- वीर विनोद छाबड़ा
दारासिंह का नाम
जुबां पर आते ही एक ६ फ़ीट २ इंच ऊंचा मांसल शख्स सामने आता है, जिसका वज़न १२७
किलो है और सीना ५३ इंच चौड़ा। देश-विदेश में न जाने कितनी कुश्तियां उसने लड़ीं और
दुनिया के नामी पहलवानों को हराया। हालांकि लोग कहते थे कि कुश्तियां पहले से 'फिक्स' होती थीं, लेकिन कुछ साबित
नहीं हो पाया। कुछ भी हो पचास और साठ के दशक में वो शौर्य और शक्ति का प्रतीक बने
रहे। शोहदों की डंडे से खबर लेते हुए सिपाही ललकारते था - अबे, खुद को दारासिंह
समझाता है क्या? मास्टर जी भी डोले दिखाने वाले लौंडो को कालर पकड़ कर क्लास
से बाहर कर देते थे - दारासिंह बनना है तो अखाड़े में जाओ। आज की साठ साल से ऊपर
वाली पीढ़ी तो दारा सिंह की कुश्तियों और उनकी फिल्मों को देखते हुए ही बड़ी हुई है।
फिल्म वाले तो
दारासिंह की शोहरत को पचास के दशक में ही भुनाना चाहते थे। १९५२ में दिलीप
कुमार-मधुबाला की 'संगदिल' और १९५५ में रिलीज़ किशोर-वैजयंतीमाला की 'पहली झलक' में उनकी कुछ झलकियां
दिखीं भी। कुछ फिल्मों में स्टंट भी किये। लेकिन दारा सिंह को फ़िल्मी दुनिया रास
नहीं आ रही थी। गुरू लोग खूब डांटते थे - अखाड़े को तमाशा बनाना है क्या?
एक दिन दारासिंह
को खबर हुई कि रुस्तम-ए-जमां गामा पहलवान की तबियत बहुत नासाज़ है। वो उन्हें देखने
लाहोर गए। उनकी बदहाली ने दारासिंह को बहुत भीतर तक हिला दिया। समझ में आ गया कि
ज़िंदगी चलाने के पहलवानी काफ़ी नहीं है। फिल्मों में काम करने को राज़ी हो गए। पहली
फिल्म थी - बाबूभाई मिस्त्री की - किंगकांग। मज़े की बात तो यह रही कि १९६२ में
रिलीज़ इस फिल्म में किंगकांग विलेन था। यह सफल फिल्म थी। इसके बाद दारासिंह ने कभी
पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक के बाद एक १२२ फिल्मों में काम किया। फौलाद, हर्क्युलीज़,
बॉक्सर, सैमसन, नसीहत, लुटेरा, आया तूफ़ान,
संग्राम, जरनैल सिंह, डाकू मंगल सिंह, रुस्तमे हिंद,
सिकंदर-ए-आज़म आदि बहुत मशहूर हुईं। आगे चल कर नानक दुखिया सब संसार, मेरा धर्म मेरा
देश, भगत धन्ना जट्ट, सवा लाख से एक
लड़ाऊं, भक्ति में शक्ति, धयानू भगत और
रुस्तम निर्देशित भी कीं। मुमताज़ उनकी सबसे प्रिय नायिका थी। दोनों ने १६ फ़िल्में
कीं। दर्शकों में पागलपन की हद तक दीवानगी थी।
DaraSingh with Mumtaz |
एक दिन दारासिंह
का मन फिल्मों में पहलवानी करते-करते ऊब गया। भक्ति की तरफ रुख किया। 'वीर भीमसेन'
में वो भीम बने। 'बजरंगबली' में हनुमान की भूमिका में वो इतने फबे कि
रामानंद सागर को टीवी सीरियल 'रामायण' में वही हनुमान
दिखे। बीआर चोपड़ा के टीवी सीरियल 'महाभारत' में वो बूढ़े
हनुमान थे। 'लवकुश' में एक बार फिर हनुमान वही थे। एक
समीक्षक का कहना था कि असली हनुमान दारासिंह जैसे ही दिखते होंगे। तुलसी विवाह और
हर हर महादेव में भगवान शिव की भूमिका में उन्हें देख कर एक अन्य समीक्षक ने उनके
उच्चारण पर टिप्पणी की थी - भगवान शिव ज़रूर पंजाबी रहे होंगे।
पंजाबियत उनके खून
में ही नहीं उच्चारण में भी थी। दारासिंह को इसका अहसास था। वो अंत तक भारत को 'पारत' और मोहब्बत को 'मोबत' कहते रहे। वो खुद
ही चटखारे लेकर सबको बताया करते थे कि उन्हें उर्दू सिखाते-सिखाते उनका टीचर
मुशर्रफ़ हुसैन पंजाबी सीख गया।