Sunday, January 31, 2016

दर्द की याद चली आई है।

- वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन संडे था। छुट्टी का दिन। वैसे आमतौर पर इस दिन हम किसी न किसी वज़ह से दफ्तर में पाये जाते थे। लेकिन उस दिन हमने तय किया कि घर पर एन्जॉय किया जाए।
बैठे-ठाले एक मित्र को फ़ोन किया। चलो कुछ मौज-मस्ती करें। लेकिन पता चला कि वो अर्जेंट काम से दफ़्तर में है। उसकी तबियत भी ख़राब है।

हम उसकी मदद करने को दफ़्तर जा पहुंचे। जब तक काम नहीं पूरा हुआ हम रुके रहे।
कोई डेढ़ बजा था जब फ्री हुए। गोमती पुल पर बने बैराज से लौट रहे थे। हमारे आगे एक ट्रक पत्थर की बजरी से लबालब भरा हुआ चला जा रहा। अचानक उसने ब्रेक लगाई। बहुत सी बजरी उछल कर बाहर गिरी। हमने स्कूटर को ब्रेक लगाई। लेकिन बचा नहीं पाये। स्कूटर बजरी पर स्किट कर गया। नतीजा हम दूर तक स्कूटर के साथ घिसटते चले गए।
अच्छा यह हुआ कि ट्रक तुरंत मूव कर गया। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि लेकिन हमारा हेलमेट बंधे होने के कारण हमारे सर से अलग नहीं हुआ। कुछ लोग दौड़े। हमें उठाया। वहीं फुटपाथ पर दस मिनट बैठे रहे। जख्मों को टटोलते रहे। दोनों घुटने छिल गए थे। बायीं कोहनी पर भी घिस्सा लगा था। पतलून दो-तीन जगह से फट गयी थी। जैकेट भी कई जगह से घिस गई।
लेकिन सबसे ज्यादा तकलीफ़ बायें कंधे पर थी। एक सज्जन ने हमारा स्कूटर स्टार्ट कर दिया। हम बैठ गए। लोगों ने पूछा कोई तकलीफ़ तो नहीं, चले जाओगे।
हमने हां बोल दी। हम चल दिए। हम बायें कंधे के दर्द से बेहाल थे। स्कूटर भी बायीं और भाग रहा था। लेकिन जैसे-तैसे हम खुद को कंट्रोल करते हुए पांच किलोमीटर का फ़ासला तय करके घर पहुंचे। चोटों की थोड़ी-बहुत मरम्मत हमने घर पर की। लेकिन कंधे का दर्द तो बढ़ता ही चला गया।
शाम हुई। हमने किसी तरह खुद को रिक्शे पर लादा और एक प्राइवेट अस्पताल पहुंचे। एक हड्डी का डॉक्टर बुलाया गया। कोई डॉ नगाइच थे। कानपुर के किसी सरकारी अस्पताल से रिटायर हुए थे। उन्होंने परीक्षण करके बताया - कंधा खिसका है। घबराने की बात नहीं।
एक्सरे कराया। शुक्र है कि कोई हड्डी नहीं टूटी थी। कंपोज़ का और एक पेनकिलर इंजेक्शन लगाया। बोले - कोशिश करता हूं कंधा बैठाने की। दर्द थोड़ा ज्यादा होगा। बरदाश्त नहीं हुआ तो कल सुबह बेहोशी का इंजेक्शन दे कर ठीक करना होगा।

Saturday, January 30, 2016

निंदक भी अपना हुआ।

-वीर विनोद छाबड़ा
गांधी जी के जितने प्रशंसक थे उतने ही निंदक भी। लेकिन यह गांधी के व्यक्तित्व, आचार और व्यवहार का ही कमाल था कि उनसे एक बार जो मिल लिया वो उनका हो गया। इस सिलसिले में स्कूल के दिनों में हिस्ट्री के गांधी भक्त मास्टरजी हमें एक वाक्या सुनाया करते थे।

