Saturday, December 31, 2016

गायक बनने आये थे राजखोसला

-वीर विनोद छाबड़ा
एक नौजवान पचास की शुरुआत में लुधियाना से सपनों की नगरी बंबई आता है। शास्त्रीय संगीन का अच्छा ज्ञान उसकी जेब में है। वो दिवंगत कुंदन लाल सहगल की गायकी पर फ़िदा है। उन्हीं की तरह गाता भी है। उसे दृढ़ विश्वास है कि वो उनकी खाली जगह को भर देगा। और सबसे बड़ी बात यह है की बंबई में उसका एक दोस्त है - देवानंद।  इस नौजवान का नाम था राजखोसला।
बंबई में अक्सर ऐसा होता है कि बंदा बनने कुछ आता है और बन कुछ और जाता है। राजखोसला के साथ भी यही हुआ। रोटी-रोज़ी की तलाश ने राजखोसला को प्रोड्यूसर-डायरेक्टर गुरुदत्त के द्वारे पहुंचा दिया। गुरू ने सलाह दी। जब तक सिंगर बनने का चांस नहीं मिलता तब तक मेरे सहायक बन जाओ।
राज जल्दी ही समझ गए कि निर्देशन ही ज़िंदगी है। अपना हुनर उसी में दिखाने की ठान ली।
पहली फिल्म मिली देव-गीताबाली की मिलाप (१९५४)। सुपर फ्लॉप हुई। पहली फ्लॉप बहुतों को सर्कुलेशन से बाहर कर देती है। लेकिन राज पर उनके गुरू गुरुदत्त का भरोसा कायम रहा। उन्होंने देवानंद-शकीला के साथ 'सीआईडी' ऑफर की। रातों रात फिल्म सुपर-डुपर हिट हो गई। राजखोसला अगली सुबह उठे तो स्टार डायरेक्टर बन चुके थे। सस्पेंस और थ्रिल फिल्मों की शुरुआत इसी फिल्म से मानी जाती है।
उसके बाद कालापानी, सोलवां सावन और बंबई का बाबू। सब देवानंद के साथ। ठप्पा लगा देवानंद नहीं तो राज खोसला कुछ नहीं। राज ने चैलेंज स्वीकर किया। नवोदित जॉय मुकर्जी-साधना के साथ म्यूजिकल 'एक मुसाफिर एक हसीना' बनाई। यह भी हिट हुई।

राजखोसला मधुबाला से बहुत प्रभावित थे। 'कालापानी' में उन्होंने मधु को डायरेक्ट किया। उसमें मधु के करने लायक कुछ नहीं था। उन्होंने मधु को प्रॉमिस किया कि टॉप क्लास हीरोइन बना दूंगा। लेकिन मधु की बीमारी के कारण तमन्ना अधूरी रही।
साधना में उन्हें एक रहस्यमई ब्यूटी दिखी और नतीजा सस्पेंस थ्रिलर वो कौन थी, मेरा साया और अनीता। सिनेमा में यह पहली रहस्यमई ट्राइलॉजी थी।
राज को मानों महिलाओं में टैलेंट खोजने की आदत पड़ गयी। चुलबुली और ग्लैमरस आशा पारेख में 'आशा' आर्टिस्ट खोज निकाली। दो बदन, चिराग़, मेरा गांव मेरा देश और मैं तुलसी तेरे आंगन की में आशा ने प्रतिभा के झंडे गाड़ दिये। उस दौर की वो सबसे महंगी आर्टिस्ट रही। त्रासदी ज़रूर रही कि आशा को इन फिल्मों में कोई पुरुस्कार नहीं मिला।

Friday, December 30, 2016

गुरू गुरू होता है!

- वीर विनोद छाबड़ा
कई बार सफलता का जादू सर पर इतना ज्यादा चढ़ जाता है कि चेला अपने गुरू को ही भूल जाता है। हद तब होती है जब गुरू को चेला कदम-कदम पर उपेक्षित और अपमानित करता है।

