Monday, February 29, 2016

बीड़ी जलाई लो जिगर से पिया...

- वीर विनोद छाबड़ा
बजट - २०१६.
बीड़ी पर टैक्स की मार नहीं पड़ी। और सिगरेट महंगी। एक सिगरेट पी और दस रुपया धुआं हो गए। बहुत महंगी पड़ रही है। अब तो बीड़ी पीने की तैयारी करो यारों।
Smoking is Injurious to health
यूं तो हम बीड़ी पीते नहीं और सिगरेट को जहन्नुम रसीद किये भेजे तकरीबन १४ बरस होने को आये। लिहाज़ा हमारे पर इनके महंगे-सस्ते होने का कोई असर नहीं पड़ रहा।
लेकिन बीड़ी बनाम सिगरेट के नाम पर बहुत पुराना किस्सा याद आ गया। पूर्व में इस पर एक पोस्ट भी लगा चुका हूं। संक्षेप में फिर ज़िक्र किये देता हूं।
हुआ यूं था कि हम एक सरकारी काम से इलाहाबाद जा रहे थे। गर्मी के दिन थे। रात की ट्रेन। बेइंतहा भीड़। किसी तरह धंस लिए।
ट्रेन चली तो उसके झटकों-धचकों से हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। एक बर्थ पर चार लोग चौकड़ी मार कर पसरे हुए थे।
अगर पांव लटका कर बैठ जायें तो एक एक्स्ट्रा आदमी की जगह तो आसानी से बन जाये। हमने रिक्वेस्ट की। नहीं माने वो लोग।
वो लोग बीड़ी पी रहे थे। हमें एक ट्रिक सूझी। जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली। एक खुद मुंह में लगाई और उन्हें भी ऑफर की। सकुचाते हुए उन्होंने ले ली।
उनमें से एक बोला - बाबू साहेब खड़े क्यों हो?
यह कहते हुए वे सिमट गए। बन गयी जगह हमारे बैठने की।
कुछ देर बाद एक स्टेशन आया। चाय चाय चाय। हमने खुद भी चाय और उनको भी ऑफर की। चाय के बाद सिगरेट की तलब। हमने खुद भी पी और उनको भी पिलाई। खूब खुश। मजूर भाई थे वे। लखनऊ से मुगलसराय जा रहे थे अपने घर छुट्टी मनाने।
घंटा भर और गुज़रा। फिर एक स्टेशन। चाय चाय चाय। हमने फिर चाय पी और उनको भी पिलाई। फिर वही सिगरेट की तलब।
लेकिन सिगरेट तो ख़त्म हो चुकी थी। इधर ट्रेन भी सरक चुकी थी। मजूर भाइयों ने बीड़ी सुलगा ली। हमने उनकी तरफ कातर दृष्टि से देखा।

Sunday, February 28, 2016

पागलपन।

- वीर विनोद छाबड़ा
१९८९ के नवंबर का महीना था।
उन दिनों भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान का दौरा कर रही थी। यह वही सीरीज थी जिसमें सचिन तेंदुलकर का इंटरनेशनल डेब्यू हुआ था।

उन दिनों हम क्रिकेट पर दीवानावार लिखा करते थे। सोते-जागते सिर्फ क्रिकेट के बारे में सोचते। और कहीं उठते-बैठते तो सिर्फ क्रिकेट पर ही चर्चा। संक्षेप में सर से पांव तक क्रिकेट में रंगे थे।
उन्हीं दिनों हमारे पिताजी के एक लेखक मित्र पाकिस्तान से मिलने आये। मूलतः वो ग़ाज़ीपुर के रहने वाले थे। हमें उनका नाम याद नहीं आ रहा है। लौटने से पहले वो हमारे कमरे में आये।
हमारा कमरा देख कर वो हैरान रह गए।
कमरे की चारों दीवारों के चप्पे चप्पे पर पोस्टर। कहीं कपिल देव हैं तो कहीं एलन बॉर्डर। सुनील गावसकर भी हैं और विव रिचर्ड भी।
लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा हैरानी तो उन पोस्टरों में इमरान खान, जावेद मियांदाद और ज़हीर अब्बास को देख कर हुई। वो खुद भी क्रिकेट के दीवाने थे। कहने लगे - मैं तो अब तक यही समझ रहा था कि पागल सिर्फ़ पाकिस्तान में हैं। लेकिन आज मालूम हुआ कि यहां भारत में भी इनकी कमी नहीं। कराची हो या लाहोर या फिर मुल्तान। कई घरों की दीवारों पर आपको कपिल देव, गावसकर, विश्वनाथ और यशपाल शर्मा के बड़े बड़े रंगीन पोस्टर चिपके हुए मिल जायेंगे।

