Thursday, March 31, 2016

भावनाओं की नहीं क्रिकेट की जीत हुई है।

- वीर विनोद छाबड़ा
१९२ रन ०२ विकेट पर। बहुत अच्छा स्कोर। कोहली ४७ गेंद पर ८९ नॉट आउट। इंडिया की पारी के हीरो। काफी है विपक्षी टीम में दहशत पैदा करने के लिए एक अकेला कोहली। भारतीय खेमा ख़ुशी से झूम रहा है। आतिशबाज़ी का इंतज़ाम कर लो भाई। आज आसमान धुंआ-धुंआ करना है। इतना शोर हो कि कान बहरे हो जायें।

विपक्षी टीम में मायूसी है। फिर १९ पर ०२ दो विकेट। मायूसी गहरा गई है।
भारतीय खेमे में जीत के जश्न की तैयारी शुरू हो गई। बिगुल भी बजने लगे।
मगर हाय री किस्मत। और बेड़ा गरक हो क्रिकेट की अनिश्चित प्रवृति का। पलट गई न बाज़ी। 
अति आत्मविश्वास ही तो है यह। पूरे टूर्नामेंट में अब तक विपक्ष को अपने नागपाश में बांधने वाले भारतीय गेंदबाज़ रन पर रन लुटा रहे हैं। कोई ४८ तो कोई ४५ रन। जान बचाते दिख रहे हैं, जैसे चील-कौवे उनकी खोपड़ी पर चोंच मारने को बेक़रार हों। बहुत विश्वसनीय अश्विन ०२ ओवर में २० रन देने के बाद बहुत हताश हैं। वो आखिरी ओवर डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।
इतिहासविदों को याद आ रहा है १९८३ का वर्ल्ड कप फाइनल। रिचर्ड्स गेंदबाज़ी की चिंदी-चिंदी किये पड़े थे। तब मदनलाल ने कपिल से गेंद छीनी थी। विकेट झोली में आ गया। और फिर १९९३ में साउथ अफ्रीका के विरुद्ध का हीरो कप का सेमी-फाइनल। तब युवा सचिन तेंदुलकर ने अज़हर से गेंद छीनी थी। दोनों ही बार इंडिया जीती थी। इस बार यह काम कोहली को करना पड़ा। ०८ रन ०६ गेंद। लेकिन चमत्कार बार-बार नहीं होते।
और फिर अकेला कोहली ही क्या क्या करे बेचारा। रन बनाए, रन रोके, कैच पकडे और विकेट भी ले। बस करो यारों। बच्चे की जान लोगे क्या?
आखिर वही हुआ जो दीवार पर बड़े हरफों में साफ़-साफ़ लिखा था। ०२ गेंद बाकी रहते वेस्ट इंडीज की नैया पार। ०७ विकेट से शानदार जीत।
टूर्नामेंट में अब तक हारते-हारते जीतती आई टीम इंडिया मुंबई में जीतते-जीतते हार गई। काश ०२ रन पर जो ०२ विकेट गिरे तो नो बॉल न होती! काश टॉस जीत कर बल्लेबाज़ी करते! ऐसा होता तो बाद में गेंदबाज़ी करते हुए ओस से हमारे हाथ से गेंद तो न फिसलती। करिये बहानेबाज़ी, जितनी भी कर सकते हैं। मरे सांप को लाठी से पीटो, जितना पीटना है। जीत जाते तो कोई कमी याद न आती।
यह सही है कि अफ़सोस तो है हारने का। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि आज के दिन वेस्ट इंडीज की टीम इंडिया टीम से बेहतर खेली। वो खेल के जज़्बे से खेली। उसने प्रोफेशनल क्रिकेट खेली। मायूसी को हावी नहीं होने दिया। वो तो क्रिकेट के लिए बनाया गया कई कैरिबियाई देशों का एक संगठन है। उसे क्रिकेट में कुछ खोना नहीं होता। आज मैच में वो खड़े-खड़े शॉट्स लगा रहे थे। हार गए तो ठीक और जीत गए तो बहुत बढ़िया। फिर उन्हें रोकने का कोई प्लान भी नहीं बनाया था टीम इंडिया ने।

Wednesday, March 30, 2016

नर्गिस ने कहा, नहीं दूंगी किस्स।

-वीर विनोद छाबड़ा
वो भी एक अजीब दौर था। चुंबन शब्द पर बात करना ही गुनाह की श्रेणी शुमार था। इस पर हमने एक किस्सा सुना था। एक संगीत चैनल पर अन्नू ने भी उस दिन याद दिलाया।

