सिनेमा
- वीर विनोद
छाबड़ा
हीरो या हीरोइन
ही नहीं बाकी तमाम अदाकार भी चाहते हैं कि फिल्म के हर सीन में उनकी एंट्री धमाकेदार
हो। दर्शक दहशतगर्द होकर सन्न रह जायें। हंसते-हंसते लोट-पोट हो जायें। जवान लड़के-लड़कियां
मोहित हो जाये। ऐसा करूणामई नज़ारा बने कि तमाशबीन ज़ार-ज़ार रोने लगें। परदे पर सिक्के
उछाले जायें। ये बात आज ही की नहीं है। ऐसी चाहत बरसों से रही है। सिनेमा की शुरूआत
से ही यह धमाचौकड़ी चलनी शुरू हो गयी थी। अहम किरदारों ने कभी नहीं चाहा कि दूसरे अदने
अदाकारों की एंट्री उनके मुकाबले जोरदार हो। उन्हें डर था कि अगर अगले की एंट्री उसके
मुकाबले बीस हुई तो वो सारी ताली बटोर ले जायेगा।
इस भीड़ में एक
अदाकार ऐसा भी हुआ है कि दर्शक सीन में उसकी एंट्री से पहले ही चैकन्ने और सावधान हो
गये, और फिर बेतरह हंसे भी। इनका नाम था राधा किश्न। हुआ यों कि 1947 में एक फिल्म
आयी थी - शहनाई। इसमें राधा किश्न के किरदार का नाम था लालाजी। सेठ के मुंशी। हर समस्या
के हल का निदान उनकी जेब में था। सेठ जी को जब-तब इनकी ज़रूरत रहती। वो जब-तब उन्हें
आवाज़ देते - लालाजी। अब चाहिए तो यह था कि लालाजी सीन में दाखिल हों और पूछें- कहिए
जनाब क्यों याद किया? मगर होता यह कि नेपथ्य से आवाज़ आती थी- आया जी। इसके कुछ क्षणों
बाद लाला जी सशरीर नुमांया होते। तब तक दर्शक उनके इंतजार में हंस चुके होते थे। उनको
सशरीर देखकर एक बार फिर हंसते, इस प्रत्याशा में कि अब लाला जी कोई चुटीला डायलाग बोलेंगे।
ऐसा फिल्म में कई बार रिपीट होता और हर बार दर्शक को कुछ नयेपन का आभास होता। उनकी
आवाज़ उनकी आमाद का सूचक बन गया। उनकी यह स्टाईल इतनी पापुलर हुई कि आगे की फिल्मों
में भी इसे रिपीट किया गया और हर बार सफलता मिली। यही नहीं गंभीर दृश्यों में भी आमाद से पहले उनकी आवाज़ सुनाई देती थी। उन्हें चापलूस
टाईप के कामिक विलेन के कई किरदार करने का मौका मिला। इस स्टाईल के वे महारथी बन गये।
बरसों बाद हरफ़नमौला अनुपम खेर ने ‘बेटा’ और ‘चालबाज़’ फिल्मों में इस स्टाईल को रिपीट
करके राधा किश्न की याद ताज़ा करायी। इन फिल्मों में अनुपम ने दांतों तले होंट दबा कर
किरदार को हंसोड़ विलेनी लुक दिया था।
राधा किश्न नेचुरल
आर्टिस्ट थे। किसी भी किस्म के किरदार को बड़ी सहजता से अपने अंदाज़ में निबाह ले जाने
की भरपूर क्षमता थी उनमें। लेकिन इसके बावजूद वह किरदार को बार-बार पढ़ते और रिहर्स
करते। इसी कारण से उन्हें मिस्टर परफेक्शनिस्ट भी कहा गया। राधा किश्न का जन्म 13 जून,
1915 को हुआ था। आर्टिस्ट तो वह बेहतरीन थे ही। मगर अपनी शर्तों पर काम करने और मिस्टर परफेक्शनिस्ट बनने की धुन ने उनके
कैरीयर रफ्तार धीमी कर दी। उन्हें उनकी ख्याति की तुलना में कम फिल्में मिली। 1936
से 1962 के 26 साल के कैरीयर में महज़ 39 फिल्में ही की। कामधंधे की तलाश में उनकी मुलाकात
मशहूर संवाद व पटकथा लेखक पंडित मुखराम शर्मा से हुई। शर्मा जी उनके बोलने की स्टाईल
से बेहद प्रभावित हुए। उनमें एक गुणी कलाकार दिखा। पूना में व्ही0 शांताराम की प्रभात
फिल्म कंपनी में काम करते थे शर्मा जी। वहां राधा किश्न को भी नौकरी दिला दी। वहां
बनी ‘पड़ोसी’ (1941) में राधा किश्न ने की अहम भूमिका रही। यह हिन्दू-मुस्लिम एकता की