ऐसा ही किया था एक नामी पहलवान ने। देश विदेश में उसने कई बड़ी कुश्तियां जीतीं। हर जीत के बाद उसकी सफलता का राज़ पूछा गया। और साथ में गुरू का नाम भी। लेकिन चेला इसका श्रेय स्वयं को ही देता - मेरी ज़िंदगी में मेरा कोई गुरू नहीं हुआ। सब मेरी मेहनत और ईशवर की कृपा है।
गुरूर ने उसे असभ्य भी बना दिया। उसने अपने गुरू को गालियां भी देनी शुरू कर दीं।
गुरूजी के कान में शिष्य के स्वयं को फन्ने खां समझने के चर्चे पहुंचा करते थे। एक दिन उस चेले की गुरूजी से भेंट हो गयी।
गुरूजी अपने शिष्य के हितैषी थे। उन्होंने शिष्य को समझाया - गुरूर इंसान को कमज़ोर बनाता है।
इस पर शिष्य क्रोधित हो गया - मेरी प्रसिद्धि आपको रास नहीं आ रही है।
गुरू ने फिर समझाया - ऐसा कतई नहीं। बल्कि मुझे तो तुम पर फ़ख्र है कि तुम मेरे सिखाये गुरों के सहारे कामयाबी की बुलंदी को छू रहे हो।
इस शिष्य और भी भड़क गया - इसमें आपका कोई योगदान नहीं है। मैं जो कुछ हूं अपने दम पर हूं। हिम्मत हो तो मुझसे मुक़ाबला करें। अपनी श्रेष्ठता साबित करें। मेरा चैलेंज है कि एक ही पटखनी में धरती सुंघा दूंगा।
अब गुरू जी को यकीन हो गया कि आसमान पर उड़ रहे शिष्य को ज़मीन पर उतारना ज़रूरी है। उन्होंने चुनौती स्वीकार की - ठीक है। अगर तुम्हें स्वयं पर इतना ज्यादा विश्वास है तो फिर हो जाए मुक़ाबला। 
गुरूजी को सब चेलों ने समझाया - आप बहुत वृद्ध हो और वो आपका घमंडी लहीम शहीम शिष्य है। पल भर में आपकी हड्डी-पसली एक करके चूरमा बना देगा।
लेकिन गुरू जी नहीं माने।
कुश्ती के लिए दिन और समय तय हुआ। विशेष विशाल अखाडा बनाया गया। मुनादी पिटवा दी गयी। गुरू और चेले की इस ऐतिहासिक फ्री स्टाइल कुश्ती को देखने दूर दूर से हज़ारों की संख्या में कुश्ती प्रेमी जमा हुए।
सबको वृद्ध गुरूजी पर दया आ रही थी - गुरूजी खामख्वाह जान देने पर तुले हैं।
घंटा बजा। कुश्ती शुरू। पूरे आत्म विश्वास से लबरोज़ लहीम-शहीम चेले ने झपट्टा मारा और पल भर में गुरूजी को दबोच लिया।
गुरू समर्थकों ने डर कर आंखें बंद कर लीं - भाया, गुरू तो गियो।
लेकिन अगले ही पल एक ज़बरदस्त चीख़ सुनाई दी। मगर यह आवाज़ तो गुरूजी की है नहीं।
दर्शकों ने आंखें खोलीं। दंभी चेला चारों खाने चित्त पड़ा था। सब हैरान - गुरूजी ने यह कमाल कैसे कर दिखाया?

Thursday, December 29, 2016

काजू-पिस्ते वाली बर्फ़ी गयी तेल लेने

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक नौजवान सहकर्मी के विवाह के लिए योग्य कन्या की तलाश हो रही थी। लेकिन कहीं बात बन नहीं पा रही थी। कभी उन्हें लड़की पसंद नहीं आई तो कभी लड़की को मित्र में बंदर जैसी सूरत दिखाई दी। एक लड़की ने तो उलटे मित्र की परीक्षा ही ले डाली। तुम्हें क्या क्या बनाना आता है? कपड़े धोने में निपुड़ हो कि नहीं और झाड़ू-पोंछा लगा कर दिखाओ ज़रा। एक लड़की के माता-पिता ने कह दिया कि कामवाली बाई ज़रूर रख लीजिये, हमारी बेटी कोई वाशिंग मशीन नहीं है कि घर भर के कपड़े धोती रहेगी। 
इधर समय हाथ से निकला जा रहा था। मगर एक बात पर मित्र को तसल्ली थी कि जहां-जहां भी वो गए, स्वागत जोरदार हुआ। नाना प्रकार के व्यंजनों पर हाथ साफ़ करने का मौका मिला। काजू-पिस्ते की बर्फ़ी और दालमोठ से भरी प्लेटें तो तक़रीबन कॉमन रहीं।
मगर एक जगह उनके सामने बेहद मामूली दालमोठ और किसी लोकल ब्रांड के बिस्कुट रखे गए, वो भी बड़ी बेदर्दी से। इतनी बेरुखी से कूकुर को भी नहीं डाला जाता। चाय से भी जले दूध की महक आ रही थी। दो घूंट से ज्यादा हलक़ से नीचे नहीं उतर पायी। लड़की भी देखने में कोई ख़ास नहीं थी। रंग भी सांवला था। क्वालिफिकेशन बस ग्रेजुएट। नौकरी-शोकरी भी खास नहीं। किसी मोहल्ला स्तर स्कूल में हज़ार-पांच सौ में पढ़ाती थी। घर-बार और सदस्यों का व्यवहार भी एवैं ही था। प्राईमाफेसी केस में कोई दम नहीं था। हालांकि लड़की वालों ने ऑफर भी दिया गया कि लड़की से लड़का अगर कुछ बात करना चाहता है तो उन्हें ऐतराज नहीं है। लेकिन हमारे मित्र ने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया।

