Thursday, April 30, 2015

बहु पुराण!

-वीर विनोद छाबड़ा
शाम का वक़्त। पार्क में रूचि के आधार पर भिन्न-भिन्न गुट। महिलाओं के भी कई ग्रुप हैं।
एक महिला ग्रुप है बूढ़ी महिलाओं का। एक वृद्धा को व्हील चेयर पर रोज़ाना उसकी बहु लेकर आती है। वहां पहले से ही कई उम्रदराज़ महिलाएं मौजूद हैं। वो उस व्हील चेयर वाली वृद्धा को देखते ही ख़ुशी से लगभग उछल पड़ती थीं। उन्हें उसी का बड़ी शिद्दत से इंतिज़ार होता है। वो इनकी रिंग लीडर है।

वृद्धा कहती है - अब तू जा बहु। दो घंटे बाद आना। मोबाइल कर दूंगी। 
आओ बहन, तुम्हारा ही तो इन्तिज़ार था। मेरे तो पेट में बड़ी देर से दर्द हो रहा है। चलो अब कार्यक्रम शुरू करें। शिकायतों की पोटली खुलती है।
.…आज मेरी बहु ने हद कर दी.रोटी को घी तक नहीं दिखायामेरी वाली तुझसे बड़ी दुष्टा है। अपना पराठा मक्खन से चुपड़ती है। मुझे कहती है, डॉक्टर ने ज्यादा चिकना-चुपड़ा  देने से मना किया हैमेरी तो कहती है आपकी आतों में पहले जैसी ताक़त नहीं है। नासपीटी कहीं की।
रोज़ाना एक जैसे मुद्दे और घंटनाएं। बस थोड़ा नमक-मिर्च कभी तेज और कभी हल्का होता है। 
बहु-पुराण में तक़रीबन दो घंटे बीत जाते हैं उन वृद्धाओं के। मैं देखता हूं वो वृद्धाएं जब पार्क में घुसती हैं तो थकी-थकी सी होती हैं। लगता था बस कुछ घंटों की मेहमान हैं। इच्छा मृत्यु की बात करती हैं। लेकिन परंतु बहु-पुराण के दो घंटो में उनमें बला की एनर्जी और फुर्ती पैदा हो जाती है। भरपूर जीने की उमंग पैदा होती है, सौ साल से एक दिन भी कम नहीं।
तभी उस व्हील चेयर वाली वृद्धा की बहु आ गयी। वो उसे देखते ही अपनी मुख-मुद्रा एक कुशल अभिनेत्री की मानिंद बदल देती है। बहु की ओर बड़े प्यार-दुलार देखती है - आ गयी मेरी बहु, मेरी सयानी बहु, मेरी अच्छी-अच्छी बहु। बहुत ख्याल रखती है मेरा। बहु नहीं बेटी है यह मेरी। ईश्वर ऐसी बहु सबको दे। चल बहु, घर ले चल मुझे। बड़ी भूख लगी है.आज आइसक्रीम खिला दे। बड़ी इच्छा हो रही है.

Wednesday, April 29, 2015

बिल्ली और मुंशीजी की अदावत।

-वीर विनोद छाबड़ा
मुंशीजी बिल्ली से बहुत परेशान थे। जितना वो उसे दुत्कारते उससे कहीं ज्यादा बिल्ली उनसे प्यार करती थी।  सारे खिड़की दरवाज़े बंद करने के बावजूद उसे कहीं न कहीं से घुसने का मौका मिल जाता।
जिस दिन बिल्ली घर में न घुस पाती उस दिन वो दरवाज़े पर बैठ कर घंटो रोती। उसके मनहूस करुण रुदन से आजिज़ होकर मुंशियाइन धीरे से दरवाज़ा खोल देती और बिल्ली अंदर आकर चुपचाप मुंशीजी के पलंग के नीचे सो जाती। इस बीच वो चूहों पर भी नज़र रखती।

