Monday, October 31, 2016

भाभी जी के हाथ का समोसा

-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल राष्ट्रप्रेम का ज़माना है। एक साहब इज़्ज़ा-पिज़्ज़ा की बजाये देशी व्यंजन समोसा खाने की सलाह दे रहे थे। हम उनकी अज्ञानता पर मुस्कुरा दिए। उन्हें मालूम नहीं कि यह समोसा भी कहीं ईरान-तुरान से आया है। सोचा राज को राज रहने दो। ऐसा न हो कि ईरान आंखें तरेरे और इधर हमारे मुल्क में समोसे पर शामत आये। इसकी कमाई पर पलने वाले हज़ारों छोटे-बड़े हलवाई बर्बाद हो जायें।
एक अस्पताल के पास एक ढाबा है। दिन भर वो समोसे तलता है। बहुत उम्दा समोसे हैं। दूर दूर से लोग लेने आते हैं। अस्पताल के डॉक्टर और मरीज़ तक समोसे खाते हैं। समोसे का आवरण मैदे का है इसलिये हलवाई ख्याल रखता है। इसमें जीरा और ऐज़वैन भी डाल देते हैं ताकि गैस्टिक न करे।
हमने तो तरह-तरह के समोसे खाए हैं। कीमा युक्त भी और नूडल्स वाले भी। लेकिन जो मज़ा आलू वाले समोसे में मिला वो किसी और में नहीं। हर शहर की हर गली-मोहल्ले में एक अदद समोसा स्पेशलिस्ट ज़रूर है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक। व्यंजनों के नाम से गलियां हैं। शायद कोई समोसे वाली गली भी हो। तनिक सरहद के पास पहुंचिए। लाहोर से भी समोसे की खुशबू आती मिलेगी। नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश वाले भी समोसे के प्रति हमारे जैसा ही दिल रखते हैं।

समोसा खाने का अपना अपना जायका है। समोसा ब्रेड स्लाइस बीच रख दो। खट्टी-मीठी चटनी/टमाटो सॉस के साथ तो खूब मज़ा मिलता ही है। एक साहब को रसगुल्ले की बची चाशनी के साथ खाते देखा। अपने चौराहे पर सुबह-सवेरे तमाम ऑफिस जाने वाले तो समोसा-जलेबी विद दही का नाश्ता करते हैं।
अब तो गली-मोहल्ले से लेकर बड़े-बड़े कॉर्पोरेट हाउस की पार्टियों में भी समोसे की घुसपैठ है। एक बीएचके से लेकर सेवन बीएचके का अपार्टमेंट्स में रहने वालों के ओवन में रखा देखा है। इज़्ज़ा-पिज़्ज़ा के मुकाबले बहुत सस्ता और कैलोरी से भरपूर भी है। बड़े में ३०० कैलोरी और छोटे में १०० कैलोरी मौजूद है। १३-१४वीं शताब्दी में मध्य-एशिया के तिजारती इसे भारत लाये थे। अमीर खुसरो और फिर इब्ने बतूता ने इसका ज़िक्र किया है। शुरुआती दौर में मसालेदार मीट के साथ काजू और बादाम भरा गया। सिर्फ़ शाही घरानों में परोसे जाने का रिवाज़ था। लेकिन जल्दी ही महलों के ऊंची-ऊंची चारदीवारी फांद यह जन-जन में मक़बूल हो गया। पुराने दिग्गज इसकी आकृति के दृष्टिगत तिकोना भी कहते हैं।
अपने उत्तर भारत में आलू का समोसा प्रसिद्ध है। सैकड़ों साल हो गए। रत्ती भर भी कमी नहीं आई इसकी आकृति में। तिकोनी शक्ल में पैदा हुआ और आज तक वही है। सिनेमा में भी घुस गया। जब तक रहेगा समोसे में आलू, तेरा रहूंगा ओ मेरी शालूबिहार में कभी एक राजनीतिक जुमला भी रहा - जब तक समोसे में आलू है तब तक बिहार में लालू है।

Sunday, October 30, 2016

मामा के घर क्या खाया?

- वीर विनोद छाबड़ा
रिश्तेदारों में मामा का कद भी बहुत बड़ा होता है। कभी हमारे मामा ५०० मीटर दूर रहा करते थे। उनके और हमारे घर के बीच मैदान था। जहां हम क्रिकेट और फुटबाल खेलते खेलते उनके घर चले जाते थे। पतीसे के साथ घड़े का ठंडा पानी पीने। कई बार चलते हुए मामी हाथ में दो पैसे भी रख देती थी। त्यौहार हुआ तो इक्कनी या दुअन्नी। लोहड़ी के दिन सुबह पहुंच गए तो जलेबी भी हो जाती थी।