Wednesday, December 28, 2016

फीस में सिर्फ़ 1 रूपए लेकर गाया था गाना

-वीर विनोद छाबड़ा 
रफ़ी की गायकी की बारीकियों के बारे में बात करना सूरज को दिया दिखाने के समान है। उनके लिए एक ही शब्द काफ़ी है कि वो बेमिसाल थे। हर तरह के गाने गा सकते थे। चाहे क्लासिकल हो या वेस्टर्न। गंभीर हो या कॉमेडी। उनकी आवाज़ का फ़लक़ बेहिसाब था। इसलिए उनके सबसे ज्यादा फैंस क्लब हैं।
अगर उन्हें मालूम होता था कि उनका गाना फलां कलाकार पर फिल्माया जाना है तो फिर कहने ही क्या। वो खुद कलाकार बन जाते। दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, प्रदीप कुमार, राजेंद्र कुमार और देवानंद की भी रफ़ी बरसों स्थायी आवाज़ रहे। बिस्वाजीत (पुकारता चला हूँ मैं.…) और जॉय मुखर्जी (आँचल में छुपा लेना कलियां) सरीखे अभिनेताओं के बारे में कहा जाता था कि वो अगर फिल्म में खड़े हो पाये तो उन पर फिल्माए रफ़ी के गानों की वज़ह से।
रफ़ी जितने बेहतरीन गायक थे उतने ही बेहतरीन इंसान भी। किसी भी नए कलाकार को अपनी आवाज़ देने में कभी कोई संकोच नहीं किया उन्होंने। कॉमेडियन को भी आवाज़ को आवाज़ देकर इज़्ज़त बख़्शने वाले रफ़ी साहब पहले थे। इस श्रंखला में जॉनी वॉकर का नाम टॉप पर रहा। मुफ़लिसी के दौर से गुज़र रहे संगीतकार निसार बज़मी की 'खोज' के लिए रफ़ी ने एक रूपये में गाया। उन दिनों बज़्मी साब को कोई घास नहीं डालता था। बाद में बज़्मी पाकिस्तान चले गए और बहुत बड़े संगीतकार बन गए। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को भी पैर ज़माने में रफ़ी साहब ने बहुत मदद की। उनकी पहली फिल्म 'छैला बाबू' के लिए पहला गाना मुफ़्त में गाया। उन्हें कई फिल्मे भी दिलाईं। 'दोस्ती' में 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरेसे लक्ष्मी-प्यारे कहां से कहां पहुंच गए। इसके लिए रफ़ी साब को बेस्ट सिंगर का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला। राकेश रोशन की पहली फिल्म  'आपके दीवानेके लिए रफ़ी साहब ने सिर्फ एक रुपए मेहनताना लिया था। दुनिया जानती है कि बतौर निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन आज किस बुलंदी पर हैं।

लता जी के साथ झगड़े के कारण रफ़ी साहब कुछ अलोकप्रिय भी हुए थे। झगड़े की कई कहानियां अफ़वाह फ़ैक्टरी में भी बनायीं गयीं। लेकिन रिकॉर्ड में यह है कि उनका झगड़ा फिल्मों में गाने की रॉयल्टी को लेकर था। इस मुद्दे पर बात इतनी गर्म हुई कि एक-दूसरे को भाई-बहन मानने वाले रफ़ी और लता ने ऐलान किया कि साथ-साथ नहीं गाएंगे। कुछ लोग बताते हैं कि 'माया' फिल्म में एक गाने (तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है.…) की रिकॉर्डिंग के दौरान संबंध ख़राब हुए थे। एक इंटरव्यू में उषा तिमोती ने बताया था कि ये सब तो बहाने थे। असल वज़ह थी कि रफ़ी जी आदतन हर नए गायक को प्रमोट करते थे। इसी कड़ी में उन्होंने सुमन कल्याणपुर को प्रमोट किया। लताजी को ये बात पसंद नहीं आई थी। यों लताजी संगीतकार शंकर-जयकिशन के शंकर के साथ भी गायिका शारदा को प्रमोट करने के मुद्दे को लेकर भी नाराज़ हुई थीं। कुछ समय बाद संगीतकार जयकिशन ने १९६७ में रफ़ी और लता की सुलह करा दी।
परंतु दो साल बाद फिर विवाद खड़ा हो गया। लताजी ने एक समारोह में बताया कि रफ़ी साहब ने उनसे लिखित माफ़ी मांगी थी। जबकि रफ़ी के बेटे शाहिद रफ़ी का कहना था कि अगर ऐसा था तो लताजी माफ़ीनामा दिखायें। वो माफ़ीनामा अभी तक पेश नहीं हो सका है।

Tuesday, December 27, 2016

गुम्मा हेयर-कट!

-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल के लड़कों की हेयर स्टाइल देखता हूं तो हमें अपने ज़माने का गुम्मा-कट हेयर कटिंग सैलून याद आता है।

ठीक-ठाक ब्राइट हेयर कटिंग सैलून में बाल कटाई चवन्नी में। सड़क किनारे गुम्मे पर बैठा कर कटिंग दुअन्नी में। दुअन्नी की बचत। लेकिन स्टाईल उनकी पसंद की। बार-बार कभी दायें तो कभी बायें और कभी-कभी अबाउट टर्न। परेशान बहुत करता था नाई। 
बड़े-बुज़ुर्ग कहते - सर पर कटोरा रख कर बाल कटवाये हैं क्या? कलम कहां गयी? आमतौर पर पुलिस और रंगरूटों की कटिंग ऐसी ही होती थी।
बड़ी ख़ुशी होती है यह देख कर कि यह गरीबों के गुम्मा-कट हेयर कटिंग सैलून अभी भी हैं। बस अब गुम्मे की जगह एक अदद कुर्सी ने ले ली है। 
उस ज़माने में देवानंद और दिलीप कुमार स्टाईल हेयर कट की धूम थी। बड़े बाल रखे जाते। बस कान ज़रूर दिखाई दें।
नाई पूछता था - मोटी कटिंग या महीन।
आमतौर पर मोटी कटिंग पसंद की जाती। कैंची का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल। देर बहुत लगती थी। डेढ़-दो महीने बाद फिर जाना होता था।
महीन कटिंग बोले तो छोटे छोटे बाल। मशीन का ज्यादा इस्तेमाल। दस पंद्रह मिनट बाद कुर्सी से उतार दिया जाता। एक बार कटाये तो तीन-साढ़े महीने की छुट्टी। दिलजले कहते - कंजूस है।
बाल कटाते हुए गुदगुदी बहुत होती थी। नाई से डांट बहुत खानी पड़ती - ठीक से बैठो। जब उस्तरे से ख़त बनाता तो बड़ा डर लगता। नौसिखिये नाई से पाला पड़ा तो समझिये कई दिनों तक कार्टून माफ़िक दिखना और खाल का भी कई जगह से कट-पिट जाना।
फिर क्रू-कट का ज़माना आया। आगे का हिस्से में बड़े बाल और पीछे छोटे-छोटे।
सत्तर के दशक में नाईयों को बड़ा नुकसान रहा। बड़े-बड़े बाल का फैशन जो था। नाई के पास पांच-छह महीने पीछे एक बार जाना होता।
अब तो सर पर बाल भी नहीं रहे। लेकिन फिर भी दो-एक महीने पर चले जाते हैं। दिल को तो समझाना ही पड़ता है।