सुबह होते ही बिल्ली एक बड़ी अंगड़ाई लेने के बाद म्याऊं-म्याऊं का जाप करती। मुंशीजी की नींद इसी से खुलती। वो उसे चप्पल या डंडा, जो भी हाथ में आता, लेकर दौड़ाते और बिल्ली मुंशीजी को। इस खटर-पटर को सुनकर मुंशीजी के आधा दर्जन बच्चे भी उठ जाते और ताली बजा-बजा कर कभी मुंशी जी का तो कभी बिल्ली का उत्साह बढ़ाते।
खासी धमा-चौकड़ी के बाद आख़िर में मुंशियाइन की ही अकल काम आती। वो दरवाज़ा खोल देतीं। बिल्ली को यही चाहिये होता था। वो फट से बाहर हो जाती। और मुंशीजी विजई मुद्रा में भागती बिल्ली पर चप्पल पर फेंकते - भागी साली।
मुंशीजी घर से उठते शोर से अड़ोसी-पडोसी भी जाग जाते -चलो सवेरा हो गया।
यह नज़ारा किसी लंबे हास्य दृश्य समान होता था। मुंशीजी को बिल्ली इसलिए फूटी आंख नहीं सुहाती थी कि उसने उनके नए-नए स्कूटर की गद्दी जगह-जगह से पैने नाखूनों से छेददार बना डाली थी। एक-दूसरे से कोई पुरानी अदावत थी जैसे।
दूसरी वज़ह ज्यादा महत्वपूर्ण थी। मुंशियाइन अक्सर बिल्ली से बातें करती और बिल्ली भी उन्हें म्याऊं-म्याऊं से जवाब देती। मुंशीजी को इस पर इतना ऐतराज नहीं था। समस्या यह थी कि मुंशियाइन उससे बड़े प्यार से बातें करती। काश कभी मुंशीजी पर इतना प्यार लुटाया होता! अगर वो दूध में मुंह भी मार जाती तो मुंशियाइन को कोई प्रॉब्लम नहीं होती। मुंशियाइन इस नरमी से बिल्ली से पेश आती मानों वो मायके से आई उसकी बहनें हों। मुंशीजी को कभी-कभी यह भी शक़ होता वो कि बिल्ली मुंशियाइन के मायके से जासूसी के लिए भेजी गई है।

Tuesday, April 28, 2015

बंदे को ब्रैडमैन कहते हैं, डॉन ब्रैडमैन!

-वीर विनोद छाबड़ा
बात उन दिनों की है जब दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के कारण लगभग सारी दुनिया ने उसका बहिष्कार कर रखा था।
Don Bradman
खेलों की दुनिया से भी उसे दूर रखा गया था। सन १९७१-७२ में दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम का ऑस्ट्रेलिया का दौरा भी इसी रंगभेद के कारण रद्द करना पड़ा। इस कारण सीजन खाली जा रहा था। इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में क्रिकेट सीजन खाली जाने का मायने बड़े होते हैं। आर्थिक नुकसान के अलावा बड़ी संख्या में क्रिकेट के दीवाने भी निराश होते हैं। इसकी भरपाई के लिए तय किया गया कि शेष विश्व एकादश बनाम ऑस्ट्रेलिया सीरीज़ खेली जाये।
शेष विश्व एकादश में शामिल होने के लिए दक्षिण अफ्रीका के सलामी बल्लेबाज़ हिलटन एकरमैन और इंग्लैंड के टोनी ग्रेग सीधे एडिलेड पहुंचे।
एयरपोर्ट पर उनके स्वागत के लिए विश्व एकादश के कप्तान गैरी सोबर्स और एक बुज़ुर्ग मौजूद थे।
Hilton Ackerman
ग्रेग और एकरमैन लंबी यात्रा के कारण बेहद थके हुए थे और आंखों में नींद भरी हुई थी। साथ ही एयरपोर्ट पर शोरगुल भी बहुत था। ऐसे में एकरमैन ठीक से सुन ही नहीं पाये कि सोबर्स ने परिचय कराते हुए उन बुज़ुर्गवार का नाम क्या बताया था।
एयरपोर्ट से बाहर निकलने से पूर्व कुछ औपचारिकताएं निभानी पड़ती हैं। इसमें कुछ समय भी खर्च होना था। अतः वो बुज़ुर्ग ग्रेग और एकरमैन को वेटिंग लाउंज में ले गए।
ग्रेग चेयर पर पसर से गए और खर्राटे लेने लगे। उनींदे एकरमैन ने उन बुज़ुर्ग से पूछा - क्या आप ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट से संबंधित हैं?
बुज़ुर्ग ने जवाब दिया - जी हां।
एकरमैन ने पूछा - क्या आपने कभी क्रिकेट खेला है?
उन बुज़ुर्ग ने जवाब दिया - जी हां।
एकरमैन ने कहा - ठीक है। आप विश्वसनीय आदमी हैं। कृपया मेरा बल्ला पकड़िए। इससे मुझे क्रिकेट के 'डॉन' सर डॉन ब्रैडमैन का रिकॉर्ड तोडना है। तब तक मैं टॉयलेट होकर आता हूं।