उन दिनों उनका घर बन रहा था। बहुत बड़ा और तिमंज़िला। यह साठ के दशक की शुरआत की बात है। उन दिनों आलमबाग के चंदर नगर में विरले ही तिमंज़िले मकान थे। अमीरों में गिनती होती थी उनकी। हम लोग उस घर में आइस-पाईस खेलने में बहुत आनंद मिलता था। बड़े हुए तो समझ आने लगी। पैसे लेना बंद कर दिया। मामा ज़बरदस्ती जेब में ठूंस देते।
फिर ऐसा समय भी आया कि हम खुद कमाने लगे। दूर रहने भी चले गए, करीब बीस किलोमीटर। लेकिन आना-जाना लगा रहा। भोजन कराये बिना तो कभी लौटाए नहीं गए।
एक दिन हम जल्दी में थे। मामा ने हाथ पकड़ लिया। रास्ते में कोई मिला तो पूछेगा कहाँ से आ रहे हो? यही कहोगे न कि मामा के घर से आ रहा हूं। उसका अगला सवाल यह होगा कि क्या खाया? क्या जवाब दोगे?
हमें बैठना पड़ गया। उनकी ताक़ीद होती थी जब भी आओ तो खाली पेट और कम से कम तीन-चार घंटों के लिए।

Saturday, October 29, 2016

जब साहिर के गीत से नेहरू हुए परेशान

-वीर विनोद छाबड़ा
साहिर ने मोहब्बत और इंकलाब की एक साथ शिद्दत से हिमायत की। वो सही मायनों में अवाम के शायर थे। उन जैसा सदियों तक ज़िंदा रहता है। वो लुधियाना एक मुस्लिम गुज्जर परिवार में जन्मे थे। बचपन बेहद संगीन हालात में गुज़रा। उनके अब्बू बहुत ज़ालिम थे। मां को कूटते रहते। चाहे इसमें जान ही क्यों न चली जाये। उनकी मां पूरी शिद्दत से अपने हकूक़ और साहिर के हक़ और हिफ़ाज़त के लिये लड़ती रही। यही वज़ह है कि साहिर ने हमेशा जुल्म की मुख़ालफ़त की।
सुना है कि साहिर और पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। लेकिन कुछ का कहना है कि सिर्फ साहिर ने ही अमृता को चाहा और बेसाख़्ता चाहा। इसी वजह से साहिर के नगमों में रुमानियत के भरपूर दीदार होते हैं। इसके बाद साहिर का नाम सुधा मल्होत्रा से जोड़ा गया। लेकिन बताते हैं कि यह पब्लिसिटी स्टंट था। दरअसल, सुधा ने साहिर का 'दीदी' में यह गाना - तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है... इसकी रूह में घुस कर गाया ही नहीं ख़ास इसे कम्पोज़ भी किया। बस इत्ती सी बात का फ़साना बन गए। बहरहाल, साहिर ताउम्र कुंवारे रहे। सिर्फ़ और सिर्फ़ मां के लिये जीते रहे।
साहिर की तालीम और तरबीयत लुधियाना में ही हुई थी। १९४७ में साहिर लाहोर चले गये। मगर उनके इंकलाबी मिज़ाज और शायरी की वज़ह से पाकिस्तानी  सरकार ने उनको शक़ की निगाह से देखा। फिर उन्हें वहां का मज़हबी माहौल भी पसंद नहीं था। उन्हें अपने हिंदू-सिख दोस्तों की बेहद याद आती थी। वो १९४९ में वो आज़ाद ख्याल भारत आ गये। कुछ वक़्त दिल्ली में गुज़ार कर रोटी-रोज़ी के बेहतर इंतज़ाम के लिए फिल्मों की तरफ रुख किया।

साहिर की पहली फिल्म आज़ादी की राहथी। मगर न तो फिल्म और न ही साहिर को त्वज़ो मिली। पहली कामयाबी नौजवान (१९५१) में मिली - ये ठंडी हवायें, लहरा के आयें...यहीं से सचिनदा और साहिर की जोड़ी हिट हो गयी। कई बरस चला यह साथ प्यासामें टूटा। दरअसल, फिल्म की क़ामयाबी में ज्यादा ज़िक्र साहिर के नग्मों का हुआ। सचिनदा को यह अच्छा नहीं लगा।
साहिर बड़े शायर थे। इसका उन्हें अहसास था। शायर न हो गायक का क्या वज़ूद। उन्होंने शर्त लगा दी। उन्हें हर गीत का पारिश्रमिक लता मंगेशकर के मुकाबले एक रुपया ज्यादा मिले। दरअसल, साहिर ने शायर की मुफ़लिसी को जीया था। प्यासामें गुरूदत्त ने विजय नाम के जिस किरदार को जीया था वो साहिर के भीतर का शायर ही है। ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के, कहां हैं कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के? जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं...सुनते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को इस गाने ने बहुत डिस्टर्ब किया था। 
ताजमहल के बारे में साहिर के ख्यालात दुनिया के बिलकुल फ़र्क थे। वो फकीरों के मसीहा थे। रूमानियत में भी फकीरी का दीदार हुआ। तभी तो उन्होंने लिखा था - इक शहंशाह ने दौलत के सहारा लेकर, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक...साहिर ने तकरीबन हर गाना बेहतरीन लिखा। अब यह बात दीगर है कि उन्हें सिर्फ़ ताजमहलऔर 'कभी कभी' में ही बेस्ट गीतकार के फिल्मफेयर अवार्ड मिला...जो वादा किया है वो निभाना पडेगाकभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...

