Monday, December 30, 2013
Friday, December 27, 2013
मैंने राजेश खन्ना को सुपर स्टार बनने से पहले देखा है
-वीर विनोद छाबड़ा
यों तो राजेश खन्ना को लाखों ने देखा है, मगर मैं उन चंद खुशकिस्मतों में हूं जिन्होंने राजेश खन्ना को उस वक़्त देखा था जब उनकी कोई भी फिल्म रिलीज़ नहीं हुई थी। ये 1966 का नवंबर महीना था। मैं अपने पिताजी ;रामलाल, उर्दू अदब के मशहूर अफ़सानानिगारद्धके साथ बंबई घ्ूामने गया था। मशहूर उर्दू अदीब, फ़िल्म संवाद-स्क्रीनप्ले राईटर तथा निर्माता-निर्देशक राजेन्द्र सिंह बेदी ;दस्तक, फागुनद्ध के घर जाना हुआ था। बेदी साहब का बेटा नरेंद्र, बेदी उन दिनों सिप्पी फिल्म्स के प्रोड्क्शन-इन-कंट्रोलर हुआ करते थे। नरेंद्र बेदी ने बाद में बंधन, जवानी दीवानी, खोटे सिक्के आदि कई हिट फिल्में डायरेक्ट की थीं। बहरहाल, मैं उस वक्त 16 साल का था और फिल्मों के प्रति दीवानगी हद दर्जे की थी। संयोग से उस दिन फेमस सिने लैब में ’राज़’ का ट्रायल शो था। फिल्मों के प्रति मूेरी दीवानगी के मद्देनज़र नरेंद्र बेदी ने हमें भी राज़ का ट्रायल शो देखने का न्यौता दिया। नरेंद्र बेदी ने बताया कि इस फ़िल्म का हीरो न्यू फेस राजेश खन्ना है जो युनाईटेड प्रो्यूसर्स टेलंट हंट की खोज है और आज ट्रायल शो से तय होना है कि फ़िल्म कैसी बनी है? क्या कमी है? इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए? कितनी चलेगी? वगैरह-वगैरह। और साथ ही यह भी तय होगा कि राजेश खन्ना नाम का हज़ारों में छांटा गया ’हीरा’ फ्यूचर में बाक्स आफिस पर कितना चमकेगा?
फैमस सिने लैब के छोटे से आडिटोरियम में फ़िल्म निर्माण से जुडे़ तमाम छोटे-बड़े चेहरे, जैसे निर्देशक रमेश सिप्पी, संवाद लेखक सतीश भटनागर, सह-अभिनेत्री माधवी आदि पहले से मौजूद थे। इंतज़ार था तो हीरो राजेश खन्ना और हीरोईन बबिता का। तभी खबर आयी कि बबिता नहीं आ रही हैं पर ’काका’ घर से चल दिये हैं। तब मुझे नहीं मालूम था कि राजेश खन्ना ही ’काका’ हैं। थोड़ी देर में काका आ गए। एक दरम्याने कद का साधारण चेहरे-मोहरे का नौजवान, जिसके थोड़े-थोड़े मुहासों वाले चेहरे पर कातिलना मुस्कान थी, परंतु भरपूर आत्मविश्वास भी था। मगर कुल मिला कर किसी भी दृष्टि से उस दौर के हीरो मनोज कुमार, धर्मेंद्र, शम्मी कपूर, शशिकपूर, जितेंद्र जैसी चमक-दमक नहीं थी। सच कहूं तो धक्का सा लगा था कि ये भी कोई हीरो है? क्या देख कर इसे हीरो चुना गया है। भारी मन से, परंतु कौतुहलवश फिल्म देखनी शुरू की। पहली बार किसी फिल्म का ट्रायल शो जो देख रहा था। ये एक कच्ची एडिटेड फिल्म थी, जिसमें बैक-ग्राऊंड म्युज़िक भी नहीं भरा गया था और ज़्यादातर हिस्सा ब्लैक एंड व्हाईट था। सिर्फ़ गाने कलर्ड थे। राजेश खन्ना का डबल रोल था। सच कहूं तो जिस भारी मन से फिल्म देखनी शुरू की थी, वह मन जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ रही थी खुश होता जा रहा था। दरअसल ये एक मिस्ट्री थ्रिलर था जो मेरा मनपसंद सबजेक्ट था। वास्तव में राजेश ने बड़ी मेहनत की थी, जो उसके अच्छे कलाकार होने का सबूत था। मगर मन फिर भी उसे ’स्टार’ मानने को तैयार नहीं था, क्योंकि तब भी दिलीप कुमार, राजकपूर व देवानंद की तिकड़ी ही स्टार का पैमाना थी।
