Monday, August 31, 2015

रात बिलासपुर से चली ट्रेन सुबह बिलासपुर में खड़ी मिली।

-वीर विनोद छाबड़ा
मार्च १९७४. मैं लखनऊ से बिलासपुर गया था मामा से मिलने। लखनऊ से इलाहाबाद, वहां से कटनी और फिर बिलासपुर। तीन बार ट्रेन बदलनी पड़ी। कोई दिक्कत नहीं हुई। ठीक-ठाक पहुँच गया। कुछ दिन रहने के बाद वहां से उसी रूट से वापसी हुई।
बिलासपुर से ट्रेन छूटने का समय रात दस बजे। सुबह-सुबह कटनी पहुंचना। फिर वहां से लखनऊ वाया इलाहबाद।
बिलासपुर स्टेशन पर मामा आये छोड़ने। पता चला ट्रेन आधा घंटा लेट छूटेगी। मैंने मामा से कहा, आप जाओ। रात ज्यादा हो रही है।
मामा चले गए। थ्री टीयर में ऊपर का बर्थ। मैंने चद्दर बिछाई और लेट गया। दिन भर का थका था। जाने कब आंख लग गयी।
नींद खुली तो रात को बिदा करने वाला धुंधला सा सवेरा था। ट्रेन किसी स्टेशन पर खड़ी थी। चाय की तलब लगी। बर्थ से नीचे उतरा। ट्रेन से उतर कर प्लेटफॉर्म पर आया। लगा ये कोई जानी-पहचानी जगह है। दिमाग पर जोर डाला। कुछ याद नहीं आ रहा था। कोई पूर्व जन्म का नाता तो नहीं! फिल्मों में ऐसे सीन कई बार देखे थे।
उत्सुकतावश मैंने एक सहयात्री  से पूछा - कौन सा स्टेशन है?
उसने मुझे हैरानी से देखा और रहस्यमयी अंदाज़ में बोला - आप को पता नहीं? आप जहां कल रात थे, अभी भी वहीं हैं।
मुझे तो काटो खून नहीं - क्या कह रहे हैं आप ?
वो तनिक तल्खी से बोला - बिलासपुर में ही हैं। ट्रेन चली ही नहीं जनाब। यह रेलवे वाले भी.…  
माज़रा पूछा तो पता चला कि गॉर्ड लोगों ने किसी मुद्दे पर फ़्लैश स्ट्राइक कर दी है। उन दिनों ऐसा ही होता था। रेलवे में क्या पूरे भारत में अराजक माहौल था। किसी न किसी बहाने पूरा महक़मा स्ट्राइक पर चला जाता था। ये भी पता नहीं था कि यह स्ट्राइक कब ख़त्म होगी।
तय किया कि वापस मामा के घर पास जाऊं। टिकट वापसी का कोई झंझट है नहीं। पिताजी का रेलवे पास है। हां, इसकी एक्सपायरी उसी दिन रात बारह बजे तक की ही थी। दो-चार दिन में जब माहौल कुछ शांत हो जाये तभी निकलूं। बस किराया जेब से खर्च करना पड़ेगा। 
तभी हलचल हुई। पता चला कि स्ट्राइक ख़त्म हो चुकी है। बस ट्रेन किसी भी क्षण रवाना होने को है। राहत की सांस ली। बस दिल में यही ऊहापोह थी कि आगे कटनी से इलाहाबाद का कनेक्शन और फिर वहां से लखनऊ का कनेक्शन मिल पायेगा? अपनी परेशानी सहयात्री से बताई।
वो बोला - मुझे भी इलाहाबाद जाना है। कटनी से इलाहाबाद को कई ट्रेन हैं। कोई न कोई तो मिलेगी।
खैर शाम चार बजे कटनी पहुंचा। भागते हुए इलाहाबाद की ट्रेन पकड़ी। यह वही ट्रेन थी जो मुझे दिन में बारह बजे मिलनी थी। लेट चल रही थी। रात एक बजे इलाहाबाद पहुंचा।
उस दिन भाग्य अच्छा था। हर आशंका निर्मूल साबित हो रही थी। इलाहाबाद से जिस ट्रेन को रात दस बजे छूटना था वो भी काफी लेट थी। बस छूटने ही वाली थी। ट्रेन में बैठते ही ख्याल आया कि मेरा रेलवे पास
तो कुछ घंटे पहले एक्सपायर हो चुका है। टिकट लेना याद ही नहीं रहा। इधर ट्रेन ने प्लेटफॉर्म भी छोड़ दिया। एक बैचेनी दिलो-दिमाग पर छा गई।
भगवान से मनाता रहा कोई टीटीई चेकिंग करने न आ धमके। काश! उस वक़्त अगर मैं टीटीई की जगह सिर्फ भगवान को याद करता होता तो ज्यादा अच्छा होता। टीटीई महोदय चेक करने आ धमके। मैं पसीना-पसीना था। क्या बोलूंगा मैं? और क्या करेगा टीटीई? खैर, टीटीई आया -टिकट।