Friday, October 28, 2016

यह छाबड़ा बिना पेमेंट दिए भाग रहा था!

- वीर विनोद छाबड़ा
इस बार ग़लत तंबू में। ये हमारी कल की पोस्ट थी। इसमें हमने बताया था कि दूल्हा-दुल्हन को लिफ़ाफ़ा पकड़ाने के बाद पता चला कि हम ग़लत जगह आ गए हैं।
दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है। तबसे हमने सिद्धांत लिया कि पहले खाओ फिर सगन का लिफ़ाफ़ा पकड़ाओ।
इसके तत्काल दो लाभ हैं -
१- तब तक क्लीयर हो चुका होता है कि हम सही जगह पर हैं।
२- भोजन की क्वालिटी के मद्देनज़र लिफ़ाफ़े की रक़म कम या ज्यादा कर सकते हैं। 
लेकिन यहां भी एक बार भूल हो गयी।
हुआ यों कि हमने खाया-पिया। कुल्ला-शुल्ला करके मुंह में पान की गिलौरी दबाई। कार स्टार्ट की और घर चले आये। पतलून और शर्ट उतारने से पहले जेबें ख़ाली कीं। पता चला लिफ़ाफ़ा तो जेब में ही रह गया। मेमसाब ने लाख कहा - साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। ठंड भी बहुत है। थोड़ा-थोड़ा कोहरा भी है। बाद में कभी मिले तो दे देना।
लेकिन इस मामले में हम उसूल के पक्के हैं। तुरंत उल्टे पांव लौटे।
तबसे हम लिफ़ाफ़ा सामने वाली जेब में रखते हैं, चाहे कोट हो या शर्ट।
इसके भी तत्काल लाभ हैं -
१- गेट पर बहुत भीड़ होने की स्थिति में एंट्री जल्दी मिल जाती है।
२- जेब में टंगा लिफ़ाफ़ा देखकर मेज़बान को भी इत्मीनान रहता है कि बंदा खाली हाथ नहीं आया है। खाने की एवज़ में कुछ न कुछ दे कर ही जायेगा।
३- जेब से झांकता लिफ़ाफ़ा दूसरों को भी याद दिलाता है कि उन्हें भी लिफ़ाफ़ा देना है।
४- अगर हम लिफ़ाफ़ा देना भूल भी जायें तो बाहर खड़ा बाउंसर या कोई और याद दिला ही देगा।

Thursday, October 27, 2016

कट मार्क!

- वीर विनोद छाबड़ा
मेरे माथे के ऊपर दाएं हिस्से पर चोट का लंबा निशान है। मैं जब जब आईने के सामने खड़ा होता हूं तो दिखाई देता है। मैं करीब ५७-५८ साल पीछे चला जाता हूं...
मेरे घर कोई रिश्तेदार आया है। हम पकड़ो पकड़ो खेल रहे हैं। मैं उसे पकड़ना चाहता हूं। मैंने जंप मारी। लेकिन मेरा अंदाज़ा गलत हो गया। उसकी रफ़्तार ज्यादा थी। वो मेरे हाथ में नहीं आया। मैं फर्श पर गिर पड़ा। यह ईंटों वाला फर्श है। किसी ईंट का एक हिस्सा थोड़ा ऊपर उठा हुआ है। माथा कट गया। खूनो-खून हो गया। रात का वक़्त है। मां ने एक रूमाल रख कर कस दबा दिया। काफी देर बाद खून का बहना रुक गया। लेकिन रिसना बंद नहीं हुआ।
पिताजी रेलवे के पार्सल ऑफिस में हैं। देर रात शिफ्ट ड्यूटी से वापस आये। मेडिकल कॉलेज की इमरजेंसी में ले गए। मरहम पट्टी हुई। कई दिन लगे ठीक होने में।
सालों तक माथे पर एक मोटी सी गिल्टी बनी रही। इस बीच मुझे छेड़ा जाता रहा है - सींग निकल रहे हैं क्या?
बड़े होने पर सींग गायब हो गए। लेकिन एक लंबे कट का निशान रह गया। तब मुझे नहीं मालूम था कि यह मार्क ताउम्र रहेगा और मेरी पहचान भी बनेगा।
नौकरी मिलने के बाद कई फॉर्म भरने पड़े। इनमें एक सर्विस बुक भी थी। बाबू ने कहा। कोई पहचान बताओ।