Monday, April 27, 2015

समान व्यवहार।

-वीर विनोद छाबड़ा
ईसा मसीह सब बंदो से प्यार करते थे। चाहे वो अमीर हो या ग़रीब।
एक दिन वो दीन-दुखियों से भेंट कर उन्हें सब ठीक हो जाने का आश्वासन दे रहे थे। साथ ही कुछ वस्त्र, भोजन, फल आदि भी भेंट कर रहे थे।

सहसा वहां पर उनके विरोध करने वाले भी आ गए। वो ईसा मसीह विरोधी नारे लगाने लगे।
ईसा मसीह ने उन्हें शांत रहने को कहा। और फिर एक-एक करके उनकी शिकायत सुनी।
विरोधियों को बुरा लग रहा था कि ईसा मसीह हर ऐरे-गैरे और घृणित लोगों के गले मिल रहे हैं। आप उनमें और हममें कोई अंतर नहीं रखते हैं। इससे वो अपवित्र हो रहे हैं। धर्म संकट में है। धरती का नाश सन्निकट है।
ईसा मसीह शांत चित्त से बोले - ठीक है। चलो वैद्य जी के पास। वहीँ इंसाफ हो जायेगा।
विरोधी बोले - मगर क्यों? वैद्य जी क्या करेंगे? और फिर हम तो चंगे-भले हैं।
ईसा मसीह बोले - मैं दरअसल यह दिखाना चाहता हूं कि वैद्यजी बिना अमीर-गरीब और गोरे-काले की नस्ल का भेद किये सबका समान रूप से ईलाज करते हैं। उसी प्रकार मैं भी अमीर-गरीब, दीन-दुखी और गोरे-काले सबको एक समान समझ कर उन्हें प्रभु के दिखाये मार्ग को दिखाता हूं।
यह सुन कर विरोधी खेमा लज्जित हुआ और खिसक गया।
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२७-०४-२०१५ 

Sunday, April 26, 2015

सलीक़ा!

-वीर विनोद छाबड़ा
अन्ना कैरेनिना, वॉर एंड पीस के प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय (१८२८-१९१०) एक समय के पास लेखन कार्य इतना अधिक हो गया कि उनको एक सहायक की ज़रूरत पड़ गयी।

अख़बार  में विज्ञापन दिया। सैकड़ों अर्जियां आ गयी। इनमें एक अर्ज़ी के साथ उनके एक घनिष्ट मित्र की सिफ़ारिशी चिट्ठी भी थी।
लेकिन टॉलस्टॉय ने इस पर ध्यान नहीं दिया और किसी अन्य को नियुक्ति दे दी।
उनके मित्र भनभनाते हुए आये और शिकायत करने लगे  - मैंने एक योग्य कैंडिडेट के लिए सिफ़ारिश की थी। लेकिन आपने एक ऐसे व्यक्ति को नौकरी पर रखा, जिसके पास पर्याप्त योग्यता के प्रमाण पत्र भी नहीं थे। क्या मैं जान सकता हूं कि आपने ऐसा क्यों किया
टॉलस्टॉय ने कहा - मित्र धैर्य रखें। मैं अभी उसका परिचय आपसे करा देता हूं।
यह कह कर टॉलस्टॉय ने अपने नव-नियुक्त सहायक को बुलाया। तुरंत ही वो सहायक हाज़िर हुआ।
कमरे में आने से पहले सहायक ने दरवाज़े पर दस्तक देकर अंदर आने की इज़ाज़त मांगी। दरवाज़े को इतनी धीमी आवाज़ से खोला कि आवाज़ नहीं हुई और फिर उसे उसी तरह सटाया भी। उसके कपडे साधारण थे मगर साफ़-सुथरे। 
टॉलस्टॉय ने उसे बैठने का इशारा किया। वो बेआवाज़ कुर्सी खिसका कर बैठ गया। टॉलस्टॉय ने उससे कुछ सवाल पूछे जिसका उसने पूरे आत्मविश्रास से जवाब दिया।
फिर टॉलस्टॉय ने उसे कुछ निर्देश दिए जिसे उसने एक नोट बुक में लिखा। और फिर जाने की इज़ाज़त लेकर चला गया।
टॉलस्टॉय ने अपने मित्र की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