Sunday, August 30, 2015

अब नहीं मिलतीं मैडम डिकोस्टा जैसी।

-वीर विनोद छाबड़ा
उनका नाम था मैडम डिकोस्टा। यह असल नाम नहीं है। दरअसल, हालात पहले जैसे खुशगवार नहीं हैं। 
मैडम डिकोस्टा मुझसे चार-पांच साल बड़ी थीं। जब हमने बिजली बोर्ड में नौकरी शुरू की तो वो पहले से वहां मौजूद थीं। काफी सीनियर। बिंदास अंदाज़। मगर एक कम्पीटीशन में हम पास होकर उनसे आगे निकल गए।
वो जूनियर हो गयीं और बंदा सीनियर। उन्होंने शेकहैंड करके मुबारक बाद दी। हमने उन्हें शुक्रिया कहा। कभी-कभी बात होती थी। लेकिन हाय, हेलो तक सीमित।
अपने बिंदास अंदाज़ के कारण वो बहुत मशहूर थीं। स्वाभाविक है कि चाहने वालों की फहरिस्त भी लंबी होनी थी। लेकिन क्या मज़ाल कि कोई उल्टा-सीधा कमेंट कर यूं ही बिना प्रसाद प्राप्त किये निकल जाए। लिहाज़ा ख़ौफ़ भी था उनका।
उम्र के तकाज़े के कारण हम उनसे खुल नहीं पाये। कर्मचारी संघ में उनका काफी दख़ल देखा।
भाग्य के चक्र ने कुछ ऐसा गुल खिलाया कि उनके कैरियर के आखिरी एक-डेढ़ साल हमारे अधीन कटे।
वो सेक्शन ऑफिसर और हम डिप्युटी सेक्रेटरी। धीरे-धीरे दोनों खुलने लगे। हंसी-मज़ाक शुरू हो गया। बिलकुल बिंदास। न उनके दिल में मैल और न हमारे।
मैडम डिकोस्टा कभी किसी उम्रदराज़ से बात करती दिखतीं तो हम चुटकी लेते - कहां गुज़रे ज़माने से रुबरु हैं। इधर देखिये। माशाल्लाह अभी काफी उम्र बची है। देखने में इतने बुरे भी नहीं।
वो ज़ोर से हंस देतीं। मगर कल के लिए कुछ नहीं छोड़ती थीं। पलट कर कहतीं - न खंजर उठेगा और न तलवार इनसे, ये बाज़ू मेरे आजमाए हुए हैं।
मज़े की बात ये है कि इस नज़ारे को देखने वालों और बातचीत सुनने वालों को कभी कोई ऐतराज़ भी नहीं हुआ। सब जानते थे वो क्या हैं और हम क्या हैं।
हम अपने काम-काज में बड़ी मेहनत करते थे। लिहाज़ा कामचोर पसंद नहीं थे। अधीनस्थों को भी जम कर काम करना पड़ता था और इमरजेंसी को छोड़ कर पांच बजे से पहले ऑफिस छोड़ना सख्त नापसंद करते थे।
मैडम डिकोस्टा को रही पांच बजे की चाय घर पर पीने की आदत। हमारे रहते इसे उन्हें बंद करना पड़ा। अर्जेंसी के दृष्टिगत कई बार शाम देर तक रुकना भी पड़ा। बस यही एक ऐसी आदत थी हमारी, जिसके कारण हमारी गिनती उनकी सख्त नापसंद वालों की फेहरिस्त में टॉप फाइव में रही।
बहरहाल वो दिन भी आया जब मैडम डिकोस्टा रिटायर हुईं। जाते-जाते उन्होंने हमारी शिकायत की - जितना काम मैंने ३५ साल की नौकरी में नहीं किया उससे कहीं ज्यादा पिछले साल भर में करना पड़ा।