Saturday, February 27, 2016

जश्न मनाओ कि हम जीत गए।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज जब बांग्लादेश के मीरपुर में एशिया कप के लिए भारत-पाकिस्तान के टीमें ट्वंटी-२० मैच में आमने-सामने हुई तो प्रेशर बहुत हाई था। चाहे वो सरहद के इधर हो या उधर। क्रिकेट में दिलचस्पी नहीं रखने वाला भी सर से पांव तक बहुत भीतर तक घुस हुआ था - भैया, बताना तो क्या पोजीशन है?

कई गृहणियों का रसोई में ध्यान नहीं लगा। जली रोटियां भी खानी पड़ी। चाय बेस्वाद मिली। कभी चुपचाप सुनने के लिए अभिशप्त पत्नियों ने आज साअधिकार जली-कटी सुना भी दी - जैसे तुम्हीं तुर्रमखां हो। हमें भी समझ है क्रिकेट की।
मीडिया तो भौकाल खड़ा किया ही करता है। छिपकली की तरह रंग बदलता है। जीत मिली तो डंका और हारे तो डंडा।
खिलाडियों को बहुत समझाया जाता है कि मैदान के बाहर जो कुछ घटता है उससे प्रभावित न होना। लेकिन ऐसा होता नही। खिलाडियों की बॉडी लैंग्युएज बताती है कि सब कुछ ठीक नहीं है।
लेकिन युद्ध के मैदान में तो सब जायज है। और जब अंत में जब जीत हासिल होती है तो सारे गिले-शिकवे भी जाते रहते हैं। जो बना हो दो। नमक नहीं, कोई बात नहीं। अरे छोड़ो, किसी बढ़िया रेस्टोरेंट में डिनर के लिए चलते हैं। 
ख़ुशी में बम और पटाखे। आसमान रंग बिखेरती हवाईंयां और फिर धड़ाम-धड़ाम। आसमान धुआं-धुआं। ऐसा ही बहुत कुछ हुआ।
और सरहद के उस पार मायूसी है, गुस्सा है और सुना है तोड़-फोड़ भी हुई। खिलाडियों को गालियां भी पड़ीं। उनके घर पर ईंट-पत्थर फेंके गए। 
ऐसा हर मैच के बाद होता है। कभी जश्न इधर और मायूसी उधर। और कभी इसके उलट भी। 
बहरहाल, आज का मैच। बहुत ही शानदार रहा। भारी उलट-फेर होते होते बचा।
पाकिस्तान सिर्फ़ ८३ रन। बहुत ख़ुशी हुई। अब तो सब हलवा है। लेकिन निराशा भी। एक तरफा हो गया यह तो। आठ-दस ओवर में फिनिश।
लेकिन असली क्रिकेट वही होता है जो आख़िरी गेंद तक चले। हालांकि इसमें ऐसा तो नहीं हुआ। मगर फिर भी एक स्टेज पर - २.२. ओवर पर ८ रन और ३ विकेट। रोहित, रहाणे और रैना पैवेलियन में। लग रहा था वाकई जंग हो रही है। दोनों तरफ सासें रुक गयी। कमजोर दिल वाले आंख पर पट्टी बांध और कानों रुई ठूंस कर सोने की कोशिश करने लगे। मीडिया ने ऐसी तैसी करने के लिए म्यान से तलवारें खींच लीं।
लेकिन तभी हार-और जीत के दरम्यान कोहली विराट सीमेंट बन कर खड़ा हो गया- ५१ गेंद पर ४९ रन। साथ में मैन ऑफ़ दि मैच।
साथ दिया ३२ गेंद पर सिर्फ १४ रन बनाने वाले युवराज सिंह ने। विस्फोटक बल्लेबाज़ के बल्ले से ऐसी धैर्यपूर्वक धीमी इनिंग, यकीन नहीं होता न। लेकिन मौके की नज़ाकत पर ऐसी ही पारी खेलने वाला हीरो होता है।   
जीत के बाद कप्तान धोनी ने कबूल किया कि १००-११० रन बनाने होते तो बहुत मुश्किल होता मैच बचाना।

