-वीर विनोद छाबड़ा
'कागज़ के फूल'
का सेट लगा है। आज कई शॉट शूट होने हैं। इसके निर्माता और निर्देशक गुरूदत्त हैं।
उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है। उस ज़माने की बॉयोपिक समझ लीजिये। एक्स्ट्रा कलाकारों का झुंड
है। वो सबको सीन समझा रहे थे। हरेक को उसकी पोजीशन और भूमिका बता रहे हैं। एक एक्स्ट्रा
का मुंह दीवार की तरफ है। गुरू उससे खिजिया कर कहते हैं। मुंह इधर घुमाओ।
वो एक्स्ट्रा आर्डर
का पालन करता है। चेहरा थोड़ा झुका है। वो गुरू से कुछ छुपाना चाहता है। गुरू उसे ध्यान
से देखते हैं। कुछ याद करते हैं। कहीं देखा है? कहां?
वो एक्स्ट्रा कुछ बोल
नहीं पाता। उसकी आंखों से टप-टप आंसू टपकते हैं। गुरू को सहसा याद आता है। अरे आप मास्टर
निसार हैं? आप यहां कैसे?
गुरू के हाथ मास्टर
निसार के पांव छूने के लिए बढ़ते हैं। लेकिन मास्टर निसार उन्हें बीच में रोक लेते हैं।
नहीं, नहीं। ये आप क्या कर रहे हैं? मैं इस लायक नहीं हूं।
किस्मत ने आसमान से ज़मीन पर पटक दिया है।
गुरू उन्हें खींच कर
गले लगा लेते हैं। मास्टर जी, आप मेरे पूज्य हैं। आप एक्स्ट्रा का काम नहीं
करेंगे। आप सिर्फ आराम से बैठेंगे, बस।
मास्टर शंकित हो उठते
हैं। बैठूंगा तो रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी?
गुरू शंका का समाधान
करते हैं। जितने दिन तक फिल्म बनेगी, आप रोज़ आएंगे। इसी
कुर्सी पर बैठेंगे। यही आपका काम है और इसके लिए आपको पेमेंट होगा।
यह थी गुरूदत्त की
ग्रेटनेस। और फ़िल्म की थीम भी तो यही थी। वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न हम,
हम रहे न तुम।
और वो मास्टर निसार!
वो थे तीस के दशक के मशहूर नायक निसार। कलकत्ता के मदन थिएटर की खोज थे। प्रवाहवार
उर्दू बोलना और गाने के लिए बेहतरीन गला। यह दो खासियतें ही काफ़ी होती थीं,
उन दिनों किसी की किस्मत को परवाज़ पर चढ़ाने के लिए। १९३१ में जहांआरा कज्जन के
साथ उनकी जोड़ी 'शीरीं फरहाद' और 'लैला मजनूं'
बहुत हिट हुई थी। पब्लिक में उनके प्रति दीवानगी पागलपन की हद तक थी। उन दिनों
स्टार जैसी पदवी होती तो वो ज़रूर सुपर स्टार होते। लोकप्रिय एक्टर मास्टर कहलाहते थे।
और निसार इसीलिए मास्टर निसार थे।
बाद में बोलती फिल्मों
का युग आया। नए-नए एक्टर आये। लेकिन मास्टर निसार का जलवा तब भी बरक़रार रहा। बहार-ए-सुलेमानी,
मिस्र का खजाना, मॉडर्न गर्ल, शाह-ए-बेरहम,
दुख्तर-ए-हिंद, जोहर-ए-शमशीर, मास्टर फ़कीर,
सैर-ए-परिस्तान, अफज़ल, मायाजाल, रंगीला राजपूत,
इंद्र सभा, बिलवा मंगल, छत्र बकावली, गुलरु ज़रीना आदि अनेक
हिट फिल्मों के जनप्रिय हीरो मास्टर निसार।
लेकिन ऊंचाई पर पहुंच
कर बहुत देर तक खड़े रहना आसान नहीं रहता। किस्मत के रंग भी निराले होते हैं। सुनहरे
दिन हवा हुए। कुंदन लाल सहगल नाम का एक सिंगिंग स्टार धूमकेतु की तरह उदय हुआ। उसकी
चमक के सामने मास्टर निसार सहित कई फीके पड़ गए। मास्टरी छिन गयी। वो सिर्फ़ निसार हो
गए। करेक्टर रोल करने लगे और फिर छोटे-छोटे रोल से एक्स्ट्रा तक।