मित्र ने कहा - आपने सही निर्णय लिया। इसे किसी सिफ़ारिश या प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं थी। असली योग्यता तो सलीका है जो इसमें सर से पांव तक है।
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26-04-2015 

Saturday, April 25, 2015

भांति-भांति की रस्सियां!

-वीर विनोद छाबड़ा 
हाल की घटना मैं विचलित ही नहीं व्यथित भी हूं। पच्चीस साल पीछे चला गया। उन दिनों अवसाद के दौर से गुज़र रहा था। 
मैं बाज़ार जाता हूं रस्सी खरीदने। एक दुकान में घुसता हूं। भांति-भांति की रस्सियां टंगी थीं।
मैंने दुकानदार से कहा - कोई मज़बूत किस्म की रस्सी चाहिए जो अस्सी किलो का बोझ सह सके।
दुकानदार ने कहा - मिल जाएगी। लेकिन श्रीमानजी प्रयोजन तो बतायें।
सुनकर गुस्सा आ गया - अरे भाई, तुमको इससे का मतलब। मुझे आत्महत्या करनी है या कुएं से आदमी को बाहर खींचना है।
दुकानदार समझदार था। बोला - माफ़ कीजियेगा। मैंने तो वैसे ही पूछ लिया था।
फिर दुकानदार ने एक मज़बूत रस्सी की ओर इशारा करते हुए कहा - यह वाली ले लें। दोनों ही प्रयोजन संपन्न करेगी, आदमी के झूला झूलने का भी और खींचने का भी। लेकिन इस बात का ख्याल रहे कि हुक मज़बूत हो।
मुझे ख्याल आता है कि यूपी आवास-विकास परिषद् से जब मकान खरीदा था बताया गया था कि यह हुक सिर्फ़ पंखा लटकाने के लिए ही है। इसका मतलब यह हुआ कि हो सकता है कि हुक मेरा अस्सी किलो का बोझ न सह सके। हुक के टूटने का मतलब यह होगा कि पंखा भी नीचे आ गिरे। सर पर चोट लग सकती है। चोट ज्यादा हुई तो डॉक्टर सीटी रेफेर करेगा। फिर ऑपरेशनलंबा खर्चा बैठ जाएगा।  अभी पिछले ही महीने तो पैसा-पैसा जोड़ कर खरीदा है पंखा। इसकी ठंडी-ठंडी हवा का कायदे से लुत्फ़ भी नहीं उठा पाया।
एक मुसीबत और भी है। पत्नी दिन भर साये की भांति चिपकी रहती है। हर पंद्रह मिनट पर झांकने आती है कि निठल्ला पति कर क्या रहा है?
हुक से रस्सी फंसाने के लिए कम से कम आधा घंटा टाइम चाहिये।
सुसाइड नोट भी तो लिखना होगा। बहुत सोच-समझ कर लिखना होगा। लेकिन ठोस कारण भी तो होना चाहिये। किससे परेशान हूं? खुद से या पत्नी से? या ऑफिस के कामकाज या साथियों से। या फिर अड़ोस-पड़ोस से। मगर इनमें से कोई भी तो कारण नहीं?
ऐसा न हो कि इतना हल्का कारण हो कि किसी को यकीन ही न हो कि सुसाइड का इतना हल्का कारण भी हो सकता है। खिल्ली उड़ेगी। फिर तो फिलहाल सुसाइड प्लान स्थगित करना ही उचित होगा।
तभी पीछे से कोई चीखा - अबे अंधा है क्या? देखता नहीं पीछे सड़क का बाप चला आ रहा है।
मैंने पीछे मुड़ कर देखा। अरे यह क्या? जाने कब बेख्याली में मैं सड़क के बीचो-बीच आ गया था और एक ट्रक ड्राइवर मुझे भद्दी भद्दी गालियां दे रहा था - साले मरने चले आते हैं। जाने क्यों मेरा ही ट्रक मिलता है सबको।

Friday, April 24, 2015

दान!

