Wednesday, November 30, 2016

दारासिंह को उर्दू सिखाने आया टीचर पंजाबी सीख गया

- वीर विनोद छाबड़ा
दारासिंह का नाम जुबां पर आते ही एक ६ फ़ीट २ इंच ऊंचा मांसल शख्स सामने आता है, जिसका वज़न १२७ किलो है और सीना ५३ इंच चौड़ा। देश-विदेश में न जाने कितनी कुश्तियां उसने लड़ीं और दुनिया के नामी पहलवानों को हराया। हालांकि लोग कहते थे कि कुश्तियां पहले से 'फिक्स' होती थीं, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। कुछ भी हो पचास और साठ के दशक में वो शौर्य और शक्ति का प्रतीक बने रहे। शोहदों की डंडे से खबर लेते हुए सिपाही ललकारते था - अबे, खुद को दारासिंह समझाता है क्या? मास्टर जी भी डोले दिखाने वाले लौंडो को कालर पकड़ कर क्लास से बाहर कर देते थे - दारासिंह बनना है तो अखाड़े में जाओ। आज की साठ साल से ऊपर वाली पीढ़ी तो दारा सिंह की कुश्तियों और उनकी फिल्मों को देखते हुए ही बड़ी हुई है।
फिल्म वाले तो दारासिंह की शोहरत को पचास के दशक में ही भुनाना चाहते थे। १९५२ में दिलीप कुमार-मधुबाला की 'संगदिल' और १९५५ में रिलीज़ किशोर-वैजयंतीमाला की 'पहली झलक' में उनकी कुछ झलकियां दिखीं भी। कुछ फिल्मों में स्टंट भी किये। लेकिन दारा सिंह को फ़िल्मी दुनिया रास नहीं आ रही थी। गुरू लोग खूब डांटते थे - अखाड़े को तमाशा बनाना है क्या?

एक दिन दारासिंह को खबर हुई कि रुस्तम-ए-जमां गामा पहलवान की तबियत बहुत नासाज़ है। वो उन्हें देखने लाहोर गए। उनकी बदहाली ने दारासिंह को बहुत भीतर तक हिला दिया। समझ में आ गया कि ज़िंदगी चलाने के पहलवानी काफ़ी नहीं है। फिल्मों में काम करने को राज़ी हो गए। पहली फिल्म थी - बाबूभाई मिस्त्री की - किंगकांग। मज़े की बात तो यह रही कि १९६२ में रिलीज़ इस फिल्म में किंगकांग विलेन था। यह सफल फिल्म थी। इसके बाद दारासिंह ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक के बाद एक १२२ फिल्मों में काम किया। फौलाद, हर्क्युलीज़, बॉक्सर, सैमसन, नसीहत, लुटेरा, आया तूफ़ान, संग्राम, जरनैल सिंह, डाकू मंगल सिंह, रुस्तमे हिंद, सिकंदर-ए-आज़म आदि बहुत मशहूर हुईं। आगे चल कर नानक दुखिया सब संसार, मेरा धर्म मेरा देश, भगत धन्ना जट्ट, सवा लाख से एक लड़ाऊं, भक्ति में शक्ति, धयानू भगत और रुस्तम निर्देशित भी कीं। मुमताज़ उनकी सबसे प्रिय नायिका थी। दोनों ने १६ फ़िल्में कीं। दर्शकों में पागलपन की हद तक दीवानगी थी। 
DaraSingh with Mumtaz
एक दिन दारासिंह का मन फिल्मों में पहलवानी करते-करते ऊब गया। भक्ति की तरफ रुख किया। 'वीर भीमसेन' में वो भीम बने। 'बजरंगबली' में हनुमान की भूमिका में वो इतने फबे कि रामानंद सागर को टीवी सीरियल 'रामायण' में वही हनुमान दिखे। बीआर चोपड़ा के टीवी सीरियल 'महाभारत' में वो बूढ़े हनुमान थे। 'लवकुश' में एक बार फिर हनुमान वही थे। एक समीक्षक का कहना था कि असली हनुमान दारासिंह जैसे ही दिखते होंगे। तुलसी विवाह और हर हर महादेव में भगवान शिव की भूमिका में उन्हें देख कर एक अन्य समीक्षक ने उनके उच्चारण पर टिप्पणी की थी - भगवान शिव ज़रूर पंजाबी रहे होंगे।
पंजाबियत उनके खून में ही नहीं उच्चारण में भी थी। दारासिंह को इसका अहसास था। वो अंत तक भारत को 'पारत' और मोहब्बत को 'मोबत' कहते रहे। वो खुद ही चटखारे लेकर सबको बताया करते थे कि उन्हें उर्दू सिखाते-सिखाते उनका टीचर मुशर्रफ़ हुसैन पंजाबी सीख गया।