उन दिनों गांधी जी इंग्लैंड में थे। उनसे मिलने अनेक लोग आये। भारतीय मूल के साथ और अन्य जातीय मूल के लोग और अंग्रेज़ भी आये।
उनमें से एक अंग्रेज़ गांधी जी और उनकी अहिंसावादी नीतियों का कट्टर विरोधी था। उसने गांधी जी के मुंह पर उनकी खूब आलोचना की। गांधी जी कुछ नहीं बोले। बस मुस्कुरा दिए।
लौट कर उसने गांधी जी की बुराई करते हुए ढेर कवितायें लिखी। इन कविताओं की भाषा अतिरंजित और व्यंग्यात्मक थी। उसने सोचा अगर गांधी जी इसे पढ़ेंगे तो बिलबिला उठेंगे, तिलमिलायेंगे और बहुत क्रोधित होंगे। कुछ न कुछ बुरा-भला भी कहेंगे। बड़ा मज़ा आएगा। तब उसे गांधी की ऐसी-तैसी करने का एक मुद्दा मिलेगा। यह सोचते सोचते वो पुलकित हो उठा - अहा!
वो अंग्रेज़ गांधी जी के पास गया। अपनी कवितायें गांधी जी को इस दरख़्वास्त और इसरार के साथ दीं कि वो वक़्त निकाल कर इन्हें पढ़ें ज़रूर।
गांधी जी ने मुस्कुरा कर उन कविताओं के उस पुलिंदे को लिया। जल्दी-जल्दी उसका एक-एक सफ़ा पलटा। फिर पुलिंदे पर लगा सेफ्टी पिन निकाला और उन तमाम सफ़ों को रद्दी टोकरी के हवाले कर दिया।

Friday, January 29, 2016

तो यों कहो न बाबू हो।

- वीर विनोद छाबरा
कभी वो भी ज़माना था जब शादी माता-पिता की रज़ामंदी से हुआ करती थी। औपचारिकता ज़रूर होती थी कि लड़का-लड़की ने एक दूसरे को देख लिया है।
हमारे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ था।

विवाह के कुछ दिन बाद हम मेमसाब सहित अपने ऑफिस के सामने से गुज़र रहे थे। मेमसाब को गर्व से बताया कि यह सामने शानदार सात मंज़िला बिल्डिंग देख रही हो न, इसे शक्ति भवन कहते हैं। यह हमारा ऑफिस है। हम पांचवीं मंज़िल पर बैठते हैं।
पत्नी हमारा मुंह देखने लगी - हमारे बाऊजी ने तो कहा था कि आप तो लेसू नाम की किसी बिजली कंपनी में हो, जहां आप बिजली के बिल जमा करते हैं।
हमने बड़ी मुश्किल समझाया। हमारा दफ़्तर बिजली वालों का हेडक्वार्टर है, सबसे बड़ा ऑफिस।
फिर उसने पूछा - तो आप वहां क्या करते हो?
हमने बताया कि हम लोग फाईलों में लिखा-पढ़ी का काम करते हैं - अपर डिवीज़न असिस्टेंट।
उसने कहा - तो यों कहो न कि आप बाबू हो?
हमारे ऊपर मानों घड़ों पानी डाल दिया हो किसी ने। बड़ी मुश्किल से हमने उसे समझाया कि हमारा काम ज़रूर बाबू वाला है लेकिन हम बाबू मनोवृति और संस्कृति से कोसों दूर हैं, साहित्य और कला प्रेमी।

Thursday, January 28, 2016

मैं न भूलूंगा!

- वीर विनोद छाबड़ा
आज ही का तो दिन था जब पंद्रह साल पहले मैंने मां को खोया था। लगता है, जैसे कल की ही बात है।
मां। धरती पर सबसे अधिक प्रयोग किये जाने वाला शब्द।

