Saturday, October 31, 2015

समकालीन कविता - कविता फूल खिलने की तरह है।

-वीर विनोद छाबड़ा
३१ अक्टूबर से लखनऊ में समकालीन कविता पर केंद्रित एक कार्यक्रम हुआ। आयोजन जनवादी लेखक संघ ने किया।
उद्घाटन सत्र में सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका सुशीला पुरी ने अपने स्वागत भाषण में कहा - कविता के बिना जीवन संभव नहीं है। मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं। संस्कृति के केंद्र लखनऊ में।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए बताया - १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में प्रेमचंद ने कहा था, साहित्य का मयार बदलना है। जो समझ में आने से पहले पहुंच जाए वो कविता है। कविता को किसान-मज़दूर के बीच जाना चाहिए, भले उसे समझ में न आये। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए। आज की स्थिति में हस्तक्षेप ज़रूरी है। प्रतिरोध का एक ढंग है, पुरुस्कार लौटना। सरकार को मैसेज देना है। और यह निष्फल नहीं हुआ। सरकार परेशान है। मैं भी आक्रोशित हूं। एक पुरुस्कार मेरे पास भी है। मैंने इसे बचा कर रखा है। किसी सही मौके पर विरोध दर्ज कराऊंगा। भीड़ का हिस्सा नहीं बनूंगा। कितना अच्छा हुआ कि बुद्ध पांच  हज़ार साल पहले पैदा हुए। आज पैदा होते तो उनका वही हश्र होता जो आज कुलबुर्गी का हुआ है। बहुत सारे लोग हैं जो कविता को इग्नोर करते हैं, लेकिन कविता भी बहुत लोगों को इग्नोर करती है। इस माहौल में कविता होना बहुत मुश्किल है। बेहतर होगा कि पॉपुलर भाषा में लिखी जाये। लोकगीतों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाई जाए। कविता वही होती है जो आसानी से लोगों
तक पहुंच जाये। आज डिमांड बहुत बड़ी है। बहुत बड़ा दौर है। पिछले पचास साल से समकालीन कविता का अंदाज़, भाषा, और विषयवस्तु में काफ़ी बदलाव आया है। ज़रूरत है समकालीन कविता का नाम भी बदला जाए। नामकरण हो। आज बोलने में भी डर लगता है। पंजाबी के मशहूर कवि सुरजीत पातर कहते हैं मैं पहली पंक्ति लिखता हूं  और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से.पंक्ति लिखता हूं काट देता हूं.कितनी पंक्तियों की हत्या करता हूं.उनकी आत्मायें मंडराती हैं.आप कवि हैं या कविताओं के हत्यारे?
उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि राजेश जोशी बताते हैं - बौद्धिक संपदा आमतौर पर वाम या डेमोक्रेट्स के हाथ में रही है। कांग्रेस के राज्य में कोई दिक्कत नहीं रही क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा ही नहीं थी। आज बीजेपी सत्ता में है। उसके पास बौद्धिक संपदा संभालने के लिये बौद्धिक गुण नहीं हैं। कोई अनुभव भी नहीं है। अहम जगह पर मिडियाकर किस्म के लोग बैठाये गए हैं। क़ाबिल लोग हैं ही नहीं। सर्जरी करके हाथी के सिर लगाने की बात करते हैं। कोई उनसे पूछे, हमेशा जानवरों के सर ही क्यों लगाये गए? सीनियर मंत्री जी कहते हैं जेएनयू में नक्सली भरे पड़े हैं। वहां बीएसएफ बैठा देनी चाहिए। धर्म की सत्ता लाने की कोशिश चल रही है। लोकतंत्र का अंत हो, धर्मनिरपेक्षता का अंत हो। जागरूक लोग प्रतीक्षा नहीं करते। जनजागृति करते हैं। टकराव की स्थिति बेहतरी के लिए है। हमें हमारी कविता को नया नाम देने की ज़रूरत है। मुश्किल है काम, लेकिन करना ज़रूरी है।
कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध कवि और लेखक नलिन रंजन सिंह ने किया।