Tuesday, November 29, 2016

भूतनी देवी का इंसाफ़।

- वीर विनोद छाबड़ा
वो अपने प्रेमी की याद में खोयी थी। पूरे मन से। सुध-बुध नहीं रही कि कौन आ रहा है और कौन जा रहा है।
इसी बीच उधर से एक पहुंचे हुए तीनों लोकों की यात्रा पर निकले घुम्मकड़ ऋषि गुज़रे। प्यास से व्याकुल थे। बोले - बच्ची पानी पिला दे। पुण्य प्राप्त होगा तुझे।
लेकिन वो भक्तन तो डूबी थी अपने पिया की याद में। उसने न सुना और न देखा कि द्वारे पर कौन आया।
ऋषि जी को क्रोध आया। श्राप दे मारा - जा तू भूतनी बन जा। तेरे रूप और लावण्य पर मोहित तेरा प्रेमी तुझसे नफ़रत करेगा। एक नज़र ताकेगा भी नहीं।
यह सुन कर वो व्याकुल हो गयी। मुझे क्षमा करें ऋषिवर। भारी भूल हो गयी।
ऋषि तो ऋषि होते हैं। ऊपर से कठोर मगर अंदर से नरम। बोले - जो हो गया, सो हो गया। धनुष से छूटा बाण और मुंह से निकला शब्द वापस नहीं हो सकता। तू रहेगी तो भूतनी ही लेकिन सहृदय और परोपकार वाली। लोग तेरी पूजा करेंगे। तेरे में शक्ति होगी कि तू प्रसन्न हो कर जिसे भी चाहे उसके जीवन काल में एक वरदान दे सकेगी। तू भूतनी देवी कहलायेगी।
यह कर ऋषि जी ने पानी पिया और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ लिए।
एक दिन एक सीनियर सिटिज़न जोड़ा आया। दोनों की उम्र साठ के आस-पास रही होगी। उन्होंने महीनों भूतनी देवी की आराधना की थी। इस बावत भूतनी देवी मंदिर के पुजारी का सर्टिफिकेट भी उन्होंने प्रस्तुत किये। भूतनी देवी प्रसन्न हुईं। मांगो, क्या वरदान चाहिए तुम दोनों को?

Monday, November 28, 2016

बैंड, बाजा और बारात।

-वीर विनोद छाबड़ा 
बंदा जब कभी विवाह मंडप सजा देखता है तो साठ और सत्तर के दशक की गलियों में पहुंच जाता है.... 
मोहल्ले में लड़की की शादी है। पूरा मोहल्ला उमड़ पड़ा है। तजुर्बेकार ताऊ चार दिन पहले ही मैनेजरी की भूमिका में दिखता है। सब ताऊ से ही पूछते हैं - जी कुछ काम बताओ। गली के लड़कों ने परसों से ही स्कूल से छुट्टी ले रखी है। पतंगी कागज़ की रंग-बिरंगी झंडियां बन चुकी हैं और अब चारों ओर बंध रही हैं। स्वागत बारात के लिए पाठशाला का मैदान तय है। तंबू तन रहे हैं। बिजली की झालरें भी साथ साथ लग रही है। दरियां भी बिछ रही हैं।
लावां-फेरे के लिए मंडप घर के विशाल और खुले आंगन में  सज रहा है। भोजन के लिए साठ थालियां का सेट कल्याण समिति से आया है। हर थाल में तीन कटोरियां, गिलास और चम्मच। सब स्टील का माल है। जो बंदा गिन के लाया है वही गिन के वापस भी करेगा। इसका कोई चार्ज नहीं होता था। बस श्रद्धा स्वरूप ५१ या अधिक से अधिक १०१ का दान। 
बड़े-बड़े पतीले और कढ़ाईयां का तो हलवाई ने जुगाड़ किया है। वो पड़ोसी मोहल्ले का है। भरोसेमंद है। अपना समझ कर काम करता है। भाव तय नहीं होता। जो ख़ुशी हो दे देना। न भी देना तो भी चलेगा। अरे, बेटी की शादी है। आपकी हो या मेरी। लड़के की होती तो दिल खोल कर ईनाम मांगता।
छत पर लाऊडस्पीकर तो एक दिन पहले बज रहा है - सैयां झूठों का बड़ा सरताज निकलामाना जनाब ने पुकारा नहींझूम झूम कर नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत.
इधर ताऊ हर तीन-चार घंटे पर कामों की समीक्षा करते हैं। जहां कमी देखी या सुस्ती पाई तो जम कर लथेड़ दिया।
सब्जीमंडी से लोग लौट आये हैं। औरतें अपने घरों से निकल पड़ीं और चाकू-छुर्री लेकर आलू-प्याज और गोभी काटने पर जुट गयीं। कुछ को मटर और कुछ को गाजरें दे दी गयीं। 
बारात आने में दो घंटे बाकी हैं। बर्तन धोकर और कायदे से पोंछ मेज़ों पर सजा दिए हैं। लीजिये आ गयी बारात। गैस-बत्ती की रोशनी में नाचते-गाते बाराती। मोहल्ला छतों पर चढ़ गया है। बड़े कौतुहल से देख रहे हैं।
खाने पर बाराती बैठ गए हैं। हम लोग छोटी-छोटी बाल्टियां, चौघड़े-दोघड़े में सब्जी रसेदार-सूखी, रायतादान, रोटी तंदूर-तवा, पूड़ी, गाजर हलवा या गुलाब जामुन लिए कुर्सी-कुर्सी जाते हैं। इसरार करते हैं - एक रोटी और लीजिये प्लीज, ये गोभी-आलू तो आपने लिया नहीं, ये मीठा कहां चखा.
इस बीच ताऊ उत्पादन, प्रेषण और वितरण पर बराबर नज़र रखते हैं। कहीं कोई रूकावट न आये, कमी न होने पाये। साठ बाराती भोजन कर चुके हैं। मेज़ों पर पड़ी चददर पलट दी गयी। इस बीच हम युद्धस्तर पर बर्तन धोते हैं। कुछ पोंछते भी जाते हैं।

Sunday, November 27, 2016

शेव से अब भी भागता हूं।

- वीर विनोद छाबड़ा
सच बताऊं मूलतः मैं कतई आलसी नहीं हूं। लेकिन बात जब शेव करने की होती है तो सोचता हूं बनाने वाले ने पुरुषों को दाढ़ी क्यों दी?
एक ज़माना था जब चेहरे पर दाड़ी नहीं उगी थी। रोज़ ऊपर वाले से दुआ करते थे कि जल्दी से दाढ़ी दे ताकि एडल्ट फ़िल्में देखने की चाहत पूरी हो। उन दिनों सिनेमा हाल के मैनेजर बहुत सख़्त किस्म के हुआ करते थे। गेट पर खड़े हो जाते थे कि कोई नाबालिग़ घुसने न पाये। किसी थानेदार से कम हनक नहीं थी उनकी।

