Friday, July 31, 2015

मुझे मोहब्बत खैरात में नहीं चाहिये - निम्मी।

-वीर विनोद छाबड़ा
दो मशहूर नायिकाएं - निम्मी और मधुबाला। महबूब खान की अमर (१९५४) में एक साथ दिखीं पहली बार। और आख़िरी बार भी। जल्दी ही बहुत ही अच्छी सहेलियां भी बन गयी। अपने दुःख-सुख भी शेयर करने लगीं।

हीरो और कोई नहीं बहुत बड़ा आर्टिस्ट  - दिलीप कुमार।
परदे की बात छोड़िये। जग ज़ाहिर है कि दिलीप कुमार से मधुबाला बेसाख्ता मोहब्बत करती है। दिलीप के भी दिल में आग लगी हुई है।
लेकिन यह निम्मी क्या कर रही। युसूफ ने लंच लिया कि नहीं? कुछ थके थके से दिखते हैं। आराम कर लें। एक कप चाय ले आऊं। तरो-ताज़ा हो जायेंगे। नहीं, चाहिए। तो कहिये सर दबा दूं? स्टूडियो के डॉक्टर से मशविरा कर लें।
मधु को यह सब अच्छा नहीं लग रहा। युसूफ का कुछ ज्यादा ही ख्याल रख रही है ये निगोड़ी निम्मी। एक-आध बार हो तो बर्दाश्त कर लूं। मगर ये मुई तो हाथ धो कर पीछे ही पड़ गयी है। जल्दी ही बात करनी पड़ेगी। ऐसा न पानी सर से ऊपर निकल जाए।
आख़िर उस रोज़ उसने पकड़ ही लिया- निम्मी, एक बात कहूं, बुरा न मानना। सच-सच बताना। क्या तुम भी उनको चाहती हो जिसे मैं चाहती हूं? तुममे और युसूफ मई कुछ चल रहा है क्या? तुम हां कहो। मैं कुछ भी कर सकती हूं। तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगी। कट जायेगी जुबां मेरी अगर भूले से भी नाम आ गया उनका।
निम्मी के सर पर पहाड़ गिर पड़ा हो जैसे। वो सकते में आ गयी। अल्लाह, ये कैसी बात कर रही है? उसकी ठुड्डी ऊपर उठाई। भर आई आंखों से आंसू पोंछे। पागल हो गयी लगती है। ऐसा कुछ भी नहीं है। वो तेरा है और तेरा ही रहेगा। और फिर मुझे मोहब्बत खैरात में नहीं चाहिए। और हां, ध्यान में रखना एक बात और। किसी और को न देना ऐसा ऑफर। अगर वो मेरी तरह दरियादिल न हुई तो? तू खाली हाथ रह जायेगी।
नोट - इतिहास गवाह है कि मधु - दिलीप की प्रेम - कहानी भी रोमियो-जूलियट और लैला-मजनू सरीखी बन कर रह गयी, अपने अहम और प्रतिबद्धताओं के कठघरे में क़ैद।
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31-07-2015
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Wednesday, July 29, 2015

छुट्टी नहीं होगी।

-वीर विनोद छाबड़ा 
आज सुबह पढ़ा कि दिवंगत कलाम साहब की याद में कोई छुट्टी नहीं होगी।
कलाम साहब नहीं चाहते थे कि उनके मरने पर छुट्टी हो। सरकारी प्रोटोकॉल में भी शायद ऐसा ही प्रोविज़न है कि पूर्व राष्ट्रपति की मृत्यु पर आदर स्वरूप छुट्टी नहीं होगी।

