-वीर विनोद
छाबड़ा
हरेक की
ज़िंदगी
में
अच्छे
के
अलावा
खराब
और
खड़ूस
किस्म
के
दोस्त
आते
हैं।
,मगर
ये
नियमित
नहीं
होते।
बीच
बीच
में
हैरान-परेशान
करने
चले
आते
हैं।
हमारे भी
एक
खड़ूस
दोस्त
हैं।
चमड़ी
जाए,
पर
दमड़ी
नहीं
किस्म
के।
हमेशा
इसकी
सिद्धांत
पर
यकीन
किया।
दूसरों
का
खाया,
उड़ाया
और
पीया।
जब अपना
नंबर
आया
तो
ठनठन
गोपाल
बन
गए
- यार
घर
में
बड़े
खर्चे
हैं,
नाना
प्रकार
की
बिमारियों
से
ग्रस्त
बूढ़े
मां-बाप।
तिस
पर
दो
लड़कियां।
एजुकेशन
लोन
ले
रखा
है।
बैंक
से
हाउसिंग
लोन
ले
कर
मकान
बनवाया
है।
पैसा
बचता
ही
नही
है।
ऑफिस आने
- जाने
के
लिए
घंटों
उनकी
निगाहें
लिफ्ट
देने
वाले
को
तलाशती
रहीं।
जब
थक-हार
जाते
तो
बस,
ऑटो-टेम्पो
में
थक्के
खाते
हमेशा
दो
घंटे
देर
से
गंतव्य
पर
पहुंचते।
कई बार
राय
दी
गयी
- एक
अदद
स्कूटी
या
साइकिल
लेलो।
मगर वही
रोना
- पैसा
कहाँ
है?
उधार
दे-दो।
किश्तों
में
अदा
कर
दूंगा।
अरे भाई,
जब
किश्तों
में
अदा
कर
सकते
हो
तो
बैंक
से
लोन
ले
लो।
मगर
बड़े
सयाने
हैं।
वहां
से
नहीं
लेंगे।
मूल
के
साथ
सूद
भी
चुकाना
पड़ता
है।
तीन चार-साल
पहले
ऑफ़िसर
पद
पर
प्रमोशन
हुआ।
अफ़सरी
हनक
के
लिए
एक
अदद
सेकंड
हैंड
कार
खरीदी।
बोले-
दफ्तर
आने-जाने
के
लिए
बसों,
ऑटो-टेम्पो
में
धक्के
खाते-खाते
परेशान
हो
गया
हूं।
अब
प्रमोशन
भी
तो
हो
गया
है।
अच्छा
नही
लगेगा
कि
क्लास
-टू
ऑफ़िसर
ऑटो
से
उतर
रहा
है।
फिर
ऑफ़िसर
को
टाइम
पर
ऑफिस
भी
तो
पहुंचना
होता
है।
हमने कहा-
स्कूटर
ली
होती।
कार
से
भी
पहले
पहुंच
जाते।
सड़क
पर
ट्रैफिक
बहुत
ज्यादा
होता
है।
बोले - इतनी
अच्छी
पोस्ट
है।
अच्छा
नही
लगता
कि
स्कूटर
पर
चलूं।
उनके साथ
एक
दिक्कत
और
भी
है।
ड्राइविंग
नहीं
आती।
स्कूटर
तक
तो
कभी
चलाया
नहीं।
कार
क्या
चलाएंगे?
ऐसा
नहीं
कि
बढ़ती
उम्र
में
ड्राइविंग
सीखना
उनके
बस
की
बात
नहीं।
बात
ये
है
कि
मुफ़्त
में
कौन
सिखाये।
दोस्तों
ने
भी
हाथ
खड़े
कर
दिए।
इतनी
फुरसत
कहाँ
किसी
के
पास।
थक
हार
कर
ड्राइवर
रख
लिया।
उनके एक
भुक्तभोगी
मित्र
बोले
- पैसा
इफ़रात
में
है।
मगर
दिल
छोटा
है।
बीवी
का
जन्मदिन
पर
दोस्तों
से
केक
के
लिए
पैसा
उधार
लेता
है।
किसी
बढ़िया
होटल
में
खाना
खाता
है।
आज
तक
उधार
लिया
पैसा
कई
तकादों
बाद
वापस
किया।
और
वो
भी
आधा-अधूरा कई टुकड़ों में
चवन्नी-अठन्नी
करके।
कंजूस
ही
नहीं
मक्खीचूस
भी
है।
थोड़े
दिन
में
औकात
पर
आ
जायेगा।
अरे
कार
है।
पानी
से
तो
चलेगी
नहीं!
पेट्रोल
से
चलेगी
और
पेट्रोल
मिलता
है
पैसे
से।
फिर
ड्राइवर
की
तनख़्वाह।
जिसकी
अपने
पैसों
से
एक
कप
चाय
पीने
से
फटती
हो
वो
साला…
आखिर वही
हुआ।
उनकी
मीन-मेख
निकालने
की
आदत
से
परेशान
होकर
ड्राइवर
नौकरी
छोड़
गया।
पुराना
सिलसिला
फिर
शुरू
हो
गया।
बसों-ऑटो
में
धक्के
खाना
या
दूसरों
से
लिफ्ट
मांगना।
परिवार
के
साथ
जब
कहीं
जाना
होता
था
तो
किसी
न
किसी
दोस्त
की
सेवाएं
ले
लेते।
एक दिन
हमें
फ़ोन
किया
- यार
फलां
शादी
में
तुम्हें
भी
न्यौता
और
मुझे
भी।
हमें
भी
लेते
चलना।
हमने कहा
- ठीक
है।
नियत वक़्त
पर
हम
स्कूटर
लेकर
उनके
घर
पहुंच
गए।
देखते
ही
गुस्सा
हो
गए
- कार
क्यों
नहीं
लाये?