Wednesday, October 26, 2016

नामुमकिन था मन्ना डे की आवाज़ को कॉपी करना

- वीर विनोद छाबड़ा 
प्रबोध चंद्र दे उर्फ़ मन्ना के प्रेरणा स्त्रोत उनके चाचा विख्यात संगीतज्ञ-गायक कृष्ण चंद्र डे थे। वो के.सी.डे के नाम से विख्यात हुए। बताते हैं कि उनको जन्म से ही दिखता नहीं था। उनकी मदद के वास्ते ही मन्ना कलकत्ता से मुंबई आए थे। और देखते ही देखते वो संगीत और गायन में रम गए। शास़्त्रीय संगीत में उनकी पकड़ इतनी अच्छी थी कि संगीत महापंडित भीमसेन जोशी भी उनके गायन के मुरीद हो गए। मन्ना को एकल गाने का पहला ब्रेक १९४३ में मिला। हुआ यों कि राम राज्यके लिये के.सी. डे को प्लेबैक का ऑफर मिला। लेकिन उन्होंने मना कर दिया - मैं अपनी आवाज़ किसी अन्य एक्टर को उधार नहीं दे सकता। गाना ऐसी स्थिति में केसी डे के साथ आये मन्ना से डायरेक्टर विजय भट्ट और संगीत निर्देशक शंकर राव व्यास ने बात की। तनिक झिझक के बाद वो तैयार हो गए। ये गीत था- गयी तू गयी, सीता सती...। पहले ही गाने से हिट हो गए मन्ना डे।
इसके बाद मन्ना ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। सोलो गानों में तो उनका जवाब ही नहीं था। ऐ मेरे प्यारे वतन...ये रात भीगी-भीगी...प्यार हुआ इकरार हुआ...रमैया वता वैया....मुस्कुरा लाड़ले मुस्कुरा...ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं...कौन आया मेरे दिल के द्वारे....पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई...लागा चुनरी में दाग़...किसने चिलमन से माराऐ भाई ज़रा देख के चलो...मस्ती भरा ये समां है...कस्मे वादे, प्यार-वफ़ा सब....ना मांगू सोना-चांदी....हंसने की चाह न मुझे....तुझे सूरज कहूं या चंदा...फुल गेंदवा ना मारो...तू प्यार का सागर है....आदि बेशुमार अमर नग़मे  मन्ना डे के नाम हैं।
मन्ना सोलो में ही नहीं युगल गानों के भी उस्ताद रहे। लताजी के साथ सौ से अधिक युगल गाये। मस्ती भरा ये समां है...नैन मिले चैन कहां...तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं...दिल की गिरह खोल दो...आदि अनंत गायन की सीमा हैं। आशा के साथ भी मन्ना की जोड़ी भी खूब बनी। ये हवा, ये नदी का किनारा...तू छुपी है कहां मैं तड़पता यहां....न तो कारवां की तलाश है....आज भी जु़बान पर हैं।

मोहम्मद रफी के साथ भी मन्ना ने अनगिनित गीत गाये। बड़े मियां दीवाने ऐसे न बनो...दो दीवाने दिल के...आदि के दीवाने तो आज भी हैं। मन्ना की किशोर के साथ भी जुगलबंदी खूब जमी। बाबू समझो इशारे, हारन पुकारे....एक चुतर नार करके श्रंगार...तो आज भी याद हैं। 'पड़ोसन' के एक चतुर नार...के बाद मन्ना की किशोर से अनबन हो गयी थी। दरअसल, किशोर क्लासिकल गाने के माहिर नहीं थे। बताते हैं, मन्ना ने ही उनको खूब रियाज़ कराया। लेकिन जब अंततः रिकार्ड सामने आया तो मन्ना को लगा कि उन्हें जान-बूझ कर किशोर के हाथों ज़लील किये जाने का षड्यंत्र रचा गया है। बाद में बामुश्किल मन्ना की ग़लतफ़हमी दूर की गयी कि वो यह न कोई हार थी और न कोई साज़िश। बल्कि फिल्म में क़िरदार ही ऐसा था कि उसे हारना था। उन्होंने किशोर के साथ फिर से कई गाने गाये। इसमें यह गाना तो बेहद पापुलर हुआ - ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे....
संगीत की दुनिया में परदे के पीछे बड़े तब भी बड़े-बड़े 'खेल' हुआ करते थे। कोशिश हुई कि उन्हें सिर्फ आगा, अनूप कुमार, महमूद आदि कामेडियन की आवाज़ तक सीमित रखा जाए। लेकिन उनकी आवाज़ में इतनी कशिश थी कि उसे किसी हद में बांधा न जा सका। उनके गाये गाने राजकपूर, देवानंद, शम्मीकपूर, बलराज साहनी, राजकुमार, अशोक कुमार, प्राण सरीखे नामी अभिनेताओं पर फिल्माए गये। और सब खूब मशहूर हुए।

Tuesday, October 25, 2016

मोटा आदमी

- वीर विनोद छाबड़ा
हम मोटे लोगों के विरुद्ध नहीं हैं और न ही उनसे पूछते हैं कि भाई किस चक्की का पीसा आटा खाते हो। हम उन्हें देख कर हंसते भी नहीं। दरअसल, हमारे ख़ानदान में भी एक से बढ़ कर एक मोटे हैं। बस आलटाईम रिकॉर्ड किसी का नहीं है। हम कभी मोटे तो नहीं रहे लेकिन स्कूल के दिनों में कुछ लोग मोटू बोल दिया करते थे।
 