उद्घाटन सत्र के पश्चात एक परिचर्चा हुई - समकालीन कविता, संवेदना और दृष्टि। इसकी अध्यक्षता इब्बार रब्बी ने की।
सुप्रसिद्ध कवियत्री और लेखिका प्रीति चौधरी कहती हैं - जब भी कविता की बात होती है तो लगता है मनुष्य ही कविता है। जिसमें मनुष्यता है, वही कविता करता है और समझता है। बौद्धिक संपदा कभी ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में रही। लेकिन आज ऐसा
नहीं है। इसीलिए प्रतिरोध हो रहा है। ज्ञान संवेदना की और ले जाता है और संवेदना ज्ञान की ओर ले जाती है। आज जब समय की विभीषिका की बात होती है तो मुझे लगता है गहरी रात है। भूमंडलीकरण की रात है। संकट है, लेकिन मैं निराश नहीं हूं। संकट मित्र के भेष में है। पता नहीं चलता कि नायक कब खलनायक में बदल जाता है। चौंका देता है। हम सब एक बिंदु पर रुक जाते हैं। मैं मनुष्य हूं लेकिन स्त्री होना ज्यादा संवेदनशील है। स्त्रियां आज स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। कविता ने सांप्रदायिकता को छोड़ा है, बहुत सारी ऐसी जगह हैं जहां कविता नहीं पहुंची है। जब किसी कविता से प्रेम करते हैं तो उसे जादू बना देते हैं, इबादत करने लगते हैं। लेकिन जब उस कवि से मिलते हैं तो लगता है यह तो बहुत कमजोर आदमी है, घृणा योग्य है। रह वही जाता है जो रचा जाता है। संप्रेषणीयता बहुत सीमित क्यों है? प्रभावशाली लोग इससे अपरिचित क्यों हैं? साहित्य नीति नहीं बना सकता। हमें ही किसानों के बीच जाना होगा। भूमंडलीकरण की रात है। कविता लिखना कठिन है लेकिन आज की पीढ़ी ने उसे स्वीकार किया है। अंधेरा कितना घना क्यों न हो, कविता कभी ख़त्म नहीं होती है। 
समालोचक, चिंतक और कवि जीतेंद्र श्रीवास्तव ने कहा - आज़ादी के बाद से सब समकालीन है। १९८० के बाद की कविता भी समकालीन है। लेकिन १९९० के बाद के समय ने कविता को बहुत प्रभावित किया है। मंडल और कमंडल इसी काल में आया। भूमंडलीकरण का परिवारों पर प्रभाव पड़ा। एकल परिवारों का चलन बढ़ा। बाबरी मस्जिद विध्वंस भी इस दौर की बड़ी घटना है। धर्मवाद और जातिवाद गहरा हुआ। दलितों के विरुद्ध हिंसा को याद रखना होगा। इन्हीं के बीच से कविता निकल कर आई है। मुख्य धारा की कविता। आज की स्थिति यह है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है और जनता की ही चीज़ों को और उनके अधिकारों को छीन रही है। समकालीन तभी होंगे जब समकालीन लोगों के साथ खड़े होंगे, उनके लिए लड़ रहे होंगे। कवियों के सरोकार का विस्तार हो रहा है। समय को परिभाषित किया जा रहा है और समय से परिभाषित हो रहे हैं। यह स्वांता-सुखाय का दौर नहीं है। पैसे के लिए लिखा जा रहा है। लेकिन बहुत से लोग सर्व-कल्याण से जुड़े हैं। यह पहले भी था और अब भी है। वृहत्तर चिंताओं से जुड़ रही है आज की कविता। दलित व स्त्री विमर्श की कविता आई है। बहुत मुखर हो कर सामने आई है। इसे उसी वर्ग ने लिखा है। सांप्रदायिकता के विरुद्ध कविता आई है। यही संवेदना की दृष्टि है। आज जो लोग भारतीय दर्शन की बात करते हैं वो भारतीयता को जानते ही नहीं। परस्पर विरोधों के साथ चली है भारतीयता। यदि एक दृष्टि हावी होगी तो वो भारतीयता नहीं होगी। समकालीन कविता समझ रही है। सहचर्य व सौंदर्यबोध बड़ी उपलब्धियां हैं। दाम्पत्य जीवन को कविता में खूबसूरती रखा गया है। भविष्य का जीवन द्रव्य है। आत्महत्या बढ़ी हैं। परिवार विघठित हुए हैं। एकल परिवार बढे हैं। कविता के पास मध्यवर्गीय परिवार है। लेकिन गांव नहीं है। लेकिन कविता की विश्वसनीयता बढ़ी है।
सुप्रसिद्ध कवि अनिल कुमार सिंह ने कहा  समकालीन कविता को लेकर भ्रम है। समकालीन का एक्सटेंशन हो रहा है। युवा शब्द का भी एक्सटेंशन हो रहा है। आज जो फासिस्ट उभार है वो चिंतित कर रहा। यह नया नहीं है। ऐसा पिछले २५-३० साल से चल रहा। मंडल-कमंडल और बाबरी मस्जिद विध्वसं भी फासीवादी था। इसने कविता को बहुत प्रभावित किया। बौद्धिक संपदा पर वाम का प्रभाव रहा है। इसी के बीच में रहे हैं ऐसे तत्व जो फासिस्ट रहे हैं। गंभीर प्रयास होना चाहिए। बने-बनाये फ्रेम में नहीं बैठे रहना चाहिए।

इंदिरा गांधी - अपनों से हारीं।

-वीर विनोद छाबड़ा
३१ साल पहले। आज ही का दिन था। यकीन नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री की भी कोई हत्या कर सकता है और वो भी इंदिरा जी की। ज़बरदस्त सुरक्षा कवच था उनके आस-पास। कोई अपना ही मार सकता था उन्हें।
और सचमुच थोड़ी ही देर में साफ़ हो गया कि अपनों ने ही मारा था उनको। इंदिरा जी को हमेशा अपनों ने ही सताया है। उनको प्रधानमंत्री बनाने में कितने रोड़े डाले गए। गूंगी गुड़िया तक कहा गया। जब यह गूंगी गुड़िया बोलने लगी तो बड़े-बड़े काम कर गयी। मोरारजी देसाई का गुट कोई मौका नहीं चूकता था उन्हें नीचा दिखाने का, चाहे बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या प्रिवी-पर्सेस का उन्मूलन। वीवी को राष्ट्रपति बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की।
  
