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वीर विनोद छाबड़ा
हम जब भी मुकेश को देखते हैं तो हमें छह-सात बरस पुराना वाक्या याद आता है और शर्मिंदा
भी होते हैं।
उस दिन फन मॉल के सामने एक भयानक एक्सीडेंट हुआ था। बहुत भीड़ लगी थी। पता चला कि
स्कूटर पर थे पति-पत्नी। एक बस उनके ऊपर से गुज़र गयी। शायद कोई बचा नहीं। कौन थे वो? पता नहीं। आते-जाते
लोग अपने वाहन किनारे खड़ी करके भीड़ में घुस रहे थे। तभी पुलिस आ गयी।
हमने एक गहरी सांस ली - पुलिस अस्पताल ले जायेगी उन्हें। किस्मत अच्छी होगी तो
बच जाएंगे।
हमें ऑफिस की देर हो रही थी। हम निकल लिए वहां से। हम ऑफिस जाकर बैठे ही थे कि
पता चला कि हमारी एक सहकर्मी और उनके पति का फन मॉल के सामने ज़बरदस्त एक्सीडेंट हुआ
है। लोहिया हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है। दोनों की स्थिति गंभीर है। हम फ़ौरन भागे
हॉस्पिटल। किस्मत के बहुत धनी थे दोनों कि उनके ऊपर से बस निकल जाने के बावजूद बच गए।
सिर्फ़ हाथ-पैर टूट ही टूटे थे। स्कूटर का कचूमर ज़रूर निकल गया।
ऐसा ही एक वाक्या हुआ था हमारे एक और मित्र
के साथ। उनका स्कूटर किसी कार से भिड़ गया। भीड़ जुट गयी। उधर से उनका छोटा भाई गुज़रा।
उसने सोचा न जाने कौन है? यहां तो तमाशा देखने के लिए भीड़ जुटती है। वो आगे निकल लिया। वो मोबाईल का ज़माना
नहीं था। शाम को घर पहुंचा तो पता चला कि उसके बड़े भाई का एक्सीडेंट हो गया है। टांग
टूट गयी है। और यह वही एक्सीडेंट था जिसे वो अनदेखा कर चलता बना था।
इसलिए अब कोई एक्सीडेंट होता है तो हम भीड़ में घुस कर देख ज़रूर लेते हैं कि कोई
अपना या अपना अड़ोसी-पडोसी तो नहीं है या कोई ऐसा तो नहीं जिसे हमारी मदद की ज़रूरत हो।