सिनेमा के परदे पर मोटे लोग परिहास के लिए रखे जाते हैं। हमें इस पर भी सख्त ऐतराज़ रहा है।
लेकिन हम यह ज़रूर सोचते रहे हैं कि जब कोई सेहतमंत आदमी दरजी की दुकान जाता होगा तो उसका नाप लेने के लिए उसे खासी मशक्क़त करनी पड़ती होगी। कल हम अपने दरजी की दुकान पर पैंट का नाप देने गए। संयोग से वहां हमसे पहले एक खूब मोटा आदमी मौजूद था।
हम कौतुहलवश देखने लगे कि नाप कैसे ली जाती है। हमारे दरजी ने मोटे सज्जन की और ईशारा करते हुए कहा - इन्हें निपटाने में देर लगेगी। आईये पहले आप को निपटा दें।
हमने कहा - नहीं। फर्स्ट कम, फर्स्ट सर्व।
हमारे दरजी ने इंचीटेप का एक सिरा मोटे आदमी को पकड़ाया - आप इसे थामिये। मैं आपके गिर्द चक्कर लगा कर आता हूं।
मोटा आदमी हंस दिया - आप बहुत दुबले-पतले और कमजोर हो। चक्कर लगाते ज़माना गुज़र जाएगा। थक जाएंगे। आप बस इंचीटेप का दूसरा सिरा मजबूती से पकड़े रहिये। मैं ही घूम लेता हूं।
दोनों ही जोर जोर से हंस पड़े।

Monday, October 24, 2016

अच्छी कामवाली बाई

-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने कहा सुनिये। मेमसाब ने जब भी ऐसे पुकारा है कोई न कोई आफ़त आई है। हमने जानबूझ कर अनसुना किया। मेमसाब ने कुछ तल्ख होकर फिर पुकारा। सुनाई नहीं देता क्या? हमने कान खड़े किये। अरे बाबा सुन तो रहा हूं? मेमसाब खीज उठीं। देखा मैं फिर भूल गयी। हम मन ही मन खुश हुए कि चलो बलां टली। लेकिन या ख़ुशी क्षणिक साबित हुई। मेमसाब को याद आ गया। हां तो मैं कह रही थी.... हमने उनकी बात काटी। किससे कह रही थीं और क्या कह रही थीं?
मेमसाब भन्नाती हैं। अरे बाबा, चुप रहिये। नहीं तो मैं फिर भूल जाऊंगी। हमने सरेंडर कर दिया। अब बोलिये। मेमसाब ने क्षणिक गहरी सांस ली। हां, तो मैं कह रही थी कि आप कुछ कहते क्यों नहीं?
हम आश्चर्य चकित हुए। अरे भाई, किससे कहना है? मेमसाब ने घोर आश्चर्य व्यक्त किया। कहां रहते हैं आप? अरे मैं सुबह से परेशान हूं। आप का क्या? खाने को मिल जाता है। फिर सुबह से शाम तक लैपटॉप और फिर सोना। तीसरा कोई काम नहीं है।
इस बार हम खीज उठे। बात लंबी मत खींचिए। मुद्दे पर आइये। नहीं तो फिर भूल जाएंगी। मेमसाब को गलती का आभास हुआ। फौरन ट्रैक पर लौटीं। मैं कह रही थी कि आप कामवाली बाई को कुछ कहते क्यों नहीं? हमें आश्चर्य हुआ - क्या कहूं और क्यों कहूं? किया क्या है उसने?

मेमसाब गुस्से में आ गयीं। तभी कहती हूं, जरा घर की ओर ध्यान दिया करो। मालूम है आज भी महारानी जी नहीं आई है? पिछले चार दिन से नहीं आ रही हैं। अभी अभी मोबाइल पर मैसेज आया है कि तबियत ठीक नहीं है। कल आऊंगी। यह सब बहाने हैं। हमें सब मालूम है, उसके घर मेहमान आये हैं। मौज मस्ती हो रही है। शाम को मेला देखने जायेगी। और फिर रात नाईट शो पिक्चर। यह सब आपके कुछ न कहने का नतीजा है।
हमने मुद्दे से हाथ खींचने की कोशिश की। अब इसमें हम क्या कहें उससे? हो सकता है कि तबियत ठीक न हो। कल तो आ ही जाएगी। मेमसाब हमें छोड़ने वाली नहीं थीं। आपसे कित्ती बार कहा कि उसे डांटो कि यह क्या तरीका है? रोज़ टाइम से आओ, काम करो और जाओ। पैसा तभी मिलेगा।
हमने समझाने की कोशिश की कि दफ़्तर में बाबू को छोड़ो, चपरासी तक तो हमारा कहा मानते नहीं। कामवाली भला डांटने से टाइम पर आयेगी? क्या बीमार होना बंद करे देगी? मेहमान आने बंद हो जाएंगे?
मेमसाब ने पलटवार किया। आप समझते नहीं। औरतों पर आदमियों की डांट का असर जल्दी होता है। हमने भी पलटवार का जवाब दिया। आप पर मेरी डांट का असर हुआ है कभी? मेमसाब बचाव की मुद्रा में आ गयीं। मेरी बात और है।