मुझे याद आता है १९७७ में इंदिरा गांधी चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुई थीं। इमरजेंसी ले डूबी थी उन्हें। बेटे संजय गांधी और उनके गुट की ज्यादतियां भी उतनी ही ज़िम्मेदार थीं। पूरा मुल्क और यहां की कांग्रेस संगठन भी मान बैठा था कि कांग्रेस तो गई ही, इंदिरा जी भी डूबी समझो। लेकिन इंदिरा जी 'इंडिया' भले नहीं नहीं थीं लेकिन 'इंदिरा' तो थी हीं। जल्दी ही उन्होंने अहसास करा दिया था कि चुनाव तो कांग्रेस हारी है इंदिरा नहीं। संसद से बाहर हुई हैं, राजनीति से नहीं। 
इंदिराजी राजनीति की चतुर और घाघ खिलाड़ी थीं। अमेरिकी घुड़की को धता बता चुकी और १९७१ में पाकिस्तान को युद्ध में मटियामेट करके बांग्लादेश का निर्माण करने की एवज़ में दुर्गा और लौह महिला का ख़िताब उन्हें हासिल था ही। उन्हें अपने विरोधियों की औकात पता थी। अकेली होने के बावजूद डट कर मुक़ाबला करने का माद्दा पहले से भी मज़बूत हो गया। घायल शेरनी थीं वो उस दौर में। मृतप्रायः संगठन में जान फूंकने के लिए मोरारजी की सरकार पर हमला करने का कोई भी मौका नहीं गंवाया।
इंदिराजी चाहतीं थीं कि जनता पार्टी की सरकार उनके विरुद्द कड़ी कार्यवाही करे। वो किसी भी आयोग से नहीं डरीं। ख़ुशी ख़ुशी जेल गई। बल्कि ऐसी परिस्थितियां सृजित की कि उन्हें जेल भेजा जाये।

Friday, October 30, 2015

रोटी के साथ दाल फिरी!

-वीर विनोद छाबड़ा
हमें याद है। साठ और सत्तर का दशक। हम चारबाग़ स्टेशन के सामने रेलवे की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में रहा करते थे।

शाम हुई नहीं कि वहां फुटपाथ पर अनगिनित छोटे-छोटे ढाबे सज गए। पूरा भोजन रेडीमेड। घर से रिक्शों पर लाद कर लाया जाता था। सब कुछ बड़े-बड़े पतीलों में। पूड़ी-रोटी, अरहर की दाल, चावल, बैंगन आलू की सब्ज़ी, उबले हुए मसालेदार आलू और सूजी का हलवा।
मुसाफ़िर, कूली, मज़दूर, रिक्शा और तांगेवाला आदि वाला सर्वहारा वर्ग इनका ग्राहक होता था।
यह रेडीमेड ढाबे अगले दिन सुबह तक चलते थे।
हमें यह भी याद है कि ग्राहकों को अपनी ओर खींचने के लिये ये ढ़ाबेवाले ज़ोर ज़ोर से चीखते थे - आईये आईये। दो रोटी के साथ दाल फिरी...एक प्लेट चावल के साथ दाल फिरी
आसपास हिंदू-मुस्लिम पक्के होटल भी ढेर थे। सुना है वहां भी चावल और रोटी के साथ दाल फ्री थी।

Thursday, October 29, 2015

टाई लगा के मानो बन गए जनाब हीरो…

-वीर विनोद छाबरा
हमारे कई मित्र भी टाई लगाते हैं। बहुत अच्छे लगते हैं। पिताजी जी को भी बहुत शौक रहा।
मीडिया चैनल पर तो न्यूज़ रीडरों और एंकरों को टाई बांधे रोज़ाना देखता हूं। वो भी अच्छे लगते हैं। वो बात अलग है कि वो टाई में खुद को ज्यादा