यह बात १९४८ की है। आरके स्टूडियो में बरसातकी शूटिंग चल रही थी। प्रोड्यूसर-डायरेक्टर और हीरो थे राजकपूर। किसी शाट पर गाड़ी अटक गयी। शूटिंग रोकनी पड़ी। राजकपूर स्क्रिप्ट पर डिस्कस करने अपने रूम में चले गए। हीरोइन नर्गिस कोने में बैठी कोई स्क्रिप्ट पढ़ने लगी। उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। सबने इसे देखा। मगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
तभी उधर जाने कहां से उछलते-कूदते शम्मी कपूर आ टपके। राजकपूर के छोटे भाई, मस्तमौला। उम्र रही होगी, सत्रह-अठारह साल की। दाढ़ी-मूंछ निकल ही रही है। आंखों में बलां की शरारत। उनको राज साहब से कुछ जेबखर्च के सिलसिले में कुछ एक्स्ट्रा पैसा चाहिए था। शम्मी ने भी नर्गिस को रोते देखा। उससे रोने की वजह पूछी।
नर्गिस ने शुरू में तो बताने से इंकार कर किया। लेकिन जब इसरार किया तो राज खोल दिया। 'आवारा' की स्क्रिप्ट पढ़ रही हूं। क्या ज़बरदस्त किरदार है हीरोइन का। पढ़ कर आंसू आ गए। काश! ये किरदार मुझे मिल जाता।
उन दिनों राजकपूर और नर्गिस के रोमांस का कोई चक्कर नहीं था। अगर था भी तो ढका-छुपा।  
शम्मी को खुद पर बहुत गुमान था। ये कौन बड़ी बात है? मैं अभी राज साहब से बोल देता हूं।
इस पर नर्गिस को शरारत सूझी। अगर तुम मुझे ये फिल्म दिलवा दो तो मैं तुम्हें एक 'किस्स' दूंगी। यह कहते हुए नर्गिस ने अपने गाल की ओर ईशारा कर दिया। 
शम्मी की आंखों में चमक आयी। ज़रूर! तब तो ज़रूर भाई साहब से बात करूंगा।
कुछ अरसा गुज़र गया। राजकपूर-नर्गिस का रोमांस खासा परवान चढ़ गया। ऐसे में राजकपूर को आवारा की हीरोइन के लिए नर्गिस के सिवा और कुछ दिखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। इधर नर्गिस ने भी आवाराके लिए जी-जान लगा दी।
उन दिनों आर.के. स्टूडियो में आवाराकी शूटिंग चल रही थी। एक बार फिर शम्मी को जेब खर्च के सिलसिले कुछ एक्स्ट्रा पैसे की ज़रूरत पड़ी। वो राज साहब से मिलने स्टूडियो आये। लेकिन बरसातकी शूटिंग के दौरान दिखे शम्मी और अब वाले शम्मी में ज़मीन आसमान का फ़र्क था। अब शम्मी २१ साल के ऊंचे कद वाले भरपूर दिलकश जवान थेपतली-पतली मूंछ वाले और गोरे-चिट्टे।
नर्गिस ने शम्मी को देखा। एक अरसे बाद देख रही तो उसे। कुछ पहचाना सा चेहरा लगा। वहीं खड़े एक स्पॉट से पूछा। उसने बताया शम्मी है यह। तभी नर्गिस ने देखा कि शम्मी उसी की और बढ़ा चला आ रहा है। वो पशोपेश में पड़ गयीं। तभी नर्गिस को 'बरसात' की शूटिंग के दौरान शम्मी से किया 'किस्स' वाला वादा याद आ गया। मुझे आवारा दिला दो तो मैं तुम्हें किस्स दूंगी।
सकपका गयीं नर्गिस। उन्हें लगा शम्मी अपना वादा याद कराने आया है। लेकिन वो वादा तो मैंने किशोर शम्मी से किया था! यह तो भरा-पूरा जवान है। मैं तो इसे न देती किस्स।

Tuesday, March 29, 2016

अंडर ट्रायल।

- वीर विनोद छाबड़ा
पिछले २० साल से जेल में बंद अंडर ट्रायल उस क़ैदी को जज के सामने पेश किया गया।

जज ने वकील से पूछा - किस कसूर में इसे पेश किया गया है?
वकील जवाब नहीं दे पाया। जनाब मैं नया-नया सरकारी वकील हूं। केस स्टडी के लिए मोहलत चाहिए थोड़ी।
जज ने फ़ाइल के सफ़े पलटे। पिछले बीस साल से इस फाइल पर यही रिकार्डेड है। कोई कसूर साफ-साफ दर्ज नहीं है। जब जब पेश किया गया। तारीख़ ही ली गई। अब कोई तारीख़ नहीं मिलेगी।
फिर जज साहब ने क़ैदी की और मुख़ातिब हुए। चल तू ही बता तेरा कसूर क्या है?
क़ैदी की आंखें ख़ुशी से चमकीं। जनाब मैं तो सो रहा था। अगली सुबह उठा तो देखा मेरे चारों और दीवारें खड़ी हो गईं हैं। मैं चीखता रहा, चीखता रहा। नाशुक्रों ये मेरी ज़मीन है, मेरे खेत हैं। इन्हें ले रहे हो, लेकिन मुझे तो बक्श दो। लेकिन इन्होने मेरी एक न सुनी। और यहां जेल बना दिया। मैं क़ैदी हो गया। जज साहब मुझे निजात दिलाओ।

Monday, March 28, 2016

जीजा कब जीजू हो गए!