Sunday, October 23, 2016

हम तो बचपन से चीन विरोधी हैं।


- वीर विनोद छाबड़ा
चीन से आयतित प्रोडक्ट के प्रयोग पर कोई आधिकारिक रोक नहीं है। भक्त कह रहे हैं कि लेकिन देशभक्त हैं तो चीनी प्रोडक्ट बिलकुल मत लें। जो हमारे सुर में सुर मिला कर न बोले तो दुश्मन ही हुआ। चीन यही कर रहा है। हमें १९६२ की लड़ाई याद है। हिंदी-चीनी भाई भाई कह कर चीन न हमारी पीठ में छुरा भौंक दिया था। हम तबसे चीन के विरुद्ध हैं। मुल्क में पैसे की कमी हो गयी थी। फौजियों की मदद के लिए बने नेशनल डिफेंस फंड में हमारे पिताजी ने उ.प्र. सरकार से अपनी पुस्तक पर प्राप्त ईनाम की राशि दान दे दी थी। हमारे बड़ी बहन तो दो कदम आगे निकली। उसने अपनी सोने की बालियां दान कर दीं।
हमें व्यक्तिगत तौर पर बहुत ख़ुशी हो रही है। बल्बों की लड़ियां तो हमारे यहां लगाने का रिवाज़ ही नहीं है। बिजली विभाग से हैं, इसलिए राष्ट्रहित में 'ऊर्जा बचाओ, देश बचाओ' के अभियान में बरसों से यकीन करते हैं। बस तीन-चार पैकट मोमबत्ती जलाते हैं।
सुना है चीनी पटाखे बहुत जोरदार होते हैं। पटाखों से हमें बहुत डर लगता है। शोर से कान दुखने लगते हैं। दिमाग भन्ना जाता है। कानों में रुई ठूंस लेते हैं। तब भी असर नहीं होता है। बारूदी धुएं से एलर्जी है। खांसी जुकाम फट से पकड़ लेता है। शोर के प्रदूषण के कारण हम बाज़ार भी इसीलिए नहीं जाते हैं। यों पिछले पंद्रह साल से हमारे परिवार में एक फुलझड़ी तक नहीं खरीदी गयी है।

Saturday, October 22, 2016

खून का घूंट पीकर रह गए थे नैय्यर

- वीर विनोद छाबड़ा
ओंकार प्रसाद नैय्यर लाहोर में आल इंडिया रेडियो पर ११ साल की उम्र से पियानो बजाया करते थे। बड़े हुए तो संगीतकार बनने का शौक चढ़ा। सपनों की नगरी बंबई आ गए। संगीत में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं था। बस पंजाब की कुछ लोकधुनें मालूम थीं। सारंगी और ढोलक का प्रयोग जानते थे। किस्मत बुलंद थी। 'कनीज़' नाम की फिल्म का बैकग्राउंड म्युज़िक दिया। जल्दी ही 'आसमान' मिल गयी। तीन फ़िल्में और मिलीं। लेकिन सब की सब फ्लॉप। इसमें गुरुदत्त द्वारा निर्देशित 'बाज़' (१९५३) भी थी। यह चालीस के दशक का अंत और पचास के दशक की शुरुआत थी। नैय्यर बिस्तर बांध चुके थे। यह नगरी उनके काम की नहीं।
लेकिन गुरूदत्त ने उन्हें जाने नहीं दिया। गुरू को मालूम था कि नैय्यर में प्रतिभा है। गुरू ने अपनी 'आर-पार' (१९५४) में मौका दिया। इस फिल्म के सारे गाने हिट हो गए - बाबू जी धीरे चलनाइसके बाद 'मि. एंड मिसेस ५५' - ठंडी हवा काली घटा... और फिर 'सीआईडी' - लेके पहला पहला प्यार... लगातर हिट फ़िल्में। नैय्यर को -पंख मिल गए।
लेकिन जब गुरुदत्त ने 'प्यासा' शुरू की तो नैय्यर की जगह एसडी बर्मन आ गए। विवाद उठा। लेकिन गुरू को नैय्यर की संगीत की समझ पता थीं। 'प्यासा' बहुत ही गंभीर विषय था। नैय्यर को बहुत ख़राब लगा। खून का घूंट पीकर रह गए। लेकिन नैय्यर ने जुबानी जवाब देने की बजाय संगीत से जवाब दिया, बीआर चोपड़ा की सुपर हिट 'नया दौर' में बेहतरीन संगीत देकर - ये देश है वीर जवानों का...उड़ें जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी...मैं बंबई का बाबू...साथी हाथ बढ़ाना... आज भी चलन में हैं। उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला था। इधर नैय्यर व्यस्त रहे उधर गुरूदत्त कागज़ के फूल, चौदहवीं का चाँद साहब बीवी और गुलाम में मसरूफ ज़रूर रहे, लेकिन नैय्यर उनके दिल में रहे।