होश संभालने पर सबसे पहले देखा चेहरा मां का ही याद आता है।
स्कूल छोड़ने भी मां ही गयी। और लेने भी। याद है काली मिर्च वाले पराठे के साथ आम या नीबू के आचार की एक फांक रख कर रुमाल में बांधा और फिर भीतर से कलई की हुई पीतल की डिब्बिया में बंद कर के बस्ते में ठूंस दिया।
पिताजी नौकरी के सिलसिले में अक्सर बाहर रहे। घर-बाहर और हम भाई बहनों को मां ने ही संभाला। तबियत ख़राब होने पर डॉक्टर से दवा भी मां लाती। रात-रात भर सिरहाने बैठ कर पंखा भी मां ही झलती।
याद आता है आलमबाग की चंदर नगर मार्किट के दुमंजिले पर घर। वेजिटेबल ग्राउंड की रामलीला रात दो-ढाई बजे तक चलती थी। लौट कर घर आता था तो सीढ़ियों में घुप्प अंधकार। कोई लुटेरा या भूत, कुछ भी हो सकता है। नीचे से मैं आवाज़ देता - माताजी।
दूसरी बार आवाज़ देने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी। अरे, मां तो जग ही रही है। अंधेरे की अभ्यस्त मां, बच्चों के लिए न उसे चोर-लुटेरे से डर लगा और न भूत-प्रेत से। 'मैं आई' कहते हुए दौड़ी चली आई।
कॉपी-किताब चाहिए या कैंडी आइसक्रीम चूसनी है या फिर सिनेमा देखना है। मां ही काम आई। राम जाने कहां-कहां और कैसे-कैसे बचत करके पैसे छुपा कर रखा करती। सब हम भाई-बहनों के लिए।
गलती करने पर पिताजी के कुफ़्र से हमेशा मां ने ही बचाया।
स्वतंत्र भारत में लेख छपा। सात रूपए मिले थे। पहली कमाई। मां के चरणों में ही रखी थी। मां ने सिर्फ़ चवन्नी ली थी।
शादी के बाद जब मैंने मां के चरणों में अपना वेतन रखा था मां ने भारी मन से कहा था - अब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं। इसे और तुझे संभालने वाली आ गयी है। पांच साल पहले रिटायर हुआ था तो मां की बहुत याद आई थी। काश ज़िंदा होती तो आख़िरी कमाई भी उसी के क़दमों पर रखता।
माँ की यादों की बड़ी लंबी फ़ेहरिस्त है। बताने बैठूं तो कई महाग्रंथ तैयार हो जायें।
मां अब नहीं है। ज़िंदगी के अंतिम छह साल तक खूब सेवा कराई मां ने। फालिज़ गिरने से पहले मां का वज़न सौ किलो से ऊपर था। धीरे-धीरे इतनी दुबली हो गयी कि मैं गोद में उठा लेता था। बहुत कष्ट सहे उसने। जिसने भी देखा उसने मुझे यही सलाह दी - भगवान से प्रार्थना कर कि मां को मुक्ति दे।

Wednesday, January 27, 2016

और अब आबिद सुहैल भी चले गए।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कल शाम मुंबई में उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार आबिद सुहैल साहब के निधन हो गया। वो उर्दू अफ़सानानिगारी के चंद बाकी सितारों में थे। उनके जाने से यकीनन उर्दू अदब बहुत ग़रीब हो गया है। पिछले साल जुलाई में डॉ विशेषर प्रदीप साहब के इंतक़ाल से उर्दू अदब अभी संभल भी नहीं पाया था।

मैंने आबिद सुहैल साहब को बेहद करीब से देखा है, उस वक़्त से जब मैंने होश संभाला था। वो मेरे दिवंगत पिता रामलाल, मशहूर उर्दू अफ़सानानिगार, के बहुत अज़ीज़ दोस्तों में से थे। हम नक्खास में रहे हों या आलमबाग या चारबाग़ या फिर इंदिरा नगर, हमारे घर में अदबी बहस के लिए नशिस्त सजी हो और आबिद सुहैल साहब की उसमें शिरक़त न हुई हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। हमारे परिवार से वो १९५६ से जुड़े थे। तब हम नक्खास के कटरा अबु तराब खां में रहा करते थे।
मुझे याद है कि बरसों तक उन्होंने उर्दू मासिक 'किताब' का प्रकाशन-संपादन किया था। क़ौमी आवाज़ उर्दू डेली में वो बरसों रहे। फिर नेशनल हेराल्ड में न्यूज़ एडिटर हुए। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में बरसों उन्होंने 'फ्रॉम उर्दू वर्ल्ड' कॉलम लिखा। ट्रेड यूनियन से उनका रिश्ता भी बहुत क़रीबी था। उर्दू-अंग्रेज़ी के अलावा हिंदी की दुनिया से भी उनका ख़ासा वास्ता रहा।