उस ट्रायल शो में बाहरी दर्शको में मैं और मेरे पिताजी थे, बाकी फिल्म युनिट से जुड़े कलाकार और तकनीशियन थे। लिहाज़ा बेबाक राय के लिए सबने हमारी तरफ देखा। हम मेहमान थे। औपचारिकतावश तारीफ़ तो करनी ही थी। आखिर में नरेंद्र बेदी ने हमारा परिचय राजेश खन्ना से कराया। राजेश से मैंने लजाते हुए हाथ मिलाया और मुबारकबाद देते हुए कहा कि आपने बहुत अच्छा काम किया है। तब राजेश ने शक्रिया अदा करते हुए पूछा था- ‘‘फ़िल्म कैसी बनी है? चलेगी?’’
‘‘हां, क्यों नहीं!’’ मेरे पिताजी ने जवाब दिया था। साथ ही मेरे मुंह से भी एवैं ही निकल गया था-‘‘ आप भी खूब चलेंगे।’’ तब राजेश खन्ना एक खास कातिलाना अंदाज़ से सिर्फ़ मुस्कुरा दिये थे। कई साल बाद मुझे अहसास हुआ था कि उस खास कातिलाना मुस्कान में तनिक अहंकार भरा एक गर्वीलापन भी मौजूद था जो बोल रहा था कि ये तो मुझे भी मालूम है, आगे की बात करो। और आगे की बात तो इतिहास है। मेरा एवैं ही कहा गया सचमुच सिर्फ़ स्टार ही नहीं सुपर स्टार बन गया, हिंदी सिनेमा का पहला सुपर स्टार। तीन-चार साल बाद वो कलाकार, जिसमें मुझे पहली नज़र में स्टार मैटीरीयल कहीं भी नज़र नहीं आया था, स्टार ही नहीं सुपर स्टार बन गया था। हिंदी सिनेमा का पहला सुपर स्टार। एम मिथक की तरह। हर वर्ग, धर्म और समाज के बच्चे से लेकर बूढ़े तक का हरदिल अज़ीज़। राजेश के प्रति दीवानगी की ऊंचाई का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि ‘हाथी मेरे साथी’ जैसी बचकाना फिल्म भी हिट ही नहीं सुपर-डुपर हिट हुई थी। किसी दूसरे स्थापित स्टार के साथ अगर ये बनी होती तो इसके हिट होने की शर्त पर एक ढेला तक लगाने वाला कोई नहीं मिलता।
बहरहाल, पहली फिल्म होने के बावजूद ‘राज़’ से पहले चेतन आनंद की ‘आख़िरी ख़त’ और नासिर हुसैन की ‘बहारों के सपने’ रिलीज़ हो गयी। ये दोनों ही फ़िल्में बाक्स आफ़िस पर ठीक-ठाक चलीं थीं जिसने बाद में रिलीज़ ‘राज़’ के फ्लाप शो को दबा दिया था। मगर आलोचको ने ये ज़रूर दबे लफ्ज़ों में ऐलान कर दिया था कि राजेश में अच्छे कलाकार के गुण प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं।