Wednesday, October 28, 2015

ज़िंदगी के मंच से रांग एग्ज़िट मार गए जुगल किशोर।

- वीर विनोद छाबड़ा
२५ अक्टूबर की शाम बहुत ग़मगीन थी। दिवंगत साथी जुगल किशोर को याद करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लखनऊ के तमाम सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार और उनसे सरोकार रखने वाले भारतेंदु नाट्य अकादेमी में जुटे थे। जुगल के अकस्मात् चले
से जाने से हर शख़्स शोक में डूबा था।
संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महसचिव राकेश भी आंसू नहीं रोक पा रहे थे। आज वो व्यवस्थित नहीं थे। वो बता रहे थे - कल तक जो सामने था आज नेपथ्य में चला गया है। पिछले ४० साल में मैंने उसमें एक बहुत अच्छे अभिनेता, निर्देशक, प्रशिक्षक, लेखक और इंसान के रूप में देखा।
जुगल को नाटक का ककहरा पढ़ाने वाले सुप्रसिद्ध वरिष्ठ प्रशिक्षक और रंगकर्मी राज बिसारिया ने कहा - वो मेरा बच्चा था। महबूब था। बरसों पहले इंटर पास एक दुबले-पतले नौजवान के रूप में भरपूर स्प्रिट के साथ आया था। उसकी स्प्रिट को सलाम। उसकी मसखरी का पात्र हमेशा मैं रहा। जो जितना दूर जाता है उतना ही पास रहता है।  दुःख-दर्द बहुत गहरा होता है। उसकी ज़ुबान नहीं होती। आज का दिन रोने का नहीं, जश्न मनाने है। उसकी याद में खुद को मज़बूत करने का है। नाटक करो। यह ज़िंदगी का आईना है। अपने दौर में जुगल जितना कर गया, उसे मैं सलाम करता हूं। अपने फ़न से वो सबको हराता रहा, लेकिन खुद मौत से हार गया। जुगल हमारी सांसो में रहेगा।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव की नज़र में रंगकर्म समाज का आईना है और जुगल ने इस सरोकार से सदैव रिश्ता बनाये रखा। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से
जीवंत रिश्ता रखा। साहित्य से बहुत गहरा जुड़ाव रहा उनका। सदैव संभावना खोजा करते थे कि अमूक साहित्यिक कृति का नाट्य रूपांतरण कैसे तैयार किया जाये। खुद को समृद्ध करने के लिए साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर मौजूद रहते। सिनेमा में जाने के बावजूद वो रंगमंच से प्रतिबद्ध रहे। संस्कृति के लिए आज का समय बहुत ख़राब है। ऐसे में एक बहुत अच्छे साथी का चले जाना बहुत ही कष्टप्रद है।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा - अभी तक सुना था कि मौत बहुत बेरहम होती है। चुपके से आती है। लेकिन आज देख भी लिया। सुबह उसने संगीत नाटक अकादमी का ईनाम मिलने की मुबारक़बाद दी और शाम को रुला दिया। जुगल का जाना रंगमंच की क्षति है, समाज की भी क्षति है। उसके साथ कई नाटकों में काम किया। हंसी मज़ाक और गप्पें मारना बहुत अच्छा लगता था। यह संयोग है कि वो नाटकों में मौत का बहुत शानदार अभिनय करता रहा। उसका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। मैंने एक दोस्त खोया है।
वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत सिंह ने बताया - जुगल का जाना एक दर्दभरी घटना है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई गंभीर रंगमंच चल रहा है। वो बड़ा स्तंभ था। उनका स्थान किसी के लिए लेना मुश्किल है। जुगल को याद करने का तरीका यही होगा कि नाटक चलता रहे।
सुप्रसिद्ध लेखक-कवि नलिन रंजन सिंह ने बताया कि बहुत नज़दीकी रिश्ता था जुगल से। एक हंसता हुआ चेहरा। ज़िंदादिल इंसान थे वो। जब भी मिले, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ने की संभावनाएं हमेशा तलाशते हुए। चिंतित रहते थे कि नई पीढ़ी रंगमंच के दायित्व का कैसे निर्वहन करेगी। ज़रुरत है कि उनकी चेतना से जुड़ कर या वैचारिक रूप से या लेखन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये।

अलग दुनिया के केके वत्स ने बताया - सिनेमा से जुड़ने के बावजूद जुगल ने लखनऊ नहीं छोड़ा। याद नहीं आता कि उनका किसी से कोई मतभेद रहा हो। जुगल की याद में प्रत्येक वर्ष २५ हज़ार का एक पुरुस्कार मंच पर सामने या नेपथ्य में शानदार काम करने केलिए दिया जाएगा। इसकी शुरुआत उनके जन्मदिन २५ फरवरी से होगी।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अभिनेता अरुण त्रिवेदी का कहना था - मेरा जुगल से पिछले ३५-३६ साल से दिन-रात का साथ रहा। हम भारतेंदु नाट्य अकादमी में लगभग एकसाथ आये। रंगमंच से जुड़ी अनेक व्याधियों और कष्टों को एकजुटता से झेला। स्टेज ही नहीं बाहर भी हम एकसाथ रहे। प्रशासनिक अड़चनों के बावजूद हमने अकादमी की प्रस्तुतियों पर कोई आंच नहीं आने दी, उसकी शान को कभी धूमिल नहीं होने दिया। जुगल अपनी स्टाईल में बिना बताये और बिना किसी से सेवा कराये, चुपके से बहुत दूर चले गए।
तरुण राज ने कहा - जो रोज़ मिलते हैं, वो दिल में समा जाते हैं। पिछले हफ़ते ही जुगल ने कहा था, बहुत साल हो चुके हैं अब बैठकें नहीं होतीं। इस सिलसिले को फिर से क़ायम किया जाये।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी वेदा राकेश ने कहा - बहुत पुराना साथ है जुगल से। उन दिनों रंगमंच के काम से जब भी कहीं जाना होता था तो जुगल अपनी साईकिल लिये हाज़िर मिलते। वो हीरो हुआ करते हम लोगों के। बहुत चंचल और शैतान थे। अपने साथियों
का बहुत ख्याल रखते थे वो। यह गुण उनकी  आदतों में शामिल थे। मैं उनकी मुस्कान, उसके खुशनुमा चेहरे और बोलती आंखों को याद करते रहना चाहूंगी।
वरिष्ठ रंगकर्मी मृदुला भारद्वाज ने कहा - मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है जुगल के बारे में बात करना। वो बहुत अच्छा नहीं, बहुत ख़राब एक्टर था। बिना बताये चला गया। जिस तरीके से गया, वो तो बहुत ही ख़राब था। गज़ब का परफेक्शनिस्ट एक्टर था वो। अपने से बहुत प्यार करता था। शायद इसलिये भी  बहुत अच्छा एक्टर था। जितनी देर काम करता था

