- वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन संडे था। छुट्टी
का दिन। वैसे आमतौर पर इस दिन हम किसी न किसी वज़ह से दफ्तर में पाये जाते थे। लेकिन
उस दिन हमने तय किया कि घर पर एन्जॉय किया जाए।
बैठे-ठाले एक मित्र
को फ़ोन किया। चलो कुछ मौज-मस्ती करें। लेकिन पता चला कि वो अर्जेंट काम से दफ़्तर में
है। उसकी तबियत भी ख़राब है।
हम उसकी मदद करने को
दफ़्तर जा पहुंचे। जब तक काम नहीं पूरा हुआ हम रुके रहे।
कोई डेढ़ बजा था जब
फ्री हुए। गोमती पुल पर बने बैराज से लौट रहे थे। हमारे आगे एक ट्रक पत्थर की बजरी
से लबालब भरा हुआ चला जा रहा। अचानक उसने ब्रेक लगाई। बहुत सी बजरी उछल कर बाहर गिरी।
हमने स्कूटर को ब्रेक लगाई। लेकिन बचा नहीं पाये। स्कूटर बजरी पर स्किट कर गया। नतीजा
हम दूर तक स्कूटर के साथ घिसटते चले गए।
अच्छा यह हुआ कि ट्रक
तुरंत मूव कर गया। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि लेकिन हमारा हेलमेट बंधे होने के कारण
हमारे सर से अलग नहीं हुआ। कुछ लोग दौड़े। हमें उठाया। वहीं फुटपाथ पर दस मिनट बैठे
रहे। जख्मों को टटोलते रहे। दोनों घुटने छिल गए थे। बायीं कोहनी पर भी घिस्सा लगा था।
पतलून दो-तीन जगह से फट गयी थी। जैकेट भी कई जगह से घिस गई।
लेकिन सबसे ज्यादा
तकलीफ़ बायें कंधे पर थी। एक सज्जन ने हमारा स्कूटर स्टार्ट कर दिया। हम बैठ गए। लोगों
ने पूछा कोई तकलीफ़ तो नहीं, चले जाओगे।
हमने हां बोल दी। हम
चल दिए। हम बायें कंधे के दर्द से बेहाल थे। स्कूटर भी बायीं और भाग रहा था। लेकिन
जैसे-तैसे हम खुद को कंट्रोल करते हुए पांच किलोमीटर का फ़ासला तय करके घर पहुंचे। चोटों
की थोड़ी-बहुत मरम्मत हमने घर पर की। लेकिन कंधे का दर्द तो बढ़ता ही चला गया।
शाम हुई। हमने किसी
तरह खुद को रिक्शे पर लादा और एक प्राइवेट अस्पताल पहुंचे। एक हड्डी का डॉक्टर बुलाया
गया। कोई डॉ नगाइच थे। कानपुर के किसी सरकारी अस्पताल से रिटायर हुए थे। उन्होंने परीक्षण
करके बताया - कंधा खिसका है। घबराने की बात नहीं।
एक्सरे कराया। शुक्र
है कि कोई हड्डी नहीं टूटी थी। कंपोज़ का और एक पेनकिलर इंजेक्शन लगाया। बोले - कोशिश
करता हूं कंधा बैठाने की। दर्द थोड़ा ज्यादा होगा। बरदाश्त नहीं हुआ तो कल सुबह बेहोशी
का इंजेक्शन दे कर ठीक करना होगा।