-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन संत फ्रांसिस एक पेड़ की छांव तले बैठे बाईबिल के अध्ययन में खोये हुए थे।
यह उनका नित का नियम था। उनके इस कार्यक्रम में कोई बाधा नहीं डालता था।

तभी एक भिखारिन आई। वो और उसके बच्चे पिछले कई दिन से भूखे थे। उसने करुण स्वर में संत फ्रांसिस से विनती की - प्रभु के नाम पर कुछ खाने को मिल जाता।
संत फ्रांसिस भावुक हो करुणा से भर गए। परंतु उनके पास कुछ था ही नहीं देने को। वो स्वयं, तन पर पहने हुए कपडे और बाईबिल, बस यही पूँजी थी।
संत फ्रांसिस असमंजस्य में थे कि क्या दूं? इस भिखारिन की उम्मीदों को कैसे पूरा करूं?
सहसा उनके ज़हन में एक आईडिया आया। उन्होंने अपनी बाईबिल दे दी - आज मेरे पास यही है। इसे बेच कर जो पैसे तुम्हें मिलें उससे तुम अपना और बच्चों का पेट भर लेना।
उस भिखारिन ने संत फ्रांसिस को आशीष दिया। संत फ्रांसिस ने आंख बंद करके आसमान की ओर सर उठाया - हे दयावान, परोपकारी सबसे प्रेम करने वाले प्रभु मुझे क्षमा करना। दान देने के लिए मेरे पास दूसरा विकल्प नहीं था।
संत फ्रांसिस को उस वक़्त नहीं मालूम था कि जो उन्होंने दान किया वो सबस बड़ा दान था।
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24-04-2015  


Wednesday, April 22, 2015

शमशाद बेगम-आवाज़ की दुनिया की पहली बुलबुल!

- वीर विनोद छाबड़ा  
गीत-संगीत की महफ़िल सजी हो। मंदिर की घंटी की जैसी स्पष्ट मधुर आवाज़ और पहली बुलबुल का ज़िक्र आये, समझ लीजिये ये शमशाद बेग़म है।
१४ अप्रैल १९१९ में लाहोर में मुस्लिम पंजाबी परिवार में जन्मी बेगम की गाने में रूचि पैदाइशी थी। वो स्कूल की प्रार्थना सभा में गाया करती थी। सबसे मुखर और अलग आवाज़ के कारण जल्द ही उन्हें हेड सिंगर बना दिया गया।

