Sunday, May 31, 2015

डिक्की मेरा दोस्त है!

-वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था जब इंग्लैंड में क्रिकेट के किसी रोमांचक मैच की समाप्ति पर मैदान में दर्शकों का सैलाब उमड़ पड़ता था। कोई विकेट उखाड़ कर ले भागता था  तो किसी खिलाडी का बल्ला। एक बार तो एक मनचला अंपायर की टोपी ले भागा था।
ऐसी ही घटना हुई थी २३ जून १९७५ को लॉर्ड्स में। ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज के मध्य पहले एक दिवसीय वर्ल्डकप फाइनल का मुक़ाबला। बेहद रोमांचक नोट पर खत्म हुआ मैच। वेस्टइंडीज समर्थकों का हुजूम मैदान में कूद पड़ा।

ऐसा होना है, ये पुलिस को मालूम था। उन्होंने खिलाडियों और दोनों अंपायर को सुरक्षा घेरे में लेने की कोशिश की। लेकिन हुजूम का सुनामी इतना ज़बरदस्त था कि सुरक्षा घेरा एक बार तो छिन्न-भिन्न हो ही गया। बल्लेबाज़ डेनिस लिली और जेफ्फ थामसन मूलत: तेज़ गेंदबाज होने के कारण बच कर निकल भागे। लेकिन उम्रदराज़ अंपायर डिक्की बर्ड फंस गए। अच्छा हुआ कि वक़्त पर सुरक्षा पहुंच गए वरना डिक्की के पुर्ज़े-पुर्ज़े होने निश्चित थे।
लेकिन इस बीच मौका पाकर एक मनचला डिक्की की गोल्फ कैप ले उड़ा। डिकी को बहुत अफ़सोस हुआ। ये बड़ी खबर भी बनी।
दरअसल जितने मशहूर डिक्की थे उतनी ही मशहूर थी उनकी कैप भी। डिक्की को भी बेहद मोहब्बत थी अपनी इस कैप से। अब तक के ज्यादातर मैचों में उन्होंने यही कैप पहनी थी। ये कई रोमांचक मैचों की गवाह रही थी।
मज़बूरन उन्होंने दूसरी कैप खरीद ली। लेकिन पिछली कैप वो फिर भी नहीं भूल पाये। जिस किसी के सर पर गोल्फ कैप देखते, उन्हें शक होने लगता कि ये उन्हीं की हो सकती है।
कई रोज़ गुज़र गए। एक दिन वो घर जाने के लिए बस पर सवार हुए। कंडक्टर आया। डिक्की ने टिकट कटाया। तभी उनकी निगाह कंडक्टर के सर पे गयी।  बिलकुल वही कैप पहने था वो। डिक्की के यकीन का कारण ये भी था कि वो कंडक्टर वेस्टइंडीज़ के नीग्रो मूल का था। उस दिन लॉर्ड्स के मैदान पर ख़ुशी के उन्माद में उमड़ा हुजूम उन्हीं का था।

Saturday, May 30, 2015

भगवान से डरो!