तब से आज तक मैने राजेश खन्ना की बेशुमार फ़िल्में देखी हैं। वह यकीनन एक मिथक रूपी सुपर स्टार थे, जिस पर हमें हैरत होती है। हम आज भी उस दौर के ‘रहस्य’ को नहीं समझ पाए कि जनता किसमें क्या देख कर उसे ज़मीन से आसमान पर चढ़ा देती है। तब तो आज जैसा मीडिया हाईप भी नहीं था, जिसे राजेश को सुपर स्टार बनाने का श्रेय मिलता। अब ये बात दूसरी है है कि राजेश की मृत्यु को ज़रूर मीडिया ने उसके चैथे के बाद भी अस्थि विसर्जन तक खूब भुनाया और वर्तमान नई पीढ़ी को बताया कि कभी राजेश खन्ना नामक मिथक रूपी सुपर स्टार भी होता था। बहरहाल, राजेश की हर फिल्म में उसका सुपर स्टार होने का अहम छाया रहा और मैं उसमें सुपर स्टार के भार तले दबे कलाकार की तलाश करता रहा जो मुझे भरपूर मिला- आख़िरी ख़त, खामोशी, आराधना, अमर प्रेम, दो रास्ते, आनंद, इत्तिफ़ाक़, सफ़र, बावर्ची, नमक हराम, दाग़, अविष्कार, प्रेम कहानी, आपकी कसम, अमरदीप, अमृत, अवतार, थोड़ी सी बेवफ़ाई, जोरू का गुलाम, आखिर क्यों, सौतन, पलकों की छांव में आदि।
दो राय नहीं कि राजेश खन्ना बेहतरीन कलाकार थे। पहले सुपर स्टार तो थे ही और शायद आखिरी भी क्योंकि उनके अलावा दूसरा कोई नहीं आया जिसे हर तबके के हर उम्र के लोगों ने बेपनाह मुहब्बत दी हो। मगर वो सब कुछ होते हुए ‘मुकम्मिल’ नहीं रहे क्योंकि उनके संपूर्ण कैरीयर और निज़ी जीवन में भारी उथल-पुथल चलती रही, जिसने सुर्खियां बन कर उनके सुपर स्टारडम और कलाकार मन को ग्रहण लगा दिया। एक वजह यह भी रही कि अपने हिस्से की बाक्स आफिस की चमक-दमक ’नमक हराम’ में सह-कलाकार अमिताभ बच्चन के हाथ अनजाने में सौंपने के बाद वह लाख कोशिशों और करतबों के बावजूद ‘बाऊंस बैक’ नहीं कर पाए। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म में मूल कहानी के अनुसार अमिताभ के चरित्र को मरना था परंतु राजेश को लगा कि ऐसा न हो सारी सहानूभूति अमिताभ के हिस्से में चली जाएगी। तब उन्होंने कहानी में हेर-फेर करा के खुद मरना पसंद किया। मगर दांव उल्टा पड़ा । अमिताभ अपनी पावरफुल परफारमेंस के दम पर सबका दिल जीत हरदिल अजीज़ हो गए।
सिल्वर-गोल्डन जुबली की लंबी फेहरिस्त का बादशाह, राजेश खन्ना, एक के बाद एक मिली अनेक नाकामियों को हज़म नहीं कर पाया। यही बात उन्हें ज़िंदगी भर सालती रही और 29 दिसंबर 1942 को अमृतसर में जन्मा ये मिथक 18 जुलाई 2012 को बेवक़्त और बेवजह ‘अच्छा तो हम चलते हैं’ कह गया। सन 1966 का फेमस सिने लैब आडिटोरियम में मेरे बिलकुल पीछे की कतार में बैठा राजेश खन्ना, जिससे सह-अभिनेत्री माधवी चुहल करती रही, के साथ बिताए ढाई घंटों का अहसास मुझे आज भी रह-रह कर गुदगुदाता है और साथ ही राजेश नाम के हर उस पैंतालीस-छियालिस साल के शख्स को देखकर मुस्कुराता हूं क्योंकि मुझे यकीन है कि इनमें नब्बे फीसदी का नाम राजेश खन्ना के दौर की लोकप्रियता की वजह से ही ‘राजेश’ है। मुझे आज भी गर्व है कि मैंने राजेश खन्ना नाम के कलाकार को पर्दे पर सुपर स्टार बनने से पहले देखा है।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मो0 7505663626
दिनांक 27.12.2013
आजा नच लै!