बेगम सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यदा-कदा गाती थीं। चाचा अमीर खान को उनमें असीम प्रतिभा नज़र आई। उस दौर की मशहूर रिकॉर्डिंग कंपनी जेनोफ़ोन के संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर उन्हें सुनने आये। बेगम ने उनके सामने बहादुरशाह ज़फर लिखित गाना पेश किया - मेरा यार अगर मिले अगर.
गुलाम हैदर बहुत प्रभावित हुए। बेगम को १५ रुपए प्रति गाने की दर से १२ गानों का कॉन्ट्रैक्ट ऑफर किया।
मगर बेगम के पुरातनपंथी पिता मियां हुसैन बक्श को महिलाओं की आज़ादी और ये गाना-बजाने पर सख्त ऐतराज़ था। बामुश्किल इस शर्त पर तैयार हुए कि बेगम हरवक़्त पर्दानशीं रहेंगी और तस्वीर नहीं खिंचवाएंगी। इसी कारण १९७० तक बहुत कम लोगों ने उनको देखा।
दलसुख पंचोली ने बेगम की आवाज़ लाहोर रेडियो पर सुनी तो दीवाने हो गए। उन्होंने बेगम को गाने के साथ-साथ अभिनय के लिए भी मना लिया। लेकिन मियां हुसैन बक्श फिर बीच में दीवार बने।
१९४० में महबूब खान ने बेगम के पति गणपत लाल को समझाया - यहां लाहोर में बेगम को कुएं में बंद है। बंबई का समुंद्र उनका इंतज़ार कर रहा है।
गणपत बड़ी मुश्किल से छह बंदो के फ्लैट और कार के मुफ़्त ऑफर पर तैयार हुए।
बेगम के शुरू के गाने पंजाबी में रहे - चीची विच पाके छल्लामेरा हाल वेख के.कंकण दी फसलां(यमला जट्ट -१९४०)
यूनीक आवाज़ के कारण बेगम को बंबई में स्थापित होने में वक़्त नहीं लगा।
यमला जट्ट, खजांची, शिकार, शहंशाह, बहार, मशाल, मिस इंडिया, मिस्टर एंड मिसेस ५५, हावड़ा ब्रिज, १२ओ क्लॉक, मुसाफ़िरखाना, पतंगा, मुगल-ए-आज़म, सीआईडी आदि अनेक फिल्मों के लिए गाया। बेगम के जलवे का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फ़िल्मकार लता और आशा को लंबे समय तक बेगम की स्टाइल में गवाते रहे।
बेगम का सबसे व्यस्त समय १९४०-५५ के बीच रहा। पति की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया। लेकिन १९५७ में वो ज़िंदगी में वापस आयीं और १९६८ तक डिमांड में रहीं।
उस दौर के सभी संगीतकारों ओपी नय्यर, नौशाद, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र, गुलाम हैदर और गायकों-गायिकाओं के साथ बेगम के बहुत अच्छे रिश्ते रहे।

Tuesday, April 21, 2015

चलो बस हो चुका मिलना…

-वीर विनोद छाबड़ा
बात तब की है जब मैं यूनिवर्सिटी में था। यानि ४३ साल पहले।

एक लड़की से अच्छी दोस्ती थी। मालूम नहीं वो पसंद करती थी या नहीं। मगर मुझे नींद नहीं आती थी। हमारी नींद हराम, तो मित्रों की क्यों न हों?
उसका उठना-बैठना, मुस्कुराना, कनखियों से देखना, नैन-नक्श, उसके परिधान का रंग और स्टाइल, चपल्ल-सैंडिल आदि सब असाधारण लगता था।
इंद्र दरबार की ब्यूटी क्वीन मेनका-उर्वशी आदि सब बेकार थीं।
उसका मोहल्ला, वो गली और वो मख़्सूस मकान। सब याद है अभी भी। उस दिन यूनिवर्सिटी का आखिरी दिन।
मैंने कहा - अब तो कभी मिलना होगा नहीं शायद।
वो हंस दी।
मैंने कहा - हफ्ते में एक दिन, सैटरडे को मैं चिड़ियाघर ज़रूर जाता हूं।
मेरी बात पर वो बड़ी ज़ोर से हंसी। इतनी जोर से कि आस-पास से गुजरने वाले भी देखने लगे।
वो बोली - क्या जगह तलाश की है। कोई और जगह नहीं मिली। कोई पिंजड़ा भी तलाशा है क्या?
यह कह कर वो हंसते-हंसते चली गयी। और मैं दूर तक गुब्बार उड़ते हुए देखता रहा। सपने को टूटते हुए देखता रहा।

दोबारा मैंने उसे दस साल बाद देखा। अपने पति और दो बच्चों के साथ थी वो। ये सपना नहीं हक़ीक़त थी।
मैंने भी सोचा - चलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली....हम तो मुद्दत तक खाली रहे और अब.दास्तां बन गई तुम।

उक्त किस्सा मेरे एक का है। हमारे वो मित्र जब कभी किसी भी वज़ह से उदास होते हैं तो अपनी ये दास्तां सुनाने चले आते हैं।
वो बताते हैं - आज भी जब-तब किसी न किसी बहाने उस मोहल्ले में जाता हूं। उस गली के उस मख़्सूस मकान को दूर से एक बार हसरत भरी निगाह से ज़रूर देख लेता हूं।

मैं भी बोर नहीं होता। अपने हाथ से चाय बनाकर पिलाता हूं। अपनी भी दास्तां कुछ उनके जैसी जो रही है।
-वीर विनोद छाबड़ा