ख़ैर, हर घूरे के दिन बदलते हैं। हमारे भी बदले। घनी दाढ़ी। गल गल हो उठते थे हम। कभी-कभी शेव भी होती। चेहरा खिल उठता था। एकदम से चिकना-चुपड़ा। अंग्रेज़ी की एडल्ट फिल्म देखने घुसते तो गेट-कीपर बड़ी घूर कर ऊपर से नीचे तक देखा करता था।
हमें याद है १९७० की बात है। गर्मी की छुट्टियां मनाने हम दिल्ली गए थे। हर तरीके से एडल्ट थे। प्लाज़ा में 'ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड' चल रही थी। शुद्ध एडल्ट फ़िल्म। दिल्ली के मुक़ाबले लखनऊ में अंग्रेज़ी फ़िल्में बहुत लेट आती थीं। चाचा ने कहा यह दाढ़ी तो हटाओ। कनॉट प्लेस जा रहे हो। हमने बात अनसुनी कर दी। लेकिन रास्ते में हमने सोचा कि चाचा ने ठीक ही कहा है। हमारा चेहरा-मोहरा अच्छा है तो दुनिया को भी अच्छा दिखना चाहिए। अंग्रेज़ी फिल्म है जेंट्री भी टॉप-क्लास होगी।
हमारे दिल में तो लड़कियों को देख कर अक्सर हूकें उठा करती थीं, हो सकता उनमें से किसी की हुक हमें देख कर उठे। आखिर उन्नीस प्लस के नौजवान हैं हम। घुस गए एक हेयर कटिंग सैलून में। अब तक हम घर में ही शेव करते थे। बहरहाल, नाई को इंस्ट्रक्शन दिए कि मूंछ ज़रूर रहनी चाहिए। मगर उससे थोड़ी गड़बड़ हो गई। सफ़ाचट ही कर दिया। अब उन्नीस प्लस से सीधा चौदह-पंद्रह के दिखने लगे। नाई से जो बहस हुई सो हुई, नुक्सान यह हुआ कि सिनेमा हाल में एंट्री नहीं मिली। बहुत समझाया कि हम बीए के स्टूडेंट हैं। बात मैनेजर तक पहुंची। वहां अंगेज़ी में बोले तो बामुश्किल बात बनी। उसने बहुत घूर कर भी देखा था हमें।
यूनिवर्सिटी के दिनों में हम अक्सर दाढ़ी-मूंछ में ही रहते थे। परिवर्तन के लिए किसी दिन सफ़ाचट भी होना पड़ा। उन दिनों लंबे बालों का फैशन था। साथ में छींटदार शर्टें। लड़कियों के झुंड में हमें खड़े देख कई लोग कन्फ्यूज़ हो जाते थे।

Saturday, November 26, 2016

उस किरदार के लिए तैयार नहीं हुई थी निम्मी

-वीर विनोद छाबड़ा
शिक्षक मोहन की मां सख्त बीमार है। डॉक्टर ने कहा इनको दवाइयों की नहीं बहु की ज़रूरत है। मोहन शादी के पक्ष में कतई नहीं है। एक हमदर्द पड़ोसी ने सुझाया कि वो एक एक्ट्रेस रजनी को जानता है। उसे विश्वास है कि वो पैसे लेकर नकली पत्नी बनने को तैयार हो जायेगी। जब मां ठीक हो जायेगी तो उसे वापस भेज देंगे। और रजनी तैयार हो गई। मां ठीक होने लगी। मां ने रजनी को कीमती जेवरात भी दे दिये। उसका मन बेईमान हो गया। लेकिन सहसा उसके अंदर की औरत जाग उठी। वो मोहन से प्यार करने लगी। दुल्हन बनने के सपने देखने लगी। मोहन भी उस पर जान छिड़कने लगा। लेकिन एक दिन मोहन को पता चला कि रजनी वास्तव में एक मशहूर कोठे वाली चंपाबाई है। मां को आघात लगता है। सपने टूट गए। एक ड्रामा होता है। एक दलाल चंपाबाई को समाज का आईना दिखाता है। सपने देखना तुम्हारे नसीब में नहीं है, चंपाबाई। मोहन की मां की आंख खुल जाती है। तू बहु बन कर आयी थी, अब वेश्या बनने नहीं जायगी। सुखांत।
प्रगतिशील विचारधारा के पंडित मुखराम शर्मा ने यह फ़िल्मी कहानी लिखी। उस ज़माने में कोठे वाली बाई का घर बसाना अफ़सानों में मुमकिन था, लेकिन स्क्रीन पर नहीं। स्क्रीन पर ऐसे किरदार को आख़िर में मरना पड़ता है या यूं कहें मारा जाता है। लेकिन पंडित जी का विचार था कि औरत ख़ुशी से वेश्या नहीं बनती है। वो वेश्या को इज़्ज़त की ज़िंदगी देने के हक़ में थे। लेकिन यक्ष प्रश्न उनके ज़हन में उठा कि इस साहसिक कृति  पर फ़िल्म कौन बना सकता है? उन्हें बिमल रॉय का नाम सुझाई दिया जो 'परिणीता' और 'देवदास' जैसी बेहतरीन फ़िल्में बना चुके थे।