Tuesday, October 27, 2015

चाय में पार्लेजी की डुबकी।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह-सुबह फिर हादसा हो गया। पार्लेजी को चाय में डुबकी लगवाई ही थी कि टूट कर डूब गए, गर्मागर्म चाय में। उनका आधा मेरे हाथ में ही रह गया। लेकिन हमें कतई अफ़सोस नहीं हुआ। चाय के आख़िरी घूंट का इंतज़ार किया। और फिर वही किया जो बड़े से बड़ा दरियादिल भी करता है। चम्मच से तलहटी में ठाठ से बैठे बिस्कुट को थोड़ा-थोड़ा करके खा लिया।
हमें याद पड़ता है बचपन से लेकर अब तक हमने भांति-भांति के बिस्कुटों को चाय में डुबकी लगाई है। लेकिन जो मज़ा और स्वाद पार्लेजी को गर्म चाय में डुबकी लगाने पर मिला किसी अन्य बिस्कुट में नहीं। मुलायम इतने कि मुंह में रखते ही घुल जाते हैं।
यों पार्ले जी को अलग से खाने का भी स्वाद है। अक्सर लोगों को चबा कर खाते ही देखा है। लेकिन अपना स्टाईल कुछ अलग ही है। मुंह में बस रखे रहिये। अपने-आप घुल जाएगा। क्या कहने इस स्वाद के? इस स्वाद के पैदा होने की अलग कहानी है।
ऑफिस में काम करते करते हमें अक्सर भूख लगती थी। बिस्कुट तो हमेशा हमारी दराज़ में रहते ही थे। कई लोग तो सूंघने वाले अंदाज़ में बिस्कुट खाने हमारे पास आया करते थे। हमारी दराज़ भांति-भांति के बिस्कुटों से भरी रहती थी। लेकिन सबकी पहली पसदं पार्ले जी ही रही। बहरहाल, हम बता रहे थे कि काम करते-करते हमें भूख बहुत लगती थी। दराज़ से बिस्कुट निकाला और शुरू कर दिया खाना। हमें खाते देख गिद्ध की तरह दूसरे लोग भी झपट पड़ते। मिनट भर में पैकेट ख़त्म। इसी तरह दूसरा और तीसरा भी। स्टॉक ख़त्म। बड़ा नागवार गुज़रता था। 
तब हमने नयी स्टाईल ईज़ाद। बिस्कुट को चुपचाप मुंह में रख कर घुलने दिया। कुछ ही सेकंड में लार के साथ घुल-मिल गया बिस्कुट। स्वाद भी बिलकुल अलग।
हो सकता है कि मेरे इस कथन से मित्रों को घिनाई आ रही हो। छी छी। बच्चे हो क्या? यह क्या हर वक़्त जुगाली करते रहते हो? मुंह में दांत नहीं हैं क्या?
लेकिन एक बार आज़मा कर तो देखिये। न स्वाद आये तो पैसे वापस। हमें तो सील गए पार्लेजी का स्वाद भी निराला लगता है। हमारे पड़ोसी को हमारा यह अंदाज़ बिलकुल पसंद नहीं। उसे मठरी की चाय में डुबकी अच्छी लगती है। हादसे का ख़तरा न के बराबर। 
अब यह तो हमें याद नहीं कि पार्लेजी से हमारा नाता कितना पुराना है। जब होश संभाला था तो शायद जेबी मंघाराम के बिस्कुट होते थे। या फिर बेकरी से बनवा कर लाये हुए आटे वाले बिस्कुट। ज़बरदस्ती खिलाती थी मां।
लेकिन पार्लेजी ने आते ही सबको घर से बाहर कर दिया। स्वाद में अच्छा, पौष्टिक और दाम भी कम। अब तो आम आदमी क्या रिक्शावाला और मज़दूर की भी पहली पसंद है। बूढ़े और बच्चों को भी खूब पसंद है। बच्चे की पैकेट पर छवि जो बनी होती है।
कुछ लोग मेहमान के सामने प्लेट में पार्लेजी नहीं रखते। उनकी निगाह में पार्ले जी गरीबों का बिस्कुट है। यह क्रीम लगा चाकलेट वाला खाईये।
लेकिन हम कभी प्रशंसा नहीं कर पाये न उनकी सोच की और ही महंगे क्रीमी-चॉकलेटी बिस्कुट की। 