Monday, December 26, 2016

मेरा सुंदर सपना बीत गया

-वीर विनोद छाबड़ा
हमें वो दिन याद है जब हम टहलते हुए इलेक्ट्रॉनिक के एक नामी शो रूम में घुस जाया करते थे, नए आये आईटम देखने और परखने। उनकी विशेषताओं का विवरण एकत्र करते और और दाम पूछ कर बाहर निकल जाया करते थे। एक दिन हम शोरूम से बाहर निकलने को ही थे कि एक भद्र पुरुष ने हमें रोक लिया। वो उस शो रूम के मालिक थे - टंडन जी। हम डर गए थे। कहीं चोरी का इल्ज़ाम न लगा दे। इंसान का क्या भरोसा। लेकिन टंडन जी ने हमें विधिवत बैठाया। हमारी जान वापस आई।
इधर टंडन जी पूछ रहे थे। आप अक्सर आते हैं, दुकान का कोना-कोना खंगालते हैं। हर छोटे-बड़े आईटम का दाम पूछते हैं और खाली हाथ बाहर चले जाते हैं। कभी खरीदते नहीं देखा।
हमने सफाई दी। खरीदने की इच्छा तो बहुत होती है। लेकिन आईटम इतने महंगे होते हैं कि हिम्मत नहीं पड़ती। बजट भी तो होना चाहिए। जिस दिन आमदनी बढ़ेगी, खरीद भी लेंगे।
टंडन जी मुस्कुराये। देखने में आप सज्जन और ठीक-ठाक दिखते हो। आप काम कहां करते हो? सरकारी नौकरी हैं
हम थोड़ा सकपकाये। हां सरकारी ही समझिए। बिजली विभाग में....
टंडन जी ने बात पूरी नहीं होने दी। उठ कर गले लगा लिया। तो आप बिजली वाले हो! यार फिर फ़िक्र काहे की। बस आप आईटम पर हाथ रखो और एड्रेस बताओ। सामान अभी के अभी आपके घर पहुंचता है। ओ श्यामू ज़रा चा-शा, ठंडा-शंडा ले आ भाई।
हमने बहुतेरा समझाया कि अभी हम संकट में हैं। अगले महीने वेतनमान रिवाइज़ होने हैं।
लेकिन टंडन जी ने कोई कच्ची गोलियां नहीं खेलीं थी। अरे भाई पैसों की बात मैंने कब की? वो तो आते रहेंगे। फिर आप ठहरे बिजलीवाले। जब आपकी इच्छा हो देना।

यह तो अच्छा हुआ कि टंडन जी के इनकम टैक्स वाले मित्र आ गए और हमें भाग निकलने का मौका मिल गया। उसके बाद से हम लंबी मुद्दत तक टंडन जी के शो रूम के सामने से नहीं गुज़रे। जिस गली में तेरा घर हो साजना उस गली से हमें तो गुज़रना नहीं...। अगर कभी मजबूरी में गए भी तो भूल से भी डिपार्टमेंट का नाम नहीं बताया।
मक़सद बताने का यह है कि कितनी हनक थी अपने बिजली बोर्ड की। लोगों को कितना भरोसा होता था बिजली विभाग और उसके कर्मियों पर और उनकी आमदनी पर। चलती-फिरती कैश-लेस हुंडी थे। बिना पेमेंट किये जितना माल चाहो उठा लो। मगर हर घूरे के दिन बदलते हैं। बिजली वालों के भी बदले। बद से बद्दतर हुए। एक तो बिजली नहीं दोगे और ऊपर से सूखी रंगबाजी। कौन कब तक बर्दाश्त करेगा? एक दिन किसी ने पीट दिया। बस उस दिन के बाद से पिटने का मानो सिलसिला ही चल पड़ा। सब गवां दिया। शोहरत और इज़्ज़त सभी कुछ। बिजली विभाग का नाम लिया नहीं कि पड़ने लगी गालियां। फब्तियां कसने लगे। अरे ये लोग तो बाप को भी बिना घूस लिए कनेक्शन नहीं देते। ईएमआई पर सामान देने वालों ने भी खदेड़ दिया। कंटाप, लाठी-डंडों तक की नौबत आ गयी। बत्ती गुल होने पर अपने भी लथाड़ने लगे।

Sunday, December 25, 2016

सिगरेट न हो तो बीड़ी भी चलेगी!