Friday, February 26, 2016

अपर हैंड बहनजी का होगा।

- वीर विनोद छाबड़ा
हम बहन जी का फॉलोअर नहीं हैं। लेकिन सच को सच कहना ही चाहिए।

उनके राज़ में जाने-अंजाने बहुत गलतियां हुई होंगी। मगर प्रशासन की नकेल को खूब टाईट रखा। आईएएस और आईपीएस लॉबी उनके कब्ज़े में रही। यही वज़ह रही कि लॉ एंड आर्डर मेन्टेन रहा। किसी पर भ्रष्टाचार का चार्ज लगा या जुर्म में लिप्त पाया गया तो कान पकड़ कर बाहर करते देर न लगी। कुछ अपवाद ज़रूर रहे। हम जानते हैं कि दलित महिला मुख्यमंत्री के राज में कितने और कैसे लोग असहज थे। हमने भी उनके दौर में आरक्षण की व्यवस्था को झेला। ठीक है, जो भी सत्ता में आता है, अपने समुदाय के बारे में सोचता ही है। यही सोचा कि पूर्वजों की ख़ताओं का खामियाज़ा भुगत रहे हैं, सामाजिक न्याय हो रहा है। और जब बहनजी सत्ता से हटीं तो यही लोग सबसे ज्यादा खुश हुए।
बहन जी सत्ता से क्या हटीं कि उनके जहाज से सारे चूहे भाग निकले। जाते-जाते जहाज में छेद भी कर गए ताकि बहनजी हमेशा के लिए डूब जायें। कोई और होता तो शायद डूब भी जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो इसकी वज़ह है कि बहनजी का नाम मायावती हैं। चतुर, घाघ और निडर पॉलिटिशियन। मौके का इंतज़ार करती हैं और फिर नफा-नुकसान देख कर वार करती हैं। दूसरी बात यह है कि उनके भक्तों की संख्या में कमी नहीं आई है। आज भी उनकी आवाज़ पर लाखों की भीड़ निकल पड़ती है, अनुशासित सिपाही की भांति। दलित की बेटी का इमोशनल ट्रंप कार्ड तो उनके पास है ही।
उनकी सोशल इंजीनियरिंग के कायल लोगों की संख्या भी अच्छी है।
अलावा इसके आम आदमी भी बहनजी को बेहतरीन प्रशासक के लिए याद करता है। खासतौर पर हर वर्ग की महिलाएं खुल कर कहती सुनी जाती हैं - कम से कम मां-बहनें सुरक्षित तो विचरण करती थीं।

Thursday, February 25, 2016

जै हिंद सर!

- वीर विनोद छाबड़ा
लगभग सैंतीस साल नौकरी की है मैंने बिजली बोर्ड के हेडक्वार्टर पर। इस दौरान ज्यादतर एचआर और कुछ साल इंडस्ट्रियल रिलेशन देखा।

पश्चिम, खासतौर पर मेरठ, के कार्मिकों और नेताओं से अच्छा साबका पड़ा। आपस में खूब बहस करते थे। थोड़ा बहुत गाली-गलौज भी। शुरू-शुरू में बहुत डर लगा कि कहीं झगड़ न बैठें या हम पर हमला न कर दें। लेकिन जल्दी ही समझ आ गया कि प्यार जताने का यह उनका स्टाईल है। जब तक आपस में चों-चों न करें, चैन न आवे इनको। और हां, जब भी आते थे, गज़क ज़रूर लाये। बहुत कोशिश की, पैसे देने की। लेकिन हर बार मुंह बंद करा दिया यह कह कर - पराया समझो हो हमें।
फिर हमने भी शर्त लगा दी - ठीक है, लंच हमारे साथ।
थोड़ी ना-नुकुर के बाद मान जाते। जाते-जाते मेरठ आने का न्यौता देना कभी न भूले। फोन कर दियो, टेशन पर गड्डी ले के आ जायेंगे।
आज भी त्योहारों पर फोन करते थे - जै हिंद सर। बधाई...
हमारा कई बार मेरठ होते हुए हरिद्वार जाना हुआ। बस में ट्रेन में खूब मिलते थे। हमें जाट और गैर जाट का फ़र्क कभी पता ही नहीं चला। हमने हमेशा बर्थ छोड़ दिया उनके लिए। सब दिल के बहुत करीब लगे। वही प्यार से लड़ने-भिड़ने वाला अंदाज़। हमें इनकी स्थानीय बोली बहुत अच्छी लगी। सीधी बात करते थे। न कुछ छुपाव और न दुराव। कभी-कभी लट्ठमार भी लगती। मगर ज़मीन से जुड़ी हुई। सच बताऊं हमें इतना मज़ा आया कि मन हुआ कि सुनता ही रहूं। एक ही बोली एक ही लिबास और रहन-सहन। कुछ दिन और रह लूं इनके साथ। उन्हें एक साथ हुक्का भी गुड़गुड़ाते देखा और बीड़ी-सिगरेट शेयर करते हुए भी। लौट कर लखनऊ आया तो कई दिन तक ज़हन में चढ़ी रही उनकी बोली उनका बिंदास अंदाज़।
पिछले दिनों हरियाणा में जो हुआ, हमें दिली तकलीफ़ हुई। हम आरक्षण की बात नहीं करते हैं। हमें इंसानो के बंटने का दुख है। एक ही बोली, एक ही लिबास और एक ही रहन-सहन। फिर ये आपसी बैर और नफ़रत क्यों? किसने किसका घर जलाया। ये किसका लहू है, कौन मरा?