Monday, October 26, 2015

घरेलू कुत्ता और बाज़ारू कुत्ता।

-वीर विनोद छाबड़ा
बाज़ारू कुत्ते और पामेरियन घरेलू कुत्ते में दोस्ती हो गयी।
घरेलू बता रहा है। वो सबका दुलारा है। डाईनिंग टेबुल पर सब मिल कर खाना खाते हैं।  मैं भी आस-पास मंडराता हूं। मेरी तरफ खाने का टुकड़ा
फेंका जाता है। मैं उछल कर हवा में ही लपक लेता हूं। इस करतब पर खूब ताली बजती है। तीन वक़्त दूध-ब्रेड और ग्रेनूल्स। हफ्ते में दो बार उबला हुआ कीमा भी। बड़ा टेस्टी होता है। महीने में एक दफ़े पिकनिक। वहां सब खूब खेलते हैं। संग में मैं भी। मौजां ही मौजां हैं। कभी तबीयत खराब हुई तो फौरन डाक्टर आता है। जानवरों और इंसानों के अलग-अलग डाक्टर हैं। उस दिन आया कह रही थी कि मेमसाब, कुत्तों वाले डाक्टर आये हैं।
बाज़ारू बताता है। अपनी ज़िंदगी तो कुत्ते वाली है। हम छह भाई-बहन थे। दो को स्कूटी ने कुचल दिया। दो सड़क पार करते हुए ट्रक तले दब गए। एक का पता नहीं। मां सड़क पार रहती है। कभी-कभी जाता हूं उससे मिलने। मगर वो डांटती है। मत आया कर। ट्रक के नीचे दब जायेगा। तभी तो हम अपनी मौत नहीं मरते। खाने के भी लाले हैं। महंगाई इतनी ज्यादा है कि कोई ज्यादा झूठन ही नहीं फेंकता। हड्डी भी बुरी तरह चूस कर फेंकते हैं। अब चुसी हड्डी को और क्या चूसना! जगह-जगह दुत्कारे और पीते जाते हैं। लेकिन फिर भी दुम हिलाते हैं। कभी-कभार बासी ब्रेड मिल जाने की उम्मीद तो होती है।
ये सुनते-सुनते घरेलू की आंखें नम हो आयीं।
बाज़ारू पुचकारता है - जो हमने दासतां अपनी सुनाई, आप क्यों रोये?
घरेलू कातर स्वर में बताता है -  मुझे तो मां याद ही नहीं। आंख भी नहीं खुली थी। मालिक कहीं से खरीद लाये थे। मालिक बहुत अमीर हैं। सरकारी विभाग में मुखिया हैं। बचपन आया की गोद में गुज़रा है। बोतल से दूध पिलाना, नहलाना, धुलाना। मगर रहा तो कुत्ता ही न। और गुलाम अलग से। वो कहें सिट तो बैठ गया और स्टैंड अप पर खड़ा हो गया। ज़िंदगी गुज़र गई इशारों पर चलते। खिलौना बना दिया। हां, ज़िंदगी लंबी है। मरते भी अपनी मौत हैं। लेकिन है बड़ी दुखदायी। साल भर हुआ जर्मन शेपर्ड मरा था। बहुत बुड्ढा हो गया था। दो साल ओवरटाईम कर चुका था। दिन-रात दर्द से कराहता था। डाक्टर ने बताया था कि इसे पैरालिसिस है और अर्थराईटिस भी। किडनियां और लीवर फंक्शन बेकार है। बीमारियों का पुलिंदा। विदेश ले जाओ। मालिक ने ईशारा किया। डाक्टर ने इंजेक्शन ठोंक दिया। ऊपर चला गया। बोरे में डालकर बड़े नाले में फेंकवाया। तुम्हारी ज़िंदगी छोटी ही सही, मगर है तो खुद की।  भले ही खाने को कम मिले, लेकिन तो जीते शान से हो।

अलविदा जुगल किशोर!

- वीर विनोद छाबड़ा
अभी थोड़ी देर पहले ही लौटा हूं मित्र जुगल किशोर का विदा करके। जुगल
मेरे ही नहीं लखनऊ के हर रंगकर्मी के मित्र थे। साहित्य प्रेमियों के मित्र थे। समाज कर्मियों के मित्र थे।
जुगल किसी परिचय के मोहताज़ कभी नहीं रहे। उनका बोलता और हंसता हुआ चेहरा ही पर्याप्त होता था। कल शाम तक वो भले-चंगे थे। अचानक ही सीने में दर्द उठा। परिवारीजन अस्पताल ले जा रहे थे कि रास्ते में ही.
जुगुल किशोर से मेरी पहली मुलाक़ात कई साल पहले आकाशवाणी लखनऊ में हुई। मैं वहां बच्चों के कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जाता था। कार्यक्रम संचालन में कई बार सुषमा श्रीवास्तव 'दीदी' के साथ जुगल 'भैया' जुगलबंदी करते होते थे। जुगल की मौजूदगी से राहत मिलती थी। उन दिनों प्रसारण लाइव होता था। कई बार कहानी पढ़ते-पढ़ते मैं कहीं अटक जाता या असहज हो जाता था तो जुगल भैया तुरंत कुछ न कुछ बोल कर संभाल लेते थे।
आगे चले कर अनेक अवसरों पर स्टेज पर और स्टेज के पीछे देखा इनको। बहुत अच्छे अभिनेता ही नहीं बड़े दिल वाले थे। और प्रशिक्षक भी थे। भारतेंदु नाट्य अकादमी में प्रशिक्षक के रूप में कई साल तक रहे। इसके निदेशक का भी काम अरसे तक देखा।
पिता, अंधा युग, राज, ताशों के देश में, जूलियस सीज़र, कंजूस, अंधेरे में, वासांसि जीर्णानि, बालकल विमन आदि दर्जनों नाटकों में काम किया। लखनऊ रंगमच ही नहीं दूसरे प्रदेशों में भी उन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ी। उन्हें परफेक्शनिस्ट कहा जाता था।
एक दिन मैंने उन्हें 'पीपली लाईव' में देखा। उसमें मुख्य मंत्री की भूमिका की थी उन्होंने। उन्होंने बताया था  दबंग-२ में भी काम किया है। जब कभी मैं उन्हें देखता मुझे बड़ा गर्व होता था। अपने शहर लखनऊ के होनहार हैं। राजपाल यादव और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे फ़िल्म आर्टिस्टों को भी अभिनय के गुर सिखाये।
साहित्यिक गोष्ठियों में वो जाना-माना चेहरा थे। सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति रहे। इप्टा के साथ साथ सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ते रहे।
लखनऊ मंच से उनका जाना बहुत बड़ा सदमा है। भारतेंदु नाट्य अकादमी और फिर गुलाला घाट पर उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए रंगकर्मियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जुटी भारी भीड़ इसका प्रमाण है। हर व्यक्ति व्यथित और शोक में डूबा हुआ। सबके पास उनका कोई न कोई यादगार लम्हा था। सबके पास कुछ न कुछ सुनाने को संस्मरण थे। शब्दों की कमी पड़ रही थी। महज़ ६१ साल के थे जुगल। यह भी जाने की कोई उम्र होती है। 
मैं जब भी उन्हें देखता मेरा मोबाईल कैमरा उनकी और देख कर बोलता था - शॉट प्लीज़। स्माईलिंग फेस को भला कैसे कहूं - स्माईल प्लीज़।