बारातों में लड़के-लड़कियों को नाचते -कूदते और गाते देखता हूँ तो अपना ६० व ७० का दशक याद आता है जब हम भी लड़के थे और अपनी मंडली के साथ कम सेप्टेम्बर की धुन पर खूब ट्विस्ट करते थे। ये देश है वीर जवानो का…ले जायेंगे ले जायेंगे दिल वाले दुल्हनियां …आज मेरे यार की शादी है…मेरा यार बना है दूल्हा…आदि खूबसूरत गानों को बैंड-बाजे बेसुरा बना देता थे मगर फिर भी जम कर डांस होता था, भले ही दूसरों को हम भालू -बंदर दिखते हों। मगर ख़ुशी होती है कि मेरे दौर के गानों के धुनें बारातों में आज भी जवां हैं, भले ही अंग्रेज़ी ट्विस्ट का वक़्त ख़त्म हो गया है। इसी संबंध में जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ दिनांक २७.१२.२०१३ के उलटबांसी स्तंभ में प्रकाशित मेरा निम्नलिखित लेख -
Saturday, December 21, 2013
Friday, December 20, 2013
तार - खत्म हो गयी एक और निशानी
-वीर विनोद छाबड़ा
मित्रों, भारत सरकार ने 15 जुलाई से ‘तार‘ को इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने के कारण बंद कर दिया था। ग़म व खुशी और आपातकालीन स्थिति के कभी प्रतीक रहे गुलाबी रंग के तार का बंद होना भले बाध्यकारी था मगर हृदय विदारक घटना थी। एक इतिहास का अस्त होना था। इस इतिहास की बंदी के साक्षी बनने की गरज़ से हमने एक लेख तैयार किया था। दरअसल तार हमारे जीवन के कई मोड़ पर साथी रहा था या यों कहा जाए कि हमारे जीवन का तार ही तार से जुड़ा था। बहरहाल, लेख हमने एक बड़े अखबार में प्रकाशनार्थ प्रेषित किया। परंतु छपा नहीं। ज्ञात हुआ संपादक जी बाहर थे। परिणामतः तार को आखिरी लम्हों में श्रध्दांजलि अर्पित करने वालों की सूची में हम अपना नाम लिखवाने से वंचित हो गये। दिल के बहुत भीतर तक चुभन हुई ये। अब ऐसा मौका दोबारा तो कभी आएगा नहीं। पांच माह से ज्यादा गुज़र चुके हैं, मगर ये चुभन रह-रह कर परेशां करती है। आखिर सांसों से जुड़ा मामला जो ठहरा। इस लेख के निम्मांकित कुछ अंश आपसे शेयर कर कुछ हल्का होना चाह रहा हूं। इससे मोक्ष मिलने में भी आसानी होगी।
......अपना तो पैदाईशी रिश्ता रहा है तार से। सन 1950 की कड़ाके की ठंड में मां बनारस से अपने मायके अंबाला आयी थी, मुझे पैदा करने। पैदा होने की पहली ख़बर नाना ने पिताजी को तार से बनारस भेजी। फिर पिताजी ने तार द्वारा दिल्ली में रहने वाले बाकी रिश्तेदारों को ख़बर की... साठ के दशक में लखनऊ के चारबाग स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी, जो अब ज़मींदोज़ हो चुकी है, में रहते थे हम। रेलवे के दावा विभाग में कार्यरत पिताजी को सरकारी काम-काज़ से संबंधित ‘तत्काल’ सूचनाएं तार द्वारा हेड आफिस बनारस भेजनी पड़ती थीं। चारबाग़ स्टेशन के एक नंबर प्लेटफार्म स्थित स्टेशन मास्टर आफिस के ऊपर था रेलवे का अपना तारघर। तारघर तक तार पहुंचाने का ज़िम्मा हम बड़े शौक से उठाते थे। तार बाबूओं को मोर्स कोड सिस्टम द्वारा मशीन पर टक-टक करके तार भेजते हुए एकटक देखना बहुत भाता था। संयोग से उनमें से एक तार बाबू हमारी मल्टी स्टोरी में ही रहते थे। उन्हें हम बड़े श्रद्धा भाव से देखते थे....