Saturday, August 29, 2015

आई एम मोर क्लेवर देन यू।

-वीर विनोद छाबड़ा
जब हमने होश संभाला तो घर में उर्दू का माहौल पाया। पिताजी अंग्रेज़ों के ज़माने के दसवां दरजा पास थे मगर उर्दू और हिंदी के साथ अंग्रेज़ी के नावेल फर्राटे से पढ़ते थे और बोलते भी थे। हमें कई अंग्रेज़ी फ़िल्में दिखायीं
और अर्थ भी बताते रहे।
इसके अलावा क्रिकेट और सिनेमा के शौक ने अंग्रेज़ी में रनिंग कमेंटरी, अख़बार में स्कोर बोर्ड और मैच का तब्सरा, सिनेमा के विज्ञापन पढ़ने को बाध्य किया। इंटरमीडिएट तक अंग्रेज़ी सब्जेक्ट भी रहा। लेकिन पुरखों और हमारे ज़माने की अंग्रेज़ी में ज़मीन-आसमान का अंतर रहा। जैसे-तैसे हिंदी मीडियम में एमए किया। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी की। १९९० में जनता दल की  सरकार आने से पहले तक काम-काज की भाषा अंग्रेज़ी रही।
मक़सद ये बताना है कि काम चलाऊ से थोड़ा बेहतर अंग्रेज़ी का ज्ञान रहा है हमें।
जब डबल एमए पास पत्नी के अंग्रेज़ी ज्ञान का हमें ज्ञान हुआ तो थोड़ी राहत मिली। वो मेट पर रैट, कैट आफ्टर रैट, सिट ऑन चेयर, टेबुल पे डिनर रेडी टाइप की अंग्रेज़ी में प्रवीण थीं। कभी-कभी 'एज़ ए मैटर ऑफ़ फैक्ट' भी बोल देती थी। इसी ज्ञान की धमक पर ससुराल में ज़बरदस्त इज़्ज़त मिली। अड़ोस-पड़ोस वालियां भी दहशत में रहीं।
ये बात नब्बे के दशक के मध्य की है। बेटा एक अंग्रेज़ी स्कूल में था। सातवें या आठवें में रहा होगा।
बलिहारी अंग्रेज़ी स्कूलों की और अंग्रेज़ी का एक सेंटेंस भी ढंग से न बोल सकने वाली हमारी मेमसाब की। बेटे को पढ़ाने में उन्हें ज़रा भी दिक्कत नहीं होती थी।
एक दिन स्कूल से बेटे को 'लीडर ऑफ़ इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल' पर निबंध लिखने को कहा गया।
मेमसाब बोली, पापा की अंग्रेज़ी अच्छी है उनसे हेल्प ले लो।
बड़ी ख़ुशी हुई कि मेमसाब ने कहीं तो हमारी लियाकत का लोहा माना। हमने बेटे को बड़ी ख़ुशी और उत्साह से निबंध लिखवा दिया। आखिर में ये भी लिखवा दिया -हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। 
टीचर ने रिमार्क लिखा -वेरी पूअर। री-राईट।
अब मेमसाब की बारी थी। उस दिन ज़बरदस्त क्लास लगी। क्या गत हुई हमारी और हमारी अंग्रेज़ी की, हम ही जानते हैं।
हमने लाख समझाया -हमारी अंग्रेज़ी हाई-क्लास है। टीचर को समझ में नहीं आई होगी।
लेकिन सब बेकार। मेमसाब को तो हमेशा से हमारे कुल ज्ञान पर शक़ रहा। अब स्कूल वालों ने भी पुष्टि कर दी। बेटे की नज़रों में भी गिर गया - मम्मी ठीक कहती हैं। पापा को कुछ भी नहीं आता।
बहरहाल, मेमसाब के अल्प अंग्रेज़ी ज्ञान की मदद से बेटे ने फिर से निबंध लिखा।
टीचर का रिमार्क आया -एक्सलेंट ।
हमने माथा पीट लिया। राम मिलाइंन जोड़ी एक अंधा,एक कोढ़ी। अंधेर नगरी,चौपट राजा। कई कहावतें और मिसालें मेरे दिमाग में कई दिन तक गर्दिश करती रहीं।

Friday, August 28, 2015

फूलों का तारों का सबका कहना है.…

-वीर विनोद छाबड़ा
रक्षा बंधन के दिन आते ही यूनिवर्सिटी के दिनों की याद आती है। माहौल में डरावनापन और अनिश्चतता रहती थी। दिल धक धक करता होता था। ऐसा न हो कि जिस पर लाईन मार रहे हैं, वो राखी बांध कर ट्रेन को डी-रेल न कर दे।

