Friday, May 30, 2014

सिगरेट-शौक, गुलामी और विदाई तक का सफ़र! (भाग -तीन)

-वीर विनोद छाबड़ा

.…गतांक से आगे.…

मैं चेन स्मोकर कभी नहीं रहा। मगर जब तक सिगरेट पीता रहा, शायद ही कोई दिन गुजरा हो जब मैंने चार-पांच से कम सिगरेट पी हो। आफिस में काम का प्रेशर बहुत ज्यादा होता था और इसकी वजह से टेंशन भी बहुत रहता था। इसे घटाने के लिये सिगरेट बहुत काम आती थी। ज्यादातर अफ़सर भी सिगरेट के नशेड़ी थे। मेरे एक अफ़सर कहा करते थे -‘टेंशन और सिगरेट दोनों ही सेहत के लिये ख़तरनाक हैं। लेकिन अगर सिगरेट पीने से टेंशन दूर होती है तो एक-आध सिगरेट पी लेनी चाहिये।मेरे लेखन में भी सिगरेट का विशेष योगदान रहा है। क़लम उठाने की हिम्मत जुटाने और लेख का शुरूआती खाका बनाने में सिगरेट ज़रूरी जोश
भरती थी। हां, यहां उल्लेखनीय है कि यूनिवर्सटी काल से मेरे अभिन्न मित्रों, जिनके साथ मेरा ज्यादातर वक़्त गुज़रता था, में से कोई भी सिगरेट का सेवन नहीं करता। प्रमोद जोशी, रवि प्रकाश मिश्रा विजय वीर सहाय को सिगरेट के धूंए तक से नफ़रत थी। हां, उदयवीर श्रीवास्तव कभी-कभी शौकिया कश लगा लेते थे। परिणामस्वरूप इनकी संगत में मेरा सिगरेट सेवन भी कम होता था। यानि संगत का असर होता था और आज भी है, कोई माने या माने।

सन 1991 मेरे लिये बहुत खराब साल रहा। पेंक्रियाज़ की समस्या उत्पन्न हो गयी। डाक्टर की दवा और मेरे संयम ने मुझे ठीक कर दिया। लेकिन इसमें डाक्टर की नेक सलाह का भी योगदान रहा। उन्होंने मेरी सिगरेट बंद करा दी। शराब कभी-कभार होती थी, जिसे मैं कई महीने पहले एक मित्र की एक नेक टिप्पणी से आहत होकर छोड़ चुका था। आठ-नौ महीने तक मैंने सात्विक भोजन लिया और सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया। इस दौरान मैंने पार्टियों में जाना और लिखना बंद रखा। बिलकुल एकाकी जीवन बिताया। बहुत अच्छा भी लगा। लेकिन बहुत समय तक समाज में रहते हुए समाज से कट कर रहना अच्छी बात तो नहीं हो सकती। और फिर मैं पूरी तरह से चंगा भी घोषित हो चुका था। ब्लड प्रेशर, शुगर वगैरह सब नार्मल था। फिर आस्ट्रेलिया में एक दिनी का पांचवां विश्वकप भी शुरू होने को था। पहली बार रंगीन होने जा रहे क्रिकेट के इस महाकुंभ में नहाने का मुझे बड़ी शिद्दत से इंतज़ार था।

Thursday, May 29, 2014

सिगरेट-शौक, गुलामी और विदाई तक का सफ़र! (भाग - दो)

-वीर विनोद छाबड़ा
.…गतांक से आगे.…

सिगरेट के कारण मुझे कई बार शर्मसार भी होना पड़ा। खासतौर पर तब जब सिगरेट पीते मुझे मेरे गुरूजनों ने और पिता जी ने देखा। लखनऊ के विद्यांत कालेज के पीछे एक संकरी सी गली थी। इसे पतली गली बोला जाता था। चोरी-छिपे  सिगरेट पीने वाले कालेज के सभी छात्र इसी पतली गली में धूंआ उड़ाने आते थे। ये बात प्रिंसिपल सहित सारे टीचर्स को मालूम थी। उन दिनों ये कालेज प्रशासन की ड्यूटी मानी जाती
थी कि छात्र सिगरेट पीने से बाज़ आयें। यही कारण था कि उस गली में अक्सर छापे पड़ते थे। छात्र खूब पिटते थे। एक बार(सितंबर 1967) मैं भी छापे में फंस गया। छड़ी से खूब सुताई हुई थी। टीचर थे, श्री गिरिजा दयाल श्रीवास्तव उर्फ़ जी0डी0 बाबू। इन्होंने दूसरे कई मुद्दों पर भी मुझे जमकर कई बार पीटा था।