कथा थी जिसमें इसको तोड़ने की अंग्रेज बहादुर ने पूरी ताकत लगा दी। परंतु आखिर में जीत
एकता की ही हुई। मगर कुछ समय बाद स्टूडियो सिस्टम की जगह फ्री-लांसिग ने ली तो प्रभात
फिल्म कंपनी का भðा बैठ गया। तब राधा किश्न बंबई आये। यहां उनकी मुलाकात प्यारे लाल
संतोषी उर्फ पी0एल0 संतोषी से हुई। दोनों जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गये। संतोषी की फिल्मों
में वे अक्सर दिखने लगे। यह पी0एल0 संतोषी आज के कामयाब प्रोड्यूसर-डायरेक्टर राज कुमार
संतोषी के पिता थे।
बी0आर0 चोपड़ा
कैंप में भी राधा किश्न बहुत धाक थी। जब तक राधा किश्न जीवित रहे बी0आर0 फिल्म्स के
बैनर तले बनी लगभग सभी फिल्मों में दिखे। चोपड़ा की ‘साधना’ (1958) तवायफ को समाज में
उचित दरजा दिलाने के लिये बनी फिल्मांे में अग्रणी रही। इस फिल्म का यह गाना बड़ा मशहूर
हुआ था- औरत ने जन्म दिया मरदों को, मरदों ने उसे बाज़ार दिया। इसमें राधा किश्न के
किरदार का नाम था जीवन। हीरो मोहन (सुनील दत्त) शादी को बेज़रूरत मानता था। मरणासन्न
मां की जिंदगी बचाने की एक ही सूरत थी कि मोहन शादी करे। तब पड़ोसी जीवन ने पैसे की
लालच में मोहन को बताया कि उसकी एक दूर की रिश्तेदार पैसे की एवज में नकली दुल्हन बनने
के लिये तैयार हो जायेगी। मोहन राजी हो जाता है। तब जीवन एक तवायफ (वैजयंती माला) को
इसके लिये राजी करता है। बाद में जब असलियत खुली तो तब तक परिस्थितियां बदल चुकी थीं।
वो सचमुच एक-दूसरे से प्यार करने लगे थे।
उस दौर के लगभग
तमाम बड़े आर्टिस्टों के साथ राधा किश्न ने काम किया। दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद,
राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त। जिस फिल्म में वो होते थे, उसमें जान पड़ जाती। ‘करोड़पति’
(1936) पहली फिल्म थी। कई बरस बाद 1961 में इसी नाम से एक और फिल्म बनी। इसमें राधा
किश्न ने संवाद भी लिखे थे। वो बहुत अच्छे लेखक भी थे। करोड़पति के अलावा ‘नई दिल्ली’
(1956) का स्क्रीनप्ले भी राधा किश्न ने लिखा। ‘अमर रहे ये प्यार’ (1961) के संवाद
और स्क्रीनप्ले लिखा। यह फिल्म उन्होंने खुद ही प्रोड्यूस की। इसमें राजेंद्र कुमार,
नलिनी जयवंत और नंदा थे। निर्देशन उनके प्रिय मित्र प्रभुदयाल ने किया।
राधा किश्न
चूंकि खुद एक अच्छे संजीदा लेखक थे, इसलिये उन्हें मालूम
था कि किस किस्म के किरदार को सीन के मुताबिक किस अंदाज़ में क्या बोलना चाहिए और सीन
की गंभीरता से बोझिल माहौल को कैसे कम करके हंसी का फौव्वारा चालू किया जाये। पुराने
दौर की बी0आर0 चोपड़ा की ’नया दौर’ अपने कथ्य के कारण आज भी मौजू है। इस फिल्म में आरा
मशीन और बस आने की वज़ह से गरीब मजदूर और टांगे वालों के पेट पर लात पड़ी थी। मैन बनाम
मशीन की इस जंग में गांव का टांगे वाला सर्वहारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है। उसकी राह
में रोड़ा अटकाने के लिये बुर्जुवा प्रवृति का साथ देने के लिये एक पंडितजी की एंट्री
होती है। मगर आखिर में वो सर्वहारा वर्ग के जज्बे और एकता के सामने नतमस्तक हो जाता
है। पंडित जी की इस खलनायिकी भूमिका को कामिक बना कर राधा किश्न ने किरदार न केवल दिलचस्प
बनाया बल्कि नतमस्तक होने पर ढेर सारी तालियां भी बटोरी। तब दिलीप कुमार व्यक्तिगत