एक सहपाठिनी ने मुझे बता रखा था कि उसके पर्स में हर वक़्त दो-तीन राखियां रहती हैं। किसी ने बुरी नज़र डाली नहीं कि कलाई पर राखी बंधी। और अगला यही कहने पर मज़बूर हो जाता था - फूलों का तारों का सबका कहना है एक हज़ारों में मेरी बहना है।
हो सकता है वो मुझे डराने और अपने दूर रहने का ईशारा करती हो। मैं भी दूर-दूर रहने का प्रयास करता था।
लेकिन वो थी कि जैसे ही मुझे देखती लपक कर आ जाती। हाऊ आर यू?
फिर पिंड छुड़ाना पड़ता। एक बार तो झल्ला कर हाथ आगे ही बढ़ा दिया। ले बांध ले राखी। कर ले पूरे अपने अरमान। बहना ने भाई की कलाई पर पे प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बांधा है, रेशम की डोरी से संसार बांधा है.
लेकिन वो ही-ही कर के यह कहते हुए निकल लेती। नहीं, जिस दिन हद पार की, उस दिन।
हे भगवान। अजीब पहेली नुमा लड़की।
यूनिवर्सिटी में पढाई ख़त्म हुई। आख़िरी दिन वो दिखी नहीं। जाने कहां चली गई?
कई साल गुज़र गए।
एक दिन ऑफिस में फ़ोन आया। बहुत दिमाग ख़राब है। इधर-उधर बहुत देखते हो। पकड़ कर अंदर कर दूंगी। पुलिस वाली हूं।
मैं बहुत घबराया। पसीना-पसीना हो गया। बाल-बच्चों वाला शरीफ़ आदमी। नौकरी पर भी खतरा दिखने लगा। मैं देखिये बहन जी.सुनिए बहन जी करता रहा।
और वो मुझे हड़काती रही। फिर वो अचानक बड़ी ज़ोर से हंसी। बुद्धू, मैं.वही पर्स में राखी रखने वाली बोल रही हूं। तुम जैसों को सबक सिखाने के लिए पुलिस इंस्पेक्टर बनना पड़ा।

मैंने राहत की लंबी और गहरी सांस ली। मुझे हैरत हुई। मेरा पता कहां से मिला?
अरे भाई कहा न पुलिस वाली हूं। कोई छुप सकता हैं मुझसे। आकाश-पाताल और धरती कहीं से भी ढूंढ़ निकालूंगी।
काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। उसने मेरे परिवार के बारे में जानकारी ली।
मैंने उसके परिवार के बारे में पूछा। उदास हो गयी। तुम जैसे भाइयों ने ध्यान ही नहीं रखा। कैसे होती शादी?

Thursday, August 27, 2015

ऑटो चालक के पक्ष में वोट डाला।

-वीर विनोद छाबड़ा
कल शाम की बात है। लखनऊ के मुंशी पुलिया चौराहे पर ऑटो वालों और पब्लिक के बीच कुछ ठनी-ठनी वाली सूरत थी।
यों ये रोज़ का नज़ारा है। मगर कल माहौल में तपिश ज्यादा थी।
एक ऑटो चालक पर इलज़ाम था कि उसने ज्यादा चार्ज किया है।

ऑटो चालक कह रहा था कि उसने प्रशासन द्वारा निर्धारित किराया ही वसूला है।
सवारी अड़ी हुई थी ये ज्यादा है। इतनी महंगाई है और ऊपर से ऑटोवाले लूट रहे हैं।
ऑटो ड्राइवर बोला -
सरकार से कहो। सीएनजी के दाम कम करा दो। एक्ससाइज़ घटाओ। पेट्रोल और डीज़ल पर वैट फ़िक्स करने की नीति वापस लो।
रोड टैक्स हटा दो। आरटीओ में घूसखोरी बंद करा दो।
बिजली के दाम कर दो। चोरी रुकवा दो।
आटा-दाल-चावल सस्ता करा दो। किरयाने की दुकान पर बहस करते हो कि टूथ पेस्ट महंगा क्यों है, चीनी दाल चावल आटा क्यों महंगा?
हमसे और रिक्शवाले की रोज़ी-रोटी पर डाका डालने को हर वक़्त तैयार रहते हो।
मज़दूर मिस्त्री को उसके परिश्रम के पूरे दाम नहीं चुकाते। बल्कि तय समय से भी ज्यादा देर तक काम लेना चाहते हो।
कामवाली बाईयों का जम कर शोषण करते हो।
डॉक्टर दो मिनट देखता है। उसे पांच रूपए फ़ीस देते हुए जान नहीं निकलती। रसीद तक नहीं मांगते।

Wednesday, August 26, 2015

किस्म-किस्म के कुत्ता टहलाऊ!

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह मॉर्निंग वॉक पर निकलता हूं। ज़ंजीर से बंधे कुत्तों को टहलाते किस्म-किस्म के टहलाऊ नज़र आते हैं।
१) वो जिनके लिए कुत्ता स्टेटस सिंबल है।
२) वो जो अपनी सेहत के साथ-साथ कुत्ते की भी सेहत का ख्याल रखना ज़रूरी समझते हैं।
३) वो जो कुत्ते के बहाने खुद भी टहलते हैं।
४) वो जो कुत्ते के मालिक नहीं हैं, नौकर हैं। महज़ कुत्ता टहलाने, उसे टाईम-टाईम पर पॉटी और सू-सू कराने और दिन भर उसकी देख-रेख के लिये रखे गए हैं। बड़े लोग बड़ी बातें। 
५) वो जो अपनी मौजूदगी की दहशत फैलाने की ग़रज़ से आगे पीछे दो-तीन मुश्टंडे किस्म के कुत्ते लेकर निकलते हैं।
६) वो जो कुत्ते को उसकी इच्छा के विरुद्ध लगभग घसीटते हैं।
७) वो जिन्हें कुत्ता उनकी इच्छा के विरुद्ध घसीटता है। 