इस ख़बर से कई लोग चौंके, कई को शॉक लगा। यार, छुट्टी मारी गयी। कहां लिखा है छुट्टी नहीं होगी? और कलाम साहब ने ऐसा कब फरमाया? और यह संसद क्यों बंद रहेगी। बेहतर होता कि कलाम साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप संसद निर्बाध चलती।
बरसों से रिवाज़ रहा है कि किसी नेता/मंत्री की मृत्यु हुई नहीं कि छुट्टी का ऐलान। कुछ के लिए वाकई शोक और कइयों के लिए जश्न। चलो कहीं घूम आयें। सिनेमा चलें। जम कर सोया जाये।
चाहे स्कूल/कॉलेज रहा हो या सरकारी दफ़्तर। सहपाठी/सहकर्मी की मृत्यु पर छुट्टी अनेक के लिए वरदान बनी। शमशान घाट पर, कुछ अपवाद छोड़ दें तो श्रद्धांजलि देने बामुश्किल दस-बीस पर्सेंटेज ही लोग हाज़िर होते हैं। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बाकी क्या करते हैं।
एक घटना याद आती है। उन दिनों मैं हाई स्कूल में था। एक अध्यापक के दिवंगत होने की ख़बर आई। सुबह की प्रार्थना के बाद इसकी सूचना दी गयी। दो मिनट का मौन और फिर घोषणा कि आज पढाई नहीं होगी। कुछ उत्साही सिनेमा प्रेमी लड़कों ने ताली बजा दी। जम कर उनकी सुताई तो होनी ही थी।
एक और घटना याद आई। सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेज़नेव की नवंबर १९८२ में मृत्यु हुई। सोवियत संघ से प्रगाढ़ रिश्तों के दृष्टिगत भारत सरकार ने राष्ट्रीय शोक की घोषणा की। एक दिन छुट्टी भी रही। जबकि इसके उलट सोवियत संघ में छुट्टी नहीं हुई। बल्कि उनके क्रिमेशन के दिन कामगारों ने दो घंटे ज्यादा काम किया। कड़े परिश्रम को समर्पित नेता को राष्ट्र इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या दे सकता है?
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30-07-2015  Mob 7505663626
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Tuesday, July 28, 2015

अपनी पहचान खुद बनाओ।

-वीर विनोद छाबड़ा
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को कौन नहीं जानता। २६ जुलाई १८५६ को डबलिन में जन्मे आयरिश प्लेराइटर शॉ वर्किंग क्लास के क़रीब थे और ज़िंदगी भर उनके हक़ूक़ की बात करते रहे।
समाजवादी विचारों के पक्के बर्नार्ड शॉ पुरुष और महिला दोनों को समाज में बराबरी का हक़ दिए जाने के हामी थे। वो इकलौते ऐसे शख़्स हैं जिन्हें साहित्य में नोबेल पुरुस्कार (१९२५) मिला और साथ ही 'पयागमिलन' फिल्म के स्क्रीनप्ले (१९३८) के लिए भी अमरीका का एकेडेमी अवार्ड मिला।

बर्नार्ड शॉ को इसके अलावा भी अनेक अवार्ड ऑफर हुए। लेकिन उन्होंने सब ठुकरा दिए। इसमें प्रतिष्ठित नाईटहुड अवार्ड भी शामिल रहा।
बर्नार्ड शॉ की ज़िंदगी के शुरुआती दिन बहुत फ़क़ीरी में गुज़रे। उन्हें दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए ज़बरदस्त जद्दोज़हद करनी पड़ी। मगर धीरे-धीरे ही सही उन्होंने कामयाबी की नित नई बुलंदियों को छुआ।
एक बार बर्नार्ड शॉ को एक बड़े कॉलेज के फंक्शन में बतौर चीफ़ गेस्ट न्यौता दिया गया। तमाम स्टूडेंट उनके दीदार के साथ-साथ उन्हें छूने, उनसे हाथ मिलाने और ऑटोग्राफ़ लेने के लिए पागल से हो गए।
बर्नार्ड शॉ ने किसी को निराश नहीं किया। उनसे मिलने वालों की भीड़ में एक स्टूडेंट ने अपनी ऑटोग्राफ़ बुक उनके सामने रख हांफते हुए एक सांस में कहा - बड़ी मुश्किल से आप तक पहुंचा हूं। मुझे इल्मो अदब में ज़बरदस्त दिलचस्पी है। मैंने आपकी तमाम किताबें पढ़ी हैं। आपकी तरह अपनी एक पहचान बनाना चाहता हूं। ऑटोग्राफ़ देते हुए कोई मैसेज ज़रूर दें, प्लीज़।
बर्नार्ड शॉ ने उस स्टूडेंट को मुस्कुरा कर देखा। फिर कुछ लिखा। और ऑटोग्राफ बुक लौटा दी।
उस स्टूडेंट ने ऑटोग्राफ़ बुक खोली। उसमें बर्नार्ड शॉ ने लिखा था - दूसरों के ऑटोग्राफ़ लेने में वक़्त ज़ाया मत करो। संघर्ष करो। खुद को इस योग्य बनाओ कि दूसरे तुम्हारे ऑटोग्राफ़ लेने को तरसें।
यह पढ़ कर वो स्टूडेंट मुस्कुराया। उसने भीड़ में अपना हाथ लहराया। मानो कह रहा हो - हां, ज़रूर सर। थैंक्यू।
शॉ ने उस लहराते हाथ को देख लिया और जवाब में हाथ हिलाया।
फिर वो स्टूडेंट भीड़ में गुम हो गया।