-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे को नॉस्टेलजिया है। विगत में विचरता है। कल गिरते-गिरते बचा। किसी ने कह दिया। बाबा संभलो। हाथ-पैर फूट जायेंगे।
 
बाबा शब्द सुनते ही पचपन साल पीछे का फ्लैशबैक शुरू
सब कुछ धुंधला धुंधला सा है। मां-बाप माताजी-पिताजी हैं। अब्बा और अम्मी नाम भी अक्सर कानों में पड़ते हैं.... दो बूढ़े से लोग दिखते हैं। ये दादा और दादी हैं। हमारे पड़ोस वाला मुन्ना अपने दादा जी को बाबा कहता है। फूफा भी हैं उसके और मौसा भी....चाचा की दिल्ली में शादी होती है। पचास का मध्यकाल है यह। उस दौर का नया ज़माना चढ़ रहा है। चाची बीए पास कड़क मास्टरनी है। उन्हें चाची शब्द से नफरत है। डपट दिया। आंटी कहो। दिल्ली बहुत मॉडर्न है। यहां हर चाचा आंटी ब्याह कर लाता है। चाची मृत्युपर्यंत आंटी रहीं। चाची वाला प्यार नहीं मिला...पता चला कि आंटी कल्चर बड़े लोगों की देन है। मिडल क्लास इसे अपना कर गौरवांवित महसूस करता है। उसका सीना मुर्गे की तरह फूला रहता है। 
इससे अच्छा हमारा शहर है। नई पड़ोसन अभी अभी ब्याह के आई है। उसे चाची कहा। उसने खुश होकर दुअन्नी दी। दिल खुश हो गया....नीचे वाले फ्लैट में श्रीवास्तव फैमिली के बच्चे मां को जिया कहते हैं। हम भी उन्हें जिया कहते हैं। लेकिन जिया तो बड़ी बहन को कहते हैं। होगा कुछ भी। हमें तो चाची और बड़ी बहन दोनों का प्यार मिला...बंदे को ताउम्र फख्र रहा कि बुआ को बुआ ही कहा और मौसी को आंटी नहीं बोला।
एक दिन स्कूल में पिताजी आये। बंदे ने मास्टर जी से परिचय कराया। ये मेरे 'फादर' हैं। मास्टर जी ने घुमा कर दो छड़ी लगाई। पिताजी कहने में शर्म आती है?
पता ही नहीं चला कि कब दौर बदल गया। आदरणीय जीजा जीजू और चाचा चाचू हो गए और मामा भी मामू। दादा को दादू से और नाना को नानू से प्यार हो गया। मौसियां और बुआ भी आंटियां कहलवाने में गौरव महसूस करने लगीं। ताऊ और ताई को छोड़ कर सारे रिश्ते गडमड हो गए। पिताजी डैडी बने और फिर पापा। उस दिन एक बच्चे ने पापू कहा तो गलगलान हो गए। अंग्रेजी कल्चर में रंगे बच्चे तो पॉप कहते हैं। मां भला पीछे कैसे रहे? मम्मी बनी और फिर मॉम। दादी और नानी ने भी चुपचाप नाम बदल लिया। एक ग्रेमी है तो दूसरी ग्रैनी है।
नेपथ्य से आवाज़ आती है। संस्कृति का क्षरण है यह। लेकिन कोई हल्ला-गुल्ला और विरोध भी तो नही है। दोनों पक्षों को मज़ा आ रहा है।

Sunday, March 27, 2016

फिर बने कोहली संकट मोचक।

फिर बने कोहली संकट मोचक।
- वीर विनोद छाबड़ा 
९४ पर ४ ओवर १४, रन बाकी ६७ गेंद ३६ पर। सामने कंगारू। विश्व की स्ट्रांग टीम। क्रीज़ पर भरोसेमंद कोहली और मिस्टर कूल और आज की तारीख़ में नंबर वन ग्रेट फिनिशर धोनी। मगर मिशन फिर भी मुश्किल। एक ग़लती और गई भैंस पानी में। 
भूखे कंगारू किसी मौके के इंतज़ार में। 

