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-वीर विनोद छाबड़ा
आज़ादी से पहले, पंजाब के मियांवाली शहर में 03 मार्च, 1923 को जन्मा एक बंदा 7 अगस्त, 1947 को पत्नी शकुंतला और आठ महीने की मासूम बेटी शील के साथ लाहौर से जालंधर के लिए रवाना होता है। हिंदुस्तान की आज़ादी और तक़सीम के साथ पाकिस्तान के बनने की तारीख तय हो चुकी थी। हालात बेहद संगीन थे। हर तरफ आगजनी, क़त्लो-ग़ारत व अफ़रा-तफ़री का माहौल था। जान की सलामती के मद्देनज़र उस बंदे ने कुछ ज़रूरी सामान और कागज़ात समेटे। मकान पर ताला लगाया। चाबी अपने मुसलमान पड़ोसी को सौंपी, पूरी-पूरी इस उम्मीद के साथ कि जल्द ही दंगे ख़त्म होंगे, अमन-चैन बहाल होगा और वो अपने शहर, प्यारे शहर लाहौर लौटेगा, ताउम्र रहने के लिए। उस पड़ोसी ने बंदे को रेलवे स्टेशन तक पहुंचने में मदद भी की।
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उन दिनों लाहौर से जालंधर और जालंधर से लाहौर की तरफ जाने वाली ज्यादातर ट्रनें लहुलुहान होकर पहुंचती थीं। ऐसे संगीन माहौल में संयोग से बंदा बिना किसी खरोंच के सपरिवार जाालंधर पहुंच गया। नवां शहर द्वाबा के एक रिफ्यूजी कैंप में पनाह मिली।
कुछ ही दिनों में साफ हो गया कि तक़सीम मुक़म्मल है और अब सरहदों के पार अपने घरों को लौटना मुमकिन नहीं हो पाएगा। खबर ये भी मिली कि जैसे सरहद के इधर खास-खास मोहल्लों, इलाकों और शहरों में मुसलमानों के घरों को लूट लिया गया है, जला दिया गया है, सरहद के उस पार हिंदुओं के घरों के साथ भी ठीक ऐसा ही सलूक हुआ है। यानि अब कुछ भी तो नहीं बचा है। जिनकी जानें बच गयीं वो शुक्र मनायें। ऊपर वाले की मेहरबानी है। तब बंदे की शुरू हुई जिंदा रहने के लिए ज़बरदस्त जद्दोज़हद।
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खबर मिली थी कि बाप-दादा और तमाम रिश्तेदार मियांवाली से जालंधर के लिए रवाना हुए हैं, मगर यहां जालंधर में उनका कुछ अता-पता नहीं चला। पता नहीं वे ज़िंदा बच भी पाए हैं या नहीं! ऐसे असमंजस्य और टेंशन भरे हालात के बावजूद बंदा पत्नी व बेटी को एक रिफ्यूजी कैंप में छोड़ कर बनारस के लिए निकल पड़ा। दरअसल ऐसा करना मजबूरी थी। क्योंकि ख़बर मिली थी कि रेलवे में रिफ्यूजियों की खास भर्ती हो रही है। बंदा लाहौर की मुगलपुरा वर्कशाप में मुला़िज़म था। इसका सबूत वो रेलवे पास था जो उसने लाहौर छोड़ने वाले दिन लाहौर से जालंधर तक लिये जारी करवाया था। लिहाज़ा नौकरी मिल गई। बंदा पत्नी और बेटी को भी फौरन बनारस ले आया। कुछ अरसे बाद बंदे को अपने मां-बाप, भाई-बहनों और तमाम रिश्तेदारों की सलामती के बावत भी पता चल गया। बहरहाल बंदे के कुछ साल बनारस में गुज़रे।
बंदा महज़ हाई-स्कूल पास था, जो उस ज़माने के लिहाज़ से काफी था। मगर नस-नस में उर्दू इल्मो-अदब स्कूल के दिनों से ही लहू बन के ठाठें मार रहा था। कई नामी-गिरामी रिसालों में अफ़साने छप चुके थे। मगर अफ़सानानिगारी के फ़़न कोे तराशने के लिए बंदे ने इल्मो-अदब व गंगा-ज़मनी तहज़ीब का मरकज़ लखनऊ ज्यादा पसंद आया।