Monday, July 27, 2015

गन्नू बाबू - शिक्षक ही नहीं पहले पाठक भी।

-वीर विनोद छाबड़ा
मैं लखनऊ के विद्यांत कॉलेज का १९६३ से १९६९ तक छात्र रहा हूं। इंटरमीडिएट तक पढ़ा।
जब भी इसके सामने से गुज़रता हूं तो स्कूटर में खुद-ब-खुद ब्रेक लग जाती है। कुछ क्षण के लिए रुक जाता हूं। उन क्षणों में यों तो उस दौर की कई घटनायें याद आती हैं। लेकिन हिंदी के अध्यापक श्री गिरिजा प्रसाद श्रीवास्तव खासतौर पर मेरी यादों को कुरेदते हैं। उन्होंने मेरे दिल पर अमिट छाप ही नहीं छोड़ी, अपितु जीवन की धारा को सही दिशा देने में भी अहम किरदार अदा किया है।

उन्हें प्यार से हम छात्र लोग 'गन्नू बाबू' पुकारते थे। बल्कि असली नाम तो कइयों को मालूम ही नहीं था। उनके साथ अध्यापन करने वाले भी उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। वो कतई बुरा भी नहीं मानते थे।
दुबली-पतली क्षीण काया और छोटा कद। निहायत ही मृदुभाषी व शरीफ़। गुस्से और छड़ी से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। साहित्य की भी बहुत अच्छी जानकारी रही उन्हें। इंटर में उन्होंने मुझे हिंदी पढाई। विद्यालय के हिंदी संबंधी कार्य में उनसे राय लेना ज़रूरी माना गया।
मैथ व साइंस पढ़ने वाले छात्रों ने उनका सदैव मज़ाक उड़ाया  - ऐसी कद काठी और स्वभाव का आदमी हिंदी ही पढ़ा सकता है।
जब कभी आंधी-तूफान के साथ जोरदार बारिश हुई तो उनकी क्षीण काया के दृष्टिगत छात्रगण चिंतित हो जाते - ज़रा देखो गन्नू बाबू अपनी जगह पर हैं?… आंधी में कहीं उड़ तो नहीं गये?…भैया ज़रा थामे रहना, बारिश में कहीं बह न जायें!
एक बार तो वो छात्रों के पीछे ही खड़े थे। छोटे कद के कारण कोई उन्हें देख नहीं पाया था। उन्होंने सब सुन लिया। हंस दिए - अरे तुम जैसे बड़े-बड़े बहादुर बेटों के होते हुए कोई आंधी-तूफ़ान मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
सब बहुत शर्मिंदा हुए थे।
उन दिनों स्वतंत्र भारत में 'संपादक के नाम पत्र' स्तंभ में मेरे पत्र प्रकाशित होते रहते थे। गन्नू बाबू उन्हें पढ़ते थे और पीठ थपथपाते थे। हौंसला बढ़ाते हुए कोई टॉपिक सुझा देते कि इस पर भी लिखो। बहुत अच्छा लगता था। बल्कि यह कहूं मेरे पहले पाठक और प्रशंसक वही थे।

Sunday, July 26, 2015

पुर्चियां ही पुर्चियां!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज सामूहिक नक़ल का ज़माना है। हमारे ज़माने में भी नकल होती थी। इस मामले में कुछ कॉलेज बदनाम थे। लेकिन सामूहिक नकल नहीं सुनी। 
कागज़ की छोटी छोटी अनेक पर्चियों, जिस महीन हैंडराइटिंग में कुछ संभावित सवालों के जवाब लिखे जाते। इन्हें देख कर बेसाख़्ता मुंह से निकलता था - वाह क्या नक्काशकारी है। ये पर्चियों पुर्ची भी कहलाती। इन्हें शर्ट और पैंट में खासतौर बनाये ख़ुफ़िया स्थानों, मोज़े और जूते के तलवों में छुपा कर रखा जाता।
 