-वीर विनोद छाबड़ा
अचानक एक ज़रूरी सरकारी काम से अचानक इलाहाबाद जाना हुआ। गर्मी के दिन थे। लखनऊ से इलाहाबाद होते हुए मुगलसराय पैसेंजर रात दस बजे चारबाग के गदहा लाईन प्लेटफार्म से छूटी। बहुत भीड़ थी। बामुश्किल एक डिब्बे में घुसने को मिला। लगा कि पूरी रात खड़े-खड़े गुज़रेगी।

ये अप्रैल, 1985 की बात है। रात ट्रेन में नींद कभी नहीं आई। सफ़र काटने के लिये एक डिब्बी सिगरेट और माचिस जेब में रख ली।
तभी एक उपाय सूझा। जेब से सिगरेट निकाल सुलगाई। फिर औपचारिकतावश सीट किनारे बड़ी सी चौकड़ी लगा कर बैठे या़त्री को आफ़र की।
उस यात्री को मेरे इस व्यवहार पर हैरानी हुई। मैंने इसरारकिया तो तनिक संकोच के साथ उसने सिगरेट स्वीकार कर ली। उसके तीन साथी और भी थे जो बाकी बर्थ पर कब्जा किये बैठे थे। मैंने उन्हें भी सिगरेट बढ़ा दी। ट्रिक काम कर गयी। उन्होंने खुद को तनिक समेटा और मेरे बैठने भर की जगह निकाल दी।
थोड़ी देर में कोई स्टेशन आया। भीड़ के कारण बाहर निकलना मुश्किल था। चाय की तलब लगी। खिड़की पर बैठे अपने नए सहयात्री से बोल कर मैंने चाय बोली। अपने नये बने चारों सहयात्री मित्रों को भी ऑफर किया। ना-ना करते वो चाय सुड़क गये।
बातों से पता चला कि वे मजदूर थे। बम्बई शहर से कमाई करके घर जा रहे थे। अब चार-पांच हफ़्ते बाद फिर लौटेंगे। चाय ख़त्म हो गई। चाय के बाद  सिगरेट की इच्छा जाग्रत होना लाज़िमी थी। एक खुद मुंह में दबायी और बाकी डिब्बी उनकी ओर बढ़ा दी।
सिगरेट की डिब्बी खाली। थोड़ी देर और गुज़री। इलाहाबाद अभी काफ़ी दूर। नींद भी कोसों दूर । जेब में सिगरेट नहीं। जब कोई चीज नहीं होती है तो उसकी ज़रूरत शिद्दत से महसूस होती है। ऐसे में ब्रांड की परवाह कोई भकुआ नहीं करता। तभी कोई स्टेशन आया। 
खिड़की के पास बैठे सहयात्री को बोल ही रखा था कि कोई सिगरेट वाला दिखे तो दो डिब्बी ले लेना, चाहे कोई भी ब्रांड हो। कोई छोटा स्टेशन था। फिर रात का सन्नाटा। मगर कोई सिगरेट वाला नहीं दिखा। उन नए मित्रों ने तो बीड़ी सुलगा ली।
मैंने कभी पी नहीं थी बीड़ी। कुछ संकोच भी था कि कैसे मांगे बीड़ी। लेकिन तलब ने इतना ज्यादा जोर मारा कि सारे बंधन टूट गए - अरे भाई एक बीड़ी मिलेगी।

Saturday, December 24, 2016

शम्मी कपूर के कहने पर जोड़ा गया था 'याहू'

- वीर विनोद छाबड़ा 
१९६१ में रिलीज़ 'जंगली' बहुत बड़ी हिट थी। यों तो इसके हिट होने के कई कारण थे। इन्हीं में से एक था, शम्मीकपूर का जोश में जोर से चीखना - याहू...। दर्शकों के लिए यह शब्द नया था। इसका अर्थ भी नहीं मालूम था। शम्मी ने बायोग्राफी 'दि गेमचेंजर' में बताया है कि जब वो पृथ्वी थिएटर में काम करते थे तो वहां एक पठान हुआ करता था। जब वो बहुत खुश होता था तो उन्मादित होकर जोर से चीखता था - याहू...।
फिल्म में सिचुएशन के अनुसार हीरो गंभीर किरदार के खोल से बाहर आकर एकाएक उन्मादित होता है। इसकी अभिव्यक्ति एक गाने से होनी है। शैलेंद्र ने गाना लिखा - चाहे कोई  मुझे जंगली कहे... तब इसमें 'याहू' शब्द नहीं था। जयकिशन  इस गाने की धुन तैयार कर रहे थे तब शम्मी को 'याहू..' की याद आयी। उन्होंने जयकिशन को मन की बात कही। जय किशन को बहुत अजीब सा लगा यह याहू। लेकिन शम्मी थे जयकिशन के दोस्त। गाने में याहू... आ गया।
समस्या पैदा हुई कि इसे गायेगा कौन? मोहम्मद रफ़ी ने बहुत बार कोशिश की। लेकिन बात बनी नहीं। उनका गला बैठने लगा। जयकिशन को याद आया कि यूनिट में एक हरफनमौला बंदा है - प्रयागराज। चाहो तो कोरस में खड़ा कर दो या कोई छोटा-मोटा वाद्ययंत्र पकड़ा दो। एक्टिंग भी कर लेता है और छोटा-मोटा सीन भी लिख देता है। वो पापी पेट के लिए कुछ भी कर सकता है। और प्रयागराज तैयार हो गए।