पचास और साठ के दशक
में शकुंतला, कोहिनूर, धूल का फूल, साधना, लीडर में दो-तीन मिनट
की छोटी छोटी भूमिकायें। जब तक पुराने लोग पहचानें, कैमरा उनके चेहरे से हट जाता था। 'बरसात की रात'
की मशहूर कव्वाली - न तो कारवां की तलाश है.…में वो भीड़ में बैठे
दिखे। 'बूट-पॉलिश' के सेट पर राजकपूर को बताया गया कि गुज़रे
ज़माने के मशहूर हीरो मास्टर निसार काम की तलाश में स्टूडियो के गेट पर खड़े हैं। दरियादिल
राज उन्हें लिवा लाये। फ़ौरन उनके लिए एक छोटा सा रोल क्रिएट कर दिया।
मास्टर निसार के आखिरी
दिन बहुत कंगाली में कटे। उन्हें हाजी अली दरगाह पर भीख मांगते हुए भी देखा गया। उस
वक़्त वो बहुत बीमार भी थे। जाने कब गुमनामी में ही वो दिवंगत हो गए। न कोई शव यात्रा।
न किसी की आंख से आंसू टपके और न कोई शोक सभा हुई और न ही कोई खबर छपी। किसी को उनके
मरने की तिथि तक याद नहीं है।
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Published in Navodaya Times dated 24 Sept 2016
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D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
mob 7505663626
रुला देने वाला वाक़या और दिल चीर देने वाली हक़ीक़त है यह । जो मास्टर निसार के साथ 'कागज़ के फूल' के सैट पर हुआ, शायद उसी को गुरु दत्त ने कागज़ के फूल की स्क्रिप्ट में उतार दिया क्योंकि 'कागज़ के फूल' का एक सीन हूबहू यही है जो फ़िल्म के नायक सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) के साथ होता हुआ दिखाया गया है । और 'कागज़ के फूल' के आख़िर में नायक की मौत भी उसी कुर्सी पर होती दिखाई गई है जिस पर बैठकर वह अपने बेहतरीन दिनों में फ़िल्में निर्देशित किया करता था । वक़्त और किस्मत सच ही बहुत बड़ी चीज़ें हैं । वक़्त से बड़ा कोई नहीं । कुछ-कुछ ऐसा ही वाक़या रणजीत स्टूड़ियों के संस्थापक चंदूलाल शाह के साथ भी उनके बुरे दिनों में हुआ था जब उन्हें रणजीत स्टूडियो से ही तब बेआबरू होकर निकलना पड़ा था जब उसके मालिक बदल चुके थे लेकिन अपने जज़्बाती लगाव के चलते चंदूलाल अपनी शरीक-ए-हयात गौहर के साथ वहाँ जाते रहते रहते थे और अपनी उसी पुरानी कुर्सी पर बैठते रहते थे । मास्टर निसार की मौत हद दर्ज़े की कंगाली में हुई और वे कब चल बसे, इसकी कोई ख़बर तक नहीं है, यह अपने आप में दिल दहला देने वाली बात है और 'कागज़ के फूल' के नग़मे - 'बिछड़े सभी बारी-बारी' की इस पंक्ति की याद दिलाते हैं - 'मतलब की दुनिया है सारी' । आज आपके इस लेख को पढ़कर मेरी आँखें भर आईं । कैसी है यह बेरहम दुनिया ! और यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !
ReplyDeleteबेरहम समय ने किसी को भी नही छोड़ा।
ReplyDeleteबेरहम समय ने किसी को भी नही छोड़ा।
ReplyDeleteकिस्मत कहाँ से कहाँ पहुंच देती है।वक़्त सबसेबड़ा है।सब तक़दीर के खेल हैं।मन भर आया।ऐसी ही जानकारी देते रहें।एंसीयक्लोपेडिया हैं आप।आपको नमन प्रणाम।रमेश अरोरा 9415029805
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