इस सिलसिले में मुझे याद आती है 1969 यूपी इंटरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा। सेंटर था लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले का गिरधारी सिंह इंटर कालेज।
इस कॉलेज के प्रिंसिपल (नाम याद नहीं) सख्ती के लिये मशहूर थे। लेकिन नक़लबाज़ छात्रों की दृष्टि में तो कुख्यात। नक़ल करना बहुत मुश्किल ही नामुमकिन। ठीक वैसे ही कि परिंदा भी पर न मार पाये। 'पुर्ची' तो भूल ही जाइए। प्रिंसिपल जाने कब तलाशी के लिए यमराज बन आ टपकें।
लेकिन नकलबाज़ों के हौंसले इन तमाम सख्तियों के बावजूद कभी पस्त न हुए। चुनौती स्वीकार की गयी। 
परीक्षाएं शुरू हुईं। पहला दिन गुज़रा। दूसरा और तीसरा भी। प्रिंसिपल साहब के दर्शन नहीं हुए और न किसी अन्य ने चेकिंग की। नकलबाज़ लड़कों के हौंसले बुलंद हुए। नकल न करने वाले भी खुल गए। छोटी मोटी पुर्चियां एहतियातन रखने लगे।
चौथा दिन। आख़िर वही हुआ जिसकी आशंका थी।
परीक्षा प्रारंभ होने से पांच मिनट पूर्व प्रिंसिपल साहब कक्ष में आए और सख़्त लहज़े में बुलंद स्वर में बोले- पांच मिनट का वक्त देता हूं। जिसके पास पुर्ची हो, किताब हो। नकल का कोई भी सामान हो, बाहर जाकर फेंक आये। वरना जब बाद में मैं तलाशी लूंगा और नकल का सामान पाया तो सीधा परीक्षा से बेदखल। याद रखो मुझे मालूम है नक़ल का सामान कहां छुपा कर रखा जाता है। शक़ पड़ा तो पूरे कपड़े उतरवा दूंगा।

Saturday, July 25, 2015

पापा, आप फेल भी हुए हैं?

-वीर विनोद छाबड़ा
वीर गाथाएं सुनते-सुनते छोटे क्या बड़े भी बोर हो गए।
खुद से कई बार सवाल किया। क्या ज़िंदगी में कभी ठोकर नहीं खायी? नाले में साइकिल समेत नहीं गिरे? माता-पिता जी से मार नहीं खायी? टीचर ने कभी बेंच पर खड़ा नहीं किया? छड़ी से पीटा नहीं? पड़ोसन को छेड़ने पर उसके पिता ने शिकायत नहीं की? रांगसाइड स्कूटर चलाने या सिग्नल तोड़ने पर सिपाही ने चालान नहीं काटा?
हथेली में मुंह छुपा कर मैं अक्सर डाउन मेमोरी लेन में पहुंच जाता हूं।

देखता हूं कि असफलताओं की लंबी फ़ेहरिस्त है। तफ़सील से लिखा जाए तो मोटा ग्रंथ तैयार हो जाये।
वास्तव में मैं शरारतों को छोड़ पढाई के मामले में मंदबुद्धि छात्र रहा हूं। मुझे याद नहीं है कि पहली से पांचवीं तक मैं कैसे पहुंचा।
छटवीं कक्षा की छमाही परीक्षा में फर्स्ट ज़रूर आया। लेकिन उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगा। फ़ोकस चेंज हो गया।
पिताजी कहते थे - साइकिल में पंक्चर लगाना। हवा भरना।
लेकिन मां संभाल लेती थी सिचुएशन को - मेरा लाल जवाहरलाल बनेगा।
और हमारे मन में हीरो हीरालाल बनना था। हाई स्कूल में बिना चांदे की सहायता से ६० डिग्री का कोण बनाना नहीं आता था। नतीजा हाई स्कूल में फेल।
घर की जैसे प्रोग्रेस ही रुक गई। गहरे अवसाद के दिन थे वो। कई बार सोचा, भाग जाऊं। लेकिन यह सोच कर डर गया कि कहां जाऊंगा, क्या करूंगा और क्या खाऊंगा?
बहरहाल, जैसे-तैसे उबरा। इस बार अच्छे अंक के साथ दूसरी श्रेणी। लेकिन ट्रिग्नोमेट्री और सॉलिड ज्योमेट्री सर में नहीं घुसी। नतीजा इंटरमीडिएट में फेल। लेकिन इस बार की ठोकर ने मुझे मजबूत बना दिया। कभी भागने का मन नहीं हुआ। ट्रिप्पल एमए कर लिया। कह सकता हूं, थ्रू आउट सेकंड डिवीज़न। कम्पटीशन से बढ़िया नौकरी भी मिली। किसी की सिफारिश नहीं ली। अपने पिता की तरह सेल्फ़मेड।
एक बार बच्चों को बताया कि मैं हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में एक-एक बार फेल हो चुका हूं तो वो बड़ी जोर से हंसे - पापा आप फेल भी हुए हैं? इतने बड़े नालायक थे! हम लोग तो कभी फेल नहीं हुए। मम्मी भी नहीं। 
मित्रों, मैं नाकामियों को छुपाता नहीं। वो इसलिए कि ताकि जब मैं परिवार के साथ टहलने निकलूं तो डॉ वीरेंद्र पुरी न मिल जायें, जो कहें  - अच्छा, तो आप वही हैं जो मेरे साथ हाई स्कूल में थे। हां, याद आया। मैं तो पास हो गया था और आप शायद फेल हो गए थे। तो हाई स्कूल कब पास किया?
कभी-कभी सच भी हज़म नहीं होता।
एक बार मैंने बच्चों को बताया - नौकरी लगने से पहले अपना जेब खर्च निकालने के लिए मैंने लिफाफे भी बनाये हैं।
बच्चों ने कहा था - एकदम सफ़ेद झूठ! इतना झूठ भी मत बोला करें पापा।
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Friday, July 24, 2015

