Monday, May 11, 2015

दुश्मन, दुश्मन दोस्तों से प्यारा है.…

-वीर विनोद छाबड़ा
सुरजीत नाम का एक मस्तमौला ड्राइवर है। एक दिन उसकी नशे और जल्दबाज़ी की ड्राइविंग के कारण एक किसान रामदीन की मौत हो जाती है।
सुरजीत भागता नहीं है। मदद करने की कोशिश करता है। पुलिस उसे गिरफ्तार कर चार्जशीट सहित अदालत में पेश करती है।

जज साहब ने पक्ष-विपक्ष को सुना और मृत किसान के पीड़ित परिवार और आई विपत्ति को भी दृष्टिगत किया। उनकी सोच है कि अपराधी को जेल भेजने से इंसाफ़ नहीं होगा। वो एक ऐसा प्रयोग करना चाहते हैं जो नज़ीर बने। 
इब सब तथ्यों के दृष्टिगत वो एक विचित्र एवं ऐतिहासिक निर्णय देते हैं। सुरजीत को उस पीड़ित परिवार की सेवा में लगा दिया। कमाओ और उस दुखिया परिवार के सदस्यों का भरण पोषण करो।
परिवार में दिवंगत रामदीन के वृद्ध पिता गंगादीन, उसकी वृद्धा अंधी मां, पत्नी मालती, बहन कमला और दो बच्चे हैं।
सुरजीत को इस अजीब फैसले पर ऐतराज़ है। वो जज साहब से बार-बार गुज़ारिश करता है कि वो फैसला बदलें। लेकिन जज साहब अटल रहे।
सुरजीत पीड़ित के गांव पहुंचता है। वहां उसका गालियों से स्वागत होता है। उस पर पत्थर भी फेंके जाते हैं। पीड़ित परिवार उसे घर में नहीं घुसने देता।
सुरजीत भागने की कोशिश करता है। लेकिन पुलिस उसे पकड़ कर उसी गांव में वापस छोड़ आती है। उस परिवार को समझाया जाता है। 
सुरजीत उसी गांव की बाइस्कोप दिखाने वाली फूलमती से प्यार करने लगता है। दोनों मिल उस परिवार का दिल जीतते हैं। उस परिवार पर गंदी नज़र रखने वाले टिंबर मालिक से उनकी रक्षा करता है।
दो साल गुज़र जाते हैं। सुरजीत की सजा ख़त्म हुई। लेकिन न तो पीड़ित परिवार सुरजीत को छोड़ना चाहता है और न ही सुरजीत।
जज साहब प्रयोग कामयाब रहा। सजा ऐसी होनी चाहिए कि अपराधी को सुधरने का मौका मिले और पीड़ित पक्ष के ज़ख्म पर मरहम भी लगे।
इस यूटोपियन विचार पर प्रोडयूसर प्रेमजी ने एक फिल्म बनाई 'दुश्मन'। १९७० में रिलीज़ इस फिल्म को 'चांद और सूरज', मेरे हमसफ़र और 'धरती कहे पुकार के' वाले दुलालगुहा ने निर्देशित किया।
दुलाल गुहा ने बाद में दोस्त, प्रतिज्ञा, खान दोस्त, दो अंजाने, दिल का हीरा। धुआं, दो दिशायें जैसी कामयाब फ़िल्में डायरेक्ट की।  राजेश खन्ना, मीना  कुमारी, मुमताज़, अनवर हुसैन, नाज़ आदि 'दुश्मन' के मुख्य सितारे थे।
समाज में इस फिल्म स्वागत हुआ। इसका प्रमाण इसकी ज़बरदस्त कामयाबी है। लेकिन इसे कोई बड़ा पुरुस्कार नहीं मिला। दरअसल ईनाम
देकर इस यूटोपियन विचार का कोई पक्षधर बनना नहीं चाहता था। हमारा समाज ऐसे विचारों का परदे पर भले ही स्वागत करता हो लेकिन धरती पर लाइव उसे मंज़ूर नहीं। आज भी कमोबेश यही स्थिति है।
दुश्मन बाद में तमिल, तेलगु और कन्नड़ में भी बनी और कामयाब भी रहीं। 
आनंद बक्शी के गीत और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत इस फिल्म का मज़बूत पक्ष थे। लेकिन इसके बावज़ूद इसमें में कुल चार गाने थे। शायद इसलिए कि फिल्म के उद्देश्य पर गीत-संगीत बहुत हावी न होने पाये।
पचास से सत्तर के ज़माने में खूंखार अपराधी तक को जेल की काल कोठरी के बजाये बाहर रख कर उसकी उपयोगिता खोजने से संबंधित वी०शांताराम ने 'दो आंखें बारह हाथ' भी बनाई थी।
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-वीर विनोद छाबड़ा
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