Tuesday, September 30, 2014

अर्श से फर्श पर उतारना - 'जानी' स्टाइल!

अर्श से फर्श पर उतारना - 'जानी' स्टाइल!


-वीर विनोद छाबड़ा 

सन १९७८ का सूर्यास्त और १९७९ के सूर्योदय के मध्य का काल।

एक पांच सितारा होटल का दूर-दूर तक फैला लॉन। खासी भीड़ है। वहां ज़बरदस्त लेट नाईट फ़िल्मी पार्टी है। तमाम नामी फ़िल्मी सितारे और उससे जुडी तमाम हस्तियां मौजूद हैं।

राजकपूर साब की 'सत्यम शिवम सुंदरम' के कारण ज़ीनत अमान खासी चर्चा में है। उसे हर खासो आम घेरे हुए है। ज़ीनत बेबी को पता चलता है  कि पार्टी में उनके हरदिल अज़ीज़ 'जानी' राजकुमार भी मौजूद हैं। मन मचल उठा।


भीड़ बहुत है। जहां चाह, वहां राह। ज़ीनत ने राजकुमार को तलाश कर ही लिया।

ज़ीनत बड़ी देर तक राजकुमार की शख्सियत, उनकी स्टाइल और एक्टिंग की तारीफ़ कर रही है।

राजकुमार बेहद खुश हैं। क्यों हों? सामने एक हसीना है। और वो भी उनकी तारीफ़ करते नहीं अघाने वाली मशहूर ज़ीनत अमान। राजकुमार भी अपने बारे में ज्यादा से ज्यादा ब्यौरा ज़ीनत को देने में देर नहीं करते हैं। 

रात काफी ढल चुकी है। राजकुमार साहब ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में मफलर गले में डाला और बोले - हमारा तो वक़्त हो चला है जानी। चलते हैं।

ज़ीनत का मन नहीं है उन्हें छोड़ने का। बोली - आपसे अभी ढेर बातें करनी हैं। दोबारा जल्दी मिलेंगे।

राजकुमार बेहद खुश हुए- ज़रूर। ज़रूर। बेबी, हम ज़रूर मिलेंगे।

टाटा, बॉय बॉय हुआ।

राजकुमार चलने को हुए कि अचानक पलटे। और ज़ीनत को बड़े ध्यान से ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले - जानी, तुम हो तो  खासी खूबसूरत। चेहरा-मोहरा और कद काठी  भी ठीक है। आवाज़ और एक्सप्रेशन भी शानदार है। और नाम हां.…क्या बताया था?.…जो भी हो। तुम फिल्मों में काम क्यों नहीं करती?

Sunday, September 28, 2014

निर्वासन में निर्वासन!

‘निर्वासन’ में कितने सारे निर्वासन!
-के0के0चतुर्वेदी

अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ पर हालांकि मैं पूर्व में संक्षिप्त टिप्पणी कर चुका हूं लेकिन हाल ही में इसके संशोधित व पेपरबैक संस्करण के आने पर मैंने इसे पुनः पढ़ा। पुनः पढ़ने के पश्चात मुझे यह पहले से भी ज्यादा अच्छा लगा। अतः इस पर पुनः प्रतिक्रिया भी समीचीन प्रतीत होती है।

आगे बढ़ने से पूर्व इस बहुत लंबे उपन्यास के पात्रों के माध्यम से कथासार बताना जरूरी महसूस करता हूं।


प्रमुख निर्वासित पात्र भगेलू कुम्हार उर्फ भगेलू पांडे है। सुल्तानपुर में भयंकर अकाल पड़ने पर भगेलू रोजी रोटी की तलाश में गोसाईंगंज छोड़ने पर मजबूर होता है। वह हजारों अन्य मजलूमों की भांति उपनिवेषवादी ऐजेंटों का शिकार हुआ और कलकत्ता पहुंचा दिया गया। कलकत्ता में वह अपना नाम कुम्हार की जगह पांडे लिखा लेता है ताकि उसे पिछड़ी जाति का समझ कर नौकरी से महरूम न होना पड़े। वहां धोखे से उसे गिरमिटिया मजदूर बना के सूरीनाम पहुंचा दिया जाता है जहां वो अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों से कट कर ताउम्र निर्वासित जीवन जीने के लिये खुद को अभिशप्त पाता है।