आलोचना की संस्कृति खतरे में है - प्रो.मैनेजर पाण्डेय।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति - यह विषय था, कल लखनऊ में जन संस्कृति मंच के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी का।
अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने। मुख्य वक्ता थे -वरिष्ठ आलोचक प्रो.मैनेजर पाण्डेय।
प्रो.पाण्डेय ने इंगित किया कि पश्चिम में डेमोस अर्थात जनसाधारण शब्द का प्रयोग होता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता के लिए। हमारे देश में केंद्र में सरकार है और अनेक राज्यों की सरकारें हैं। मालूम नहीं चलता कि कौन सी सरकार है जनता के लिए और जनता द्वारा? यहां पूंजीतंत्र है - अंबानी और अडानी का तंत्र है। दबंगों का राज्य है। वही नेता हैं, वही विधायक हैं। वही कानून बनाते हैं और खुद को कानून से ऊपर रखते हैं।

यहां लोकतंत्र का एक ही लक्षण दिखता है - चुनाव। सुबह से शाम इसी की चर्चा होती है। विडंबना है कि दस साल तक एक ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसने कभी पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा। तमाम एमपी-एमएलए पूंजीपति हैं। नीति वही बनाते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड में बैठ कर उपदेश दिए जाते हैं। ८०% कानून ब्रिटिेश पीरियड के हैं।
लोकतंत्र एक मानसिकता है, वैचारिक चेतना है। नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना है। जहां असहमति और विरोध का सम्मान न हो वो लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों को दबायें नहीं। बहस करें। अभी एक समाज सुधारक अंधविश्वास के प्रति चेतना पैदा कर रहे थे, उनकी हत्या हो गयी। एक लेखक ने लिखा - हम लोकतांत्रिक हैं क्या? उन पर दो पुलिस केस हो गए। एक लेखक ने कई बरस पहले लेख लिखा था। आज पता चला कि किसी छोटे से समुदाय की भावनायें आहत हो गयीं। उन्हें लेख वापस लेते हुए कहना पड़ा - लेखक के रूप में आज मैं मर गया।
राजनैतिक दल और सरकारें भी लोकतंत्र की हत्या करती हैं। सरकार ने कुछ नहीं किया। पुलिस शिकारी को नहीं शिकार को पकड़ती है। इस देश के लोग इतने संवेदनशील हैं कि बात बात पर उनकी भावनायें आहत होने लगी हैं। जहां विचार की कद्र नहीं, जहां व्यंग्य बर्दाश्त नहीं, वहां लोकतंत्र कैसा?
शंकर वीकली में जवाहरलाल नेहरू पर कार्टून छपा। पैर बड़े और सर छोटा दिखाया गया। भक्त ने कहा कि नेहरू का अपमान हुआ। लेकिन नेहरू ने कहा - नहीं। ठीक है यह व्यंग्य। मैं चलता ज्यादा हूं और सोचता कम हूं।
डॉ लोहिया का भी कार्टून बना। लेकिन सर बड़ा और पैर छोटे। भक्तों को गुस्सा आया। लोहिया ने डांटा - ठीक बनाया। सर बड़ा, सोच बड़ी।
जीने की स्वतंत्रता पर वेस्ट यूपी और हरयाणा में खाप पंचायतों ने अंकुश लगा रखा है। खाप ने परंपरा की रक्षा का ठेका लिया है। प्रेम की स्वतंत्रता नहीं है। सभ्य कहना भी संकोच का मुद्दा बन जाता है। अजंता-ऐलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र देखें। खुजराओ के मंदिर में दीवारों पर बनी मूर्तियां देखें। शर्म आ जाएगी। लेकिन कलाकार प्रजापति कहलाता है, ईश्वर के सबसे करीब।

