--वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माने में धार्मिक और पौराणिक फिल्मों का भी एक बड़ा बाज़ार था। साहू मोदक,
महिपाल, बी एम व्यास, जीवन, निरंजन शर्मा, अनीता गुहा, अंजना, निशि, मारुती, शेख आदि
कलाकारों की तूती बोलती थी।
लेकिन कभी-कभी पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गज को 'हरिश्चंद्र तारामती' में देख
कर सुखद अहसास होता
था कि इंडस्ट्री का ये पक्ष इतना उपेक्षित नहीं है। अभिभटाचार्य
भी कभी दिख जाते थे। ए ग्रेड फिल्मों के पॉपुलर विलेन जीवन स्थाई नारद थे। बिस्वजीत
और मौसमी चटर्जी को राम और सीता के रूप में जय बजरंग बली में देखा था। उन दिनों रामायण
पर आधारित जो भी फिल्म बनती थी हनुमान जी की भूमिका दारा सिंह के लिए पक्की होती थी।
दूरदर्शन के लिए रामानंद सागर द्वारा बनाये सीरियल - रामायण- में भी दारा सिंह थे।
हनुमान जी का पर्याय बन गए थे।दूरदर्शन पर रामायण जहाँ हर खासोआम देखता था। सीरियल
के चलते सड़कें सूनी हो जाती थी। वहीं सिने संसार में धार्मिक फिल्मों की गिनती सी-ग्रेड
की श्रेणी में होती थीं। रिलीज़ के लिए थिएटर भी घटिया श्रेणी के ही मिलते थे। कभी कभी
ही अच्छे मिलते थे।
ज्यादातर धार्मिक फ़िल्में कास्ट्यूम ड्रामा होती थीं। दर्शकों की कैटेगरी भोली-भाली
धर्मपरायण और गुबरा-फुकरा किस्म की जनता थी।
अब चूंकि मैं धाकड़ फिल्मबाज़ था, इसलिए हर किस्म की फिल्म देखना फ़र्ज़ था। लेकिन
सच कहूं तो मैंने इनका भरपूर परमांनंद लिया। पूरी श्रद्धा और जोश से देखीं। उसमे कला
पक्ष भी तलाशने की जुस्तजू रहती थी। कभी धार्मिक और पौराणिक फिल्मो पर कई लेख भी लिखे।
भक्त पप्रह्लाद, बालक ध्रुव, तीर्थ यात्रा, वीर हनुमान, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली
आदि पचासों फ़िल्में देखी।