं। मैं २१-२२ साल का जवान। रिस्क लेने की उम्र। थोड़ी हिम्मत जुटाई। किसी तरह डिब्बे के फुटबोर्ड पर पैर रखने में सफल हुआ। एक हाथ में अटैची और दूसरे हाथ में हैंडिल। गेट पर लटका हुआ। अंदर और घुसने की जद्दो-जहद जारी रखी।

तभी ट्रेन सरकी। मुझे लगा अगर मैंने तुरंत हैंडिल न छोड़ा तो गयी जान। मैं ऐसा करने जा ही रहा था कि किसी ने मेरे हाथ से अटैची छीन ली। और किसी ने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। कोई चीखा भी -छोरे तैँने मरणा हे के। खैर जान में जान आई। लेकिन मेरा आधा जिस्म अभी भी बाहर लटका है। मैंने पूरी ताकत से खुद को अंदर की और ठेला। कोई दस मिनट के बाद मैं डिब्बे के अंदर धंस पाया। अब मैं सुरक्षित हूं। मैंने हैंडिल छोड़ दिया। जिसने हाथ पकड़ रखा था उसने भी छोड़ दिया।

वे सब भलेमानुस कौन थे? पता नही चल पाया। लेकिन मैंने महसूस किया कि मेरे पैर बामुश्किल डिब्बे के फर्श पर हैं। मैं भीड़ में फंसा हूं। जैसे-जैसे ट्रेन झटके खाते हुए आगे बढ़ी, वैसे-वैसे मैं भी भीड़ के साथ अंदर की ओर धंसने लगा। अब मैं गेट से दो फुट अंदर हूं। आगे और गुंजाईश नहीं है। रात गहरी होती जा रही है। और बालू उड़-उड़ कर डिब्बे के अंदर घुस रही है। कई लोगों को सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है। तभी मुझे अटैची का ख्याल आया। मैं इधर-उधर देखा। आस-पास खड़े लोगों से पूछा। एक बोला - मिल जाएगी। बस सादलपुर आड़ दे। ट्रेन रास्ते में दो-तीन जगह रुकी भी।

Thursday, February 5, 2015

राष्ट्रकवि प्रदीप - बापू को जो चीर गयी, याद करो उस गोली को...

- वीर विनोद छाबडा

आज 6 फरवरी है। आज से ठीक सौ बरस पूर्व कविवर प्रदीपजी का उज्जैन में जन्म हुआ था। उन्हें याद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वो आज भी प्रासांगिक हैं।

दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल....आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की...हम लाये हैं तूफानों से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के...(जागृति) बिगुल बज रहा आज़ादी का गगन गूंजता नारों...(तलाक़) देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान...(नास्तिक). 

पचास के दशक के अंत में जब होश संभालना सीखा था तो कानों ने यही गीत गूंजते सुने। किसने गाये? किसने लिखे? ये बहुत महत्वपूर्ण नहीं था। निर्विकार भाव से सुना। लेकिन कानों को भले लगे। थोड़ा बड़े हुए। पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा। शिक्षकों, माता-पिता और बड़े-बुजुर्गाें के मुंह से सुना। अपने मुल्क के बारे में जाना। जाना कि हम गुलाम भी थे। तन पर एक लंगोटी बांधे एक गांधी बाबा आया। उसके हाथ में थी एक सोटी। समंदर की लहरों पर राज करने वाली मजबूत अंग्रेज़ी हुकूमत की २०० साल की गुलामी से हमें आज़ादी दिलायी। और फिर यह भी पता चला कि आज़ादी के बाद इस मुल्क को इसी के बंदों ने छीलना और अंदर से खोखला करना शुरू कर दिया है और इसकी भी बाआवाज़-ए-बुलंद मुख़ालफत करने वाला कवि प्रदीप है जो उक्त गीतों का रचियता है। इस इल्म के बाद तो बस कानों में इन गीतों के बोल पड़ते ही भुजाएं फड़कने लगीं। चेहरा गुस्से से सुर्ख होने लगा।

चलो चले मां सपनों के गांव में कांटों से दूर कहीं फूलों की छांव में... यह गाना सुनते तो कानों को बड़ा भला लगता नींद सी आ जाती। पता चला यह भी प्रदीपजी हैं।