प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट से भी आबिद सुहैल साहब का बहुत गहरा और लंबा एसोसिएशन रहा।
पिछले दो बरसों में साहित्यिक गोष्ठियों में मेरी उनसे कई मुलाकातें हुईं। आख़िरी मुलाक़ात २२ सितंबर २०१५ को मशहूर हिंदी लेखक और ट्रेड यूनियन नेता दिवंगत कामतानाथ जी के ८२वें जन्मदिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में हुई थी।
उस दिन मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे आपके इल्मो-अदब के बारे में, आपके और मेरे पिता के मध्य दोस्ती के बारे में और अदब-निज़ी ज़िंदगी से जुड़े कुछ मज़ेदार वाक्यात के बारे में मुझे जानना है। इस सिलसिले में मैं आपसे जल्दी मिलूंगा। 
उन्होंने कहा था कि तुमसे ज्यादा जल्दी तो मुझे है। चौरासी क्रॉस कर चुका हूं। वक्त थोड़ा है, जल्दी आना।

Tuesday, January 26, 2016

फिर याद आई प्रीतम की।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज एक बहुत अज़ीज़ मित्र प्रीतम की बड़ी याद आ रही है। यह असली नाम नहीं है। बड़ा मज़ेदार आदमी थे। हंसते और हंसाते रहते थे।

प्रीतम कभी वक़्त पर ऑफिस नहीं आये। लेकिन सीट पर कभी कोई फाईल पेंडिंग नहीं रहीं। चाहे रात दस बजे तक क्यों न बैठना पड़े।
हमारे साथ ही भर्ती हुए थे प्रीतम। भाग्य ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि उनको मेरे अधीनस्थ काम करना पड़ा। लेकिन, चूंकि हम परफेक्ट दोस्त थे, इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। हम लोग छुट्टी के दिन भी दफ़्तर में हाज़िरी लगाते थे ताकि हमारे सहकर्मियों के प्रशासनिक काम निर्बाध होते रहें।
प्रीतम और हम एक-दूसरे के हमराज़ भी थे। एक दिन मज़ाक-मज़ाक में प्रीतम हमसे कहने लगे - यार, मुझे समझ में नहीं आता कि ये महिलायें मुझसे दूर-दूर क्यों रहती हैं। मुझमें कोई ऐसा ऐब भी नहीं है। देखने में भी ठीक-ठाक हूं। और सबसे बड़ी योग्यता तो यह है कि कुंवारा हूं। फिर भी कोई नमस्ते नहीं करती। बाहर वालियों को छोड़ो, अपने सेक्शन में एक नहीं तीन-तीन हैं, लेकिन नमस्ते तो दूर देखती तक नहीं हैं। आफ्टरऑल सीनियर-मोस्ट हूं। और एक तुम हो कि बिना नमस्ते किये सीट से हिलेंगी नहीं, चाहे देर क्यों न हो जाए।
हमने एक उपाय निकाला। पूरे स्टाफ को मौखिक निर्देश दिए कि शाम को अगर हम सीट पर न हों तो सीनियर-मोस्ट प्रीतम जी को अपना अधिकारी समझें। और उन्हीं को नमस्ते करके घर जायें।
उसी शाम, ऑफिस टाइम ख़त्म हुआ। हम सीट पर ही थे और प्रीतम जी हमेशा की तरह सर झुकाये फ़ाइल में घुसे हुए थे। महिला कर्मियों ने  प्रोटोकॉल का अनुपालन करते हुए हमें नमस्ते की और फिर अचानक सर झुकाये काम में तल्लीन प्रीतम जी की ओर घूमीं। और ज़ोर से बोलीं - प्रीतम भाईसाहब, नमस्ते।
ऐसे दृश्य के लिए हममें से कोई भी तैयार नहीं था। कुछ पल के लिए हम सब भौंचक्के रहे गए। फिर हम सबको बहुत ज़ोर की  हंसी आ गयी।

Monday, January 25, 2016

पत्नी, छिद्दू बाबू और बुलडोज़र!