ओवर दर ओवर मैच फंसता ही जा रहा था। टीम इंडिया की हार की श्रद्धांजलि लिखनी शुरू हो गई। 
मिरेकल रोज़ थोड़े ही होते हैं। लेकिन क्रिकेट का अलिखित नियम फिर आड़े आया। अंतिम गेंद तक इंतज़ार कर। 
और फिर सामने कोहली है। मौजूदा क्रिकेट की हर फॉर्मेट का शानदार खिलाड़ी। मैदान के किसी एक सेक्शन का ही नहीं हर सेक्शन में गेंद को हिट करने में महारत हासिल है उसे। 
सुना है आजकल अनुष्का से भी उसका अलगाव हो चुका है। कुछ ऐसा करके दिखाना है कि अनुष्का को अफ़सोस हो कि सोना नहीं उसने हीरा खोया है। 
ख़ैर यह अनुष्का वाली बात छोड़ो। क्रिकेट में फ़ोकस ज़रूरी है और कोहली को इसकी समझ है। मालूम है कोहली को देख कर लोग सचिन को भूल गए हैं। और यों भी हर खिलाड़ी के दिन होते हैं। उसे पारस बनने का वरदान मिल जाता है। जिसे हाथ लगाओ सोना। आजकल ऐसे ही दिन कोहली के चल रहे हैं। रनों के लिए उसकी भूख बढ़ती जा रही है। इसीलिए वो हर शॉट खेल सकता। मैदान की हर लूपहोल उसने रीड कर रखी है। हर क़िस्म के गेंदबाज़ के दिमाग को पढ़ने में उसे महारत हासिल है। ऑस्ट्रेलिया के कंगारू गेंदबाज़ उसके सर्वप्रिय शिकार हैं। 
याद है कुछ ही दिन तो हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया को उसी की ज़मीन पर २०-ट्वेंटी सीरीज़ में लगातार तीन मैच अकेले कोहली ने अपने दम पर हराये हैं। मैन सीरीज़ भी वही बना था। पिछले एशिया कप और मौजूदा वर्ल्ड कप में भी तो वो संकट मोचक बनता आया है। बाकी सब तो उसे निहार रहे हैं। 
बहरहाल इस मैच में वो काफ़ी देर से क्रीज़ पर था। उसकी गेंद पर आंखें सेट हो चुकी थीं। ऐसे में उसे गेंद फुटबाल साइज़ दिखने लगी। उसकी आंखें कंगारूओं को बता रहीं थीं, होली तो हो ली है। लेकिन अभी बाकी कोहली। फिर उसने साथियों से वादा भी किया हुआ था। यक़ीन रखो। मैं मैच जिता कर ही वापस आऊंगा। 
इसीलिए कंगारूओं ने १८ वें ओवर में बहुत ही सटीक और तजुर्बेकार गेंदबाज़ फॉकनर को गेंद थमाई। ३९ रन बाकी हैं। बनने नहीं चाहिए। मगर कोहली ने बाज़ी पलट दी। इस ओवर कोहली के ४, ४ और ६ रन, बाई १ और धोनी के २ रन बने। कुल १९ रन। अब १२ गेंद पर २० रन। कुल्टर नील के इस ओवर में कोहली ने चार हैरान कर देने वाले चौके लगा दिए। स्टेडियम झूम उठा। अगले ओवर की पहली बाल। कप्तान धोनी का चिर-परिचित हेलीकॉप्टर शॉट। जीत गई टीम इंडिया।
कुल मिला कर यह चमत्कार तो नहीं था लेकिन संकट मोचक कोहली का कारनामा ज़रूर था। 
मगर भी खुश होने के ज़रूरत नहीं। वर्ल्ड कप दो क़दम  दूर है। और ये दो क़दम कोई आसान नहीं। क्रिकेट में तो कुछ भी हो सकता है। 
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Saturday, March 26, 2016

जाली - एक और लुप्तप्रायः आईटम।

- वीर विनोद छाबड़ा
अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। हम अपने मित्र राजन प्रसाद के घर गए। हमेशा की ऊपर मुमटी में थे। हम भी पहुंच गए।

कबाड़खाने में समुंद्र मंथन चल रहा था। गुज़री यादें और दिन खंगाले जा रहे थे। तभी उसमें से निकली जाली।
राजन बोले इसे हमारे घर में डोलची कहा जाता था।
हमने अपने कई मित्रों से पुष्टि की तो कई लोगों ने बताया कि उनके घरों में नेअमत खाना या नियामत खाना कहा जाता था।
टीन की बनी होती थी यह जाली। डिज़ाईन तकरीबन एक जैसा। अक्सर लोग पेंट करा दिया करते थे। कोई हरा तो कोई नीला। किसी किसी को लाल रंग पसंद था। किसी किसी के घर में लकड़ी की होती थी। साठ-सत्तर के दशक में मिडिल क्लास का फ्रिज समझिए। बचा हुआ भोजन और दूध इसी में रख दिया जाता था। रात में घसीट कर खुली हवा में आंगन में ले आये। किस्मत अच्छी रही तो गर्मियों में दूध फटता नहीं था।