Wednesday, February 24, 2016

जानी तुम फिल्मों में क्यों नहीं जाती?

-वीर विनोद छाबड़ा 
समय १९७८ का सूर्यास्त और १९७९ के सूर्योदय के मध्य का काल।
एक पांच सितारा होटल का दूर-दूर तक फैला लॉन। खासी भीड़ है वहां। ज़बरदस्त लेट नाईट फ़िल्मी पार्टी है। तमाम नामी फ़िल्मी सितारे और उससे जुडी तमाम हस्तियां मौजूद हैं।
राजकपूर साहब की 'सत्यम शिवम सुंदरम' के कारण ज़ीनत अमान खासी चर्चा में है। उस दिन तो खास-ओ-आम से घिरी हुई है। ज़ीनत बेबी को पता चलता है  कि पार्टी में उनके हरदिल अज़ीज़ 'जानी' राजकुमार भी मौजूद हैं। उसका मन उनसे मिलने को मचल उठता है। हालांकि भीड़ बहुत है। लेकिन जहां चाह, वहां राह। ज़ीनत ने राजकुमार को तलाश कर ही लिया।
ज़ीनत ने बहुत देर तक राजकुमार की शख्सियत, उनकी स्टाइल और एक्टिंग की तारीफ़ की।
राजकुमार बेहद खुश हैं। क्यों न हों? सामने एक हसीना है जो उनकी तारीफ़ करते हुए थक नहीं रही है।
रात काफी ढल चुकी है। राजकुमार साहब ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मफलर गले में डाला और बोले - जानी हमारा तो वक़्त हो चला है। अब हम चलते हैं।
ज़ीनत का मन नहीं है राजकुमार को छोड़ने का - आपसे अभी और भी ढेर बातें करनी हैं। दोबारा जल्दी मिलेंगे।
राजकुमार बेहद खुश हुए- ज़रूर। ज़रूर। बेबी, हम ज़रूर मिलेंगे।

टाटा, बॉय बॉय हुआ।
राजकुमार चलने को हुए कि अचानक पलटे। मानो कुछ याद आया हो। और ज़ीनत को बड़े ध्यान से ऊपर से नीचे तक देखा - बेबी, तुम हो तो बेहद खूबसूरत। चेहरा-मोहरा और कद-काठी  भी ठीक है। आवाज़ और एक्सप्रेशन भी शानदार है। और नाम हां.क्या बताया था?.…जो भी हो। जानी, तुम फिल्मों में काम क्यों नहीं करती?
ज़ीनत अमान को लगा किसी ने कानों में गर्म-गर्म शीशा डाल दिया हो। तमाम छोटे-बड़े फ़िल्मी रिसालों और अख़बारों के कवर की मलिका को राजकुमार नहीं पहचानते? उस ज़ीनत को नहीं पहचानते जिसकी विदेशी फ़िल्मी मीडिया में भी खासी चर्चा है? तमाम छोटे-बड़े हीरो उसके साथ टीम बनाने की शिद्दत से चाह रखते हैं। हैरत है! नहीं, नामुमकिन। यह शरारत है जानी की। 
ज़ीनत बेबी के गुस्से से नथुने फड़फड़ाने लगे। कान गर्म हो गए। मुंह से झाग निकलने लगी।