और गाना रिकॉर्ड हो गया। चाहे मुझे कोई जंगली कहे... इस गाने के आठ रिटेक हुए और प्रयागराज को चालीस बार पूरा गला फाड़ कर चीखना पड़ा - याहू...। बेचारा प्रयागराज। गला बैठ गया। कई दिन लगे ठीक होने में। ट्रेजेडी तो यह हुई प्लेइंग रिकॉर्ड पर सिर्फ मो.रफ़ी का नाम था, प्रयागराज का नहीं और पब्लिक श्रेय देती रही रफ़ी और शम्मीकपूर को। ज्ञातव्य है कि आगे चल कर इन्हीं प्रयागराज ने मनमोहन देसाई की कई फिल्मों के स्क्रीनप्ले लिखे और सत्तर के दशक में हिफाज़त, पोंगा-पंडित, पाप और पुण्य, गिरफ्तार, चोरसिपाही आदि कई फ़िल्में डायरेक्ट कीं। वो अमिताभ बच्चन की 'कुली' में मनमोहन देसाई के सहयोगी निर्देशक भी रहे। 
इस गाने के फिल्मांकन में भी कई परेशानियां आयीं। श्रीनगर के पहलगाम में जब सुबोध मुखर्जी वहां यूनिट लेकर पहुंचे तो पता चला कि वहां पर्याप्त बर्फ ही नहीं है। हीरो और हीरोइन को छाती के बल लेट कर स्केटिंग करनी है। उसके लिए कम से दस-बारह इंच बर्फ तो चाहिए ही। बर्फ गिरने के इंतज़ार में पूरे आठ दिन तक बैठे रहे सब। लेकिन बर्फ नहीं गिरी। आखिर में निराश होकर यूनिट बंबई लौट गयी।

Friday, December 23, 2016

कमाल करते हो पांडे जी!

- वीर विनोद छाबड़ा
पहले एक-दो सिगरेट से काम चलता था। डिब्बी इसलिए नहीं खरीदते थे कि जेब में होगी तो बार-बार पीने का मन करेगा। मगर अब तो पूरी डिब्बी ही खरीदनी पड़ेगी। अब आपकी मर्ज़ी एक पियो या दो।
पिछली सदी के अंतिम दशक में बिजली बोर्ड में एक बॉस साहब हुआ करते थे। सिगरेट के ज़बरदस्त तलबी।
वो रोज़ाना एक डिब्बी सिगरेट खरीदते। लेकिन डिब्बी पकड़ा देते पांडे जी को। पांडे जी उनके प्रमुख निज़ी सचिव थे। बॉस को जब तलब लगती घंटी बजा देते।   चपरासी अंदर आता - जी साहब। 
बॉस - अरे भई, पांडेजी को बुलाओ।
मिनट गुज़रा नहीं कि पांडेजी हाज़िर - जी सर। आपने याद किया।
बॉस ने इशारा किया। होंटों पर दो उंगली लगाई और फूंक मारी।
पांडेजी आराम से वापस अपने कमरे में जाते। दराज़ खोलते। डिब्बी खोलते। फिर उसमें से में से सिगरेट निकालते। फिर डिब्बी दराज़ में वापस रखते। दर्ज बंद करते और फिर चहल कदमी करते हुए बॉस के कमरे में जाते और सिगरेट को पेश करते। इस क़वायद में पांच से सात मिनट तो गुज़र ही जाते। लेकिन बॉस के चेहरे पर कभी कतई शिकन नहीं पड़ी और न पांडे जी को डांट पड़ी। बल्कि कॉम्पलिमेंट दिया जाता - बड़ी जल्दी ले आये। जेब में रखे थे क्या?
बहरहाल, बॉस बड़े इत्मिनान से सिगरेट लेकर होंठों पर फंसाते और इधर-उधर कुछ ढूंढते - अरे माचिस कहां है? अमां पांडे जी, आप भी आधा ही काम करते हो। कमाल करते हो।
माचिस पांडे जी की जेब में है। लेकिन पांडे जी फिर भी बाहर जाते हैं। दूर कोने में ऊंघ रहे एक चपरासी से माचिस का जुगाड़ करते। फिर साहब के कमरे में जाते हैं। इस क़वायद में फिर पांच से सात मिनट गुज़र जाते हैं। लेकिन बॉस ज़रा भी गुस्सा नहीं हैं। वो मुस्कुराते हैं - मिल गई।
पांडे जी भीनी मुस्कान के साथ उनकी सिगरेट सुलगाते हैं।

Thursday, December 22, 2016

डिस्को तमाशा

-वीर विनोद छाबड़ा
सहालग के रुकते ही शादी-ब्याह का मौसम ख़तम हो गया। लेकिन रिसेप्शन चल रहे हैं। औसतन एक दिन छोड़ कर कोई न कोई पार्टी। यों आजकल लोग जन्मदिन और मुंडन की पार्टियां में भी लाखों फूंक देते हैं। पार्टी का तो बहाना चाहिए। अच्छा लगता है। इसी बहाने फलां-फलां से मुलाकात होती है।