-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे के मोहल्ले में एक से एक बढ़ कर हैं। इन्हीं में से एक हैं छिद्दू बाबू। किसी शब्द या मुद्दे को एक बार पकड़ लें तो छिद्रानिवेषण करके ही मानते हैं।

बंदे को तो देखते ही छिद्दू बाबू बेताल की तरह चिपक जाते हैं। बल्कि बेताल को तो समझा-बुझा कर विदा किया जा सकता है मगर छिद्दू बाबू को नहीं।
अभी कल ही की बात है। बंदा स्कूटी पर किक पर किक मार रहा था। लेकिन बिना गीयरवाली स्कूटी स्टार्ट नहीं हो पायी, न सेल्फ से और न किक से। चोक भी काम न आई। पसीना-पसीना हो गया बंदा। कड़ी सर्दी में भी गर्मी का अहसास। पत्नी बोली - २५ साल से चिपकाये घूम रहे हो। पुर्ज़े भी नहीं मिलते। कित्ती बार बोला बदल दो।
बंदा झल्ला गया- शादी हुए भी तो इत्ते साल हो गए।
यह सुनते ही पत्नी चुप्पे से सरक गयी।
इधर बंदा स्कूटी से कुश्ती लड़ रहा था और उधर दूर खड़े छिद्दू बाबू यह नज़ारा देखते हुए हंस रहे थे। बंदे ने पीठ कर ली। न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मगर छिद्दू बाबू ठहरे चीर-फाड़ वाले डॉक्टर। ही-ही करते हुए बंदे से चिपक ही गए - मैंने इसीलिए स्कूटी नही खरीदी।
बंदे ने सर पकड़ लिया। अब ये घंटो चटेंगे। फेबिकोल तो फिर छूट जाए मगर इनसे पिंड छुड़ाना नामुमकिन। अब इनकी बे-पैर की जिज्ञासाएं प्रारंभ होंगी। इन्हें भगाने का तरीका कई भुक्तभोगी बंदे को बता चुके हैं - एक कंटाप रसीद दो। लेकिन बंदा ऐसा नहीं करेगा। संस्कारों से मजबूर है। लेकिन असली बात ये है कि साहस ही नहीं।
दूसरा और सबसे कारगर उपाय है, छिद्दू बाबू की बुलडोज़र पत्नी। बंदे ने आशा भरी निगाह से छिद्दू बाबू के घर की ओर देखा। छिद्दू बाबू मक़सद समझ गए - मायके गयी हैं।
यानि छिद्दू बाबू आज़ाद हैं। उन्होंने स्कूटी की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी। ऐसे मौके पर वो बंदे की पत्नी को भी पीछे छोड़ देते हैं। दोनों भाई-बहन। अशुभ-अशुभ बातें। ऐसी चीज़ लेने से फ़ायदा ही क्या जो ख़राब हो जाए...हमारे चचिया ससुर भी खरीदे रहे, पांच साल बाद कबाड़ के भाव बिकी...ममिया ससुर तो इसे खूंटी पर टांगते-टांगते खुद ही खूंटी पर टंग गए...मौसिया भी ऐसी ही स्कूटी चला रहे कि ट्रक ने दबोच दिया...अमां अब रिटायर हो गए हो...पैदल चला-फिरा करो...हाथ-पैर शिथिल हो जाएंगे...    
छिद्दू बाबू में बंदे की पत्नी की आत्मा पूर्ण रूप से विराज चुकी थी। बंदा बहरा महसूस करने लगा। इधर छिद्दू बाबू का टेप खत्म होने के बाद तीसरी बार ऑटोमैटिक रिवाइंड हुआ। ऐसी चीज़ लेने से...

Sunday, January 24, 2016

अब नहीं दिखती दहेज़ में सिलाई मशीन।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कभी दहेज़ में ज़रूरी आईटम हुआ करता थी सिलाई मशीन। लड़की सर्वगुण-संपन्न भी तभी कहलाती थी जब सिलाई-कढ़ाई में निपुण हो। आढ़े वक़्त में सिलना-पिरोना बहुत काम आता था। इसकी शुरुआत हमेशा सुई के नाके से तागा निकालने से होती थी। अब यह संयोग है कि सिखाया बड़ी बहन को जा रहा था और सीख हम पहले गए।