८) वो जिनके हाथ में डंडा दिखता है। इसका इस्तेमाल वो अपनी फीमेल डॉगी के पीछे लगे दर्जन भर आवारा कुत्तों को भगाने के लिए करते हैं।
हमने कभी-कभी कुत्ते को लेकर बवाल होते भी देखे हैं। मुद्दे हमेशा कॉमन रहे हैंआपके कुत्ते ने मेरे पप्पू को काट लिया.तो आप अपना पप्पू संभाल कर रखा करेंवाह, ये तो चोरी और सीनाजोरी वाली बात हुई.कुत्ता पाला है तो कुत्ते को तमीज़ सिखाओ और साथ में खुद भी कुत्ता पालने की तमीज़ सीखो।
बाज़ वक़्त बात बढ़ते-बढ़ते मारपीट और थाना-कचेहरी तक पहुंच जाती है। मोहल्ला सुधार-समिति  बीच-बचाव करके मामला शांत कराने का प्रयास करती है। इतिहास भी पढ़ा है हमने। दो बड़े परिवारों के कुत्ते आपस में भिड़े। बात इतनी बढ़ी कि कुत्ते पीछे हो गए। इंसान इंसान का दुश्मन बन गया। खून-खराबा हुआ। कई पीढ़ियों से चली आ रही है यह दुश्मनी। लहू बह रहा है कुत्तों का। तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा सफ़ेद क्यों भला?  
बहरहाल हम खसक लेते हैं। कुत्तों की लड़ाई है। हमारा क्या इंटरेस्ट? हम कोई कुत्ता पालक या कुत्ता प्रेमी तो हैं नहीं। 
लेकिन एक बार फंस ही गए।
हुआ यों कि एक कुत्ता टहलाऊ साहब को सामने से आता देख कर उनके मित्र को मज़ाक सूझी - अरे भई, सुबह-सुबह ये गधे को कहां टहला रहे हो?
कुत्ता टहलाऊ सख़्त नाराज़ हुए  - अजीब अहमक क़िस्म के शख्स हैं आप! आंखें हैं या बटन। आपको ये गधा दिखाई देता है?
उनके मित्र माफ़ी मांग कर इतनी जल्दी फाईल बंद करने वालों में नहीं थे - अरे भई, मैं आपसे नहीं कुत्ते से मुख़ातिब हूं।
बस फिर क्या था। कुत्ता टहलाऊ साहब बिगड़ गए। मल्लयुद्ध की स्थिति आ गयी। यकीनन, मज़ाक बड़ा भद्दा था। वो भी सुबह-सुबह। राम, राम। कोई भी होता बिगड़ जाता।
अब वो दोनों ही मेरे पड़ोसी थे और अच्छे मित्र भी। दुःख सुख में अक़्सर काम आये। मध्यस्था तो करनी ही थी। समझाने-बुझाने पर बिना कुत्ते वाले मित्र ने कुत्ते वाले मित्र से माफ़ी मांगी। सीज़ फायर हो गया।
लेकिन कुत्ते वाले मित्र के मन में कसक रह गई कि अगला माफ़ी बेमन से मांगी है। उन्हें रह-रह कर टीस उठती। न चाय हुई, न पानी। दोनों के मुहं फूले रहे। बात दोनों की पत्नियों तक भी पहुंच गयी। सीधे-सीधे वॉर की जगह, एक नया फ्रंट खुल गया। छुट-पुट गोलाबारी होती रहती। सीज़ फायर का उल्लंघन।
किसी बड़े महायुद्ध की आशंका के दृष्टिगत और एक आदर्श व ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते हमीं ने पहल की। दोनों को सपत्नीक चाय पर बुलाया। शांति के लिए पहले से तैयार ज़बरदस्त इमोशनल अपील की। गले मिलाया। सारे गिले-शिकवे जाते रहे।
चाय-पानी, समोसा, जलेबी, पेस्ट्री, सेब, केला आदि पर हमारे ज़रूर हज़ार रूपए खर्च हो गए।

Tuesday, August 25, 2015

अंतिम पड़ाव हरिद्वार, सदियों से चलती परंपरा।

-वीर विनोद छाबड़ा 
मोक्ष प्राप्ति हेतु हरिद्वार में अस्थि-विसर्जन। पुरखों द्वारा स्थापित यह परंपरा दिल को भाती है।
सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई। मालूम नहीं। अपने परिजनों की अस्थियों लेकर कई बार हरिद्वार जाना हुआ है। आख़िरी बार २००१ में गया था। मां की अस्थियां लेकर। मेरे साथ मित्र और पड़ोसी विजय भटनागर था।