पंडित जी बड़े उत्साह और विश्वास के साथ बिमल दा के घर पहुंचे। बिमल दा ने बड़े ध्यान से कहानी सुनी। उन्हें बहुत ही पसंद आयी। मगर उन्हें कहानी का सुखांत होना पसंद नहीं आया। हमारा समाज वेश्या को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। वेश्या को मार दो। खूब सहानुभूति मिलेगी।
पंडित जी को ज़बरदस्त धक्का लगा। इतने प्रोग्रेसिव बिमल दा समाज से डर गए!
पंडित जी अपने विचारों को बदलने वालों में कभी नहीं रहे। वो ख़फ़ा हो गए। उनका अगला स्टॉप था बीआर चोपड़ा। वो प्रगतिशील थे और बोल्ड भी। उन्होंने कहानी सुनी और जब उन्हें पता चला कि बिमल रॉय इसे नापसंद कर चुके हैं तो लगा किसी ने चैलेंज किया है। फ़िल्म ज्यूं के त्यूं एंड के साथ बनेगी। फिल्म का नाम रखा - साधना। 
समस्या हुई कास्टिंग को लेकर। निम्मी को अप्रोच किया। लेकिन वो तैयार नहीं हुई। उन्हें खतरा था कि वेश्या का किरदार करने से उनकी इमेज ख़राब होगी और पहले से डांवांडोल खतरे में पड़ेगा। तब बीआर ने वैजयंतीमाला को अप्रोच किया, जो उनकी पिछली फिल्म 'नया दौर' की नायिका थी।

Friday, November 25, 2016

पड़ोसन का बहनापा।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे बचपन की बात है। हमारी एक पड़ोसन हुआ करती थीं, सावित्री। मां की उनसे बहुत पटरी खाती थी। समझो बहनों जैसा प्यार था उनमें। इसीलिए हम उन्हें मासी कहते थे। एक दिन मां का सावित्री मासी से किसी बात पर अनबन हो गयी। बात यहीं तक नहीं रुकी। तू तू-मैं मैं से हाथापाई की नौबत आ गयी। ख़ासा गर्मा-गर्मी का माहौल बन गया। दोनों ने एक-दूसरे की सूरत तक न देखने की क़सम खायी। तुझे क़सम है कि मेरे मरने पर भी नहीं आना। आजू-बाजू वालों का तो टैक्स फ्री एंटरटेनमेंट हो गया।

लेकिन यह कोई नयी बात नहीं थी। महीने-दो महीने पीछे ऐसा एक आध २०-ट्वेंटी हो ही जाया करता था। और फिर दूसरे-तीसरे दिन किसी न किसी बहाने फिर वही बहनापा स्थापित हो जाता था।
बहरहाल, उस दिन शाम हुई। मां का गुस्सा अभी तक उतरा नहीं था। बड़बड़ किये ही जा रही थी। दीवार उस पार अपने आंगन में सावित्री मासी भी कम नहीं बड़बड़ा रही थी। ये बड़बड़ाना दोनों मुंहबोली बहनों के बीच स्नेह का बैरोमीटर था।
तभी सावित्री मासी के घर के सामने एक तांगा रुका। मेहमान आये हैं। मां ने थोड़ा सा दरवाज़ा खोल कर टोह ली। अरे, यह तो सावित्री के मायके वाले हैं।
मां ने तुरंत थैला उठाया। उसमें कुछ क्रॉकरी, कुछ मट्ठियां, कुछ बेकरी के बने बिस्कुट और एक डिबिया में थोड़ा सा अचार रखा। तभी मां को कुछ और याद आया। अख़बार फाड़ा। एक टुकड़े में थोड़े से सौंफ़ लपेटे।
इस बीच मां का बड़बड़ाना बराबर जारी रहा ...मैं सावित्री की रग-रग से वाक़िफ़ हूं। घर में कुछ है नहीं उसके। लेकिन मुझसे नहीं कहेगी। कद छोटा हो जायेगा न। पीतल के गिलासों में चाय पिलायेगी और पापड़ भून कर सामने रख देगी। मेहमानों के सामने बेइज़्ज़ती कराएगी अपनी भी और पड़ोसियों की भी। जा कर चुपचाप देना। संभाल कर ले जाना, कुछ टूटने न पाये। यह क्रॉकरी का सेट सरला बहनजी का है। तेरे ताऊजी आये उस दिन तब मांग कर लायी थी। इतने दिन से रखा है।  न मुझे फ़ुरसत मिली वापस करने की और उन्हें याद आई....और हां मासी से याद से यह भी कह देना, अपने मायके वालों को हमारे घर मिलाने ज़रूर लाये। पिछली बार भूल गयी थी। मैं बेसन घोलने जा रही हूं। उसके मायके वालों को गोभी के पकौड़े बहुत पसंद हैं।

Thursday, November 24, 2016

पर्दे पर क्यों साथ नहीं दिखे युसूफ और काका!