Tuesday, February 23, 2016

चोली-दामन का साथ रहा ललिता और ट्रेजडी का।

 -वीर विनोद छाबड़ा
करीब चौहत्तर साल पहले १९४२ की बात है। अंबिका स्टूडियो में जंगे आज़ादी का सेट लगा है। नायिका ललिता पवार है। मराठी और हिंदी फिल्मों की मशहूर नायिका है वो। बॉक्स ऑफिस पर तूती बोलती है।

एक छोटी सी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं नवागंतुक भगवान। दो-तीन फिल्म का कैरियर है अभी तक। कोई ख़ास त्वजो नहीं छोड़ी है। जवान है। उसके अंदर आग भरी है। कुछ कर दिखाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है। इंतज़ार बस एक अदद मौके का है। उसे यकीन है यह मौका आज आ गया है। बता दूँ कि यह मामूली सा दिखने वाला अदाकार आगे चल कर भगवान दादा कहलाया, स्लो मोशन स्टेप-डांस का जनक। जिसे अमिताभ बच्चन ने कॉपी किया और लीजेंड हो गए। मिथुन और गोविंदा भी पीछे नहीं रहे। इन सबसे पहले तो दिलीप कुमार ने भी भगवान स्टाईल में ठुमके लगाये। 

बहरहाल, शॉट यों है कि नायिका ललिता को भगवान ने थप्पड़ मारना है। भगवान को इसी मौके का मानों इंतज़ार था। सोचा, कर दूं एक्टिंग में रीयल्टी पैदा।
 
इधर डायरेक्टर ने टेक के लिये 'एक्शन' बोला उधर भगवान ने पूरी ताकत और तेज़ी से हाथ घुमाया। इस ताक़त और तेज़ी की पूर्वोतर भनक तक ललिता पवार को नहीं लगने दी।

परिणाम यह हुआ कि तड़ाक...भगवान का ज़न्नाटेदार थप्पड़ ललिता के बाएं गाल से थोड़ा ऊपर आंख के पास जा चिपका। ललिता की आंख के सामने अंधेरा छा गया। वो कुछ पल के लिए तो बेहोश हो गयी। होश आया तो थप्पड़ की भयावता पता चली। बायीं आंख के आस-पास के हिस्से में सूजन आ गयी है।


डॉक्टर ने देखा। मामूली सूजन है। दो-चार दिन में ठीक हो जाएगी। मगर कोई असर नहीं हुआ। उलटे तकलीफ बढ़ जाती है।

दूसरे डॉक्टर को दिखाया। उसने बताया यह सूजन मामूली नहीं है। बायीं आंख वो वाला हिस्सा, जहां भगवान का जोरदार थप्पड़ चिपका था, आंशिक पैरालाइज़्ड हो गया है। लंबा ईलाज चलेगा। गारंटी नहीं कि कभी ठीक भी हो।

तीन साल तक लगातार ईलाज चला। इस दौरान ललिता पल-पल नारकीय यातना से गुज़री। ठीक होने के इंतज़ार में लाखों बार करवटें बदलीं। हिंदू, मुस्लिम सिख और ईसाई, हर किसी की इबादतगाह और दरगाह पर मत्था टेका।

और जैसे-तैसे ललिता ठीक हुई। मगर आईने ने डॉक्टर का संदेह पुख्ता कर दिया। नियति का फैसला अटल रहा। उसकी बायीं आंख हमेशा के लिये थोड़ी छोटी हो गई। अब वो नायिका नहीं बन सकती। वो जार-जार रोयी, विलाप किया। नवांगतुक अभिनेता भगवान को लाख-लाख गालियां सुनाई। और ऊपरवाले भगवान से पूछा - बता मेरी क्या गलती है?

जहां चाह, वहां राह। एक हमदर्द ने ललिता को सलाह दी कि चरित्र भूमिकाएं करो। इसमें कोई बुराई नहीं है। प्रतिभा का लोहा ही तो मनवाना है। किरदार कैसा ही क्यों न हो। ललिता को बात जंच गयी।

अब एक आंख छोटी होने के कारण ललिता का लुक शातिराना हो गया। इस सच को भी पचाने में उसे कड़ा परिश्रम करना पड़ा।

मगर ललिता को यह नहीं मालूम था कि मुकद्दर में एक और बेहतरीन और कामयाब सफ़र का शुरू होना लिखा है। उन्हें मां, बहन आदि की सहायक भूमिकाओं के साथ-साथ खलनायिका की भूमिकायें भी प्राप्त होने लगीं।