रिटायर मित्रों से मिल कर तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन पार्टी में पूरे ज़ोर-शोर से बज रहा डिस्को इस समरसता को खंडित करता है। हम एक-दूसरे की बात ही नहीं सुन सकते। एक दूसरे को गले लगा कर और इशारों से अपने भावनायें अभिव्यक्त करते हैं।
मेज़बानों से पूछना चाहता हूं कि हज़ारों रुपये खर्च करके सजाये पंडाल में आमंत्रित मेहमान क्या कानफाड़ू डिस्को संगीत सुनाने के लिए एकत्रित किये हैं? डिस्को भी ठीक वहीँ ठुका है जहां दूल्हा-दुल्हन विराजमान हैं। हम दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देते हैं कि हम फलां-फलां। वो सुन भी नहीं पाता। फ़ीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर तैरती है बस। दुल्हन से क्या परिचय करायेगा? क्या तूने कही और क्या मैंने सुनी
कुछ दिन पहले अपने के मित्र के घर पहुंचा। एक नामी कैटरर महोदय भी वहां मौजूद थे। सिलसिला बेटे के ब्याह बाद रिसेप्शन का था। आजकल सारे काम एक ही बंदा करा देता है।  खाना-पीना, शामियाना, लाइट, डेकोरेशन वग़ैरह वग़ैरह। बात डिस्को पर फंसी थी। मित्र हठ किये थे कि डिस्को नहीं रखेंगे।
लेकिन कैटरर बार-बार उन्हें उसी बिंदु पर ले आता था। इतना रुपया खर्च हो रहा है। दस-बीस हज़ार और सही।
मित्र ने कहा - सवाल दस-बीस हज़ार का नहीं है। मेरे तमाम रिश्तेदार होंगे, दोस्त होंगे और ऑफिसर भी। क्या डिस्को सुनने आएंगे?
कैटरर ने फिर घेरा - वही तो कह रहा हूं। ये सब आपके बारे में यही धारणा बनायेंगे कि ऐसी क्या फकीरी थी। डिस्को नहीं लगाया? और फिर सोचिये आपके बच्चे और और उनके दोस्त। उनकी ख़ुशी का भी तो ध्यान रखिये।
लेकिन मित्र तनिक भी नहीं पसीजे - सिर्फ लाइट म्यूजिक। वो भी पुरानी फिल्मों का। बहारों फूल बरसाओ चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है.मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से टेलीफ़ोन आंखों ही आंखों में इशारा हो गया.नदी किनारे गांव रे.और बीच बीच में शहनाई भी। कम से कम लोग एक-दूसरे से बात तो कर सकेंगे।
मैं उन्हें शाबाशी देता हूँ - बिलकुल ठीक।

Wednesday, December 21, 2016

राजकुमार ने स्क्रिप्ट सुन कर कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया

-वीर विनोद छाबड़ा
बड़े हीरो के नाज़-नखरे वही फ़िल्मकार सह सकता है जिसका दिल-गुर्दा भी बड़ा हो। ऐसे ही एक हीरो थे जो ज़मीन पर पैर तभी रखते थे जब ढाके का मखमली कालीन बिछा हो। इस हीरो का नाम था राजकुमार। आमतौर पर उनके साथ एक बार काम कर चुका निर्माता दोबारा काम नहीं करता था। लेकिन एक निर्माता उनके इतने ज़बरदस्त मुरीद थे कि एक नहीं दो बार उन्हें हीरो लिया। और दोनों ही बार बॉक्स ऑफिस पर बड़ी कामयाबी मिली। लिहाज़ा उनका हौंसला बहुत बढ़  गया। तीसरी बार उनका किवाड़ खटखटाया। 
निर्माता ने उन्हें अगली फ़िल्म का प्रस्ताव दिया। उन्हें मुख़्तसर में स्क्रिप्ट सुनाई।
राजकुमार बोले - स्क्रिप्ट से बात समझ में नहीं आ रही है। ऐसा करो स्टोरी सेशन फिक्स कर लो। वहीं सुनेंगे कहानी और डिटेल में अपना किरदार भी। और फ़िल्म में अपनी अहमियत भी देखेंगे। उसके बाद ही हम तय करेंगे कि आप और आपकी फिल्म हमारे काबिल है या नहीं। समझे, जानी!
निर्माता ने हीरो से डेट ली। एक नामी फाइव स्टार होटल में सुईट बुक किया गया। स्टोरी डिपार्टमेंट की पूरी टीम जुटी। एक्शन के साथ तजुर्बेकार स्टोरी सुनाने वाला यानी किस्सागो बुलाया गया। राजकुमार साहब का लाल क़ालीन बिछा कर स्वागत हुआ। 
किस्सागो ने एक्शन सहित कहानी सुनानी शुरू की। राजकुमार बड़े ध्यान से सुन रहे थे।
Rajkumar
कहानी सुनाते हुए किस्सागो काफी दूर निकल गया। वो बता रहा थाऔर उस ग़लतफ़हमी की वज़ह से हीरोइन ने हीरो को बेवफ़ा करार दे दियाशादी से इंकार करते हुए हीरोईन ने हीरो को बेहद बेइज़्ज़त कियाइतना ज्यादा कि हीरो गुस्से से लाल-पीला हो गया.उसके मुंह से झाग निकलने लगी.उसने कमरे में रखी तमाम बेशक़ीमती क्रॉकरी फर्श पर पटक दी... खिड़की के शीशे तोड़ डाले और खिड़की के रास्ते टेलीफोन का सेट बाहर फ़ेंक  दियायह सेट इम्पोर्टेड था जो उसके अंकल ने लंदन से भेजा था.सोफासेट पलट डाला डाइनिंग टेबल भी तहस-नहस कर दी.कुर्सियों की बड़ी बेदर्दी से टांगें तोड़ डालीं कुल मिला कर उसने कुछ नहीं छोड़ा...तमाम बेशक़ीमती आइटम सत्यानाश कर दिए.हीरोइन के बाप का घर पूरी तरह से नष्ट कर दियाइस दौरान हीरोइन ने उसे रोकने के बेइंतहा कोशिश की.लेकिन उसने हीरोइन को धक्का दे दियाहीरोइन एक कोने में जा गिरीउसके सर से खून बहने लगा.वो बेहोश हो गई.लेकिन हीरो की नज़र इस पर नहीं पड़ी.अब उसके पास तोड़ने को कुछ बचा ही नहीं हीरो ने दरवाजा खोला और बाहर निकल गया.
ये कहते हुए किस्सागो कुछ ज्यादा ही जोश में आ गया। किस्से में जान डालने के चक्कर में खुद को हीरो समझते हुए वो बाकायदा दरवाज़ा खोल कर बाहर हो गया।