Sunday, October 25, 2015

रहते थे कभी जिनके दिल में.…

-वीर विनोद छाबड़ा 
हिंदी सिनेमा में एक दौर मुज़रों का हुआ करता था।
वक़्त बदला। समाज बदला। मूल्य व मान्यताएं बदली। मिजाज़ बदला। रहन सहन बदल गया। इस बीच पुरानी इमारतें ढह गयीं। नई खड़ी हो गयीं। काफी कुछ बना। बिगड़ भी गया।

इसी तरह फिल्मों में मुजरे भी गुज़रे ज़माने की याद बन कर रह गए। अब इनकी सूरत बिगड़ कर आइटम सांग हो गयी है। पुरानी फिल्मों के मुज़रे बड़े सारगर्भित हुआ करते थे। शब्द भी और मुजरे वाली की देहभाषा के हावभाव और गायिका के स्वर के उतार-चढ़ाव में भी अर्थ था। अश्लीलता भी होती थी तो ढकी-छुपी। साकिया आज मुझे नींद नहीं आयेगी सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है.जो मैं होती राजा तेरी चमेलियाकहो जी तुम क्या क्या खरीदोगेठाड़े रहियो ओ बांके यार.इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेराइन आंखों की मस्ती ने.सलामे इश्क मेरा क़बूल कर लो.दिल चीज़ है क्या मेरी जान लीजिएआदि बेशुमार मुजरे हैं। 
इसी कड़ी में एक फ़िल्म याद आती है 'ममता'.  इसका एक गज़ब मुजरा याद आता है। एक-एक शब्द बहुत कुछ कहता है। आंख बंद करके सुनें और विसुलाइज़ करें तो बहुत सुखद अनुभूति होती है। मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा और रोशन ने स्वरबद्ध किया था।
इसे बांग्ला फिल्मों की जान सुचित्रा सेन पर फिल्माया गया था। सुचित्रा ने मां-बेटी का डबल रोल किया था। बेटी के हीरो नायक उस दौर के उभरते अदाकार धर्मेंद्र थे। आत्म ग्लानि से सिकुड़ते हुए और असमंजय में इधर से उधर डोलते अशोक कुमार भी थे दिखे थे इस मुजरे में। निर्देशन असित सेन ने किया था, जो सुप्रसिद्ध निर्देशक बिमल राय के सहायक हुआ करते थे कभी।

Saturday, October 24, 2015

सहज ही अपना बनाने की कला में सबसे आगे बिहार वाले।

-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल बिहार में चुनावी सरगर्मियां बहुत तेज़ हैं। आये दिन रैलियां। आज उसकी तो कल उसकी। किसी की रैली में अपार भीड़ तो किसी की रैली में
सन्नाटा। कुछ दिन पहले एक नेता जी की एक रैली में अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी। उन्होंने झुल्ला कर बिहारियों को बेवकूफ़ कह डाला।
इस बयान का नफ़ा-नुक्सान कितना होगा यह तो चुनाव पंडित जानें। लेकिन मुझे बिहारियों को बेवकूफ कहने पर दिली तकलीफ़ हुई। मुझे तो लगता है बिहारियों से ज्यादा चतुर कोई और है ही नहीं। सत्तर के शुरुआती दशक में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा कई बिहारी छात्रों से साबका पड़ा। सबसे ज्यादा मुझे आकर्षित किया इनकी भोजपुरी भाषा ने। शीरीं ज़बान। इतनी मिठास तो उर्दू बोलने वाले भी नहीं घोल सके। दो बिहारियों को बोलते हुए जब भी सुना तो मन हुआ कि ये कभी चुप न हों। 
भोजपुरी का मैं सबसे पहली बार तब क़ायल हुआ जब १९६२ में 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' देखी थी। वो स्कूली दिन थे। उसके बाद कई भोजपुरी फ़िल्में देखीं। लेकिन पहली बार 'भोजपुरी लाईव' लखनऊ यूनिवर्सिटी में ही सुनी।
मैं इंदिरा नगर में अस्सी के दशक की शुरुआत में ही आ गया था। यह इलाका तब अर्ध-निर्मित हो रहा था। एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी होने का दावा गया था तब इसे। साठ प्रतिशत श्रमिक बिहार के सासाराम, सीवान आदि क्षेत्रों से ही संबंधित थे। मेरा घर बनाने वाले भी बिहार के थे। बगल में विशिष्टजन हेतु बना गोमती नगर भी इन्हीं बिहारियों की मेहनत के दम से बना। आज भी पांच में तीन मज़दूर-मिस्त्री-कारीगर बिहार के ही हैं। 
सत्तर के दशक में यूपी स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बॉर्ड में नौकरी शुरू की तो वहां एक्का दुक्का ही बिहार से संबंधित मिले। लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ने लगी।
अपने अड़ोस-पड़ोस में भी खासी संख्या में हैं। सब स्थाई निवासी हो गए हैं यहां के।  मेरे पड़ोसी सासाराम से हैं। अपने घर का नाम भी 'सासाराम निवास' रखे हैं। मैंने इनमें एक विशेषता देखी है कि किसी को सहज ही 'विधिवत' अपना बना लेते हैं। व्यवहार से भी और ज़ुबान से भी। इस मामले में पंजाबियों से ये निश्चित ही बीस हैं।
आप अगरबिहारी बाबू के मित्र हैं तो संकट के समय दीवार बन जायेंगे। लड़ने-भिड़ने के साथ-साथ ज़रूरत पड़ने पर जान भी दे देंगे।