- वीर विनोद छाबड़ा 
दिलीप कुमार की धरोहर राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट। एक रीटेक से कभी संतुष्ट नहीं हुए। रीटेक पर रीटेक। अब यह बात दूसरी थी कि रिव्यु किया गया तो पहला ही सही पाया गया। ख़बर थी कि दोनों में बहुत पटरी खाती थी। यानी कि परफेक्ट अंडरस्टैंडिंग। लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर' इन दो लीजेंड को एक-साथ लाने की कोशिश नहीं हुई। अगर ये आमने-सामने खड़े हुए होते तो हमारा दावा है कि एक्टिंग की यूनिवर्सिटी में चल रही तमाम किताबों का आख़िरी चैप्टर भी यूसुफ-काका की बेजोड़ परफॉरमेंस होती।
दिलीप कुमार-राजकपूर फ़िल्मी दुनिया के कोहिनूर थे। रीएल लाईफ़ में बेहतरीन दोस्त। आस-पास के इलाके के रहने वाले और एक कॉलेज में पढ़े हुए। पारिवारिक संबंध भी थे। दिलीप-सायरा के निकाहनामे पर दस्तखत करने वालों में राजकपूर भी थे। लेकिन रील लाईफ़ में सिर्फ़ एक बार ही आमने-सामने हुए, महबूब खान की 'अंदाज़'(१९४९) में। बहुत अच्छी परफॉरमेंस। दोनों को इसी फिल्म ने स्टार बनाया। हालांकि इसके बाद कोशिशें बहुत हुईं इनको साथ-साथ लाने की। खुद राजकपूर ने 'संगम' और फिर 'बॉबी' के लिए दिलीप से बात की। लेकिन राजी नहीं कर पाए। शायद दिलीप कुमार को अंदेशा रहा कि मीडिया ख़ामख़्वाह की एक बहस शुरू करा देगा कि छोटा कौन और बड़ा कौन। जैसा कि 'विधाता' में दिलीप कुमार और संजीव कुमार के बीच बेहतर कौन को लेकर लंबे समय तक चर्चा होती रही। और दिलीप विरोधी लाबी दिलीप कुमार को छोटा बताती रही। नतीजा यह हुआ कि दिलीप कुमार ने संजीव के साथ दोबारा साथ आने से इंकार कर दिया। दिलीप कुमार और देवानंद के बीच भी बहुत गहरी दोस्ती रही। मगर परदे पर जैमिनी की 'इंसानियत' के बाद इनको साथ लाने की कोशिश नहीं हुई। देवानंद भी ताउम्र अकेले ही चलते रहे।
उस दौर के एक और लोकप्रिय स्टार राजेंद्र कुमार भी होते थे। उन्होंने दोस्ती के नाम पर राजकपूर की 'संगम' की और फिर बरसों बाद बुढ़ापे में 'दो जासूस'। अच्छा लगी दोनों की चुहल-बाज़ी। मगर फिल्म चली नहीं। फिर किसी ने कोशिश नहीं की। इस तरह की फिल्मों में ज़रूरी है कि अदाकारों के बीच केमेस्ट्री बहुत अच्छी होनी चाहिए। याद करिये 'विक्टोरिया नं २०३' में अशोक कुमार-प्राण की जोड़ी।
राजेंद्र कुमार ने अपने सुनहरे दौर में अकेले ही चलने का फैसला किया। समीक्षक कहते थे राजेंद्र पर दिलीप कुमार की छाया है। राजेंद्र स्वीकार भी करते थे। स्क्रीन पर अगर इनका आमना-सामना होता तो दूध और पानी अलग हो जाता। शम्मी कपूर से भी लोग डरते थे कि कहीं यह बंदा अपनी बिंदास अदाओं से दूसरे स्टार को डस न ले।

Wednesday, November 23, 2016

सिनेमा में ब्लैकमनी

- वीर विनोद छाबड़ा 
काले धन का जब भी नाम लिया जाता है तो नज़र स्वतः सिनेमा जगत की और घूम जाती है। माना जाता है कि कोई भी फिल्म बिना काले धन के नहीं बन सकती। एक ज़माना था जब फिल्म की शूटिंग में इस्तेमाल होने वाली फिल्म की रील, जिसे रॉ स्टॉक कहते थे, विदेश से आयात की जाती थी। विदेशी मुद्रा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। परफेक्शन में यकीन रखने वाले बड़े स्टार रिटेक पे रिटेक पर ज़ोर देते थे। नतीजा निर्धारित रॉ स्टॉक का कोटा तो फिल्म के आधे सफर में खर्च हो जाता था। विदेशी मुद्रा के मामले सरकार बहुत फ़कीर और कंजूस थी। लेकिन इसके बावज़ूद निर्माता दो नंबर के रास्ते से इंतज़ाम करता था। स्पष्ट था कि यह ब्लैक से ही होता था।
सर्वविदित है कि देश में कालाधन बहुत है। इस काले धन को निवेश करने और सफ़ेद बनाने के लिए कई मंडियां हैं। लेकिन सबसे आकर्षक और बढ़िया फ़िल्मी दुनिया है। सपनों की जादुई दुनिया है। यों भी यहां पैसा, शबाब और शराब सब कुछ प्रचुर मात्रा में है। ऐसा नहीं कि सिर्फ काले धन को सिनेमा की ज़रूरत है, सिनेमा को भी काले धन की ज़रूरत है। दोनों एक-दूसरे के पक्के साथी हैं। बैंकों और धन्ना सेठों से कर्ज लेना बहुत महंगा है, जबकि कालेधन के कारोबारी इस मामले में दरियादिल हैं। लेकिन शर्त है कि सौ करोड़ में बीस करोड़ कागज़ पर और बाकी अस्सी करोड़ नकद, मेज़ के नीचे से और कोई रसीद नहीं। निर्माता की मजबूरी है। सबसे ज्यादा परेशानी तो उसे नामी आर्टिस्टों से होती है। उनको आधी पेमेंट चेक से चाहिए और बाकी बिना रसीद कैश। कुछ बड़े आर्टिस्ट तो किसी क्षेत्र के वितरण अधिकार ले लेते हैं। कुछ लोग हीरे-जवाहरात के शौक़ीन होते हैं। काले धन निवेशकों को भी लालच दिया जाता है। बदले में किसी मुल्क के वितरण अधिकार दे दिए। काला धन वितरकों के माध्यम से भी आता है। कई सिनेमा मालिक लैब से चोरी हुए फिल्म प्रिंट दिखाते हैं। यह कमाई काली होती है।
Nargis in Shri 420
काली कमाई से सिर्फ कलाकार ही अमीर नहीं होते, बल्कि निर्माता और यूनिट से जुड़े तमाम अहम लोग भी बहती गंगा में हाथ धोते हैं। बताया जाता है कि सेट बनाने में इस्तेमाल होने वाले सामान दुगने-तिगुने दाम पर खरीदे जाते हैं। आवागमन के लिए टैक्सियों का भाड़ा और जूनियर आर्टिस्टों के पेमेंट के नाम पर फ़र्ज़ी भुगतान के बिल और प्राप्ति रसीदें बनती हैं। इसके अलावा महंगा लंच सर्व होता है और यूनिट के सदस्यों का इलाज़ भी होता है। ज़ाहिर है यह और यह सब फ़र्ज़ी होता है। और इस फर्ज़ीवाड़े को अंजाम देने वाले निर्माता के कोई 'अपने' ही होते हैं।
अंडरवर्ल्ड को तो फिल्मों में कालाधन निवेश करना बहुत ही भाता है। सन २००१ की सलमान खान-रानी मुखर्जी-प्रिटी जिंटा की हिट फिल्म 'चोरी चोरी चुपके चुपके' महीनों सीबीआई के पचड़े में फंसी रही, जब पता चला कि इसमें माफिया छोटा शकील ने फाइनांसर भरत शाह के माध्यम से कालाधन लगाया है। भरत शाह हफ़्तों सीखचों के पीछे भी रहे।
वो ज़माना याद आता है जब आर्टिस्ट मुफलिसी में मरता था। लेकिन आज की फ़िल्मी लोग इल्मी न सही लेकिन समझदार बहुत हैं। वो कमाई के साथ-साथ काले धन को खपाना भी जानते हैं। खबर है कि प्रॉपर्टी और व्यापार में निवेश करते हैं। हीरे-जवाहरात खरीदते हैं। रेस्तरां और ब्यूटी पार्लर चलाते हैं। हवाला के ज़रिये विदेश में पैसा जमा होता है। पिछले दिनों पनामा लीक्स से पता चला था कि कई नामी फ़िल्मी हस्तियों ने विदेशों में कंपनियां खोल रखी हैं। इनके माध्यम से भी फिल्मों में पैसा निवेश होता है और कमाई बाहर जाती है। कुल मिला फिल्म व्यापार एक  भूल-भुलैयाँ है, जिसमें पता लगाना बहुत मुश्किल है कि कहां-कहां से पैसा आता है? कैसे कैसे खर्च होता है? किस किस में किस प्रतिशत से हिस्सा-बांट होती है? और फिल्म की कमाई से काले धन को सफ़ेद कैसे किया जाता है?