मगर यहां भी उनके साथ इंसाफ़ नहीं हुआ। हुआ यह कि सहृदय मां की भूमिकाओं में अरसा तक पहली पसंद रहीं। दाग़ में नशेड़ी दिलीप कुमार की मां, राजकपूर की श्री ४२० केले बेचने वाली हरदिल अज़ीज गंगा माई और गुरूदत्त की मिस्टर एंड मिसेज़ ५५ में सीतादेवी की यादगार भूमिकाएं। इसके अलावा भी ढेर फिल्मों में उन्होंने हृदय स्पर्शी  रोल किये। ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनाड़ी' में वो ऊपर से कठोर परंतु दिल की नर्म मिसेज डिसूजा की भूमिका में थीं। इस रोल को बड़ी सहजता तथा मनायोग से उन्होंने जिया। लाखों दिल जीत लिये। सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला। लेकिन विडंबना देखिये कि उनकी इमेज स्थापित हुई कठोर सास, क्रूर ननद, षणयंत्रकारी जेठानी की। प्रचारित किया गया कि जब बुरी सास या मंथरा का किरदार गढ़ा जाता है तो उस समय सिर्फ और सिर्फ ललिता पवार ही ज़हन में होती है। इसमें दो राय नहीं कि ललिता पवार ने इन्हें जिया भी बखूबी।

Monday, February 22, 2016

ऐ मेरे दिल कहीं और चल।

-वीर विनोद छाबड़ा 
बंदे को कुत्तों से जन्मजात एलर्जी रही है, लेकिन कुत्ता पालकों से नहीं। मगर इसके बावजूद यह विडंबना यह रही कि कुत्तों को लेकर उठे बवाल में वो कई बार बेवज़ह फंसा। मुद्दे हमेशा कॉमन रहे हैं। आपके कुत्ते ने मेरे टिंगू को काट लिया। ख़बरदार, मेरे उसे कुत्ता कहा, उसका नाम चीकू है। कुत्ता पालने की तमीज़ सीखो। तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा सफ़ेद क्यों
 
बाज़ वक़्त बात बढ़ते-बढ़ते मारपीट और थाना-कचेहरी तक पहुंची। इंसान इंसान का दुश्मन बन गया। लेकिन कुत्तों को फर्क नहीं पड़ा। दुम हिला-हिला कर वैलेंटाइन के ईशारे करते रहे।
 
उस दिन बंदा फिर फंस गया। हुआ यों कि एक कुत्ता टहलाऊ को सामने से आता देख कर उनके मित्र को मज़ाक सूझी - अरे भई, सुबह-सुबह ये गधे को कहां टहला रहे हो?

कुत्ता टहलाऊ सख़्त नाराज़ हुए - अजीब अहमक क़िस्म के शख्स हैं आप। आंखें हैं या बटन? आपको ये गधा दिखाई देता है? यह हमारा झंडू है। 

मित्र माफ़ी मांग कर इतनी जल्दी फाईल बंद करने वालों में नहीं थे - अरे भई, मैं आपसे नहीं आपके झंडू से मुख़ातिब हूं।

बस फिर क्या था। मल्लयुद्ध की स्थिति आ गयी। यकीनन, मज़ाक बड़ा भद्दा था। वो भी सुबह-सुबह। राम, राम। कोई भी होता बिगड़ जाता।

अब वो दोनों ही बंदे के आजू-बाजू वाले ठहरे और अच्छे मित्र भी। दुःख सुख में हमेशा साथ रहे। मध्यस्था तो करनी ही थी। समझाया-बुझाया। चार लोग और जमा हो गये। बिना कुत्ते वाले ने कुत्ते वाले से माफ़ी मांगी। सीज़ फायर हो गया।

लेकिन दोनों के मुहं फूले रहे। शीतयुद्ध की स्थिति। जिस्म मिले, मगर दिल नहीं। कुत्ते वाले मित्र के मन में कसक रह गई कि अगले ने बेमन से माफ़ी मांगी है। रह-रह कर टीस उठती। न चाय हुई, न पानी। इधर बिना कुत्ते वाला भी खिन्न। झंडू को कुत्ता पकड़ू ट्राली में बैठा देखूं तो चैन आये। बात दोनों की पत्नियों तक पहुंच गयी। एक नया फ्रंट खुल गया। जब-तब गोलाबारी। सीज़ फायर का आये दिन उल्लंघन।

तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका के दृष्टिगत और एक आदर्श व ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते बंदे ने पहल की। दोनों पड़ोसियों को सपत्नीक चाय पर बुलाया। मोहल्ला सुधार समिति के प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी सहित दर्जन भर और गणमान्य भी। शांति के लिए पहले से तैयार की गयी ज़बरदस्त इमोशनल अपील की। बाकी लोगों ने भी स्पीचें झाड़ीं। शीतयुद्ध की बर्फ़ पिघली। दोनों पड़ोसियों के आंसू टपके। गले मिले। सारे गिले-शिकवे जाते रहे।

Sunday, February 21, 2016

मन में हो विश्वास।

- वीर विनोद छाबड़ा
एक बुज़ुर्ग ने हमें कभी समझाया था हर सवेरा और नया जन्म है। दुःख भी हैं और सुख भी, जिसे आना है उसे कोई रोक नही सकता। नियति का खेल किसी न जाना। जो भी है, जैसा है उसे एन्जॉय करो।

हमारे पिताजी को कैंसर था। मृत्यु दो-तीन महीने में सुनिश्चित थी। ऐसा तमाम डॉक्टरों ने बताया। सारे जतन भी कर लिए। लेकिन बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक होमियोपैथ से कंसल्ट किया। उसने दवा दी। लेकिन उससे ज्यादा एक विश्वास पैदा किया कि आप ठीक जायेंगे। गारंटी है मेरी। हर तीन महीने बाद एक अल्ट्रा साउंड कराते थे और बताते थे कि आपकी किडनी का कैंसर लंप ज़रा-ज़रा करके कम हो रहा है, फ़ैल नहीं रहा। पिताजी ने इसे सच माना। ज़िंदगी एन्जॉय की। हालांकि होनी टल नहीं सकी, लेकिन उम्र में साढ़े तीन साल का इज़ाफ़ा हो गया। हंसते-खेलते बिना तकलीफ़ दिए चले गए।
हम यह नहीं कहते कि होमियोपैथी की दवा से फ़ायदा हुआ या नहीं। लेकिन उनका आशा के विपरीत ज्यादा जीना कोई चमत्कार ज़रूर रहा।
मेरे विचार से अगर डॉक्टर और मरीज़ में परफेक्ट अंडरस्टैंडिंग हो। डॉक्टर मरीज़ को यकीन दिला दे कि वो बिलकुल ठीक हो जायेगा। उससे हंसी-मज़ाक भी करे। उसके शौक के बारे में पूछे और रूचि ले तो मरीज़ जल्दी ठीक होता है और मेडिकल साइंस

Saturday, February 20, 2016

आप आये बिजली गयी।

- वीर विनोद छाबड़ा 
एक्स बिजली कर्मी हूं। हमेशा डर लगा रहता है कि ऐसा न हो कि हम बिंदास गले मिल कर हाल-पूछें और वो पलटवार कर दे - आप बिजली वालों के राज में जी रहे हैं, बस।

बिजली वालों की गलतियों और हिमाकतों को डिफेंड करते-करते हमारी बैंड बज चुकी है। किसी का बिल ठीक कराना टेढ़ी खीर है। आज तक बिल ठीक करने वालों ने अपने पिताजी की नहीं सुनी तो हम रिटायर की क्या सुनेंगे?
जब-जब बत्ती जाती है तो मेमसाब और बेटी बत्ती वालों की पुंगी बजा देती हैं। लपेटे में हम भी आ जाते हैं - इन्हीं के भाई-बंधु तो हैं। जैसे ये निठल्ले वैसे वो भी। तभी तो आये दिन पिटते हैं।
बिजली महंगी होती है तो मोहल्ले वाले हमें घूर कर देखते हैं। अरे भाई इसमें हमारा क्या कसूर? लेकिन बड़बड़ाने से हम भी बाज़ नहीं आते - साबुन की बट्टी एक रुपया महंगी हो गयी और चीनी दो रूपये, तब तो गाली नहीं देते हो?
उस दिन एक मित्र के घर गए। अभी बैठने को हुए ही थे कि बिजली चली गयी। कमेंट सुनने को मिल गया - लो आप आये और बिजली गयी।
ऐसा अक्सर होता है कि हम किसी मित्र/रिश्तेदार के घर अगर १५-२० मिनट बैठे तो एक बार बिजली ज़रूर जाती है।
जितने घर उससे ज्यादा बत्ती की समस्याएं और उनकी शिकायतें। उस दिन एक साहब बता रहे थे - महंगाई से ज्यादा मैं बत्ती वालों से परेशान हूं। 
इन सब से इतर हमारे मित्र राजन प्रसाद निकले। एक मोटी सी फाईल निकाल लाये। उस पर लिखा था - इलेक्ट्रिसिटी।
हम घबरा गए - हे भगवान! फिर बिजली का बिल।
राजनजी हमारे मन की व्यथा को पढ़ लेते हैं - अरे बाबा, ऐसा कुछ नहीं है। मैं तो बस ये बताना चाहता हूं कि हम १९६३ में लखनऊ आये। तब से अब तक के बिजली के बिल इस फाइल में संभाल कर रखे हैं।

