-वीर विनोद छाबड़ा
आज के भारत में लोकतंत्र और आलोचना की संस्कृति - यह विषय था, कल लखनऊ में जन संस्कृति
मंच के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी का।
अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक रवींद्र वर्मा ने। मुख्य वक्ता थे -वरिष्ठ आलोचक प्रो.मैनेजर
पाण्डेय।
प्रो.पाण्डेय ने इंगित किया कि पश्चिम में डेमोस अर्थात जनसाधारण शब्द का प्रयोग
होता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता
के लिए। हमारे देश में केंद्र में सरकार है और अनेक राज्यों की सरकारें हैं। मालूम
नहीं चलता कि कौन सी सरकार है जनता के लिए और जनता द्वारा? यहां पूंजीतंत्र है
- अंबानी और अडानी का तंत्र है। दबंगों का राज्य है। वही नेता हैं, वही विधायक हैं। वही
कानून बनाते हैं और खुद को कानून से ऊपर रखते हैं।
यहां लोकतंत्र का एक ही लक्षण दिखता है - चुनाव। सुबह से शाम इसी की चर्चा होती
है। विडंबना है कि दस साल तक एक ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसने कभी पंचायत का चुनाव तक
नहीं लड़ा। तमाम एमपी-एमएलए पूंजीपति हैं। नीति वही बनाते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड
में बैठ कर उपदेश दिए जाते हैं। ८०% कानून ब्रिटिेश पीरियड के हैं।
लोकतंत्र एक मानसिकता है, वैचारिक चेतना है। नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक चेतना है। जहां असहमति और विरोध का सम्मान न हो वो लोकतंत्र
हो ही नहीं सकता। लोकतंत्र की मांग यही है कि विरोधी विचारों को दबायें नहीं। बहस करें।
अभी एक समाज सुधारक अंधविश्वास के प्रति चेतना पैदा कर रहे थे, उनकी हत्या हो गयी।
एक लेखक ने लिखा - हम लोकतांत्रिक हैं क्या? उन पर दो पुलिस केस हो गए। एक लेखक ने कई बरस पहले लेख लिखा
था। आज पता चला कि किसी छोटे से समुदाय की भावनायें आहत हो गयीं। उन्हें लेख वापस लेते
हुए कहना पड़ा - लेखक के रूप में आज मैं मर गया।
राजनैतिक दल और सरकारें भी लोकतंत्र की हत्या करती हैं। सरकार ने कुछ नहीं किया।
पुलिस शिकारी को नहीं शिकार को पकड़ती है। इस देश के लोग इतने संवेदनशील हैं कि बात
बात पर उनकी भावनायें आहत होने लगी हैं। जहां विचार की कद्र नहीं, जहां व्यंग्य बर्दाश्त
नहीं, वहां लोकतंत्र कैसा?
शंकर वीकली में जवाहरलाल नेहरू पर कार्टून छपा। पैर बड़े और सर छोटा दिखाया गया।
भक्त ने कहा कि नेहरू का अपमान हुआ। लेकिन नेहरू ने कहा - नहीं। ठीक है यह व्यंग्य।
मैं चलता ज्यादा हूं और सोचता कम हूं।
डॉ लोहिया का भी कार्टून बना। लेकिन सर बड़ा और पैर छोटे। भक्तों को गुस्सा आया।
लोहिया ने डांटा - ठीक बनाया। सर बड़ा,
सोच बड़ी।
जीने की स्वतंत्रता पर वेस्ट यूपी और हरयाणा में खाप पंचायतों ने अंकुश लगा रखा
है। खाप ने परंपरा की रक्षा का ठेका लिया है। प्रेम की स्वतंत्रता नहीं है। सभ्य कहना
भी संकोच का मुद्दा बन जाता है। अजंता-ऐलोरा की गुफाओं में बने भित्तिचित्र देखें।
खुजराओ के मंदिर में दीवारों पर बनी मूर्तियां देखें। शर्म आ जाएगी। लेकिन कलाकार प्रजापति
कहलाता है, ईश्वर के सबसे करीब।
असहनशीलता लोकतंत्र की परम दुश्मन है। आलोचना की संस्कृति को बर्दाश्त न करने के
कारण ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। अमेरिका जीवित इसलिए है कि वहां असहमति को बर्दाश्त
किया जाता है। सरकारी नीतियों की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
भारत में सिविल सोसाइटी विभाजित है। जातिवाद का बोलबाला है। लेफ्ट ने भी कोई सुसंकृतज्ञ
नीति नहीं अपनायी। जब तक समाज में जातिवाद का अंत नहीं होगा, साम्यवाद नहीं लाया
जा सकता। अब तक तो गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। यह सवाल तब भी था और आज भी है।
प्रेमचंद इसी वयवस्था से लड़ते रहे।
इस देश में स्त्रियों की पूजा होती है। लेकिन सत्ता देवताओं के हाथ में है। पितृ
सत्ता स्थापित है। संस्कृत के नाटकों में स्त्रियां दास की भाषा बोलती थीं।
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक न रहने से इनका
अस्तित्व नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य नारा है।
यह अतुल्य भारत है। प्रकृति का क्या होगा? पूंजीपति को इसकी चिंता
नहीं है।
हिंदी साहित्य में बौद्धिकता और विवेकवाद दिखता है। यहां आलोचना को स्थान है। देखी
तुम्हारी काशी। काशी की आलोचना है। निराला में आलोचनात्मक चेतना थी। रघुवीर सहाय ने
'जन गण मन.…पर ज़बरदस्त व्यंग्य लिखा। लेकिन आज आलोचना गंभीर खतरे में है।
आज कविता सर्वनाशी माहौल में खड़ी है। बहुत दूर तक जाना है। जो कविता मनुष्य के
पक्ष में खड़ी होगी, वही मनुष्य की कविता होगी।
लेखक और जनसंदेश टाइम्स के संपादक सुभाष राय ने प्रश्न उठाया कि आलोचना और विचार
की संस्कृति आज खतरे में है, लेकिन बाहर निकलने का रास्ता क्या है?
प्रो.पांडे ने इस पर कहा - राम के सामने भी यह संकट था। सत्य की भौतिक कल्पना करो।
मार्क्स ने कहा था कि मानव समाज कोई ऐसी समस्या पैदा नहीं करता जिसका समाधान वो स्वयं
न खोज सके। संकट देशव्यापी है तो समाधान भी देशव्यापी होना चाहिए। जनता को जगाने के
ज़रूरत है। जो साहसी और कर्तव्यनिष्ठ है,
उससे विरोध को सामने लाईये। इष्टमित्रों को खोजना होगा। मनुष्य
विरोधी माहौल से तभी मुक्ति मिलेगी।