दूसरी घटना 1971 की गमियों की है। परीक्षाएं कब के खत्म हो चुकी थीं। मैंने बी00 फाईनल की परीक्षा दी थी। अब परीक्षाफल निकल रहे थे। लखनऊ यूनिवर्सटी के रजिस्ट्रार आफ़िस में नोटिस बोर्ड पर रोज शाम को किसी किसी विभाग का परीक्षाफल चस्पाया जाता था। उस दिन बी00 फाईनल का रिजल्ट चस्पाया गया था। मगर मेरे वहां पहुंचने से पहले ही किसी दिलजले शरारती ने उसे फाड़ दिया था। वहां कागज़ के चंद टुकड़े ही इधर-उधर बिखरे पड़े मिले। इन्हें समेट कर लाख जोड़ा, मगर मुझे मेरा नाम नहीं दिखा। मेहनत बहुत की थी। ये तो मालूम था कि पास तो होना ही है। मगर डिवीज़न श्योर नहीं था। इसलिये एडवांस में डिवीज़न जानने की उत्कंठा थी। अगर पता नहीं चला तो ये तो तय था कि रात भर दिल की धड़कनें तेज रहंगी। नींद नहीं आएगी। चारपाई पर करवटें बदलूंगा, छत पर या सड़क पर लल्लूओं की भटकता फिरूंगा। अब ऐसे फटे हालात में सुबह तक का इंतज़ार करने के अलावा एक दूसरा विकल्प भी था। अख़बार के दफ़तर जाकर कुछ जुगाड़ लगाया जाये। पड़ोसी मित्र मन्ने के रिश्तेदार नेशनल हेराल्ड प्रेस में थे। साईकिल उठायी और मन्ने के साथ नेशनल हेराल्ड प्रेस जा पहुंचा। संयोग से वह रिश्तेदार उस वक़्त रात्रि ड्यूटी पर था। हमने उसे साघा। उसने पता लगा कर बताया मैटर कंपोजिंग में है। बहुत मुश्किल है पता चलाना। हमने बहुत चिरौरी की तो वो किसी तरह पता कर आया। बोला- बधाई हो, सेकेंड डिवीजन है।

हेराल्ड प्रेस कै़सरबाग़ में था। इसलिये कैसरबाग चैराहा रात भर गुलज़ार रहता था। वहां एक बड़ा दवाखाना खालसा मेडिकल स्टोर भी देर रात तक खुला रहता था। जहां हर किस्म की दवा मिल जाती थी। कै़सरबाग के दो-तीन किलोमीटर के दायरे में कई बड़े सरकारी अस्पताल भी थे। दवा की ज़रूरतमंदों के तीमारदार इसी मेडिकल स्टोर पर रात-बेरात आया करते थे। अलावा इसके आस-पास कई सिनेमाहाल थे। नाईट शो खत्म होने पर इसी चैराहे से होकर ज्यादातर लोग घरों को लौटते थे। रिक्शा-टांगे वालों का जमावड़ा भी जमा रहता था। इन वजहों से भी कै़सरबाग़ में देर रात तक रौनक मिलती थी। उस दिन रात बारह बजे का वक़्त रहा होगा। जब हम हेराल्ड प्रेस से बाहर निकले। सेकेंड डिवीज़न में पास होने की खुशी में सिगरेट तो बनती ही थी। आमतौर पर यों खुलेआम हम सिगरेट नहीं पिया करते थे। लेकिन इतनी रात गये यहां कौन देखता होगा? यह सोच कर मैंने और मन्ने ने बेहिचक होंटों में सिगरेट दबा कर सुलगायी।