हमने कहा-
भई
हम
तो
अकेले
हैं
और
आप
सपरिवार।
लिहाज़ा
कार
तो
आपकी
जानी
बनती
है।
हम
ड्राइव
कर
लेंगे।
भाई भनभना
कर
रह
गए।
इसी
तरह
दो-तीन
दफ़े
उन्होंने
हमें
और
भी
फसाने
की
कोशिश
की।
कभी
कार
पंक्चर
है
तो
कभी
बैटरी
डाउन
है।
हम
भी
ठहरे
घाघ
के
साथ
घाघ।
कोई
न
कोई
बहाना
बना
कर
बच
निकले।
फिर
उन्होंने
हमें
बुलाना
बंद
कर
दिया।
एक दिन
ऑफिस
में
उन्होंने
पकड़
लिया
- हम
भी
चलेंगे।
आज
ऑटो
स्ट्राइक
है।
बसें
पीछे
से
ठसाठस
भरी
आ
रही
हैं।
हमने कहा
-बॉस
से
मीटिंग
है,
देर
हो
जाएगी।
बोले - चलेगा।
इंतज़ार
कर
लूंगा।
करीब आठ
बज
गया।
अक्टूबर
का
अंत।
शाम
गहरी
होते
ही
हलकी
सी
ठंड
हो
जाती।
बेसमेंट
स्थित
से
हमने
स्कूटर
निकाली।
वो भड़क
गए
-ये
क्या
तमीज
है?
पहले
क्यों
नहीं
बताया
कि
कार
नहीं
खटारा
स्कूटी
लाये
हो?
किसी
और
के
साथ
निकल
लेते।
हमने कहा
- आप
पूछे
नहीं
हमने
बताया
नहीं।
झक
मार
कर
ठंड
से
कुड़कुड़ाते
हुए
पीछे
बैठ
गए
और
रास्ते
भर
हमें
कोसते
रहे।
उसके बाद
उन्होंने
ने
हमसे
ऑफिस
में
लिफ्ट
मांगनी
छोड़
दी।
एक
दिन
फिर
मिले।
एक
पार्टी
में।
वापसी
में
सपत्नीक
लद
लिए।
बिना
पूछे
स्पष्टीकरण
देने
लगे
- आजकल
ड्राइवर
नहीं
मिलते।
बड़ी
परेशानी
होती
है।
हमने कहा
- ड्राइविंग
सीख
ही
लो
अब
आप।
उनकी मेमसाब
बोलीं
- सीखे
तो
थे।
मोड़
पर
इतना
घबराते
हैं
कि
स्टीयरिंग
घुमाना
भूल
जाते
हैं।
करीब
महीना
भर
हुआ।
एक
ढाबे
में
ठोक
दिए
थे।
ये
तो
कहिये
बच
गया
वो
आदमी।
टांग
ही
टूटी
थी।
दस
हज़ार
देने
पड़े,
उसको
ईलाज
के
लिए।
कार
मरम्मत
में
बीस
हज़ार
अलग
खा
गयी।
हमें तरस
आ
गया
- हम
एक
ड्राइवर
को
जानते
हैं
जो
है
किसी
सेठ
के
यहां
था।
सेठ
जी
विदेश
गए
हैं।
आजकल
खाली
है।
पैसा
भी
वाज़िब
लेता
है।
वो बोले
- हम
तैयार
हैं।
जो
भी
मांगेगा
देंगे।
अच्छा
ड्राइवर
और
अच्छी
कामवाली
बाई
बड़े
किस्मत
वालों
को
मिलती
है।
हमने उस
ड्राइवर
से
बात
की
तो
वो
भड़क
गया
- अरे
साहब,
उन्हें
हम
जानते
हैं।
उनकी
गाड़ी
चलायी
है।
बड़े
खडूस
आदमी
हैं।
एक-एक
बूंद
पेट्रोल
का
हिसाब
मांगते
हैं।
पक्के
खडूस
बाबू
हैं।
बमुश्किल
एक-दो
बार
कार
निकालेंगे।
वो
भी
तब
जब
उनकी
मेमसाब
को
शॉपिंग
करनी
होती
है।
फिर
उनकी
छोटी
सी
सेकंड
हैंड
कार
है।
चलाने
में
कतई
नहीं
आता।
मरम्मत
भी
नहीं
कराते।
ए.सी.
भी
नहीं
है।
मज़ा
नहीं
आता।
बड़ी
गाड़ी
चलाने
में
हनक
बढ़ती
है।
सेठ
लोगों
की
बड़ी
और
महंगी
कारों
के
रोज़ाना
चलाने
का
मज़ा
ही
कुछ
दूसरा
है।
और
फिर
सेठजी
की
मेमसाहब,
बच्चों
और
उनके
डाॅगी
को
दोपहर
में
शॉपिंग
कराने
का
तो
अलग
ही
खास
आनंद
है।
होली
दीवाली
पर
गिफ्ट
अलग
से।
इससे
अपना
भी
तो
स्टेटस
मेनटेन
होता
है।
दो
महीना
बेकार
रह
लेंगे
लेकिन
किसी
खडूस
बाबू
की
गाड़ी
चला
कर
साख
नहीं
ख़राब
करेंगे।
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-वीर विनोद
छाबड़ा
३१.१०.२०१४
मो
७५०५६६३६२६
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