गुरू ने १९६४ में 'बहारें फिर भी आएंगी' लांच की। हीरो वो खुद थे। संगीत के लिए पुराने दोस्त ओपी नैय्यर को बुलाया, जिनके सितारे उस दिनों गर्दिश में थे। लेकिन तभी एक ट्रेजेडी हुई। गुरू का असामयिक निधन हो गया। फिल्म आधी से ज्यादा बन चुकी थी। धर्मेंद्र को लेकर दुबारा फिल्म शूट हुई। इस कारण विलंब हो गया। इसी दौरान एक और बवाल हुआ। उस दिन 'आपके हसीं रुख पे आज नया नूर है.की रिकॉर्डिंग होनी थी। लेकिन साजिंदे समय पर नहीं आये। इसकी वजह हड़ताल थी। नैय्यर जितने अनुशासन प्रिय थे, उतने ही सनकी भी। लेट आने वाले सभी साजिंदों को बाहर का रास्ता दिखाया। बहुत छोटे ऑर्केस्ट्रा के साथ पियानो का इस्तेमाल करते हुए गाना रेकॉर्ड किया - आपके हसीं रुख पे आज नया नूर है...लेकिन समस्याएं ख़त्म होने वाली नहीं थीं। नैय्यर की मो.रफ़ी से अनबन हो गयी। अगला गाना महेंद्र कपूर की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया... बदल जाए अगर माली, चमन होता नहीं खाली...फिल्म हिट हुई और इसके साथ ही नैय्यर को ज़िंदगी मिल गयी। सावन की घटा, मोहब्बत ज़िंदगी है, हमसाया, नसीहत, किस्मत आदि दर्जन भर फ़िल्में मिल गईं।

Friday, October 21, 2016

इससे बढ़िया दूसरा बिज़नेस नहीं!

- वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों हम स्टूडेंट हुआ करते थे। मल्टी स्टोरी चारबाग़ में रहते थे। हमारे पड़ोस में एक लड़का रहता था। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। वो रेलवे में गार्ड हुआ करते थे। मां को पिता के स्थान पर नौकरी मिली थी। पांच बच्चों का परिवार, कच्ची गृहस्थी। मां ने ही संभाला।

सबसे बड़े सुरेश, शायद यही नाम था, ने रेलवे के टेक्निकल कॉलेज से मकैनिकल इंजीनियरिंग से डिप्लोमा किया और फिर रेलवे के कैरिज एंड वैगन शॉप में उसे नौकरी मिल गयी। मोटर साईकल पर बड़ी शान से टहला करता था। एक दिन हमें हज़रतगंज में मिल गया। हमें रॉयल कैफ़े में ले गया। कहने लगा कि लाईफ़ एन्जॉय ज़रूर करनी चाहिए। हमने कीमा-समोसा खाया और साथ में कॉफी। मज़ा आ गया। हमने पहली बार पता चला था कि समोसे में आलू के स्थान पर नॉन-वेज भी भरा जाता है। 
हम बाहर निकले। एक बूट-पालिश वाला मिला। उसने एक लंबा सलूट ठोंका और सुरेश का जूता साफ़ करने के लिए तनिक झुका। सुरेश ने पांव पीछे खींच लिए। जूते साफ़ हैं, इसकी ज़रूरत नहीं। उसने बताया कि कोई महीना भर पहले यह लड़का भीख मांगता था। मैंने इसे काम पर लगा दिया। अब यह जूता मरम्मत का काम भी सीख रहा है।

Thursday, October 20, 2016

जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों रोये?

- वीर विनोद छाबड़ा 
बाद मुद्दत हम मिले। तकरीबन चालीस साल बाद। एक-दूसरे को देखा। कुछ क्षण ठिठके। फिर पहचान लिया। 

मैंने कहा - अमां तू।
उसने भी कहा - अमां तू।
मैंने कहा - तेरे सर पर उगी घनी खेती नहीं रही। आस-पास की घास-फूस रह गयी है बस।
उसने कहा - तो तेरी खेती भी तो बकरी चर गयी।
फिर हमने इक-दूजे को बाहों में भर लिया। खैर-सल्लाह पूछी। जानकारी प्राप्त की कि आगे-पीछे कौन-कौन है। कितने गुज़र गए और कितने बाकी हैं। यूनिवर्सिटी के दिनों की याद करते करते एक ढाबे में बैठ कर चाय पीने लगे।
फिर मैंने उत्सुकता से पूछा - उसका क्या हुआ जो तुझे रोज़ खिड़की से कपड़ा दिखाया करती थी?
उसका ज़ायका ख़राब हो गया - मत पूछ यार। वो एक ग़लतफ़हमी थी, जो आज तक झेल रहा हूं।
मैंने पूछा - क्या मतलब?
उसने गहरी सांस ली - क्या बताऊँ दोस्त। वो मुझे कपड़ा दिखाती थी तो मैंने भी जवाब में उसे कपड़ा दिखाना शुरू किया। कपड़ों के रंग रोज़ बदलते रहे। उधर से लाल तो इधर से नीला। इधर हरा तो उधर आसमानी। फिर हम दोनों एक दिन बाज़ार में मिले। होटल में बैठे। चिड़ियाघर में टहले। और फिर.
वो चुप गया। 
मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी - अमां, आगे बोल। हुआ क्या?
वो उदास होते हुए बोले - अमां, होना क्या था? भाग कर हमने शादी कर ली, कोर्ट में।
मुझे आश्चर्य हुआ - तो फिर इसमें इतनी उदासी क्यों?
वो बोला - दोस्त। पिक्चर अभी बाकी है। तुमने क्लाइमैक्स सुना ही कहां?
हमारी सांस गले में अटक गयी - अबे, बताता क्यों नहीं है?
वो बोला - थोड़ा धैर्य रख यार। क्लाइमैक्स को क्लाइमैक्स की तरह सुन। 
मैंने कहा - हां हां। ठीक है।

Wednesday, October 19, 2016

चिपकू लल्लूजी!