असहनशीलता लोकतंत्र की परम दुश्मन है। आलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के कारण ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। अमेरिका जीवित इसलिए है कि वहां असहमति को बर्दाश्त किया जाता है। सरकारी नीतियों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
भारत में सिविल सोसाइटी विभाजित है। जातिवाद का बोलबाला है। लेफ्ट ने भी कोई सुसंकृतज्ञ नीति नहीं अपनायी। जब तक समाज में जातिवाद का अंत नहीं होगा, साम्यवाद नहीं लाया जा सकता। अब तक तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। यह सवाल तब भी था और आज भी है। प्रेमचंद इसी वयवस्था से लड़ते रहे।
इस देश में स्त्रियों की पूजा होती है। लेकिन सत्ता देवताओं के हाथ में है। पितृ सत्ता स्थापित है। संस्कृत के नाटकों में स्त्रियां दास की भाषा बोलती थीं।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक न रहने से इनका अस्तित्व नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य नारा है।
यह अतुल्य भारत है। प्रकृति का क्या होगा? पूंजीपति को इसकी चिंता नहीं है।
हिंदी साहित्य में बौद्धिकता और विवेकवाद दिखता है। यहां आलोचना को स्थान है। देखी तुम्हारी काशी। काशी की आलोचना है। निराला में आलोचनात्मक चेतना थी। रघुवीर सहाय ने 'जन गण मन.पर ज़बरदस्त व्यंग्य लिखा। लेकिन आज आलोचना गंभीर खतरे में है।
आज कविता सर्वनाशी माहौल में खड़ी है। बहुत दूर तक जाना है। जो कविता मनुष्य के पक्ष में खड़ी होगी, वही मनुष्य की कविता होगी।
लेखक और जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने प्रश्न उठाया कि आलोचना और विचार की संस्कृति आज खतरे में है, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
प्रो.पांडे ने इस पर कहा - राम के सामने भी यह संकट था। सत्य की भौतिक कल्पना करो। मार्क्स ने कहा था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या पैदा नहीं करता जिसका समाधान वो स्वयं न खोज सके। संकट देशव्यापी है तो समाधान भी देशव्यापी होना चाहिए। जनता को जगाने के ज़रूरत है। जो साहसी और कर्तव्यनिष्ठ है, उससे विरोध को सामने लाईये। इष्टमित्रों को खोजना होगा। मनुष्य विरोधी माहौल से तभी मुक्ति मिलेगी।

Thursday, July 23, 2015

ऑटो चालक का भी दिल है।

-वीर विनोद छाबड़ा
अभी आज सुबह ऑफिस टाइम की बात है। मुंशीपुलिया ऑटो-टेम्पो स्टैंड पर सीट के लिये मारा-मारी है। हमें हैरानी होती है कि ऐसे मारा-मारी के माहौल में भी दो-तीन खाली आटो सामने से मुंह चिढ़ाते हुए सरपट निकल गए। दो आटो वाले स्टैंड से तनिक हट कर आराम फरमा रहे हैं। उनमें से एक से हमने अति विनम्रता से निवेदन किया - भैया शक्ति भवन तक जाना है। चलोगे?

उसने न हमें और न हमारे निवेदन पर कोई तवज़्ज़ो दी।
दूसरे से पूछा तो वो बोला - नहीं।
शुक्र है उसने जवाब तो दिया। इसका मतलब यह है कि उसमें जगप्रसिद्ध लखनवी गंगा-जमुनी तहज़ीब के कुछ अंश बाकी हैं या फिर हमीं ने सुबह-सुबह किसी भलेमानुस के दीदार किए हैं। 
सहसा कई तरह के सवाल ज़हन में पैदा होते हैं। यह चालक निठल्ले क्यों बैठे हैं? आटो में खराबी है? चालकों का हाज़मा खराब है? पेचिश की शिकायत हैं? बीवी की डांट खायी है? किसी से कोई झंझट हुआ है? पेट इतने भरे हैं कि इन्हें अब और पैसे की ज़रूरत नहीं है?
तभी हमने गौर किया। पहले वाला चालक बड़ी बेसब्री से बार-बार एक खास दिशा की तरफ देख रहा है। बीच-बीच में घड़ी भी देखता है। उसे शायद किसी का इंतजार है।
अचानक आटो चालक के चेहरे पर संतोष की लहर दौड़ी, आंखों में खुशी चमकी। वह अपनी सीट पर मुस्तैदी से बैठ गया। और फुर्ती से ऑटो स्टार्ट किया।
और तभी जाने कहां से एक सजी-धजी जवान लड़की आई और आटो में धम्म से बैठ गयी।
चालक ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पूछा भी नहीं कि कहां चलना है। तुरंत पिक-अप लिया और देखते ही देखते वाहनों की भीड़ में गुम हो गया।
हम एक पल के लिए सोच में डूबे कि आख़िर  माज़रा क्या है? फिर अचानक हमारा सिक्सटी प्लस का तजुर्बा काम आया। हमारी आंखों से सामने ऑटो चालक का इंतजार करता बेसब्र चेहरा घूम गया।
ओह! तो ये कुछ वैलेंटाइन यानि इश्क-विश्क का मामला है!
एक तरफा है या दो तरफा? क्या फ़र्क पड़ता है। दिल आख़िर दिल है। ऑटो चालक का है तो क्या हुआ?
हमने माफ़ किया आटो चालक को।
तभी भन्न से एक ऑटो हमारे सामने आकर रुका। उसमें एक सीट खाली थी। 
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२३-०७-२०१५