-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे एक मित्र होते थे जीपी सिंह। मेरी तरह रिटायर। मुझसे सीनियर। थोड़ा नाटा कद और गठीला बदन होने के कारण जवान भी शर्मिंदा होते।
हमेशा ठहाके लगाते और धुआं उड़ाते मिलते। एक दिन हंसते-खेलते गले में खराश हुई। खराश से खांसी और खांसी के कारण गले में सूजन। डॉक्टर को दिखाया। दवा-शवा हुई। कुछ आराम मिला।
मगर दो दिन बाद फिर वही। खांसी और गले में सूजन। सांस लेने में दिक्कत हुई। डॉक्टर ने खून की तमाम किस्म की जांचे करवायीं। एक्सरे निकलवाया। नहीं समझ में आया। सीटी स्कैन और फिर एमआरआई।
, हो हो हो। हरे राम! - डॉक्टर के मुहं से निकला।
और फिर पीजीआई रेफ़र कर दिया। वहां भर्ती कर लिए गए। फिर नए सिरे से वही लंबी जांचें। 
कैंसर निकला। ट्रीटमेंट शुरू हुआ। रेडियोथेरेपी और फिर कीमोथैरपी का लंबा सिलसिला। कई बार भर्ती हुए।
मैं और एक अन्य मित्र उन्हें घर मिलने भी गए। हौंसला बढ़ाया। हर तरह की मदद की पेशकश की।
वो बोले - भगवान की दुआ से सब ठीक है। खर्चा ज़रूर ज्यादा हुआ है। मगर मेरी हद के अंदर।
मैंने कहा - भैया मेडिकल पर खर्च की भरपाई तो विभाग से हो जाती है। ये आपका अधिकार है। 
वो बोले - कौन भाग-दौड़ करे?
मैंने कहा -और हम ढेर मित्र काहे के लिए हैं। आप बस एसेंशियलिटी फॉर्मसारी फॉर्मेल्टी पूरी कर दो। 
कुछ महीने गुज़र गए। मोबाइल पर जीपी सिंह का हाल-चाल लेते रहे। फिर वो मंथली पेंशनर्स मीट में भी आने लगे। मैं उनसे पूछता रहता - मेडिकल की प्रतिपूर्ति का क्या हुआ?
वो हर बार कहते - जमा कर दिया है। सब अपने ही हैं ऑफिस में। बस एक-दो दिन की बात और है।
कई दिन गुज़र गए। एक दिन जीपी सिंह का फ़ोन आया - भैया, बताते हुए शर्म आ रही है। मुझे पैसे की ज़रूरत है। ढेर दवा खाता हूं। बच्चे खर्च किये जा रहे हैं। मेरा मेडिकल प्रतिपूर्ति का केस हुआ नहीं। करीब साठ हज़ार का बिल है।
मैंने कहा आप तो कहे थे - बस होने वाला है।
वो बोले - हां मुझे यही आभास दिया गया था। लेकिन आज पता चला कि फाइल सेक्शन में ही महीने भर से गोते लगा रही है। कहा जा रहा है कि डॉक्टर से लिखवा दो कि कैंसर है। मैं उन्हें समझा रहा हूं ट्रीटिंग डॉक्टर ने एसेंशियलिटी सर्टिफिकेट और वाउचर वेरीफाई कर दिए हैं। उसमें कैंसर लिखा है। नियम भी  है कि कैंसर के मामले में अलग से सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं। बड़ी मुश्किल से समझ पाये वो। अब फाइल अब इंडस्ट्रियल रिलेशन को भेज दी गयी है ये जानने के लिए नियम क्या है? दर्जनों ऐसे केस कर चुके हैं। लेकिन सारे नियम-कायदे मेरे ही केस में भूल गए हैं। अब दो-तीन महीने की छुट्टी। सब अपने ही लोग हैं। मुझसे जूनियर। मेरे साथ काम किये हैं। क्या करूं इनका?
मुझे गुस्सा आया - बड़े भाई इतनी बार मिले। कभी बताया नहीं। ठीक है मैं एडिशनल सेक्रेटरी पांडेयजी से स्वयं मिलता हूं। हमने कभी साथ-साथ काम किया है। 
मैं अभी घर से निकला ही था कि जीपी सिंह का फ़ोन आ गया - भैया, काम हो गया है।
मुझे हैरानी हुई - कैसे?

Friday, May 29, 2015

नौकर भी इंसान है.

- वीर विनोद छाबड़ा
ख़लीफ़ा हज़रत उमर की ज़िंदगी सादगी की मिसाल थी। वो हर शख्स को बराबरी का दरजा देते थे। चाहे वो अमीर हो या ग़रीब या फिर फ़कीर।
एक दिन ख़लीफ़ा के घर मेहमान आये। अँधेरा होने को था। चिराग़ जल उठे थे।
ख़लीफ़ा ने मेहमान की खूब ख़ातिर की।
मेहमान को हैरानी हुई कि ख़लीफ़ा सारे काम खुद कर रहे हैं।
ख़लीफ़ा लालटेन की रोशनी में एक ख़त लिखने लगे जिसे उस मेहमान के हाथ दूसरे शहर भिजवाना था।
अचानक लालटेन की लौ टिमटिमाने लगी। ख़लीफ़ा बोले - इसमें तेल ख़त्म रहा है।
मेहमान ने कहा - मैं तेल भर देता हूं। मुझे बतायें तेल कहां रखा है?
ख़लीफ़ा बोले - नहीं, नहीं। आप ज़हमत न करें। मैं खुद ही भर लेता हूं। आप मेहमान हैं। और मेहमान से काम कराने का हमारे घर में रिवाज़ नहीं है।
मेहमान को यह देख-देख कर परेशानी हो रही थी कि ख़लीफ़ा सारा काम खुद कर रहे हैं। लगता है ख़लीफ़ा के घर नौकर नहीं है। जिज्ञासा शांत करने के लिए मेहमान ने पूछा - ये काम नौकर से करा लेते। आपका नौकर कहां?
ख़लीफ़ा ने कहा - वो दूसरे कमरे में सो रहा है।
अब तो मेहमान की हैरत बढ़ गयी। घर में नौकर है, फिर भी ख़लीफ़ा छोटे मोटे काम खुद कर रहे हैं। नौकर को क्यों नहीं उठा रहे?
मेहमान ने कहा - मैं नौकर को उठा देता हूं। 
ख़लीफ़ा बोले - कतई नहीं। उसे तक़लीफ़ नहीं दें। आज दिन भर उसने खूब काम किया है। थक गया है। आख़िर इंसान ही तो है। अभी आपके आने से पहले ही तो सोया है।
अब मेहमान से रहा नहीं गया - घर में नौकर है। वो सो रहा है। देख रहा हूं कि जबसे मैं आया हूं सारे छोटे-बड़े काम आप खुद कर रहे हैं। नौकर रखने का फायदा क्या है?
खलीफा हंस कर बोले - क्या फ़र्क पड़ता है। जब में तेल डालने गया था तब भी ख़लीफ़ा उमर था और अब तेल डालने के बाद भी वही ख़लीफ़ा उमर हूं। क्या आप मुझसे बात करना पसंद नहीं करेंगे? अपना काम खुद करने से कोई छोटा बड़ा नहीं हो जाता। नौकर भी तो इंसान है। 
इस पर मेहमान के सामने शर्मिंदा होने के अलावा कोई चारा नहीं था।
नोट - यह कथा मैंने कहीं पढ़ी थी।
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29-05-2015 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar Lucknow-226016 