Monday, April 20, 2015

आशा पारेख - जाइये आप कहां जाएंगे…

-वीर विनोद छाबड़ा
फिल्मवालों के जीवन में बड़े उतार-चढ़ाव आते हैं। अब आशा पारेख को ही देख लें। विजय भट्ट ने 'गूंज उठी शहनाई' के लिए उन्हें रिजेक्ट कर दिया - प्रेम विषयों के लिए यह तो अभी बच्ची है।
कुछ दिन बाद आशा नासिर हुसैन की 'दिल देके देखो' के सेट पर थी। अभी शॉट रेडी होने में टाइम था। वो लड़की हेरोल्ड रॉबिंस का नावेल 'दि कारपेट बैगर्स' पढ़ रही थी। उधर से गुज़रते एक नौजवान ने कमेंट किया - तुम्हारी उम्र इसे पढ़ने की नहीं है। बहुत छोटी हो।

आशा उस नौजवान को पहली बार देख रही थी। चिड़ कर बोली  - जी चाचाजी।
यह नौजवान शम्मी कपूर थे। उन्होंने भी आशा को पहली बार देखा था। फिर ज़िंदगी भर उनका रिश्ता चाचा-भतीजी का बना रहा।
इस मुलाकात से पहले शम्मी कपूर की पसंद आशा की जगह वहीदा रहमान थी। लेकिन निर्माता की पहली पसंद आशा नहीं साधना थी। लेकिन संयोग से साधना को तब तक 'लव इन शिमला' मिल चुकी थी।
अब यह संयोग है कि आशा के पहले निर्देशक नासिर हुसैन थे और साधना के आरके नैय्यर। दोनों ने ही ज़िंदगी भर उनका साथ निभाया।  हर किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता।
आशा की उस दौर के तीन प्रसिद्ध स्टार के साथ काम करने की हसरत थी। मगर सिर्फ देवानंद का साथ ही नसीब हो पाया। 'जब प्यार किसी से होता है' और फिर बरसों बाद 'महल' में।
राजकपूर के साथ 'चोर मंडली' की शूटिंग शुरू हुई। लेकिन कुछ दिन बाद डिब्बे में बंद हो गयी। दिलीप कुमार के साथ 'ज़बरदस्त' शुरू हुई। लेकिन कादर खान को सामने देख कर दिलीप कुमार असहज हो गए - यह तो मेरी नकल कर रहा है। हटाओ, मेरे सामने से।
मगर निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन तैयार नहीं हुए। दिलीप ने फिल्म छोड़ दी। संजीव कुमार आ गए उनकी जगह।
शक्ति सामंत की 'कटी पतंग' आशा की सबसे पसंदीदा फिल्मों में से है। श्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला।
शक्तिदा के साथ 'आराधना' और 'अमर प्रेम' कर चुकी शर्मीला टैगोर का उन दिनों दावा था कि 'कटी पतंग' उनकी छोड़ी हुई फिल्म है। इसके उलट आशा का दावा था कि उन्होंने कतिपय कारणों से शक्तिदा की कश्मीर की कली, ऐन इवनिंग इन पेरिस और आराधना उन्होंने ठुकरा दी थीं जिन्हें बाद में शर्मीला ने लपक लिया।
आशा का यह भी दावा है कि 'शराफत' और 'सीता और गीता' सर्वप्रथम उन्हें ऑफर हुई थी लेकिन पेमेंट के कारण बात बनी नहीं। उन दिनों आशा सबसे महंगी नायिका थी। इसे हेमा मालिनी ने हड़प लिया और वो रातों-रात स्टार बन गई।

Sunday, April 19, 2015

भुतही फ़िल्म का असर!