दूध के अलावा भी तमाम आईटमों को बिल्ली से हमेशा खतरा रहता था। मसलन मक्खन, मलाई, छाछ वगैरह। चूहे लोग भी इधर-उधर मुंह मारा करते थे। उनका विशेष जोर डबलरोटी कतरने पर होता था। छोटे-छोटे तो दूध में गिर भी जाते थे। यह आईटम जाली में बहुत सुरक्षितरहते थे।
हमें याद है कि हमारे घर में दो जालियां होती थीं। एक हमेशा खुले बरामदे में रखी रही। मां कभी-कभी रात की बची दाल भी इसी में रख देती थी। सुबह बच गई तो ठीक वरना सुबह...
दूसरी जाली रसोई में रहती थी। वहां इसकी भूमिका छोटे से स्टोर के रूप में रही। दाल-चावल, चीनी, चाय की पत्ती आदि का छोटा-मोटा स्टॉक 'तुरंत उपलब्धता' की स्थिति में रहता। नमक-मिर्चा आदि तमाम मसाले भी इसके ऊपर के खाने में रखे रहते। इसकी रूफ टॉप पर थोड़ी सी क्रॉकरी और गिलास भी।
हमें याद है मां को आमतौर पर उठना नहीं पड़ा। चौकी पर बैठी-बैठी घूम गईं और ज़रूरी आईटम तुरंत निकाल लिया।

Friday, March 25, 2016

डब्बा खाली, पेट खाली।

- वीर विनोद छाबड़ा
१९९० की बात है। हम दोपहर बारह बजे के करीब नीलांचल पर सवार हुए। रास्ते भर थोड़ा-थोड़ा खाया। अरे भाई, चाचा के घर जा रहे हैं। किसी पराये के घर नहीं। वहीं जम कर खायेंगे।

रात करीब ११ बजे उनके घर जा पहुंचे। वो हमें देख कर हैरान कि बिना किसी पूर्व सूचना के आ गए।
सरप्राईज़ चाचाजी! हमने चरण वंदना की। जल्दी से फ्रेश होकर पालथी मार कर बैठ गए। पेट में चूहे कूद रहे हैं।
चाचा परेशान। हमने कारण पूछा। उन्होंने बताया कि गैस ख़त्म हो गयी है, अभी थोड़ी देर पहले। हीटर परसों से ख़राब पड़ा है।
हमने कहा, कोई बात नहीं। ताज़ा नहीं तो जो बासी हो वही परोस दो। पता चला वो भी नहीं बचा। दस मिनट पहले आ गए होते तो कल्याण हो गया होता। सड़क पर मुफ़्त में पहरेदारी करने वाले को डाल दिया गया है। न दालमोठ और न ही बिस्कुट की खुरचन। एक बूंद दूध तक कि नहीं थी। चीनी तक का डिब्बा तक खाली निकला।
कैसे लोग हो आप सब? वो शर्मिंदा हुए। बस जी हम लोग ऐसे ही हैं। आज का काम कल करने वाले।
कज़िन ने स्कूटर उठाया और आस-पास के सारे होटल छान मारे। हमारी किस्मत ही ख़राब थी। कहीं कुछ नहीं मिला। नाते-रिश्तेदार दस किलोमीटर से पहले तक तो कोई नहीं। इतनी सर्दी में कहां जाओगे। अड़ोसी-पड़ोसी को जगाने की बात चली तो हमने मना कर दिया। समझ लूंगा कि आज ब्रत पर हूं।
पानी पीकर जैसे-तैसे सो रहे। सुबह सबसे पहले हमें ही उठाया गया। स्कूटर के पीछे खाली सिलेंडर लेकर बैठो। गैस लानी है। वापसी पर दूध की थैलियां भी।

Thursday, March 24, 2016

लो छब्बीसवीं चढ़ गयी।

- वीर विनोद छाबड़ा
यार, इस होली पर ज्यादा नहीं पीनी है। पक्का कर लो बस एक या दो पैग। ज्यादा से ज्यादा तीन पैग।