१९६२ में चीन ने पीठ में छुरा घोंपा। मुल्क घायल हुआ। तब प्रदीपजी ने जोश भरने के लिये लिखा ऐ मेरे वतन के लोगों...इसे लता जी ने जोश भरने के लिये जब लालकिले की प्राचीर से गाया तो पूरा मुल्क एकबद्ध हो गया। प्रधानमंत्री नेहरू तक रो दिये।

इस गीत को लिखने की प्रेरणा प्रदीपजी को चीन के विरूद्ध युद्ध में शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भट्टी के बलिदान से प्राप्त हुई। प्रदीपजी का संगीतकार चितलकर रामचंद्र से गीत-संगीत के मामले में एक लंबा सहयोग रहा है और गहरी मित्रता भी। स्वाभाविक था कि इसका संगीत चितलकर को ही तैयार करना था। लेकिन इसे आवाज़ देने के लिए आशा भोंसले चितलकर की पहली पसंद थी। मगर प्रदीप को लगा लता सर्वश्रेष्ठ होंगी। चितलकर और लता की उन दिनों अनबन थी। प्रथमतः लता ने मना भी कर दिया। मगर जब प्रदीपजी के कहने पर उन्होंने इस गीत को सुना तो वो तैयार हो गयीं। और इस प्रकार इतिहास बना। इधर आशा का दिल टूट गया। विद्वानों के विचार से यदि प्रथम पसंद आशा ने इसे गाया होता तो ज्यादा बेहतर होता।


उज्जैन के एक कस्बे में जन्मे रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी कवि सम्मेलनों में खूब अच्छा गाते थे। अच्छी लोकप्रियता मिली। उनका नाम बहुत लंबा था। शुभचिंतकों के कहने पर उन्होंने अपना उपनाम रखा प्रदीप। इस नाम से वो इतना विख्यात हुए कि मूल नाम कहीं गुम हो गया। लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान उन्हें बांबे टाकीज़ के हिमांशु राय ने कंगन फिल्म के गाने लिखने का अवसर दिया। फिर सूनी पड़ी है सितार मीरा के जीवन की...कंगन (१९३९) के लिए लीला चिटणीस ने गाया। बड़ा मशहूर हुआ यह गाना। इसके साथ ही प्रदीपजी की फिल्मों में मांग बढ़ गयी। वह सामान समेट बंबई आ गए। न जाने आज किधर मेरी नाव चली रे...(झूला) अशोक कुमार ने गाया इसे।

प्रदीपजी की मांग बढ़ती जा रही थी। प्रदीपजी को असली पहचान मिली १९४३ में रिलीज़ किस्मत से। इसमें उनका लिखा - आज हिमाला की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है...अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना द्वारा गाया देशभक्ति से ओतप्रोत यह गाना। अंग्रेजी हुकुमत की सेंसर ने इसे पारित करने से मना कर दिया। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के संदर्भ में उन्हें समझाया गया कि इससे अंग्रेज़ कौ़म का सिर ऊपर होना है। फिल्म रिलीज़ हो गयी। कलकत्ता में साढे-तीन तक चल कर इसने इतिहास रचा। बाद में जब अंग्रेज़ बहादुर को इसके सही अर्थ की ख़बर हुई तो प्रदीपजी के नाम वारंट कट गया। उन्हें कई महीने भूमिगत रहना पड़ा।

आज़ादी के बाद जागृति और फिर नास्तिक में उन्होंने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत बेहद जज्बाती गीत लिखे तो उन्हें देशभक्ति से ओतप्रोत गीतों का राष्ट्रभक्त कवि मान लिया गया। वा राष्ट्रकवि हो गये वो। ठीक है वो राष्ट्रभक्त थे। लेकिन वो एक विधा में बंध कर रहने वाले नहीं थे।

याद होगा कि आजकल चर्चित अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद गाना गाया था। यह भी एक इतिहास है। इसके लिये उन्होंने प्रदीप का ही गीत चुना- इंसान का इंसान से हो भाई-चारा, यही पैगाम हमारा....।

Wednesday, February 4, 2015

विचित्र विकट बाबू।

-वीर विनोद छाबड़ा

इस सदी के पहले दशक का प्रारंभ। भारत आधुनिकता की और तेज़ी से बढ़ रहा था। टीवी, फ्रिज, बाइक आदि कोई स्टेटस सिंबल नहीं रह गए थे।

हमारे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे, विकास राय जी। पुरातनपंथी रीति-रिवाजों के घनघोर समर्थक। इसलिए हम उन्हें विकट बाबू कहते थे।

