Sunday, January 24, 2016

अब नहीं दिखती दहेज़ में सिलाई मशीन।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कभी दहेज़ में ज़रूरी आईटम हुआ करता थी सिलाई मशीन। लड़की सर्वगुण-संपन्न भी तभी कहलाती थी जब सिलाई-कढ़ाई में निपुण हो। आढ़े वक़्त में सिलना-पिरोना बहुत काम आता था। इसकी शुरुआत हमेशा सुई के नाके से तागा निकालने से होती थी। अब यह संयोग है कि सिखाया बड़ी बहन को जा रहा था और सीख हम पहले गए।

हमें याद है कि ब्लैक एंड व्हाईट इरा की हर दूसरी-तीसरी फ़िल्म में हीरो ने अमीर हीरोइन को यही कह कर पटाया  - मेरी तो बड़ी दुःख भरी कहानी है। हमारा बचपन था तब जब पिता जी ट्रक तले आ कर गुज़र गए। मां ने कपड़े आजू-बाजू वालों के कपड़े सिल कर पढ़ाया-लिखाया और बड़ा किया।
उस दौर में लेडीज़ टेलर भी पूरे शहर में एकाध ही हुआ करते था। लाटसाहबों की मेमें जाया करती थीं वहां। लेकिन आज हर गली-नुक्कड़ पर जेंट्स से ज्यादा लेडीज़ टेलर हैं। वो बात दूसरी है कि ज्यादातर लेडीज़ टेलर जेंट्स ही हैं और रिटेल जेंट्स टेलर को तो रेडीमेड बिज़नेस ने चौपट कर दिया है।
आज की मां को हमने कहते हुए सुना है - कोई ज़रूरत नहीं दहेज़ में सिलाई मशीन देने की। मेरी बेटी को कोई दरजी का काम तो करना नहीं है ससुराल जाकर?
ठीक ही तो कहती है। बाहर जाकर नौकरी करेगी तो टाईम ही कहां मिलेगा? और फिर क्या सिलाई-कढ़ाई का ठेका ले रखा है लेडीज ने?
यों उषा नाम की सिलाई मशीन है हमारे घर में। लेकिन अब छोटे-मोटे काम ही होते हैं। मेजर काम तो बुटीक सेंटर और लेडीज़ टेलर ही करते हैं।
जब होश संभाला था तो सिंगर सिलाई मशीन देखी थी घर में। हमारी मां तो हफ़्ते में एक दिन ज़रूर मशीन पर बैठती थी। जेंट्स की पेंट कमीज़ छोड़ हर तरह की सिलाई की नंबर वन एक्सपर्ट। अपनी मां की लाड़ली हुआ करती थी वो। हर काम सिखाया गया था उसे। हमारी शादी होने से पहले तक हमारे पायजामे और कच्छे मां ही सिला करती थी। हमने बचपन से लेकर बड़े होने तक मां को बड़े ध्यान से मशीन चलाते हुए देखा है। कुरेशिये से महीन बिनाई करते हुए भी हमने उसे देखा है। मां बीमार रहने लगी तो ऊपर टांड़ पर चढ़ा दी गयी मशीन। सालों पड़ी रही। जंग खा गयी। फिर मां गुज़र गयी। एक दिन टांड़ की सफ़ाई हो रही थी। हम बड़ी उत्सुकता से तलाश रहे थे उस मशीन को। दिखी नहीं। हमने पत्नी से पूछा नहीं, लेकिन हम समझ गए कि उसका हश्र क्या हुआ होगा। हम साईट से ही हट गए।

जब तक वो सिलाई मशीन चलती रही, उसकी ओवरहॉलिंग का काम भी हमारे ज़िम्मे रहा। बचपन में जब हम यह काम कर रहे होते थे तो मां बड़े लाड़ से कहती थी कि बेटा बड़ा होकर इंजीनियर बनेगा। लेकिन हम लेडीज़ टेलर बनने की सोच रहे होते थे। इस धुन में हमने एकलव्य बन कर छोटी-मोटी सिलाई सीख ली। कई बार उधड़ी और फटी कमीज सिली। थोड़ी-बहुत रफ़ूगिरी भी आ गयी। कमीज़ के बटन टांकना तो बायें हाथ का काम था। यह टांकने का काम तो हम आज भी कर लेते हैं। लेकिन प्रॉब्लम यह है कि जगह पर न सुई मिलती है और न मुनीम का तागा।
चूंकि मार्किट में रेपुटेशन बहुत अच्छी है, इसलिए आस-पास के दरजी खड़े-खड़े बटन तो फ्री में टांक ही देते हैं।
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24-01-2016 mob7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

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