Tuesday, November 22, 2016

आज़ादी भली।

- वीर विनोद छाबड़ा
मैं एक एक छोटा सा झक सफ़ेद पैमैरियन कुत्ता हूं। सब मुझे डोंगी कहते हैं। बहुत लाड़ला हूं। मौजां ही मौजां हैं। जब तब किसी की भी गोद में बैठ जाता हूं। सब खूब प्यार करते हैं। खूब बढ़िया खान-पान है। दूध,ब्रेड और ग्रेनूलस और हफ्ते में दो बार उबला हुआ कीमा।

बीमार पड़ता हूं तो मुझे कुत्तों वाला डॉक्टर घर देखने आता है। मेरा अपना डॉग-हट है, जिसमें बढ़िया और मुलायम बिछौना है। लेकिन मुझे सोफे पर सोना अच्छा लगता है। पूरा घर एयर कंडीशन है।
जितने सुख हैं, उतने दुःख भी हैं। गले में हर समय पट्टा पड़ा रहता है। गुलामी का अहसास होता है। तिस पर चारदीवारी की क़ैद। मालिक को भय है कि बाहर बाज़ारू कुत्ते नोच मारेंगे। पॉटी के लिए भी ज़ंज़ीर में रहना पड़ता है। साहब साथ में मोटा डंडा लेकर चलते हैं। क्या मज़ाल कि कोई बाहरी कुत्ता पास फटखने पाये। किसी से दोस्ती करना भी गुनाह है। इंसानों को मेरी भाषा ही समझ में नहीं आती है। अपने दिल की बात कहूं तो किससे और कैसे?
हमारी ज़िंदगी बहुत लंबी होती है। अपनी मौत मरते हैं। मगर बड़ी तकलीफ़ देह होती है। अभी साल भर पहले की बात है। हमारे घर में एक बड़ा अल्सेशियन कुत्ता था। बहुत बूढ़ा हो गया था। बताते हैं चौदह साल की उम्र थी। दिन-रात दर्द से कराहता था। डाक्टर ने बताया कि इसे पैरालिसिस हो गया है और अर्थराईटिस भी है। किडनियां भी तकरीबन काम नहीं कर रहीं है। लीवर फंक्शन भी अफेक्टेड है। मल्टीपल डीसीज़ है। तब साहेब के कहने पर डाक्टर ने उसे मौत का इंजेक्शन लगा दिया। बेचारे को दर्दभरी जिंदगी से छुटकारा मिल गया। नौकर उसे बोरे में डालकर जाने कहां फ़ेंक आया था।

Monday, November 21, 2016

लिखे जो खत तुझे...