...पिताजी उर्दू अदीब थे। उन दिनों के मशहूर उर्दू रिसालों-शमा, बीसवीं सदी, रूबी, शायर, खिलौना, बानों आदि से अफ़साना फ़ौरन भेजने की गुज़ारिश तार द्वारा आती थी। इस लिए तार के नाम पर हम कतई बौखलाते नहीं थे... बिजली विभाग में नौकरी मिलने का तार भी तार से जुड़ा है। दरअसल लिखित परीक्षा में प्रश्न था - तार द्वारा छुट्टी बढ़ाने की अर्ज़ी कैसे भेजी जाएगी? अब तार का प्रारूप और इबारत तो हमारे दिलो-दिमाग में बचपन से समाई थी। लिहाज़ा कतई दिक्कत न हुई। हमें आज भी पक्का यकीन है कि इसी की बदौलत हम उतीर्ण हुए थे... तत्पश्चात टाईप परीक्षा हेतु हमें तार सें बुलावा भेजा गया। तार तो नहीं मिला। मगर भला हो बिजली दफ़्तर में कार्यरत मित्र रवि मिश्रा का जिसकी सूचना पर हम ऐन मौके पर टाईप टेस्ट हेतु हाज़िर हो गये... उन दिनों सरकारी दफ़्तरों में ज़रूरी सूचनाएं टेलीग्राम से भेजने का रिवाज़ था... नियुक्ति के बाद पहला कार्य भी टेलीग्राफिक रिमांडर टाईप करने को दिया गया...
....साढे़ छत्तीस साल की बिजली विभाग में सेवा कर रिटायर हुए दो साल गुज़र चुके हैं। टाईप टेस्ट हेतु भेजे गए तार का हमें अभी कल तक इंतज़ार था। अब तारबंदी के बाद ये इंतज़ार पूरी तरह ख़त्म हो गया... साथ ही ये आखिरी ख्वाहिश भी स्वाहा हो गयी कि बाद मरने की ख़बर तार से रिश्तेदारों को रवाना हो.....
मित्रों, आप भी अपना इतिहास खंगालिए। आपमें भी बहुत से होंगे जिनके जीवन का तार ’तार’ से जुड़ा होगा। अगर हां तो शेयर करिए। अभी तारबंदी की बरसी में वक़्त बाकी है।
मित्रों, भारत सरकार ने 15 जुलाई से ‘तार‘ को इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने के कारण बंद कर दिया था। ग़म व खुशी और आपातकालीन स्थिति के कभी प्रतीक रहे गुलाबी रंग के तार का बंद होना भले बाध्यकारी था मगर हृदय विदारक घटना थी। एक इतिहास का अस्त होना था। इस इतिहास की बंदी के साक्षी बनने की गरज़ से हमने एक लेख तैयार किया था। दरअसल तार हमारे जीवन के कई मोड़ पर साथी रहा था या यों कहा जाए कि हमारे जीवन का तार ही तार से जुड़ा था। बहरहाल, लेख हमने एक बड़े अखबार में प्रकाशनार्थ प्रेषित किया। परंतु छपा नहीं। ज्ञात हुआ संपादक जी बाहर थे। परिणामतः तार को आखिरी लम्हों में श्रध्दांजलि अर्पित करने वालों की सूची में हम अपना नाम लिखवाने से वंचित हो गये। दिल के बहुत भीतर तक चुभन हुई ये। अब ऐसा मौका दोबारा तो कभी आएगा नहीं। पांच माह से ज्यादा गुज़र चुके हैं, मगर ये चुभन रह-रह कर परेशां करती है। आखिर सांसों से जुड़ा मामला जो ठहरा। इस लेख के निम्मांकित कुछ अंश आपसे शेयर कर कुछ हल्का होना चाह रहा हूं। इससे मोक्ष मिलने में भी आसानी होगी।