हरिद्वार पहुंचे नहीं कि पंडों के एजेंटों ने घेर लिया। कहां के हैं?
मैंने पुश्तैनी शहर और अपने पंडे का नाम बताया तो छिटक गए। कोई पंडा दूसरे पंडे का केस नहीं छीनता। स्वस्थ परंपरा है।
पंडे के पास जाने से पहले कनखल पहुंचे। गंगा जी की बहुत तेज धारा। स्वच्छ और निर्मल। तलहटी तक दिखती है। हड्डियों ही हड्डियां बिछी हुई थीं। पानी कमर से नीचे है।
पंडित जी लपके। वो दक्षिणा की रक़म पहले ही बता देते हैं।
जिसने बड़े प्यार और कष्ट से पाल-पोस कर बड़ा किया, उसके नाम पर कोई सौदेबाज़ी नहीं।
अस्थियां प्रवाहित करके हम 'हर की पौड़ी' पहुंचे। 
जब हम अपने पंडे जी के डेरे पहुंचे तो उन्हें इंतज़ार करते पाया। उन्हें सूत्रों से हमारी आमद की ख़बर मिल चुकी थी।
एक पुराना लेजर खोला। छह साल पहले का वो पृष्ठ दिखाया। इस पर मेरे हस्ताक्षर थे। तब मैं पिता की अस्थियां प्रवाहित करने आया था।
पंडे जी ने पूछा क्या लाये हैं? मुझे शॉक लगा और अजीब सा भी। पिछली बार तो ऐसे नहीं पूछा था। जो दिया, रख लिया था।
अब ज़माना बदल गया है। एक मुश्त डील ठीक रहती है। पूजा, और हवन साम्रग्री और फीस सब इसी में। गऊ दान भी।

मैंने ऊंची रक़म बता दी। पंडे जी ने सौ बढ़ा दिए।
वस्त्र मेरे नए थे। पूजा और स्नान पश्चात इन्हें वहीं छोड़ना होता है। पंडे जी ने एक चेले की ओर इशारा किया। वस्त्र इन्हें दे दो। ग़रीब है। भला हो जाएगा।
फिर पंडे जी ने लेजर में हमारी एंट्री की। क्यों और किसके लिए आये? पिता का नाम, दादा और परदादा का नाम और उनके पिता का नाम। पत्नी और उसके मायके का खसरा-खतौनी दर्ज किया। साथ गए मित्र के खानदान का भी पूर्ण विवरण। हस्ताक्षर लिये।
मैंने पिछली सात पुश्तों के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रकट की।
पंडे जी ने सर हिलाया। मगर दो-तीन दिन रुकना होगा। पिछले डेढ़-दो सौ साल और उससे भी पहले के दौर के जिंतने पुरखे यहां आये और वो किनकी अस्थियां लेकर आये, सब पता चल सकता है।
लेकिन नियमानुसार काम ख़त्म कर पल भर भी रुकना मना है। हम लौट लिये।  
कई साल पहले पिताजी पिछली कई पीढ़ियां का इतिहास यहां से खंगाल गये थे। उन्हें अपने अतीत में झांकने और खानदान की जड़ों की गहराई नापने की प्रबल चाह रही थी।
सालों पहले आवागमन के साधन सीमित थे। हरिद्वार से छह-सात सौ मील दूर मियांवाली (अब पाकिस्तान में) में जब भी कोई दिवंगत होता तो उसकी अस्थियां पोटली में बांध कर मंदिर में रख दी जातीं ।