-वीर विनोद छाबड़ा
क्या दिन थे वो भी जब बांवरे होकर भागते थे डाकिये के पीछे - चिट्ठी आई, चिट्ठी आई। पिताजी उर्दू के अफ़सानानिगार थे। अतः रोज़ ढेरों चिट्ठियां आया करती थीं। उर्दू में और हिंदी में भी। हिंदी तो हम समझ जाते थे लेकिन कुछ मज़ेदार उर्दू वाली चिट्ठियां पिताजी पढ़ कर सुनाते थे। अंग्रेज़ी में ज्यादातर हमारे मामा ही लिखते थे। अंग्रेज़ी में एमए थे। उस ज़माने में अंग्रेज़ी वाले को तोप माना जाता था। हमें भी बड़ा शौक था अंग्रेज़ी में लिखने का। टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में अपने रिश्तेदारों को लिखते थे। बाद में पता चला वो बहुत हंसते थे।
बाद में बड़े होकर हम लंबी-लंबी चिट्ठियां लिखने लगे, लेकिन हिंदी में। बड़ा मज़ा आता था। पहले अपने घर भर के लोगों का नाम लिखा। उनकी तरफ से चिट्ठी पाने वाले के घर भर के सदस्यों को नमस्ते। इसी में चिट्ठी भर जाती थी। बचे हिस्से में अड़ोसी-पड़ोसियों का हाल-चाल और साथ में यह ज़िक्र करना कि किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक लिखें।
सुख दुःख, पास-फेल, जनम-मरण आदि सबका सहारा एक अदद चिट्ठी ही तो थी। कुछ लोग मानते थे कि कई दिनों तक चिट्ठी न आये तो समझो सुख ही सुख है। लेकिन कई को चिंता रहती थी कि ज़रूर चाचा का बेटा फेल हुआ होगा, इसीलिए मारे शर्म के लिख नहीं रहे। ग़म की ख़बर हो तो पोस्ट कार्ड थोड़ा फाड़ दिया जाता था।

हमें एक मज़ेदार किस्सा याद आता है। हमारी मामी पढ़ी-लिखी कतई नहीं थीं। एक साथ दस-पंद्रह पोस्ट कार्ड किसी से लिखवा कर रख लेती थी। सबमें एक ही इबारत। एक बार उनकी बेटी मुन्नी भोपाल से लखनऊ वापस गयी। रिवाज़ के अनुसार राजी-ख़ुशी से पहुंचने की सूचना देना ज़रूरी होता था। लेकिन मामी के हर ख़त में ज़िक्र होता था कि मुन्नी नहीं आई है। आख़िरकार जान-पहचान के एक सिपाही की मदद ली गयी। जहां पोस्ट कार्ड मिलने में दिक्कत होती थी या जो सुस्त होते थे वहां जवाबी पोस्ट कार्ड भी चलन था।
चिट्ठी के महत्व का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि बड़े बड़े महापुरुषों की चिट्ठियों को संभाल कर रखा गया है। उन चिट्ठियों के संग्रह छपे। साहित्य में इसका बहुत महत्व था। पत्र ख़त फेंके नहीं नहीं जाते थे। इनसे ही पता चलता था कि लेखक किस मानसिक दौर से गुज़र रहा। देश-काल और उसकी पारिवारिक  परिस्थितियां कैसी हैं? उसके दिमाग़ पक रही अगली रचना का विषय क्या है? वो किससे नाराज़ है और क्यों? हम भी अपने मित्रों और नाते-रिश्तेदारों को अक्सर खत लिखते थे इस उम्मीद में कि हो सकता है हमारा भी महान बनने का कभी चांस आया तब यह चिट्ठियां बहुत काम आयेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 

Sunday, November 20, 2016

कौआ चला मोर की चाल!

-वीर विनोद छाबड़ा
बचपन में एक कथा सुनी और फिर पढ़ी थी - कौआ चला हंस की चाल, भूला अपनी चाल।

इतनी बड़ी नसीहत उस कौए की कुछ पीढ़ियों तक को ही याद रही।
आठवीं पीढ़ी के एक कौए ने अपनी बदसूरती को कोसा। एक बार फिर कोशिश की प्रकृति प्रदत्त  के नियम को बदलने की।
लेकिन इस बार खूबसूरत दिखने के लिए वो हंस की नहीं मोर की चाल चला।
उसने जंगल में बिखरे मोर पंख बटोरे। उन्हें अपनी पूंछ के आस-पास बांध लिया। तालाब में अपनी छवि देखी। बड़ा गदगद हुआ। निरा मोर दिख रहा था।
वाह! अब मेरी बिरादरी कौओं वाली नहीं रही। मुझे मोरों के बीच जाना चाहिए। किसी खूबसूरत मोरनी से ब्याह रचा लूंगा। रिमझिम सितारों सा आंगन होगा। मेरी आने वालीं पीढ़ियां भी खूबसूरत मोर होंगी।
मन ही मन खुश होकर यह सोचते हुए वो कौआ मोरों की झुंड में पहुंचा। लेकिन उसकी आशाओं के विपरीत मोर उसे तुरंत ही पहचान गए। उन्होंने उसका उपहास उड़ाया। फिर चोंचों और पंजों से मार-मार कर उसे लहू-लुहान कर भगा दिया।
आहत कौआ अपने झुंड में वापस पहुंचा। उसकी यह हालत देख सब कौए अचंभित व दुःखी हुए। उसकी इस अधमरी दशा का कारण पूछा। तब उसने असली कारण बताया कि मोर बनने की चाहत की इतनी बड़ी सजा दुष्ट मोरों ने दी।

Saturday, November 19, 2016

इंग्लिश समाज के भद्रपुरुष की महिला क्रिकेट पर शुरुआती सोच!