-वीर विनोद छाबड़ा
साठ-सत्तर का ज़माना। लखनऊ से प्रकाशित मासिक कथा पत्रिका 'कात्यायनी' के संपादक हुआ करते थे - अश्विनी कुमार द्विवेदी। हमारे गुरु थे वो। 
एक दिन द्विवेदीजी बोले - मैंने कभी भुतही अंग्रेज़ी फिल्म नहीं देखी है।
उन दिनों ओडियन में 'ड्रैकुला हैज़ राइज़ेन फ्रॉम ग्रेव' चल रही थी। ये कदाचित १९७२ बात है। एक शर्त और लगा दी उन्होंने - नाईट शो देखेंगे।
मुझे तो काटो खून नहीं। भुतही फिल्म और वो भी नाईट शो! दिन में भी ऐसी फिल्म देख लूं तो मेरे प्राण निकल जाएं।
बहुत अनुनय किया पर वो माने नहीं। बड़े थे और फिर मेरे गुरु। अभी उनसे आगे भी बहुत कुछ सीखना था। नहीं कर पाया। 
द्विवेदीजी कभी-कभी प्रेस में ही रुकते थे। उस दिन भी उनका यही इरादा था।
ओडियन प्रेस से कोई किलोमीटर भर की दूरी पर था। मैंने साइकिल वहीं प्रेस पर खड़ी कर दी। द्विवेदीजी साइकिल चलाते थे और बैठते थे। 
हम खरामा-खरामा चल दिए। सच बताऊं, भले ही मैं भूत प्रेतों पर यकीन नहीं करता था, लेकिन भुतही फिल्मों से दूर रहता था।
खैर, फिल्म शुरू हुई। कब्र फाड़ कर निकले ड्रैकुला को ज़िंदा आदमी का खून पीते देख कई बार थर-थर कांपा। कई बार डरावने दृश्य का अंदेशा होते ही आंखें ही बंद कर लीं।
जैसे-तैसे राम-राम करके फिल्म ख़त्म हुई। मैंने देखा द्विवेदीजी के चेहरे पर डर के कतई भाव नहीं थे। वो मुस्कुरा रहे थे। शायद भुतही कहानी की कल्पना पर। जबकि मैं भीगी बिल्ली समान चुप था मुहं से बोल नहीं फूट रहे थे।
द्विवेदी जी बोले - ये अंग्रेज़ तो हम भारतीयों से भी ज्यादा अंधविश्वासी हैं। भुतही कल्पनाशीलता गज़ब है। मैं सिर्फ हूं-हूं करता रहा।
वो चांदनी रात थी। गर्मी की शुरआत। तन को छूने वाली हलकी-हलकी हवा भी चल रही थी। पता ही नहीं चला कब द्विवेदी जी ओडियन के बगल से हीवेट रोड को मिलने वाली गली में घुस गए। ख्याल आया तो पूछा - इधर से कहां? मेन रोड से निकलते हैं।
वो बोले - इधर शार्ट कट है। पांच मिनट में पहुंच जायेंगे।
मैं इस गली के चप्पे-चप्पे से भिज्ञ था। कई लोग बाहर चद्दर ताने सो रहे थे। एक साहब तो सफेद चादर ओढे थे। देख कर रूह कांप गयी। मैं तो ठिठक गया। कस कर द्विवेदी जी का हाथ पकड़ लिया।
मेरे हाथों की कंपकपी को अपने हाथ पर महसूस करके द्विवेदी जी बोले - क्या हुआ?
मैंने कहा - कुछ नहीं। वो पैर में कुछ चुभ सा रहा था।
हम फिर चल दिए। द्विवेदी जी बता रहे थे कि उनके गांव में भी प्रेत का हौवा होता था। लोग रात में पीपल के पेड़ तले से नहीं निकलते थे। मैं चाहता था कि द्विवेदी जी कोई दूसरी बात करें।
अचानक मेरे मुंह से चीख निकलते-निकलते बची। मेरे पैरों को मानो किसी ने जकड लिया था। मैंने कस कर दिवेदीजी का हाथ पकड़ लिया। मुझे महसूस हुआ कि दिवेदी जी का भी बदन कांप रहा है। चेहरे पर भय की गहरी रेखाएं और उनमें बहता पसीना भी दिख रहा था।
सामने कोई सफ़ेद आकृति झूम-झूम रही थी। दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी।
मारे डर के मेरे मुंह से आवाज़ निकल रही थी और द्विवेदीजी के।
मैं मुड़ कर पीछे भागने की सोच ही रहा था कि द्विवेदीजी जोर से हंसे।
मैं और भी डर गया। लगा कोई प्रेत दिवेदी जी पर सवार हो गया है।