आधुनिकता के तर्कों सहित मुखर विरोधी। टीवी/फ्रिज जैसे इंसान की मित्र वस्तुओं की हमेशा दिल से बुराई करते। इसकी कमियों को गिनाते। मटके/सुराही के पानी को सर्वश्रेष्ठ पेय और टीवी को समय की बर्बादी घोषित करते।

अलावा इसके अन्य विज्ञान के अविष्कारों मसलन पंखा, बत्ती, कूलर, वातानुकूलन, स्कूटर/बाइक, कार आदि संयंत्रों को कम से कम दो घंटा लताड़ने के बाद मेरे घर से विदा लेते। इस बीच फ्रिज में ठंडी की हुई दो-ढाई बोतल पानी की गटक जाते। चाय के तो दीवाने थे। दो प्याली, कम से कम। रिमोट से तमाम टीवी चैनल्स को उलटते-पलटते समाचार के साथ सास-बहुओं वाले सीरियल देखते।

विकट बाबू के विचारों को सुनते हुए अक्सर मुझे हाई स्कूल और इंटर परीक्षा में लिखे निबंध याद आते थे  - विज्ञान के अविष्कार समाज, पर्यावरण और संस्कृति विरोधी नहीं मित्र हैं।

जब कभी उनके घर मेहमान आते तो विकट बाबू उनको मेरे घर लाकर बैठा देते - यहां बैठ कर आपको ठंडे पानी की निरंतर आपूर्ति ही नहीं टीवी सुविधा भी २४x७ उपलब्ध रहेगी।

यों भी गर्मी के दिनों में उनकी छोटी सी बेटी भरी दोपहर किवाड़ खटखटाती -आंटी एक बोतल ठंडा पानी। अबोध बालिका। मना करने का सवाल ही नहीं। एक नही बेटा दो लेजा। ऐसा सिर्फ मेरा ही नहीं अड़ोस-पड़ोस कई लोगों का एक्सपीरियंस था। 

हमें विकट बाबू के विचारों और उनके घंटा-दो घंटा बैठने से कोई परेशानी नहीं थी। बल्कि हमारी कर मुक्त मनोरंजन की तलब पूरी होती थे। दरअसल दिक्कत थी तो समाचार और सीरियल के साथ चलती उनकी रनिंग कमेंट्री से। इस दौरान उनके होटों पर टेप लगा कर उन्हें चुप कराना एक अति विकट समस्या थी।

बहरहाल ये उनका लगभग रोज़ाना का शगल था। कभी-कभी किसी कारणवश हमें बाहर जाना पड़ता। गेट पर बड़ा सा ताला लटकता देख उनको बड़ा गुस्सा आता। दूसरे दिन इस पर लेक्चर देते कि ज़माना ख़राब है। अड़ोस-पड़ोस को खबर करके निकला करो। इसके पीछे शायद आशय ये था कि बाहर जाओ तो चाबी देकर जाया करो।

इस आधुनिकता विरोधी श्री विकट महाराज के बैंक खाते में लाखों थे। सरकारी नौकरी। मोटा वेतन मिलता था। ये पक्का था कि मेज़ के नीचे डीलिंग से उनको सख्त नफरत थी। उनसे मेरी निकटता का ये मज़बूत पक्ष था।

वो देहात से संबंधित थे। खेती-बाड़ी खूब अच्छी थी। ट्रैक्टर आदि सभी आधुनिक कृषि सयंत्र थे उनके गांव स्थित फार्महाउस पर। खेती के बारे में अपनी विशाल जानकारी से वो हमें हतप्रद कर देते। कभी-कभी हम उन्हें ट्रेक्टर वाला किसान भी कहते थे।
एक दिन उनका आना अचानक बंद हो गया।

मेरी ही नहीं सभी की पत्नी को जानकारी रहती है फलां कहां गया/गई और उनकी आमद कब होगी। अतः पत्नी से पूछा - वो विकट महाराज इधर तीन-चार दिन से नहीं दिखे। गांव गए हैं शायद?

पत्नी ने आश्चर्य से देखा मुझे - आपको मालूम नहीं? टीवी और फ्रिज जो आ गया है। अब भला क्यों आएंगे

एक व्रजपात सा हुआ। अरे वाह ये तो बहुत ही अच्छी खबर है। मैंने मन में ये सोचा ही था कि तभी बिना खटखटाये अंदर घुस आने के आदी विकट बाबू दाखिल हुए।