मित्रों हमें याद है वो होली। हम सुबह घर से यही इरादा कर करके निकले थे। दोपहर चढ़े घर लौटे थे तो याद नहीं था कितनी पी है और किस किस के घर पी है। लेकिन अच्छी बात यह थी कि अपना घर याद था और अपने पैरों पर चढ़ कर घर लौटे थे।
सीधे गुसलखाने में घुसे। पायजामा उतार रहे थे। संभल न पाये। गिर पड़े। जोर से आवाज़ हुई। यहाँ एक लतीफा हुआ।
पत्नी ने पूछा - क्या हुआ?
हमने कहा - पायजामा गिरा है।
वो बोली - इतनी आवाज़ क्यों हुई।
हमने बताया - पायजामे में हम भी थे।
शुक्र हुआ कोई चोट-शोट नहीं लगी। भोजन भी नहीं कर पाये। बस सो गए। सोते ही रहे। रात देर में उठे। खुद पर बहुत क्षोभ हुआ, ग्लानि हुई। यह भी कोई बात हुई कि याद ही रहा कि नहीं किस-किस के घर पी और कितनी पी? बस और नहीं बस और नहीं। तय कर लिया। अब से नहीं पीयेंगे। चाहे होली हो या दीवाली। ख़ुशी हो या ग़म। नहीं पीयेंगे तो बस नहीं पीयेंगे।
और हम जीत गए। वो दिन है और आज का। पच्चीस होलियां गुज़र गयीं। आज छब्बीसवीं लग गयी।

Wednesday, March 23, 2016

नहीं बदले होली के रंग।

- वीर विनोद छाबड़ा
त्यौहार हमारी संस्कृति की पहचान हैं। हमें आपस में जोड़ती हैं। लेकिन अपवाद छोड़ दें तो यह जानकर बड़ी हैरानी होती है कि त्यौहारों को केंद्रित करके फ़िल्में नहीं बनी हैं। हां, उन्हें गीत-संगीत में यदा-कदा स्थान ज़रूर मिला है। और इसमें भी सबसे ज्यादा होली का बोलबाला रहा। इसकी वज़ह है कि होली ही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें राग, रंग, मस्ती, शरारत, खुलापन, हुड़दंग, हो-हल्ला, धमाल आदि सब एक साथ दिखता है। खुशियों का इज़हार करने का तरीका भी है। एकता और अखंडता का संदेश भी। वर्ग-जाति और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठ कर सभी सम्मिलित दिखते हैं। जो बात कहानी न कह पा रही होती है उसे होली डांस के ज़रिये कहला दिया जाता है। हालांकि होली फ़िल्माना धन और समय के दृष्टिगत बहुत महंगा रहा है। लेकिन फिर भी बाज़ फिल्मकारों ने हिम्मत जुटाई है। सिचुएशन क्रेट की है। और इसी बहाने हीरोइन को जम कर नहलाया-धुलाया भी है।

ब्लैक एंड व्हाईट इरा में होली कम खेली जाती थी। रंगों के इफ़ेक्ट का पता नहीं चलता था। उस इरा की 'गोदान' का अंजान द्वारा रचित यह गाना बहुत लोकप्रिय था - होली खेलत नंदलाल बिरज में...ऐसी होली खेली कन्हाई जमुना तट पर धूम मचाई, बाजत ढोलक झांज मंजीरा गावत सब आज मिल के कबीरा...। शकील के मन में होली की बहुत सुंदर तस्वीर थी....आज मन रंग लो जी आज तन रंग लो, खेलो उमंग भरे रंग प्यार के ले लो...(कोहिनूर) फिल्मों में जब-जब रंग आया तो शकील भी तन-मन से रंगीन हुए.... होली आई रे कन्हाई होली आई रे, रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी....(मदर इंडिया). 'आन' में शकील होली के बहाने विरह के साथ-साथ प्यार में अमीरी-गरीबी का भेदभाव मिटाते हैं.... खेलो रंग हमारे संग आज दिन रंग रंगीला आया, कैसे खेलूं ख़ाक मेरा दिल पिया मिलान को तरसे...आज कोई राजा, ना आज कोई रानी है, प्यार भरे जीवन की एक ही कहानी है....।