सालों बाद। भगेलू पांडे का पोता रामअजोर पांडे बड़ा हुआ। वो अमेरिका में व्यापार करके ऐशो-आराम की जिंदगी बिता रहा है। अचानक रामअजोर को अपने पुरखों की जड़ों की तलाश करने की फ़िक्र हुई। वो भारत आकर लखनऊ आता है। यहां वो एक पत्रकार के माध्यम से सूर्यकांत नामक एक व्यक्ति की पैसों की एवज़ सेवाएं लेता है। रामअजोर की अपने पूरखों की जड़ों का पता लगाने की योजना पर सूर्यकांत काम शुरू कर देता है। 

इस सूर्यकांत की भी अपनी एक कहानी है। एक भयंकर आंधी तूफान की रात उसके पिता ने उसे और उसकी पत्नी गौरी को रंडी व बदचलन करार देकर घर से निकाल दिया था। तब उस रात उसके चाचा ने उसे शरण दी थी। इस तरह सूर्यकांत भी अपने परिवार के साथ लखनऊ में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा है। सूर्यकांत एक आदर्शवादी व्यक्ति है। उसे पर्यटन विभाग में नौकरी मिली थी। मगर इस विभाग की नौकरी वो इसलिये छोड़ दी थी क्योंकि विभाग के लिये मंत्री बृहस्पति संपूर्णानंद एक निहायंत ही भौंडी पुनरूत्थानवादी योजना पर हस्ताक्षर करना उसे गवारा नहीं था। अब रामअजोर के पुरखों की जड़ो के तलाश करने केे काम मिला तो उसे उसमें सृजनशीलता की भी अनुभूति भी प्राप्त होती है।

सूर्यकांत सुल्तानपुर अपने घर लौटता है। वो आड़े वक्त में काम आने वाले अपने चाचा से मिलता है। इस चाचा की भी एक कहानी है। चाचा अपनी पत्नी और बच्चों द्वारा अपमानित व प्रताड़ित होकर घर के पिछवाड़े एक झोपड़ी बनाकर स्वनिर्वासित जीवन गुजार रहे हैं।

चाचा के साथ सूर्यकांत गोसाईगंज पहुंचता है। गहन छानबीन करते हुए वे रामअजोर के पूर्वज के खून के रिश्तेदार जगदंबा कुम्हार के पड़पोते गिरिजाशंकर से मिलते हैं। गिरिजाशंकर का हुलिया भगेलू पांडे से काफी मिलता जुलता है। इस प्रकार अपने मिशन में सूर्यकांत सफल होता है।

सूर्यकांत जब भगेलू पांडे के पुरखों का पता लेकर लखनऊ पहुंचता है तो पता चलता है कि ढोंगी मंत्री संपूर्णानंद बृहस्पति के उस सतयुग प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल चुकी थी, जिसको भोंड़ा कह कर सूर्यकांत ने नौकरी पहले ही छोड़ दी थी। उसे तब और हैरानी होती है जब भगेलू पांडे यह कहता है-’’ जब मैंने प्रोजेक्ट की मंजूरी की खबर पढ़ी तो मुझे लगा कि मेरे बाबा कभी सूरीनाम गए ही नहीं।’’

निर्वासन में कई पात्र हैं और हर पात्र एक निर्वासन में जीने के लिये अभिशप्त है। ये लंबा उपन्यास दो पात्रों के मध्य संवादों के माध्यम से उस काल की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्थिति का वर्णन और उसकी विवेचना करता हुआ निर्बाध रूप से एक निर्वासन से दूसरे निर्वासन की यात्रा करता हुआ आगे बढ़ता रहता है।

मुझे सूर्यकांत के चाचा से संवाद अत्यंत रुचिकर लगते हैं। चाचा की बलवंतकौर से बेहद मोहब्बत है। लेकिन कभी व्यक्त नहीं कर पाये। 1984 में सिक्ख विरोधी दंगों में बलवंतकौर का परिवार सुलतानपुर से भटिंडा निर्वासित हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे मानव जाति के बेगानेपन और निष्ठुरता का शिकार होकर पंछी भी कहीं और निर्वासित होने के लिये बाध्य होते हैं।