- वीर विनोद छाबड़ा
अभी तक की खोज यही बताती है कि क्रिकेट का जनक इंग्लैंड ही है। इतिहास बताता है कि इंग्लिश समाज की जितनी दिलचस्पी पुरुष क्रिकेट के प्रति थी उतनी ही महिला क्रिकेट में भी थी। महिला क्रिकेट के शुरूआती मैचों के स्कोर कार्ड और उनके द्वारा सृजित रेकार्डाें को संभाल कर नहीं रखा। कारण पुरुष का अहंकारी स्वभाव। अखबारों में महिला क्रिकेट को तरजीह तक नहीं दी।

तत्कालीन इंग्लिश समाज में भले ही स्त्री स्वतंत्र विचरण करती दिखती थी, परंतु जब-जब कौशल और कला में महिला की भागीदारी की चर्चा चली तो भद्रपुरुष ने महिला को भोग और विलास की वस्तु करार दिया। अपनी दुम ऊंची रखी। महिला क्रिकेट को हेय दृष्टि से देखा। उनका तर्क था कि क्रिकेट महिलाओं के लिए बना ही नहीं है। इसमें रण कौशल बनाने हेतु जिस दिमाग की जरूरत है वो महिला में नहीं है। और जिस्मानी नज़रिए से भी क्रिकेट उनके लिए नहीं है। मगर यह दोगले भद्रपुरूष महिलाओं को जब-जब खेलते हुए देखते तो इनकी लार टपकने लगती।
मगर सच को कितना छिपाओगे? एक साल दो साल या सौ साल? महिलाओं की लंबी लड़ाई रंग लायी। महिला क्रिकेट खबर बन ही गयी। यह श्रेय मिला सबसे पहले रीडिंग मरक्यूरी के 26 जुलाई के अंक को। इसमें ब्राह्मले इलेवन और हेमलटन इलेवन के मध्य किसी बडे़ मैच का ज़िक्र था। इसमें कहा गया था कि महिलाओं ने पुरुषों की भांति ही शानदार गेंदबाजी, बल्लेबाज़ी और फील्डिंग की। ब्राह्मले इलेवन की महिलाओं ने नीले रिबन और हेमल्टन की महिलाओं ने लाल रिबन बांध रखे थे। सफेद पोषाक में सभी बलां की खूबसूरत दिख रही थीं। इसे देखने के लिये हज़ारों की तादाद में महिलायें और पुरुष जमा हुए।
इसके बाद उसी साल लंदन का सम्मानित आर्टिलरी ग्राउंड महिला क्रिकेट के लिये खोल दिया गया। इससे पहले महिलाओं के वहां खेलने पर सख्त पाबंदी थी। यहां तक कि उन्हें अपने असली नाम से खेलने तक की मनाही थी।

Friday, November 18, 2016

घरवाली-बाहरवाली!

-वीर विनोद छाबड़ा
यह जोक बनाने वालों का भी क्या दिमाग़ होता है। लगता है कोई फैक्टरी है, जहां ये सब तैयार किये जाते हैं। अनुमान है कि एक पति विभाग होगा जहां पत्नी-पीड़ित पत्नियों से रीयल लाइफ में पिटने के बाद पत्नियों को निशाना बनाते होंगे। ऐसा ही एक विभाग पत्नियों का भी होगा। अलावा इसके कई अन्य विभाग भी।

मैं कई साल से लतीफ़े पढता आ रहा हूं। मेरा तजुर्बा है कि लतीफ़े कभी मरते नहीं। पुराने हो जाने पर कोई न कोई उस पर नए का मुलम्मा चढ़ा कर पेश कर देता है। फिर पीढ़ियां भी तो बदलती रहती हैं। सुबह सुबह लतीफा पढ़ लो तो सारा दिन खुश्गवार गुज़रता है। पाठक भाई-बहनें लोग दूसरों से शेयर करके उनको भी खुश कर देते हैं।
बहरहाल, बरसों पहले सुना/पढ़ा एक लतीफ़ा फिर मेरी निगाह से गुज़रा। लतीफा सुनाने को भी फ़न होता है और लिखने का भी। हमारा कुछ कुछ किस्सागोई का अंदाज़ है। मुलाइज़ा फरमायें।
एक शानदार होटल। अब शानदार है तो एयरकंडीशन तो होगा ही। वेटर भी सुटेड-बूटेड होंगे। कई बार तो वो कस्टमर्स से भी महंगी ड्रेस में होते हैं और ज्यादा स्मार्ट भी।
अंग्रेज़ी भी बढ़िया। अंग्रेज़ी से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले अंग्रेज़ी से आर्डर देना शुरू करते हैं तो दो पल के बाद ही हिंदी में उतर आते हैं।
धोती-कुरता वाले भी यहां जब पतलून पहन कर आते हैं तो वेटर उनकी चाल से तुरंत पहचान लेता है।
वेटर सबकी खबर रखता है। कौन घरवाली के संग आया है और कौन बाहर वाली के साथ।
एक हाई-फाई रेस्तरां में ऐसे ही तमाम भद्रपुरुष घरवाली और बाहरवाली के आया करते थे। एक चालाक भद्रपुरुष अपनी सेक्रेटरी के साथ आते थे। अपने व्यवहार से किसी वेटर को भनक तक नहीं लगने दी कि उनकी पार्टनर घरवाली नहीं बाहरवाली है। एक खास वेटर पेश्तर से पहले सर्विस देता। बदले में बढ़िया टिप मिलती। कौन किसके साथ है, उसकी बलां से?
एक दिन उस भद्रपुरुष ने वेटर को पांच सौ रूपए टिप दी।
वेटर की तो लाटरी लग गई। गलगला गया वो। थूक निगलते बोला - सर, अब आपको फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं। वो कोने वाली टेबुल देख रहे हैं। जहां थोड़ा-थोड़ा अंधेरा पसरा हुआ है। समझ लीजिये आपके लिए हमेशा बुक रहेगी। जब न आना हो तो बस एक मिसकॉल दे दें।
भद्रपुरुष वेटर को अलग एक कोने में घसीट कर ले गए और फुसफुसाते हुए बोले - मूर्ख, तुझे ये टिप इसलिए दी है कि कल मैं अपनी पत्नी के साथ आऊंगा।
वेटर बोला - तो यह भाभी जी नहीं हैं क्या?