हमारे दिल को राहत मिली। सांस भी लौट आई।
हमें याद आता है कि १९६३ में लखनऊ की बिजली सप्लाई एक प्राइवेट कंपनी के हवाले थी। जिसका मुख्यालय कलकत्ता में होता था।
उन दिनों हम स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी रेलवे कॉलोनी में रहते थे। हमारी बिजली की लाईन रेलवे स्टेशन से जुड़ी थी। मौजां ही मौजां थीं।

Friday, February 19, 2016

जब हम होंगे पांच हज़ारी।

- वीर विनोद छाबड़ा
सितंबर २०१३, फेस बुक पर मेरा पदार्पण हुआ। हम बहुत उत्साहित थे। पता चला कि पांच हज़ारी होना फख्र की बात होती है। ठीक वैसे ही जैसे बरसों पहले बिनाका/सिबाका गीत माला में १८ बार बजने वाला गाना सरताज बन जाता था।


हमने सोचा - पांच क्या, दस हज़ारी भी बन के दिखा दूंगा। बस चुटकी बजाने की देर है। लेकिन हमें न मालूम था कि यहां खुशियां हैं कम, बेशुमार हैं ग़म। बहुत दुश्वारियां पेश आईं। रोज़ना ढेर रिक्वेस्ट भेजते। और सारा-सारा दिन झांकते रहते कि शायद कोई आया है। ज़रा सी आहट होती तो  दिल सोचता कि कहीं ये वो तो नहीं। कोई आया, धड़कन कहती है। 
कई बार तो हफ़्ता भर गुज़र जाता। पत्ता तक न खड़कता। दो बार तो फेस बुक के मालिक ज़ुकेरबर्ग ने भी डांट दिया, चुपचाप बैठो वरना कान पकड़ कर बाहर कर दूंगा।

उन दिनों हमें अपनी किशोरवस्था के वो दिन याद आए जब हम शीशी में भटकती आत्मा, भुतही कोठी का जिन्न, ढक्कन वाली भूतनी, ज़हरीली चुड़ैल जैसी वाहियात भुतई कहानियां लिखते थे। इन्हें हम मुल्क की नामी पत्रिकाओं में भेजते थे। लेकिन न छपीं और न कभी लौट कर ही आयीं। हो सकता है कि संपादक महोदय डर गए हों। हमारा दूसरा पाठक हमारा एक मित्र होता था। वो चाय और सिगरेट की शर्त पर इन्हें सुनता था।

बहरहाल, डिप्रेशन के उस दौर में हम एक दिन गुनगुना रहे थे - आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे, हमें भूल जाये... तभी एक मित्र आये। उन्होंने हौंसला बढ़ाया फ़िक्र नहीं करो। बस क़लम चलाते रहो। छापने वाला संपादक भी मिलेगा और पाठक भी।

चूंकि हम सकारात्मकता हमारे डीएनए में रही है इसलिए अच्छे बच्चे की तरह हम अपना काम करते रहे और कारवां बढ़ता रहा। इस दौरान निज़ी ज़िंदगी में बहुत उठा-पटक देखीं। खुद को पुनः खोजा। परिमार्जित करता रहा। फेस बुक के मित्रों के दुःख-सुख को अपना समझने का अहसास किया। दुनिया में सुख है तो दुःख है और दुःख है तो सुख भी।

अब सफ़र तकरीबन पूरा होने को है। पिछले कई दिनों से हम पांच हज़ारी के आस-पास टहल रहे हैं। ढेर रिक्वेस्ट रखी हैं। रोज़ तीन-चार पर मोहर लगती है और इतने ही निष्क्रिय लोगों को बहुत दुःख के साथ बाहर होना पड़ता है। गाली-गलौज करने वालों और बीपी बढ़ाने वाले कुतर्कियों की सफ़ाई भी जारी है।