चाचा एमरजेंसी में आमजन पर किये जा रहे बेपनाह जुल्मों के चश्मदीद गवाह ही नहीं स्वंय को उसका शिकार भी रहे हैं। वो इस बारे में जगह जगह टिप्पणी करता है। एक जगह वो कहते हैं - ‘‘सुलतानपुर शहर के लोगों ने अपने बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों का तब तक मुंडन नहीं कराया जब तक मुल्क में एमरजेंसी लागू रही।’’

Tuesday, September 23, 2014

आप परेशान हो तो मेरे ठेंगे से, हम नहीं मानेंगे।

-वीर विनोद छाबड़ा 

मित्रों, जिसने लखनऊ नहीं देखा उसके दिमाग में लखनऊ की तस्वीर एक ऐसे शहर की है जहां लोग सफाईकर्मी से भी 'आप' कहके पेश आते हैं। जहां गंगा- जमुनी तहज़ीब और इल्मो अदब की नदियां कल-कल करके बहती हैं।

मगर लखनऊ को बहुत भीतर तक देखने वालों को मालूम है कि लखनऊ को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। खासतौर पर जब विभिन्न महकमों के मज़दूर/कर्मचारी संघठन वेतन/भत्ते बढ़ाओ और कहीं पुलिस के ज़ुल्म के विरुद्ध प्रदर्शन करने पर उतारू हो जाते हैं। या अपनी ताकत का जोर दिखाने के लिए राजनैतिक दल अपनी लव लश्कर सहित फ़ौज ले आते हैं। प्रदर्शनकारी सड़क पर उतर आते हैं। ऐसी स्थिति में घंटों जाम रहता है। कभी कभी प्रदर्शनकारी अचानक अराजक भी हो उठते हैं। किसी को भी लखनऊ आने से रोकना पप्रशासन के बस की बात नहीं। राजधानी है लखनऊ। अपनी बात सुनाने और कहां जाएं?


इस शहर का ट्रैफिक जुगराफिया कुछ इस किस्म से बना है कि किसी भी अहम जगह पर जाम लगने से उसके साइड इफ़ेक्ट पूरे शहर की गली-गली तक दिखते हैं।

नतीजा ये होता है कि बिजली की आवाजावी, पीने के पानी की किल्लत, नाकाफ़ी स्वास्थ्य सुविधाएं, बजबजाती नालियों, उफनाते सीवर, जगह-जगह फैली गंदगी और अवैध कब्जों से बदहाल आम आदमी की ज़िंदगी पूरी तरह नरक बन जाती है।
भरी दोपहरिया में स्कूल से लौटते बच्चे बिलबिला उठते हैं, गंभीर रूप से रुग्ण रोगी अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं। कभी कभी तो प्रसव पीड़ा से गुज़रती महिला बीच सड़क पर प्रसव का खतरा उठाने के लिए स्वयं को विवश पाती है। अपनी अंतिम यात्रा पर निकले जिस्म भी कराह उठते हैं - यहीं कहीं क्रियाकर्म कर दो। अब इंतज़ार बर्दाश्त के बाहर हो चुका है। 

निर्दयी प्रदर्शनकारी आजू- बाजू  से निकलने की कोशिश कर रहे गरीब रिक्शे और साइकिल वालों के पहियों की हवा निकाल देते हैं। स्कूटर/बाइक वालों की चाबियां छीन ली जाती हैं। कई की ट्रेन/बस/फ्लाइट छूट जाती है। कोई इम्तिहान देने जा रहा है तो कोई इंटरव्यू। किसी को मांगलिक कार्यक्रम में और किसी को गमी में जाना था। 'वन्स इन लाइफ टाइम' का ये मौका छूट गया है। सिवाए सर के बाल नोचने और जिम्मेदारों को भद्दी-भद्दी गालियां देने के सिवा वो कुछ नहीं कर सकता।