- वीर विनोद छाबड़ा
पंद्रह हज़ार की पेंशन पर आश्रित पचत्तर साल के एक विधुर पिता जीवन को लखनऊ पसंद
है। सारे रिश्तेदार और दोस्त सब यहीं हैं और अच्छे पड़ोसी भी हैं। आख़िरी सफ़र में चार
कंधे किराए पर नहीं लेने पड़ेंगे। लेकिन एकमात्र औलाद बेटी को दिल्ली पसंद है। कैरियर
तो यहीं है। बेटी को आने की फ़ुरसत नहीं थी। काम जो बहुत है। अब पिताजी तो ठहरे रिटायर, फालतू आदमी। अक्सर
चल देते हैं दिल्ली। अबकी बार बहुत दिन बाद जा रहे हैं, मन में बहुत उत्साह
है। बेटी-दामाद और नाती-नातिन के लिए ढेर सामान खरीदा है। बीस हज़ार तो खर्च हो ही गया।
इधर दामाद जी ने शहर के एक पॉश इलाके में आलीशान फ्लैट खरीदा था, जिसे वो पहली बार देखेंगे।
लेकिन उन्हें धक्का लगा। स्टेशन पर रिसीव करने कोई नहीं आया। मोबाईल पर बेटी ने
कहा कि हम बिज़ी हैं। आप टैक्सी में बैठ जाओ। ड्राईवर से बात करा देना। मैं उसे लोकेशन
समझा दूंगी। घर की चाबी सिक्योरटी गार्ड के पास है। शाम को मिलते हैं सब। सामान ज्यादा
देख कर कुली ने तीन सौ मांगे। फिर टैक्सीवाले ने आठ सौ। अगर बेटी रिसीव करने आ जाती
तो यह सारे पैसे बच जाते और सबसे बड़ी बात तो यह कि बुढ़ापे की जिस्मानी तकलीफ से बच
जाते।
जैसे-तैसे करीब दो घंटे बाद वो बेटी के घर पहुंचे। टैक्सी वाला भन्नाया। एड्रेस
सही होता तो फालतू न घूमना पड़ता। टाईम और पेट्रोल एक्स्ट्रा खर्च हुआ। सौ रूपए और दीजिये।
सिक्योरिटी गार्ड से चाबी ली। चार बैडरूम का फ्लैट वाकई बहुत बढ़िया था। लेकिन किचन
खाली मिला और फ्रिज में भी कुछ नहीं। कुछ बिस्कुट साथ लाये थे। उसी से गुज़ारा किया।
शाम को दोनों बच्चों को क्रश से बटोरती हुई बेटी घर आई। फिर दस मिनट बाद दामाद
जी ने आते ही अहसान किया। आज आप आये हैं, इसलिए सारा इम्पार्टेंट काम छोड़ कर जल्दी आना पड़ा।
कौन बनाये खाना? सब तो थके हुए हैं। डिनर आर्डर कर दिया। बेटी ने पूछा - आपने वापसी का रिजर्वेशन
कबका कराया है? इन फैक्ट पांच दिन बाद हमें सिंगापुर घूमने जाना है।
पिता जी सोचने लगे तीन साल की थी बेटी जब पत्नी गुज़र गई। बड़े प्यार और नाज़ों-नखरों
से मां बन कर पाला-पोसा। पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाया और फिर अच्छे घर में शादी की। जीवन
की सारी पूंजी लगा दी। और उसने पहुंचते ही अपना टूर प्रोग्राम बता दिया। हृदय विदीर्ण
हो गया। वो तो महीने भर का प्रोग्राम बना कर आये थे। बामुश्किल आंसू रोके। परसों सुबह
शताब्दी से रिजर्वेशन है।
दो दिन बाद सुबह चार बजे टैक्सी आई। दामाद जी और बच्चे सो रहे हैं। बेटी की आंखों
में भी नींद भरी है। टाटा हुई और दरवाज़ा बंद। पिताजी दिल्ली स्टेशन के पास किसी होटल
में ठहर गए। हज़ार रुपए टैक्सी को दिए। पांच सौ एक्स्ट्रा ट्रेवल एजेंट को दिए। अगले
दिन सुबह लखनऊ पहुंच गए।
बंदे से बोले, महानगरों की संस्कृति बदल गयी है। किसी के पास फुरसत ही नहीं। रिसीव करने और सी-ऑफ
करने का इवेंट मुद्दत हुआ ख़त्म हो चुका है। फिर दिल्ली में जाम बहुत है। अब तो खुद
ही ऑटो-टैक्सी करके चले आओ और चले भी जाओ।
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Published in Prabhat Khabar dated 01 Aug 2016
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