Monday, August 24, 2015

सपनों में मिलती है ऐसी कुड़ी।

-वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरे अधीनस्थ कार्यालय में तैनात थी। मुझे चार-पांच साल छोटी होगी। अक्सर आया करती थी। फाईल के साथ किसी न किसी मुद्दे पर वार्ता करने। काम हो जाता तो मैं कहता कि ठीक है। मतलब यह कि जाओ।
लेकिन वो फिर भी बैठी रहती। किसी महिला को सीधे-सीधे यह कहते हुए मुझे ख़राब लगता था कि अब आप जायें कृपया। वो विवाहित भी थीं। दो बड़े-बड़े बच्चे भी। पति भी अच्छे थे। उससे बहुत खुश रहती थी।
वो अनेक देवी देवताओं की ज़बरदस्त भक्त। मुझे कई बार बता चुकी थी कि देवी मां की पर उस पर असीम कृपा है। हर मुराद पूर्ण हुई है। मुझे डर लगा कि कहीं श्राप न दे दे।
कर्मचारियों की नेता भी थी। ढाई-तीन हज़ार की भीड़ को बेझिझक संबोधित करने की हिम्मत। जब चाहे पिटवा दे।
मरदों को पीटने के कई किस्से सुना चुकी थी। शायद इरादा मुझे सावधान करने का था।
महिलाओं का उत्पीड़न रोकने हेतु समिति की भी वो सदस्य थी। मुझे बता चुकी थी कि उसकी शिक़ायत पर फलां अफ़सर का दूर ट्रांसफ़र हो चुका है।  
मैंने कई बार सपनों में उसके श्राप से ग्रसित होकर स्वयं को विशालकाय डायनासौर से लेकर तुच्छ मेंढक तक बना देखा।
एक बार तो बड़ा भयानक सपना आया। महिला उत्पीड़न समिति ने मुझे मुर्गा बनाया हुआ है।
सपनों में अपने को पिटता तो आये दिन देखा। बहरहाल, पिटने वालों में एक यूनिवर्सिटी में उसका क्लासफैलो भी रहा। संयोग से उसका एक अन्य क्लासफैलो मेरा सहकर्मी भी था। रिटायर हो चुका था। मुझसे यदा-कदा मिलने आता था। लेकिन जब-जब उस मोहतरमा ने प्रवेश किया वो भाग खड़ा हुआ। मुझे शक़ हुआ कि पिटने वाला कहीं यही तो नहीं। मैंने कई बार तहक़ीक़ात की। लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।
जब कभी वो नहीं आती थी तो मैं शुक्र मनाता। लेकिन जब वो लंबी छुट्टी पर चली जाती, तो ख़राब ख़्याल आते कि कहीं अस्वस्थ तो नहीं।
वो बहुत ख्याल भी रखती थी। उसे मेरे चाय का टाईम मालूम रहता। किस मेहमान को चाय ऑफर करनी है और किसे सिर्फ़ पानी पिला कर विदा कर देना है, यह भी वो याद रखती। इतनी केयर तो सिर्फ़ एक ही महिला रखती थी। और वो मेरी मां थी।
कई बार उसने अपनी पारिवारिक दिक्क्तें शेयर कीं। आर्थिक मदद भी मांगी। तय समय पर पैसे भी लौटा दिए।
वो खाली बैठ कर मुझे डिस्टर्ब नहीं करती। कभी-कभी डिक्टेशन लेनी शुरू कर दी। कम्प्यूटर ऑपरेटर इधर-उधर होता तो  उसे भी संभाल लेती।
कुछ लोगों की निगाह में उसकी मौजूदगी मेरी पहचान बन गयी। और आदत भी। शुभचिंतक तो कई बार आग़ाह भी कर चुके थे। दुश्मन मुझे 'गीला' टाईप अफ़सर प्रचारित करने से भी नहीं चूके। लेकिन मैंने परवाह नहीं की। मेरे लिए महज़ कर्मचारी है। मदद ही करती है। 
जब मेरे रिटायर होने को महीना भर बाकी रह गया तो उसने आना बंद कर दिया। याद नहीं आया कि कोई ऐसी-वैसी बात मैंने की हो।
आख़िरी दिन वो आई। मैंने कहा। बड़ी लंबी छुट्टी मारी।

Sunday, August 23, 2015

बड़ी बहन - आया मुझे याद गुज़रा ज़माना बचपन का।

-वीर विनोद छाबड़ा
मेरी बड़ी बहन बीकानेर में रहती है। मुझसे तीन साल बड़ी। बेहद नज़दीक से मेरे बचपन को देखने वाली एक मात्र गवाह।
मेरी एक छोटी बहन भी है। साथ-साथ खूब खेले और झगड़े हैं हम। याद नहीं आता कि बड़ी बहन ने मेरी पिटाई की हो कभी। वो मेरे उस बचपन की यदा-कदा याद दिलाती है जो मेरे स्मृति पटल पर नहीं है।