Friday, October 23, 2015

मैंने ऐसा तो नहीं कहा था!

-वीर विनोद छाबड़ा
नेता - मंत्री किसी भी पार्टी के हों। ज्यादातर को अपनी ज़ुबान पर कंट्रोल नहीं है।
कदम कदम पर फ़िसलन है और गड्ढे हैं, खाइयां भी हैं। मगर फिसलती
ज़ुबान ही है। खुद नहीं गिरते कभी। एक नेता विरोधी साहब कह रहे थे - जो पहले से गिरा हो वो क्या गिरेगा। यों इनकी ज़ुबान ही इनको गड्ढे में ढकेलने के लिए काफ़ी है।
जब गिरने का अहसास होता है तो सारा ठींकरा प्रेस पर थोप दिया - मेरी बात तरोड़-मरोड़ कर पेश की गयी है.मेरा आशय यह नही वो था.अगर किसी का दिल दुखा है तो माफ़ी मांगता हूं.
अभी-अभी एक मंत्री जी इंसान के मरने पर दुःख जताते-जताते जाने कहां से कहां पहुंच गए। कुत्ते को पत्थर मारने की बात कर बैठे।
इसी तरह एक और भी थे जो कभी दुःख प्रकट करते हुए कह बैठे थे - कुत्ता भी कार के नीचे दबता है तो दुःख होता है।
ठीक है मंत्री जी का आशय ऐसा नहीं रहा होगा जैसा कि चैनल और सोशल मीडिया बता रहा है।
अरे भाई, नाराज़ न हों। रुकिए और सुनिए। उनकी गलती नहीं है। सबके अपने अपने सौंदर्यबोध होते हैं। बोलने वाले के भी और सुनाने-सुनने वालों के भी। इसी तरह स्क्रिप्ट लिखने वाले और पढ़ने वालों के भी सौंदर्यबोध हैं।

लौटाने का सिलसिला चलता रहेगा।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह-सुबह टकराये वो - कैसे हैं?
हमने कहा - ठीक हूं। आपकी मेहरबानी है।
वो बोले - अरे भाई ऊपर वाले की मेहरबानी कहें। हम तो उनके बंदे हैं।
हमने कहा - ऊपरवाला तो कुछ नहीं सुनता-देखता। उनके नाम पर उनके बंदे ही सब करते हैं।  
उन्होंने अपनी देह भाषा से संकेत दिया कि वो हमारा तात्पर्य नहीं समझे - छोड़िये वो यह सब। मैं तो कल से आप ही के बारे में सोच रहा हूं?
हमें हैरत हुई - क्यों भला?
वो बोले - आजकल अवार्ड वापसी सीज़न चल रहा है न!
हमने कहा - हां चल तो रहा है। मैं इसमें क्या कर सकता हूं?
वो बोले - सुना है आप वापसियों के बड़े हिमायती हैं। मैं सोच रहा था आप कब अवार्ड वापस करेंगे?
हमने कहा - हमें तो ऐसा कोई अवार्ड मिला ही नहीं हैं। कुल जमा चार-पांच शाल आयीं हैं हमारी किस्मत में। इतने ही ग्लास और चाय के कप के सेट। एक बच्चे के दूध पीने वाली बोतल भी। शायद गलती से दूसरा पैकेट दे गए। यह भी हो सकता है कि जानबूझ कर दिया हो। ढंग से लिखना सीख। प्रतीक चिन्ह शायद बचा ही नहीं था। एक समारोह तो ऐसा था कि संचालक हमें ठीक से जानता ही नहीं था। हमें अपना परिचय खुद ही देना पड़ा। बहरहाल, लेकिन इसमें से कुछ बचा नहीं है। उपहार हमने इस्तेमाल कर लिए हैं। शालें ज़रूरतमंदों को दे दी हैं। अपने पास तो एक पटरे की डिज़ाईन वाली शाल है। पंद्रह साल हुए, गुवाहाटी से मंगवाई थी। अभी तक मज़बूत है।