हमें याद है कि ब्लैक एंड व्हाईट इरा की हर दूसरी-तीसरी फ़िल्म में हीरो ने अमीर हीरोइन को यही कह कर पटाया  - मेरी तो बड़ी दुःख भरी कहानी है। हमारा बचपन था तब जब पिता जी ट्रक तले आ कर गुज़र गए। मां ने कपड़े आजू-बाजू वालों के कपड़े सिल कर पढ़ाया-लिखाया और बड़ा किया।
उस दौर में लेडीज़ टेलर भी पूरे शहर में एकाध ही हुआ करते था। लाटसाहबों की मेमें जाया करती थीं वहां। लेकिन आज हर गली-नुक्कड़ पर जेंट्स से ज्यादा लेडीज़ टेलर हैं। वो बात दूसरी है कि ज्यादातर लेडीज़ टेलर जेंट्स ही हैं और रिटेल जेंट्स टेलर को तो रेडीमेड बिज़नेस ने चौपट कर दिया है।
आज की मां को हमने कहते हुए सुना है - कोई ज़रूरत नहीं दहेज़ में सिलाई मशीन देने की। मेरी बेटी को कोई दरजी का काम तो करना नहीं है ससुराल जाकर?
ठीक ही तो कहती है। बाहर जाकर नौकरी करेगी तो टाईम ही कहां मिलेगा? और फिर क्या सिलाई-कढ़ाई का ठेका ले रखा है लेडीज ने?
यों उषा नाम की सिलाई मशीन है हमारे घर में। लेकिन अब छोटे-मोटे काम ही होते हैं। मेजर काम तो बुटीक सेंटर और लेडीज़ टेलर ही करते हैं।
जब होश संभाला था तो सिंगर सिलाई मशीन देखी थी घर में। हमारी मां तो हफ़्ते में एक दिन ज़रूर मशीन पर बैठती थी। जेंट्स की पेंट कमीज़ छोड़ हर तरह की सिलाई की नंबर वन एक्सपर्ट। अपनी मां की लाड़ली हुआ करती थी वो। हर काम सिखाया गया था उसे। हमारी शादी होने से पहले तक हमारे पायजामे और कच्छे मां ही सिला करती थी। हमने बचपन से लेकर बड़े होने तक मां को बड़े ध्यान से मशीन चलाते हुए देखा है। कुरेशिये से महीन बिनाई करते हुए भी हमने उसे देखा है। मां बीमार रहने लगी तो ऊपर टांड़ पर चढ़ा दी गयी मशीन। सालों पड़ी रही। जंग खा गयी। फिर मां गुज़र गयी। एक दिन टांड़ की सफ़ाई हो रही थी। हम बड़ी उत्सुकता से तलाश रहे थे उस मशीन को। दिखी नहीं। हमने पत्नी से पूछा नहीं, लेकिन हम समझ गए कि उसका हश्र क्या हुआ होगा। हम साईट से ही हट गए।

Saturday, January 23, 2016

थैला युग की वापसी की आहट।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज शाम हम मुंशीपुलिया पर टहल रहे थे। तभी मोबाईल बजा। मेमसाब ने फ़रमाया। एक किलो मटर और पाव भर अदरक लेने आना।
सुखद आश्चर्य! मेमसाब का हम पर इतना विश्वास कि सब्जी लेते आना। हम फ़ौरन से पेश्तर सब्ज़ी की दुकान पर पहुंचे।
सब्ज़ी वाले ने हमें घूरा। थैला या झोला या पॉलिथीन की पन्नी है?
हमने कहा - नहीं है।
सब्ज़ी वाले ने हमें झिड़क दिया - तो सब्जी नहीं मिलेगी।
हमने पूछा - क्यो भाई?
सब्जी वाले ने कहा - सरकार का आदेश है। पढ़ा नहीं आज अख़बार में। पॉलिथीन की पन्नी बनाने वाली फैक्टरियां एक के बाद एक बंद हो रही हैं।
हम परेशान हुए। बिना सब्ज़ी लिए जाऊंगा तो निठल्ला कहलाऊंगा। साल भर बाद मेमसाब ने एक काम कहा। वो भी नहीं कर पाये। आस-पास जान-पहचान वालों को टटोला। किरयाने की दुकान, केमिस्ट, दरजी और पेंटवाला। सबने मना कर दिया। कोई पन्नी नहीं है। जेब में हाथ डाला। रुमाल भी छोटे साईज़ का निकला। इसमें तो छटांक भर मिर्च भी न बंधे।
तभी एक मित्र मिले। हमने उनसे अपना दुखड़ा रोया। वो बोले - हम भी सब्जी लेने ही निकले हैं। हमें अंदेशा था कि तुम्हारे जैसे एक-आध दुखियारे ज़रूर मिलेंगे। इसलिए दो पन्नी रख लीं। एक तुम रख लो। इस्तेमाल के बाद वापस कर देना। आजकल इसकी बड़ी कीमत है।