होली हो और पिया संग चुहलबाज़ी न हो तो होली का मज़ा बेमज़ा है। 'नवरंग' भरत व्यास की बानगी देखिये - आ रे जा रे हट नटखट...मुझे समझो न तुम भोली भाली रे...। इसी तरह बेदी की 'फागुन' में मजरूह लिखते हैं - पिया संग खेलो होरी फागुन आयो रे, चुनरिया भिगो ले गोरी फागुन आयो रे, कहे सजनी सुनो पुकार, बरस बाद तोहे द्वार, आज तो मारे गेंदे की कली, होली के बहाने मिलो एक बार...। यह गाना दुखांत साबित हुआ था। वहीदा ने साड़ी पर रंग डालने पर धर्मेंद्र को खूब-खरी खोटी सुनाई थी। इस पर धर्मेंद्र ने घर छोड़ दिया था। यह फिल्म का टर्निंग पॉइंट था।
यूं तो फिल्मीं होलियां मस्ती और एकता का संदेश देती हैं, लेकिन 'ज़ख़्मी' में सुनील दत्त बदले की भावना से ओतप्रोत दिखते हैं - ...होली के रंग में दिल का लहु ये किसने मिला दिया, आई बहार कलियां खिलीं तो गुलशन जला दिया, दिल में होली जल रही है...(गौहर कानपुरी)। 'शोले' की होली भला कौन भूल सकता है - होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं, गिले शिकवे भूल के दोस्तों दुश्मन भी गले मिल जाते हैं...इसी में आगे हेमा मनुहार करती है...यही तेरी मर्ज़ी है तो अच्छा तू खुश हो ले पास आ के, न छूना मुझे चाहे दूर से भिगो ले...धर्मेंद्र भी कम नहीं हैं... हीरे की कनी है तू, मट्टी से बनी है तू, छूने से जो टूट जायेगी...(आनंद बक्शी)। धायें, धायें, धायें...डाकुओं ने हमला कर दिया। इतने उम्दा गाने का लुत्फ़ जाता रहा।
याद आ रहा है सत्तर के दशक में भट्ट बंधुओं के 'होली आई रे' में होली आई होली आई...के खत्म होते ही नायिका बहक गयी थी। 'कटी पतंग' में विधवा नायिका आशा पारिख को राजेश खन्ना ने होली खेलने पर मजबूर किया - आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली चाहे, भीगे तेरी चुनरिया, भीगे रे चोली..। राजेश खन्ना का ज़िक्र होता है तो हो नहीं सकता कि याद न आये - जै जै शिवशंकर कांटा लगे ने कंकड़....(आपकी कसम)। 'आख़िर क्यों?' की स्मिता पाटिल को कुढ़न होती है जब पति राकेश रोशन को सहेली टीना मुनीम के साथ रंग खेलने की आड़ में रासलीला मनाते देखती है - सात रंग में खेल रही है दिल वालों की टोली...अरे इस मौसम में जो न भीगे, क्या है उसका जीना....(इंदीवर)।
होली और अमिताभ बच्चन तो एक-दूसरे के पर्याय हैं। अस्सी के दशक के बाद जवां हुई पीढ़ी का सबसे पसंदीदा होलियाना - रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे...अरे कैनें मारी पिचकारी तोहरी भीगी अंगिया...सोने के थाली में जूना परोसा, खाए गोरी का यार बलम तरसे...। बेमौसम भी बच्चे से लेकर जवान तक खुद को रंगों से सरोबर समझते हुए थिरक उठते हैं। 'सिलसिला' का गाना है यह। रीयल लाईफ को एक समझौते के अंतर्गत रील लाईफ़ लाया गया था। अमिताभ-रेखा की रीयल लव स्टोरी का फ़ाईनल दफ़न। अमिताभ की होली 'बाग़बान' में भी सुपर हिट रही - होली खेलें रघुबीरा अवध में...हो साठ बरस में इश्क लड़ाये, मुखड़े पे रंग लगाये बड़ा रंगीला सांवरिया...।

Tuesday, March 22, 2016

होली - हमने तो मिटा डाले थे गिले शिकवे।

- वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरा अच्छा पडोसी ही नहीं बहुत अच्छा दोस्त भी है। एक-दूसरे के दुःख-सुख के साथी। चिंता का आलम यह कि ज़रा सी आहट हुई नहीं कि दौड़ पड़े - क्या हुआ?

एक बार किसी बात पर बहस हो गयी। कुछ ज्यादा ही लंबी खिंच गयी। फिर ठन गयी। वो कहे मैं सही, मैं कहूं मैं सही। तकलीफ़ों में एक-दूसरे की हुई मदद को अहसान समझ कर गिनाया जाने लगा। मैंने कहा, ठीक है मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं। उसने कहा, मुझे कोई काले कुत्ते ने तो काट खाया नहीं।
आज से, नहीं अभी से मुझे तुम्हारा चेहरा देखना तक गवारा नहीं।
और तुम्हारे चेहरे पर कौन हीरे-मोती जड़े हैं।
हो गयी कुट्टी। तकरीबन ढाई-तीन साल तक अन-बन का यह सिलसिला चला। इस बीच हमारे परिवारों के सदस्य एक दूसरे बद्दस्तूर से बोलते रहे। आना-जाना लगा रहा। हम उनकी पत्नी का आदर करते थे और हमारी पत्नी का। एक-दूसरे के लिए हमारे ही मुंह फूले रहते थे। 
दो साल पहले होली आई। रंगों का त्यौहार। आपसी गिले-शिकवों को दूर करने का त्यौहार। रंग इसीलिए लगाये जाते हैं। कोई किसी को पहचाने बिना गले मिलें। 
पिछली कुछ होलियां फीकी-फीकी सी रही थीं। हर होली की सुबह वही तो आया करता रंग-लगाने। इधर तीन होली गुज़र चुकी थीं, वो नहीं आया था।
मेरे अहं ने मेरे को धिक्कारा - अबे, तू तो बड़ा है, बच्चों की तरह रूठा है। शर्म नहीं आती तुझे। चल आगे बढ़। कोई छोटा नहीं हो जायेगा। बड़ा है, बड़ा ही कहलायेगा।
और मैंने यही किया।

Monday, March 21, 2016

नव-निक्करधारियों सावधान!