-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे मोहल्ले में एक हैं -लल्लूजी (असली नाम नहीं)। किसी शब्द या मुद्दे को पकड़ लें तो कई दिन क्या, महीनों नहीं छोड़ते। सुरसा की आंत। टॉपिक खत्म ही नहीं होता।

अभी कल ही की बात है। मैं स्कूटी बाहर कर किक पर किक लगा रहा था। सर्दी में भी गर्मी का अहसास। ठंड में गीयरवाली स्कूटी बहुत परेशान करती है। न सेल्फ से स्टार्ट हों न किक से। जब तक पैनल हटा कर स्पार्क प्लग न साफ़ करो स्टार्ट ही नहीं होती। 
मुझे स्कूटी से कुश्ती लड़ते देख लल्लूजी बेहद प्रसन्न थे। नामाकूल दूर खड़े हंस रहे थे।
मैंने पीठ कर ली। न होगा न बजेगी बांसुरी।
मगर वो ठहरे एक नंबर के पट्ठे। धीरे से मेरे पीछे आ खड़े हुए। और ही-ही कर हंसते हुए बोले  - मैंने इसीलिए स्कूटी नही खरीदी।
पहाड़ सर पर गिरा। अब घंटो चटेंगे। ऐसे लोगों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता। ये फेबिकोल का मजबूत जोड़ है। बल्कि उससे भी आगे। फेबिकोल तो फिर छूट जाए मगर ये न छूटने वाले। अभी इनकी बेसिर-पैर की जिज्ञासाएं प्रारंभ होंगी।
इन्हें भगाने का तरीका एक भुक्तभोगी मुझे बता चुके हैं - एक कंटाप रसीद दो।
लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा। इसलिए कि मेरी हिम्मत ही नहीं।
दूसरा कारगर उपाय है - इनकी बुलडोज़र।
उन्हें देखते ही लल्लूजी फौरन से पेश्तर तिड़ी हो जाते हैं। 
मैं कातर दृष्टि से लल्लूजी के घर की ओर देखता हूं - काश आ जाती इनकी बुलडोज़र! 
इधर लल्लूजी स्कूटी की बुराइयों के परतें उधेड़े जा रहे हैं।
मैं चुपचाप स्कूटी का पैनल खोलने में लगा था। सुन ही नहीं रहा था कि लल्लूजी कह क्या रहे हैं। तभी मुझे अहसास हुआ कि उन्होंने टॉपिक चेंज कर लिया है। ये कब हुआ पता ही नहीं चला। वो नॉस्टैल्जिक हो गए थे।
लल्लूजी की यादों के कब्रिस्तान से एक 'सीढ़ी जिन्न' बाहर निकल मंडराने लगा। वो मेरे जवाब की प्रत्याशा में सवाल पर सवाल कर रहे थे -  अच्छा ये म्यानी की छत पर चढ़ने के लिए आपकी जो सीढ़ी है लोहे की है न सोचा था मैं भी लगवा लूं.लेकिन कोई बता रहा था कि लोहे की सीढ़ी हिलती है.आपकी हिलती है न.इससे अच्छा तो बांस वाली है.अरे क्या हुआ हिलती है.लोहे से तो सस्ती तो है....तीन साल तो चल ही जायेगीलोहे वाली ज्यादा से ज्यादा सात-आठ चलेगीआंधी-तूफ़ान-जाड़ा-गर्मी-बरसात और धूप में चीज़ें सड़ती-गलती ही हैं। लोहा है तो क्या हुआ.....आपकी सीढ़ी छांव में होने का कारण हो सकता है ज्यादा चल जाए.अच्छा तो कोई बता रहा था कि घर में बांस नहीं रखा जाताइसीलिए मैंने नहीं खरीदीज़रूरत ही क्या है.अरे सर्दियों में छत पर बैठ कर दो मिनट धूप ही तो खानी है.आस-पड़ोस से काम चल ही रहा हैअच्छा ये म्यानी की छत पर चढ़ने के.
लल्लूजी का टेप खत्म होने के बाद ऑटोमैटिक रिवाइंड हो फिर वहीं से शुरू हो चुका है जहां से चला था।
मेरे भाग्य अच्छे थे।
लल्लूजी का बुलडोज़र आ गया - यहां क्या कर रहे हो? जैसे तुम, वैसे ही फालतू तुम्हारे दोस्त। चौका-बर्तन कौन करेगा?
लल्लूजी दुम दबा कर खिसक लिए।
पच्चीस साल तो हो गए होंगे उनका घर दुमंजिला हुए। मगर दुमंजिले की छत पर जाने के लिए सीढ़ी नहीं बनायी। और किसी मुद्दे पर भले ही पूरब और पश्चिम हों, उत्तर और दक्षिण हों मगर सीढ़ी के मुद्दे पर लल्लूजी और उनकी बुलडोज़र में ज़बरदस्त एका है।

सड़ी, दकियानूसी, स्टोनऐज और बाल की खाल निकालने वाली सोच पर वो हमेशा एक तरफ खड़े दीखते हैं।
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