बड़ी बहन को ब्याहे हुए लगभग ४६ साल हो गए हैं। तब से आज तक राखी और भाई दूज का टीका और साथ में ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद भेजना कभी नहीं भूली। पहले पिता जी परलोक वासी हुए और फिर माता जी। लेकिन उसने मुझे कभी अनाथ महसूस नहीं होने दिया और न ही कभी टूटने दिया, बावजूद इसके कि वो हज़ार किलोमीटर दूर है।
आज ही कोरियर से उसकी राखी मिली है, साथ में ख़त भी। लिखती है -
फेस बुक पर तुम्हें प्रतिदिन पढ़ती हूं। खूब बढ़िया लिखते हो। लिखते रहो। कभी कभी बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं। सच में वो दिन बहुत अच्छे थे। शरारतें भी करते थे और डांट भी खाते थे। तुम्हें मां से खूब डांट पड़ती।  वो कभी कभी कपड़े धोने वाले सोटे से तुम्हारी पिटाई भी करती। पर मैं मां का हाथ भागकर पकड़ लेती। इस चक्कर में एक-आध सोटा मुझे भी पड़ जाता। फिर्फ तुम रोते हुए एक कोने में बैठ जाते और देर तक सुबकते रहते। मां को बहुत दुःख होता। थोड़ी देर बाद मां तुम्हें मनाने के लिए तुम्हारी पसंद का कुछ न कुछ बना कर तुम्हें खिलाती। फिर तुम सब कुछ भूल कर ऐसी-ऐसी हरकतें करते थे कि मां के साथ-साथ हम सब हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाते। यह सब यादें आलमबाग वाले मकान से जुड़ी हैं।
मेरे पास भी बहन की अनेक यादें हैं। मुझे याद है बहन तब आठवें या नवें में पढ़ती थी। उस ज़माने में लड़कियों के पाठ्य-क्रम में कुकिंग और सिलाई का अनिवार्य सब्जेक्ट था। स्कूल वालों को सिर्फ़ परीक्षा वाले दिन इसकी याद आती थी।
जिस दिन बहन की परीक्षा होती थी उस दिन मुझे कुकिंग के सामान से भरी एक टोकरी और एक छोटी से अंगीठी मय लकड़ी-कोयला और दियासलाई लाद साथ चलना पड़ता। जब तक एग्जाम ख़त्म नहीं हो जाता उसके स्कूल के आस पास मंडराता रहता। ताकि किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो भाग कर घर से ले आऊं।

Saturday, August 22, 2015

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया.…

-वीर विनोद छाबड़ा
यह कमबख़्त मोहब्बत भी अजीब शै होती है। आदमी को इंसान बना देती है और इंसान को हाईपर टेंशन से मारा शायर, फ़िलॉसफ़र और मजनूं भी। झाड़ की तरह बढ़ी हुई दाढ़ी। उनींदीं लाल-लाल आंखें। कई दिन से न सोया और न ही नहाया भूखा और बीमार इंसान। तन से आती बदबू और मैले कपड़े। बस हाथ में कटोरा पकड़ाने भर की देर है।

ठीक ऐसा ही होता था हमारे ज़माने का भी मजनूं।
आंख लड़ी। आंखों ही आंखों में ईशारा हुआ। मगर बात नहीं हो पायी। मिलने का इशारा किया।
हाय, कोई देख लेगा तो क्या कहेगा? देखने वाले तो क़यामत की नज़र रखते हैं। एक पल में ताड़ जाएंगे कि मामला 'गड़बड़' है।
इब्तदा इश्क़ में हम भूखे रह कर महीनों सारी रात जागे।
ख़तो-किताबत की हिम्मत नहीं हुई। ख़ामख़्वाह मुन्नी बदनाम होगी। न जाने कितने ख़त तेरी याद में लिख डाले। न जाने कितने अफ़साने बने, तराने बने।
मगर नामुराद झिझक न गयी। इसी चक्कर में दो साल ज़ाया हो गए। यूनिवर्सिटी में कार्स भी ख़त्म हो गया। इज़हार-ए-मोहब्बत इंतजार ही करता रह गया।
वो आख़िरी दिन था। बड़ी हिम्मत कर हमने ख़ून-ए-जिगर से हाल-ए-दिल बयां करता ख़त लिखा। दोस्त को क़ासिद बनाया।
मगर हाय! क़िस्मत में न बदी थी तू। अहमक़ क़ासिद को ही महबूब समझ बैठी। नामाकूल क़ासिद रक़ीब बन बैठा। दोस्त दोस्त न रहा, प्यार प्यार न रहा। क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा कि यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे।
शहनाई बजी। सात जन्मों के परिणय सूत्र में बंध गए दोनों।
कहारों ने डोली उठाई। हम दूर खड़े धूल का उठता गुब्बार देखते रहे।
कलेजे पर पत्थर रख ग़म मिटाने शाम ढ़ले गोमती किनारे पहुंच गए। बैकग्राउंड से अनगिनत नग़मे गूंज उठे.मिली ख़ाक में मोहब्बत जला दिल का आशियानाऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहींमहफ़िल से उठ जाने वालों तुम लोगों पर क्या इलज़ामखाली डब्बा खाली बोतल
हमदर्द दोस्त ने समझाया जिसे अंजाम तक पहुंचाना हो मुश्किल उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ देना बेहतर।
हमारे दौर में ज्यादातर मोहब्बतों का यही अंजाम रहा। फिर भी हम मायूस नहीं हुए - ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद....। तू नहीं और सही।
बहरहाल, हम पर इसका साईड इफ़ेक्ट भी हुआ। हमारी 'लव लेटर्स मजबून एक्सपर्ट' की दूकान बंद हो गयी। क्या फ़ायदा ऐसे बकवास खतों का, जिसे पढ़ कर माशूका क़ासिद के साथ भाग निकले।