Thursday, May 28, 2015

लोटनराम बनाम किसनबाबू!

-वीर विनोद छाबड़ा
मुद्दत बाद आज रामलोटन से मुलाक़ात हुई। गुज़रे कल का साथी। ऑफिस में मेरा सहयोगी।
बेहतरीन टाइपिस्ट है। किस्मत की मार कि अनुचर भर्ती हुआ।
मुझे याद आया कि कुछ सिफ़ारिशी महिलायें बरसों से काम कर रहे थे। बिना टाइप टेस्ट पास किये उनका इन्क्रीमेंट नहीं लगा था। प्रशासन पर 'ऊपर' से दबाव आया। ऐसे में प्रशासन की सहमति से रामलोटन ने महिलाओं के स्थान टाइप टेस्ट दिया। इस कारण से रामलोटन महिलाओं का दुलारा रहा।
रामलोटन को भी परमानंद की अनुभूति होती। वहीं दूसरी ओर उसके अधिकारी किसनबाबू अपने खड़ूस स्वभाव के कारण महिलाओं की पहली नापंसद रहे। इस कारण से उनमें और रामलोटन में हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा।
किसनबाबू को रामलोटन का सलीके से रहना, बढ़िया वेशभूषा, स्टाइलिश हेयर-कट, बार-बार ज़ुल्फ़ों को संवारना और हर घंटे चेहरे पर फेसक्रीम चुपड़ना भी कभी रास नहीं आया।
किसनबाबू के सिर पर बीच का इलाका बिलकुल खाली था, जिसे ढकने के लिए वो दायें-बाएं से बालों को किसी तरह खींच कर लाते और फिक्सो से चिपका देते। 
रामलोटन के जेब में पर्स और उस पर्स में एक लड़की की तस्वीर। बकौल रामलोटन उसकी पत्नी की थी। अक्सर वो इस तस्वीर को एक महिला विशेष को दिखाया करता। वो मुस्कुरा दिया करती। रामलोटन उससे अपनी फीलिंग भी शेयर किया करता। यह देख किसनबाबू आगबबूला हो उठते। सीनियर लोग बताते कि उनका उस महिला पर एकतरफा अधिकार है। उसके दर्शन से उनके दिल को ठंडक पहुंचती और जीवन धन्य हो जाता।
हालांकि रामलोटन और उस महिला के मध्य ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं था। मकसद था किसनबाबू को चिढ़ाना। किसनबाबू को भनभनाते देख उन्हें मज़ा आता।
सुंदर-सुंदर महिलायें देखने की गरज़ से किसनबाबू ऑफिस के बाद नित्य हज़रतगंज की कम से कम दो बार शंटिंग ज़रूर करते थे। मगर कोढ़ में खाज। वहां भी रामलोटन किसनबाबू को टहलता मिल जाता। ऐसे में रामलोटन उनको सलाम करना कभी नहीं भूला। किसनबाबू बिलबिला कर रह जाते। उनके ख्याल से हज़रतगंज में टहलने का हक़ सिर्फ़ अंग्रेज़ी बोलने वाले अमीरों और अफसरों को है। वो उस अंग्रेज़ी ज़माने को याद करते जब हज़रतगंज में भारतीयों का प्रवेश निषेध था।
जल्द ही किसनबाबू को सबक सिखाने का मौका मिला। लोटनराम को एडवर्स एंट्री दे दी। नियमानुसार लोटनराम का जवाब-तलब हुआ।
प्रशासन किसनबाबू के पीछे और कर्मचारी यूनियन लोटनराम के पीछे।
एक ही तरीका था। कांटे से कांटा निकालना।
लोटनराम ने स्पष्टीकरण में लिखा - किसनबाबू ने अश्लील साहित्य और कैसेट लाने को कहा था। 
लोटनराम के इस स्पष्टीकरण पर हड़कंप मच गया। किसनबाबू का साथ दे रहे तमाम साथी अफसर भी किनारा कर गए। दरअसल, वो इन मामलों के लिए ख़ासे बदनाम भी थे। सभी का ख्याल था कि लोटनराम सही है। बद अच्छा बदनाम बुरा।