Wednesday, July 22, 2015

मुकेश - आत्मा की आवाज़।

-वीर विनोद छाबड़ा 
आज आवाज़ की दुनिया के एक बादशाह दिवंगत मुकेश माथुर का जन्मदिन है।
मुकेश का फिल्मों में आना दिलचस्प किस्सा है। मुकेश अपनी बहन की शादी में सहगल की नकल करते हुए गाना गा रहे थे। दूर के रिश्तेदार मोतीलाल उसी समारोह में मौजूद थे। उन्होंने  उस आवाज़ को सुना। वो दंग दंग रह गए। इतनी परफेक्ट नक़ल! यह ज़रूर बड़ा सिंगर बनेगा। मोतीलाल बड़े एक्टर थे। वो उन्हें बंबई ले आये। पंडित जगन्नाथ प्रसाद से उन्हें गीत संगीत में प्रवीण कराया। यह ४० के दशक की शुरुआत थी। उन दिनों सिंगर का एक्टर होना या एक्टर का सिंगर होना ज़रूरी था। लिहाज़ा मुकेश का फ़िल्मी सफ़र एक्टिंग से शुरू हुआ। उनकी पहली फ़िल्म थी निर्दोष (१९४१).
  
उन दिनों कुंदन लाल सहगल की सेहत अच्छी नहीं चल रही थी। गायन और संगीत के क्षेत्र में असमंजस्य का माहौल था। सहगल की जगह कौन लेगा? क्या दूसरा सहगल पैदा होगा?
ऐसे ही फ़िक्रमंद माहौल में संगीतकार अनिल विश्वास मुकेश को ले आये- बोले यह है हीरा।
मुकेश ने पूरे विश्वास से और दिल की गहराईयों से गाया - दिल जलता है तो जलने दो....(पहली नज़र-१९४५). 
जिसने सुना उसे लगा वाकई सहगल का विकल्प मिल गया है। सहगल जैसा ही दर्द है। दिल की गहराइयों से गाया है।
यह एक इत्तिफ़ाक़ है कि यह गाना मुकेश को दिल्ली से लाये मोतीलाल पर फिल्माया गया।
बहरहाल, मुकेश की असल परीक्षा बाकी थी। यह गाना सहगल साहब को सुनाया गया। सहगल ने बड़े ध्यान से पूरा गाना सुना और फिर पूछा - मैंने कब गाया यह गाना?
लेकिन मुकेश की नज़र में सहगल तो सहगल ही थे। वो नहीं चाहते थे कि दुनिया उनको सहगल की नक़ल या क्लोन के रूप में याद करे।
उन्होंने रियाज पे रियाज किये। दिन रात एक कर दिया। ताकि सहगल से अलग एक मुक़ाम बना सकें।
इस बीच सहगल साहब दिवंगत हो गए। मुकेश के लिए मैदान खाली था। मगर मुकेश ने कभी दावा नहीं किया कि सहगल के जाने से खाली हुए 'बड़े शून्य' को वो भर देंगे।
मुकेश ने सहगल से अलग अपनी दुनिया बसायी। इसमें उनका साथ दिया नौशाद ने। उन्हें तराशा। मेला और अंदाज़ में मौका दिया। यहां से मुकेश ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मुकेश की अपनी पहचान बनी। लेकिन फिर भी बरसों तक खास-ओ-आम मुकेश को सहगल की शैडो से बाहर देखना गवारा नहीं कर पाया। दरअसल सहगल जैसा दर्द सिर्फ़ मुकेश के स्वर में ही झलकता था।
मेला और अंदाज़ में में दिलीप कुमार की आवाज़ बने मुकेश। दिलीप को मुकेश इतना भाये कि वो चाहने लगे कि वो उनकी स्थाई आवाज़ बन जायें। लेकिन इस बीच राजकपूर ने मुकेश को अपनी आवाज़ बना लिया।
  