- वीर विनोद छाबड़ा
बंदे ने जब होश संभाला तो खुद को खाकी निक्कर और नीली कमीज़ स्कूल की ड्रेस में देखा। स्कूल के अलावा भी निक्कर ही पहनी। निक्कर पहन कर मां सोने नहीं देती थी। गंदी बात। पैजामा पहनो। लेकिन यदा-कदा बड़ों को ख़ाकी निक्कर के साथ सफ़ेद कमीज़ पहने देखा तो हैरानी हुई। इत्ते बड़े आदमी। बच्चों की तरह खुली खुली निक्कर! महिलायें तो शर्मा ही जातीं। मां ने पिताजी को सख़्त हिदायत दे रखी थी कि ख़बरदार कोई निक्कर पहन कर घर में घुसा।

वक़्त गुज़रा। बंदा दसवें में पहुंच गया। टांगों पर बड़े-बड़े उग आये थे। भद्दा लगता था। पैंट वाले बड़े सहपाठी गंदी निगाहों से देखते थे। टीचरों ने डांटना शुरू कर दिया। निक्कर छोड़ कर पैंट में आ गया बंदा। बहुत सहज लगा।
जवान हुए। नई कॉलोनी में बस गए। यहां नया कल्चर दिखा। बड़े लोग, बड़ी कोठियां और बड़ी बातें। सुबह मॉर्निंग वॉक पर लोग निक्कर पहने दिखते। एक हाथ में डेढ़-दो फुटा चमचमाता लकड़ी का रूल। अंग्रेज़ बहादुर और लाट साहबों की याद ताज़ा होती। दूसरे हाथ में जंजीर से बंधा कुत्ता। शुरू-शुरू में बंदा समझा कि कुत्ता टहलाने का ड्रेस कोड है शायद।
लेकिन यह सब तो नकली निक्करधारी थे। असली निक्करधारी तो वही ख़ाकी वाले थे। पुराने समय की खुली और कलफ़दार निक्कर की रवायत को ज़िंदा रखे हुए थे। कॉलोनी का एक पार्क उनका ठिकाना रहा।  
हां, तो बात निक्कर की हो रही थी। २१वीं शताब्दी आते आते निक्कर खास-ओ-आम हो गयी। अमीर हो या ग़रीब, कर्म का लिहाज़ किये बिना निक्कर पहने दिखने लगा। हर तरफ निक्कर ही निक्कर। कुकुर टहलाने जाओ तो निक्कर। सब्जी-भाजी लेने जाओ तो निक्कर। मरघटे जाओ तो निक्कर। बदन से चिपकी-चिपकी डिज़ाइनर निक्करों से बाजार पट गया। पैंट से भी महंगी निक्कर। छह जेब वाली निक्कर। नव-निक्करधारियों की नई जमात। पुरानी डिज़ाइन की निक्कर को तो ग्रहण ही लग गया।
हद हो गयी जब अमीरजादे निक्कर पहने कार चलाने लगे। बगल में पैमेरियन कुत्ता भी। सुबह-सुबह दूध-ब्रेड और जलेबी लेने जाते हैं। लेट-नाईट विद फैमिली आइसक्रीम भी खाते हैं। निक्कर ने इंसल्ट कर दी आइसक्रीम की और छह लखिया कार की भी। डॉक्टर से चेकअप के लिए भी निक्कर में चल देते हैं। 
देखना कल को दूल्हा भी निक्कर में घोड़ी चढ़ेगा और उधर दुल्हन भी शॉर्ट्स में जयमाल लिए स्वागत करेगी। जब इतना इतना होगा तो दफ़्तर भला कहां छूटेंगे। शुक्र है भद्र पुरुषों के खेल क्रिकेट में निक्कर की बीमारी नहीं है। मगर कब तक बचेगा यह। कई खिलाड़ी मैन ऑफ़ मैच का अवार्ड निक्कर में लेते हैं। पता नहीं कौन से पौरुषत्व का प्रतीक है यह नंगी निक्कर? बंदा बिलबिला उठता है। संस्कृति कहां जा रही है।