Tuesday, May 26, 2015

पंडित नेहरू - डरो नहीं, नफ़रत मत करो।

प्रस्तुति - वीर विनोद छाबड़ा 
आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्य तिथि है। मेरा उन्हें नमन।
कोई कुछ भी कह ले, नेहरू जी की हस्ती मिट नहीं सकती। बल्कि उन्हें मिटाने वाले ही मिट गए। जो ऐसी कोशिश करेगा वो देश विदेश में अपनी छवि ही ख़राब करेगा। वो सिर्फ़ भारत के प्रधानमंत्री ही नहीं थे। उनकी गिनती विश्व स्टेट्समैन में थी और आज भी है। 
नेहरू जी की स्पष्टता और दृढ़ता और हाज़िर जवाबी के कायल बड़े-बड़े विश्व नेता भीथे।

उनके इन्हें गुणों से संबंधित एक प्रसंग प्रस्तुत है।
आज़ादी के बाद नेहरू जी इंग्लैंड गए। बतौर प्रधानमंत्री यह उनका पहला इंग्लैंड दौरा था। ज़बरदस्त स्वागत हुए उनका।
विंस्टन चर्चिल इंग्लैंड के प्रधानमंत्री होते थे उन दिनों।

नेहरू और चर्चिल की मुलाक़ात हुई। गर्मजोशी और सौहार्द्र का माहौल। कल तक जो हम पर शासन करते थे वो आज पलक-पावड़े बिछाये बैठे थे।
बातचीत हुई। भारत की वर्तमान और भविष्य की विकास योजनाओं पर दिलचस्पी ली गयी। अंग्रेज़ों द्वारा भारत में छोड़े मौजदा इंफ्रास्ट्रक्चर को जन-जन तक फैलाने पर बात हुई। हर संभव आर्थिक और तकनीकी सहयोग का वादा किया इंग्लैंड ने।
उसके बाद नेहरू और चर्चिल के बीच अनौपचौरिक बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पुरानी बातें ताज़ा हुई।
चर्चिल ने कुछ शर्मिंदा होते हुए और कौतुहल से पूछा - मेरे मन में एक जिज्ञासा है। आप हमारी जेलों में महीनों बंद रहे। आपको यातना भी दी गई और अभद्र तरीके से हमारे अधिकारी पेश आये। ज़ाहिर है कि इससे आपको काफी तकलीफ़ भी हुई होगी। आपके मन में हमारे प्रति कोई नफरत का भाव नहीं है क्या?
नेहरू जी ने जवाब देने के लिए कतई देर नहीं की - मैं ही नहीं, आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हमारे अनेक नेता आपकी जेलों में बंद रहे। बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें उठाई उन्होंने। लेकिन अब यह बातें बहुत पीछे छूट गयीं। अब ये मुद्दे ही नहीं रहे। और हां, असल बात तो आपको मालूम ही नहीं। हम तो महात्मा गांधी की लीडरशिप में संघर्ष कर रहे थे। गांधी जी हमें दो मंत्र दिए थे। पहला किसी से डरो नहीं और दूसरा, किसी से नफ़रत नहीं करो। इन मूल मंत्रों को लेकर ही हम आगे बढ़े। हम निडर होकर लड़े आपकी साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध, ज़ुल्मों के विरुद्ध। अपनी आज़ादी के लिए लड़े। किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध नहीं। इसलिए हमें किसी से नफ़रत भी नही थी। अब हम आज़ाद हैं। हम इन दो मूल मंत्रो पर अब भी कायम हैं। अपने इन मूल मंत्रो के बूते पर, अपनी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं।
नेहरू की बातों को ध्यान से सुन रहे चर्चिल चित्त हो गए।
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२७ मई, २०१५