मैंने जब साठ के दशक में होश संभाला था तो सहगल नहीं थे। मुकेश को ही पाया। ये तो आगे चल कर पता चला कि उनके सीने में भी सहगल जैसा दर्द था, जिसे मैं उनके गले से निकलते स्वर से महसूस करता रहा। 
मुकेश की ज़िंदगी में बेहतरीन लम्हा आया। उन्हें 'रजनीगंधा' में गाये गीत 'कई बार यूं ही देखा है.…' के लिए बेस्ट सिंगर का नेशनल अवार्ड मिला।
उन्हें चार बार बेस्ट सिंगर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला - सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी(अनाड़ी)सबसे बड़ा नादान वही है जो समझे नादान मुझे(पहचान)न इज़्ज़त की चिंता न फ़िक्र कोई ईमान की, जय बोलो बेईमान की(बेईमान)कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है(कभी-कभी).

Tuesday, July 21, 2015

चूहे के साथ फंसे हम!

-वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। हम अधिकारी के पद पर नए नए प्रमोट हुये थे ।
पद की गरिमा को मेन्टेन करने के लिए कई तरह के प्रोटोकॉल अपनाने पड़े। जैसे, नमस्ते का जवाब बोल कर या हंस कर नहीं देना बल्कि सर हिला कर दो। और अगर नमस्ते करने वाली महिला हो तो बा-अदब हलकी सी मुस्कान भी साथ में छोड़ो।

घर में इसका कोई लाभ नहीं मिला जब मेमसाब को पता चला कि पगार एक इन्क्रीमेंट के बराबर बढ़ी। 
रोज़मर्रा की समस्त क्रियाएं पूर्वरत जारी रहीं।
इसी क्रम में एक दिन सुबह-सुबह हम चूहेदानी में फंसा चूहे को दूर एक नाले में छोड़ने जा रहे थे।
रास्ते में कई लोग मिले। आमतौर पर जैसा कि होता है। गुप्ता जी ने झांक के देखा, छोटा है या बड़ा। श्रीवास्तव जी ने पूछा - चूहा फंसा है?
हमने कहा -  चूहेदानी में चूहा ही फंसता है या छछूंदर, हाथी नहीं।
त्रिवेदी जी ने छींटा मारा - अब चूहे के साथ आप भी फंसे। वर्माजी ने तो हमारी गैरत को ललकारा  -वाह! तो डिप्टी जनरल मैनेजर साहब चूहा छोड़ने जा रहे हैं। बिग न्यूज़।
यों भी हाथ में चूहेदानी देखकर लोग जाने क्यों मुस्कुराते हैं। जैसे खुद कभी चूहेदानी छुई ही न हो।
बहरहाल, हम दफ़्तर पहुंचे। शाम तक हमारी नाक में दम हो गया।
दरअसल हुआ यह था कि सुबह किसी दिलजले बाबू ने हमें चूहेदानी के साथ देख लिया था। हर पांच मिनट पर किसी न किसी का फ़ोन आता या कोई मिलने चला आता। सबकी ज़बान पर एक ही प्रशन था - सर, सुना है आप चूहा छोड़ने जा रहे थे।
किस-किस को जवाब देता - भई, चूहा छोड़ना कोई गुनाह तो नहीं! किसी प्रोटोकॉल में तो लिखा नहीं कि अफ़सर बनने के बाद चूहे को रिहा करना मना है। 
यह चूहा छोड़ने का प्रकरण कई दिनों तक हमारे दिलो-दिमाग पर छाया रहा, भूत बन कर मेरा पीछा करता रहा। लगता कि कई खामोश निगाहें हमें घूरते हुए  चूहे के बारे में ही तरह-तरह के सवाल पूछ रही हैं।
एक दिन से तय कर लिया कि चूहेदानी में फंसा चूहा छोड़ने हम नहीं जाएंगे। चाहे कुछ भी हो जाए।
लेकिन प्रेतात्माएं आसानी से पीछा नहीं छोड़ती हैं। पत्नी ने साफ कहा - आप नहीं तो और कौन जायेगा? मैं जाती हुई अच्छी लगूंगी? बच्चों के पढाई-लिखाई के दिन हैं। उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं।
बात तो ठीक थी। मगर जहां चाह, वहां राह। दूसरा तरीका मिल गया।

सुबह मुंह अंधरे उठे। मुंह पर रूमाल लपेटा और चल दिए चूहेदानी लेकर।
ज़िंदगी फिर आराम से गुज़रने लगी।
रिटायर हुए। अब किसका डर! कोई देखे या न देखे।
लेकिन, मिल ही गए दुश्मन और दिलजले। फ़रीद भाई ने जुमला फेंका - रिटायर होने के बाद बड़े से बड़ा अफ़सर औकात पर आ जाता है।