......अपना तो पैदाईशी रिश्ता रहा है तार से। सन 1950 की कड़ाके की ठंड में मां बनारस से अपने मायके अंबाला आयी थी, मुझे पैदा करने। पैदा होने की पहली ख़बर नाना ने पिताजी को तार से बनारस भेजी। फिर पिताजी ने तार द्वारा दिल्ली में रहने वाले बाकी रिश्तेदारों को ख़बर की... साठ के दशक में लखनऊ के चारबाग स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी, जो अब ज़मींदोज़ हो चुकी है, में रहते थे हम। रेलवे के दावा विभाग में कार्यरत पिताजी को सरकारी काम-काज़ से संबंधित ‘तत्काल’ सूचनाएं तार द्वारा हेड आफिस बनारस भेजनी पड़ती थीं। चारबाग़ स्टेशन के एक नंबर प्लेटफार्म स्थित स्टेशन मास्टर आफिस के ऊपर था रेलवे का अपना तारघर। तारघर तक तार पहुंचाने का ज़िम्मा हम बड़े शौक से उठाते थे। तार बाबूओं को मोर्स कोड सिस्टम द्वारा मशीन पर टक-टक करके तार भेजते हुए एकटक देखना बहुत भाता था। संयोग से उनमें से एक तार बाबू हमारी मल्टी स्टोरी में ही रहते थे। उन्हें हम बड़े श्रद्धा भाव से देखते थे....
...पिताजी उर्दू अदीब थे। उन दिनों के मशहूर उर्दू रिसालों-शमा, बीसवीं सदी, रूबी, शायर, खिलौना, बानों आदि से अफ़साना फ़ौरन भेजने की गुज़ारिश तार द्वारा आती थी। इस लिए तार के नाम पर हम कतई बौखलाते नहीं थे... बिजली विभाग में नौकरी मिलने का तार भी तार से जुड़ा है। दरअसल लिखित परीक्षा में प्रश्न था - तार द्वारा छुट्टी बढ़ाने की अर्ज़ी कैसे भेजी जाएगी? अब तार का प्रारूप और इबारत तो हमारे दिलो-दिमाग में बचपन से समाई थी। लिहाज़ा कतई दिक्कत न हुई। हमें आज भी पक्का यकीन है कि इसी की बदौलत हम उतीर्ण हुए थे... तत्पश्चात टाईप परीक्षा हेतु हमें तार सें बुलावा भेजा गया। तार तो नहीं मिला। मगर भला हो बिजली दफ़्तर में कार्यरत मित्र रवि मिश्रा का जिसकी सूचना पर हम ऐन मौके पर टाईप टेस्ट हेतु हाज़िर हो गये... उन दिनों सरकारी दफ़्तरों में ज़रूरी सूचनाएं टेलीग्राम से भेजने का रिवाज़ था... नियुक्ति के बाद पहला कार्य भी टेलीग्राफिक रिमांडर टाईप करने को दिया गया...
....साढे़ छत्तीस साल की बिजली विभाग में सेवा कर रिटायर हुए दो साल गुज़र चुके हैं। टाईप टेस्ट हेतु भेजे गए तार का हमें अभी कल तक इंतज़ार था। अब तारबंदी के बाद ये इंतज़ार पूरी तरह ख़त्म हो गया... साथ ही ये आखिरी ख्वाहिश भी स्वाहा हो गयी कि बाद मरने की ख़बर तार से रिश्तेदारों को रवाना हो.....