Friday, January 22, 2016

चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से नहीं।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह हमने अख़बार में हेडलाईन पढ़ी कि बारात में नाचे और ट्रैफ़िक जाम हुआ तो सौ रुपया प्रति बाराती फ़ाईन देना होगा।
हमें याद आ गयी अपनी किशोरावस्था। बारात में बाजा बज रहा हो तो बाराती क्या, सड़क चलते हुओं के भी पैर थिरकने लगते थे। बस मौका चाहिए होता था। हमें याद है कि दोस्तों संग कई बार डांस किया, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन कर।

मोहल्ले में पड़ोसी हमें सख़्त नापसंद करते थे, लेकिन दो कारणों के लिए हम उनकी आंख के तारे थे। बुलावे के साथ ख़ासतौर पर बुलावा आता था- भई, बिल्लू तुम्हें तो ज़रूर आना है। लड़की की शादी में बर्तन मांजने के लिए और लड़के की शादी में डांस करने के लिए। दोनों ही काम मुफ़्त में। और हमने बरसों ख़ुशी ख़ुशी अपनी ड्यूटी अंजाम दी। पड़ोसी भी खुश। और तो और दूसरे मोहल्लों में रहने वाले उनके रिश्तेदार और पड़ोसी भी हमारे मुरीद रहे।
हम इंटर में थे तब जब हमें एक पड़ोसी के साले की शादी में नाचने के लिए गाज़ियाबाद से खासतौर पर बुलावा आया। और हम गए भी। पड़ोसी चूंकि रेलवे में थे इसलिए आना-जाना फ्री हो गया। वापसी पर एक शर्ट और ग्यारह रूपए मिले थे। हमें याद है, जम के नाचे थे। भयंकर सर्दी में भी हम पसीना-पसीना हो गए थे। कोट-स्वेटर सब उतारना पड़ा था। सैकड़ों रूपए हम पर न्यौछावर होकर बैंड-बाजे वालों की जेब में चले गये। हम जान-बूझ कर हाथ खोल कर नाच रहे थे ताकि एक-आध रुपया हम भी लपक लें।
बैंड-बाजे वाला तो हमें किनारे ले जाकर कान में कहा भी - हमारे लिए डांस करो, चार सौ रूपए महीना और बारात के सीज़न में खाना-पीना मुफ्त। सूट-बूट और जूता भी फ्री।
१९६८ में यह बढ़िया रक़म थी। लेकिन हम बिदक गए थे - अमां हटो भी। नचनिया बनना है क्या?
ऐसे ही हमारे एक दोस्त भी हुआ करते थे। हम खूब डांस किये साथ-साथ। लखनऊ की कोई भी कच्ची-पक्की सड़क नहीं छोड़ी, जहां पर हमने भांगड़ा, नागिन और ट्विस्ट न किया हो। तक़ीला पर पागल हो जाया करते थे। रॉक एंड रोल पर भी हमारी अच्छी पकड़ हुआ करती थी।
लेकिन एक दिन सब एक झटके में ख़तम हो गया। किसी की नज़र लग गयी। हुआ यह कि हमारे दोस्त की शादी हो गयी। वो घोड़ी से उतर कर खूब नाचा। बड़े-बुज़ुर्ग बहुत नाराज़ हुए। ख़ानदान की नाक बीच सड़क पर कट गयी। लेकिन मित्र ने किसी की परवाह नहीं की। किसी बुज़ुर्ग ने उसे श्राप भी दे डाला। तेरी टांग टूट जाए। पाख़ाना करने को भी किसी का सहारा ले। हालांकि ऐसा कुछ न हुआ। लेकिन जो हुआ वो बहुत ही बुरा हुआ।