Tuesday, December 20, 2016

घोड़े और भैंस की जंग में फायदा इंसान को।

-वीर विनोद छाबड़ा
बरसों पहले नानी एक कहानी सुनाया करती थी।
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एक घोड़े और एक भैंस में बड़ी ज़बरदस्त दोस्ती थी। एक दिन दोनों में इस मुद्दे पर झगड़ा हो गया कि किसकी उपयोगिता अधिक है। कई दिन तक चली इस लड़ाई में भैंस ने सींग मार-मार कर घोड़े को घायल कर दिया।

घोड़ा हार गया और लहूलुहान होकर भागता हुआ इंसान की शरण में गया। क्योंकि उसने सुन रखा था कि इंसान बहुत सीधा होता है और समझदार भी। वो मजलूमों की मदद भी करता है। चिकित्सा भी कर लेता है।
इंसान ने घोड़े की मरहम पट्टी की और पूछा - यह सब कैसे हुआ?
घोड़े ने सारा हाल सुनाया। फिर इंसान से अनुरोध किया - मैं चाहता हूं कि आप मेरी ओर से भैंस को सबक सिखाओ।
इंसान ने पहले तो मना कर दिया कि यह संभव नहीं है। लेकिन घोड़े के बार बार अनुरोध करने पर वो मान गया। लेकिन यह भी पूछा कि यह संभव कैसे होगा? भैंस तो बहुत बलशाली है और फिर इसमें उसको लाभ क्या होगा ?

घोड़े ने सुझाव दिया - आप मेरी पीठ पर बैठ जाना। डंडे से मार-मार कर भैंस को अधमरा कर देना। फिर भैंस को रस्सी से बांध कर अपने कब्ज़े में कर लेना। वो बहुत मीठा दूध देती है। इससे तुम्हें ताकत मिलेगी। और उसका गोबर भी बहुत काम का है। इसके कंडे बना लेना जो ईंधन का काम करेंगे।
इतने फायदे सुन कर इंसान को लालच आ गया। वो भैंस से लड़ने के लिए तैयार हो गया। उसने घोड़े द्वारा बताई विधि से भैंस से युद्ध किया और अंततः जीत गया।
जब घोड़े का काम ख़त्म हो गया तो वो वापस जाने लगा। लेकिन इंसान ने उसे पकड़ कर रस्सी से बाँध दिया - अरे तू कहां चला?

Monday, December 19, 2016

आटोवाले भी दिलवाले हैं

- वीर विनोद छाबड़ा
किसी भी शहर का पीक आवर्स यानि सुबह नौ से ग्यारह। हरेक को गंतव्य पर पहुंचने की जल्दी है। किसी को आफिस जाना है तो किसी को दुकान खोलनी है। बाज़ स्कूल-कालिजों का भी यही वक़्त है। ऐसे में आटो और बसों में जगह पाने की खासी मारा-मारी है। मन करता है कि दो-चार रुपए ज्यादा लेले, पिछवाड़ा  टेकने भर की जगह मिल जाए। आटो वाला भी अच्छी तरह भिज्ञ है - आजकल दफ्तरों में बहुत सख़्ती चल रही है। देर से पहुंचने पर क्रॉस लगता है। छुट्टी भी कटती है। बाबू जायेगा कहां? झक मार के देगा ज्यादा।
उस दिन बंदे को जैसे-तैसे ऑटो मिली। स्टॉप पर उतर कर पचास का नोट दिया। आटो वाले ने बीस की जगह पच्चीस रूपये काटे। बंदे ने हिम्मत जुटा कर प्रोटेस्ट किया। ज्यादा क्यों लिया? किराया तो बढ़ा नहीं। आरटीओ से शिकायत करूंगा। चालान हो जाएगा।
आटो चालक ने आंखें तरेरीं। कर दे शिकायत। चालान होगा तो स्ट्राईक भी होगी। ट्रैफिक जाम हो जायेगा। आज तक यही हुआ है। हमने जो रेट तय किए। सरकार ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद झक मार के मोहर लगायी है। ज्यादा परेशानी है तो बस पकड़ ले। वैसे तू है बस की सवारी। तेरी सूरत पर लिखा है। 
बंदा ऑटो में बैठी अन्य सवारियों की और देखता है। कोई समर्थन नहीं करता। बल्कि सब ऑटो वाले की पीठ थपथपाते हैं। अरे भाई जल्दी कर। लेट हुए तो क्रॉस लग जाएगा। आजकल बॉस बहुत कड़क है।
बंदा कुछ बोल नहीं पाया। खून का घूंट पीकर रह गया। उसे अस्थमा है। बस में दम घुटता है। स्कूटर-बाईक से फोबिया है। पीछे बैठने तक से दहशत होती है। कार खरीदने की औकात नहीं। उसे उन सुहाने दिनों की याद आती है, जब वो हष्ट-पुष्ट था। न किसी की धौंस बर्दाश्त थी और न वक़्त जाया करता था। साईकिल जिंदाबाद थी। मीलों पैदल चलने का हौंसला भी था।

आज वक़्त कितना बदल गया है। निजी वाहनों के साथ-साथ आटो की भरमार है। एरियल व्यूह से बंदों से ज्यादा वाहन दिखते हैं। अगर कुछ नहीं बदला है तो आटो चालकों का मिजाज। बद से बद्तर हुआ है। लखनऊ वाले तो सुनने को तरसते हैं - आईए हुजूर, तशरीफ़ रखें। इंसानियत से किसी का कुछ लेना-देना नहीं। न बुजुर्गों, न बच्चे और न लेडीज़ का लिहाज़। आपको जाना दक्षिण है और ये उत्तर जाने की बात करते हैं।