मित्रों, आप भी अपना इतिहास खंगालिए। आपमें भी बहुत से होंगे जिनके जीवन का तार ’तार’ से जुड़ा होगा। अगर हां तो शेयर करिए। अभी तारबंदी की बरसी में वक़्त बाकी है।
Thursday, December 19, 2013
भरपेट खाना, भरपेट मस्ती
आज ही के दिन ४१ साल पहले १९७२ में लखनऊ के लालबाग एरिया में मेलाराम एण्ड सन्स फोटोग्राफर्स स्टुडियो में लिया गया था ये फोटो. आत्ममुग्ध रहते थे. इसलिए अक्सर अलग मुद्राओं में फोटो खिंचवाते थे. लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र से एमए कर रहे थे. बड़ी मस्ती के दिन थे, खाली जेब होती थी. दोस्त भी सब फक्कड थे. फिर भी ज़िंदगी से कोई गिला नहीं था. जब भी पैसा मिलता था कहीं से तो सिनेमा ज़रूर देखते थे. सिर्फ देखते ही नहीं समझने की कोशिश भी करते थे. क्योंकि जेब खर्च सिनेमा पर लेख लिख कर निकालते थे. समाज दकियानूसी लिबास से बाहर आ रहा था, इसका सबूत था, यूनिवर्सिटी में पढने वाली लड़कियों की बड़ी संख्या. राजनैतिक वातावरण में किसी आने वाले तूफान का अन्देशा देने वाली शान्ति थी. दरअसल, देश किस दिशा में जाना है ये किसी को नहीं पता था, एक अनिश्चय का वातावरण था. पर कुल मिला कर महंगाई को लेकर कोई शोर शराबा नहीं था इसलिए माता जी बड़े प्यार से भरपेट खाना खिलाती थी.
Monday, December 16, 2013
काली फि़ल्म, काली सोच!
चंद हफ्ते पहले शहर के अख़बारों में छपा था कि
फलां रसूखदार की ’देख लूंगा....वर्दी उतरवा दूंगा...’ की हाहाकारी धमकी की परवाह न
करते हुए हमारे बहादुर सिपाहियों ने उसकी महंगी एसयूवी के शीशों पर चढ़ी काली
फिल्म उखाड़ फेंकी थी। सीना गर्व से फूल गया था कि आखिर कानून का राज कायम हो ही
गया। अब देर नहीं जब सूबे की काली फिल्म की गाडि़यों की फेहरिस्त से अपना शहर सबसे
पहले गायब होगा। मगर जल्दी ही पता चला ये भ्रम था, सब्जबाग तो सिर्फ ख्वाबों में आते हैं। काली फि़ल्म चढ़ी
तमाम छोटी-बड़ी कारे व बसें शहर की सड़कों पर पुलिस को मुंह चिढ़ाती व ठेंगा
दिखाती बदस्तूर सरपट दौड़ रही हैं।
खूब याद हैं गुज़रे ज़माने के गुरुजन
हमें वो गुज़रा ज़माना भली-भांति याद है जब अपने शहर में शिक्षकों की प्राथमिकताओं मे एक अच्छा जिम्मेदार नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना था। कुछ अपवादों को छोड़कर तमाम स्कूल-कालेजों के शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन नहीं करते थे। ज्यादातर समर्पण की भावना रखते थे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि परिवार संस्कार डालता है तो शिक्षक छात्र को इंसान बनाता है। आमतौर पर शिक्षक गरीब थे, परंतु उन्हें समाज में अति सम्मान का दर्जा प्राप्त था। उनका फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं कमजोर छात्रों के प्रति था। कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता को परामर्श देकर। हमने भी ऐसी अनेक एक्स्ट्रा क्लासें अटेंड की थीं। शिक्षकों के पढ़ाने और बिगड़ैल व बैल छात्रों को सुधारने के तरीके अलग-अलग थे। कुछ प्यार से और कुछ ‘समझावन लाल’ यानी छड़ी से भय बनाते थे। हालांकि इसका कोई लाभ नहीं होता था। बिगड़ैल व बैल कभी नहीं सुधरते थे। यों छड़ी वाले मास्टरों का ज़बरदस्त जलवा था। बिगड़ैल छात्र भी खौफ़ज़दा रहते थे। मगर क्या मजाल कि कोई पलट कर चूं भी करे या बदले की भावना पाले। दरअसल उन्हें मालूम था कि किस कसूर की सजा मिली है। मजे की बात तो ये थी कि उस जमाने के मां-बाप भी बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में कराना पसंद करते थे, जहां प्रशासन व प्रिंसिपल सख्त हो और छड़ी मास्टरों की भरमार हो। बेंच पर खड़ा करना या मुर्गा बनाना तो आम था ।
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