Thursday, January 21, 2016

आईटॉनिक वाले डेली पैसेंजर।

- वीर विनोद छाबड़ा
डेली पैसेंजर भी एक से बढ़ कर एक होते हैं।
हमारे एक सहकर्मी कानपुर से डेली पैसेंजरी करते थे। उनकी प्रिय ट्रेन होती थी गंगा-जमुना एक्सप्रेस - दिल्ली से वाराणसी। वो कई बार दोपहर बाद आये।

कारण यह होता था कि उन्हें मोहतरमायें बहुत दिखती थीं। अगर कोई दिल को भा गयी तो सुल्तानपुर तक तो पक्का ही चले जाते थे। वहां से उतरे और किसी पलट गाड़ी से लखनऊ आ गए। कभी बहुत ज्यादा दिल आया तो बनारस तक भी हो आये।
हम लोग पूछते थे कि क्या मज़ा मिलता है। उनका एक ही जवाब होता था - चक्षु दर्शन।
वो अपने तजुर्बे के आधार पर बताया करते थे कि ट्रेनों में महिलाओं से छेड़छाड़ में नौजवानों के मुकाबले बुड्ढे ज्यादा तेज होते हैं।
मज़े की बात तो यह थी कि वो टिकट ज़रूर कटवा लेते थे। फ़रमाते थे कि हम इल्लीगल काम नहीं करते हैं।

Wednesday, January 20, 2016

भैया ज़रा रुकना…

-वीर विनोद छाबड़ा
जोर-शोर से भद्रजनों की पार्टी चल रही है। मौका मैरिज की सिल्वर जुबली का है।
लाइट म्यूजिक है। डांस फ्लोर पर कई नौजवान लड़के-लड़कियां थिरक रहे हैं। वीडिओ के साथ-साथ और स्टिल फोटोग्राफ़र भी पार्टी को कवर कर रहा है।

स्टिल कैमरा चिल्ल-पों मचाती युवतियों के एक झुडं की और मुड़ा।
एक ने मुंह पर हाथ रख लिया - न बाबा न.मेरी फोटो नहीं खींचना मुझे अच्छा नहीं लगता...यों भी मेरी फोटो अच्छी नहीं आती.
सहेली कहती है - वाह वाह! कितना सुंदर और फोटोजेनिक फेस है तेरा वो पिछली रोमा वाली पार्टी याद है.पता है सबसे अच्छी तेरी ही फोटो थी.वो  मेरा लंदन वाला कज़िन तो मर मिटा था.तेरा एड्रेस और मोबाइल नंबर.
वो बात काटती है - चल हट झूठी...इसकी न मानना ये फेंक रही है.सच में मैं सच्ची कह रही हूं...
सारी सहेलियां उठ खड़ी होती हैं - झूठी, झूठी, झूठी
वो मुखड़ा फिर छुपा लेती है।
सब सहेलियां ज़बरदस्ती उसके हाथ मुखड़े से हटा देती हैं।
वो रूठ जाती है। फिर अचानक उसे महसूस होता है कि ये ओवर हुआ जा रहा है। वो सिर झटकती है - अच्छा तो ठीक है.खींच लो फोटोज़रा ठहरो
वो पर्स से कंघी निकाल बाल संवारती है।
फोटोग्राफर कैमरा क्लिक करने को हुआ ही था कि.
रुको....पर्स एक बार फिर खुलता है.फेस पाउडर लगाती है.फोटोग्राफ़र बोलता है - यस मैडम रेडी?
बस भैया एक मिनट
इस बार पर्स से लिपस्टिक निकाल होटों पर फेरी जाती है।
कैमरा फिर तैयार हुआ ही था कि.....
रुको, रुकोज़रीना जरा आई शैडो वाली पेंसिल तो देना
यस रेडी मैडम....
भैया रुकना, बस वन लास्ट टाइम प्लीज़
उन्होंने काला चश्मा लगाया। ठीक साथ वाली सहेली को कंधे से तनिक पीछे धकेला। फिर तिरछी होकर थोबड़ा आगे निकाला