रूप से उनके सामने नतमस्तक हुए थे।
राधा किश्न की
गिनती उन आर्टिस्टों में होती थी जिन्हें सिर्फ सिचूएशन और किरदार बताया जाता था, उन्हें
डायरेक्शन और संवादों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। यह काम वो स्वंय ही करते। उनकी यही ख़ासियत
फिल्म में उनके किरदार को अहम बनाती थी। चूंकि राधा किश्न स्वंय अच्छे और संजीदा लेखक
थे इसलिये उनके संवादों में व्यंग्यात्मक पीड़ा के साथ-साथ चुटीलापन भी होता था। टाइमिंग
और हाज़िर जवाबी में उनका कोई सानी नहीं था जो स्तरीय हास्य के सृजन की प्रथम शर्त होती
है। नाम याद नहीं आ रहा एक फिल्म थी। इसमें वो अपनी नकचढ़ी पत्नी से कहते हैं- ‘‘लात
तुम मारती हो और गधा मुझे कहती हो।’’ एक और फिल्म थी ‘दो बांके (1959)। राधा किश्न
की बहन किसी के साथ भाग गयी। पत्नी परेशान थी कि शाम पति जब घर वापस आयेगा तो उसे किस
मुंह से बतायेगी कि उसकी लाख चैकसी के बावजूद उसकी प्यारी बहन भाग गयी। इधर बहन के
भागने की खबर राधा किश्न को भी हो गई। अब ऐसे सीरीयस माहौल में भी राधा किश्न ने ठहाका
लगवा ही दिया। वो भागे-भागे घर आये। दरवाजे पर परेशान हाल खड़ी पत्नी अचानक पति को देख
कर चैंकी और इससे पहले कि असल बात बताती, राधा किश्न बोले- ‘‘अब तुम यहां क्यों खड़ी
हो? किसी के साथ भागने का तुम्हारा भी तो इरादा नहीं है?’’ क्या अंदाज़ था यह बताने
का कि मुझे सब पता चल चुका है, तुम्हें बताने की ज़रूरत नहीं है।
राधा किश्न ने
जिन 39 फिल्मों में काम किया उनमें उक्त संदर्भित फिल्मों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख
फिल्में थीं- सरगम, छम छमा छम, बैजू बावरा, वचन, तनख्वाह, एक ही रास्ता, दुश्मन, परवरिश,
लाजवंती, स्कूल मास्टर, फैशनेबुल वाईफ, छोटी बहन, सिंगापुर, श्रीमान सत्यवादी, एक के
बाद एक, बनारसी ठग और देवानंद की ‘शराबी’ जो उनकी मृत्यु के पश्चात 1964 में रिलीज़
हुई थी। राधा किश्न सरल व निश्छल स्वभाव और हंसोड़ तबियत के मालिक थे। जहां भी बैठते
थे, माहौल को हंसी ठहाकों और चुटकी लेने की प्रवृति से सहज व खुशनुमा बना देते थे।
वो जीवंत व्यक्ति थे, खुशियों से भरपूर। परंतु उनकी मृत्यु उनके इस व्यक्तित्व व स्वभाव
के विपरीत टेªजिक हालात में हुई थी।
हुआ ये था कि
उनके द्वारा निर्मित ‘अमर रहे ये प्यार’ कविवर प्रदीप के एक गाने के कारण सेंसर के
झमेले में फंस गयी थी। सेंसर को यह गाना वाम की ओर झुका हुआ दिख रहा था। यह फिल्म भारत
1947 के विभाजन पर आधारित थी। कवि प्रदीप का गाना विभाजन के कारण तबाह मुल्क और छिन्न-भिन्न
हुई सामाजिक समरसता की ओर इशारा करता था। कहानी कुछ यों थी कि किश्न-गीता का परिवार
हंसता खेलता परिवार उस वक्त टूट गया जब किश्न की एक हादसे में मौत हो गयी। गीता (नलिनी
जयवंत) तब गर्भवती थी। भाई सेवकराम (राधा किश्न) ने सहारा दिया और बच्चे का हवाला देकर
जीने की उमंग पैदा की। मगर हालात तब और भी खराब हो गये जब एक एक्सीडेंट में गीता ने
बच्चे को खो दिया। बिलकुल टूट चुकी गीता के पास जीवित रहने का अब कोई बहाना नहीं था।
मगर सेवकराम एक बार फिर गीता को संभालने में सफल रहा। तभी विभाजन के कारण उत्पन्न भारी
उथल-पुथल वाली विभीषिका में गीता को मां-बाप से बिछुड़ा रोता-बिलखता बच्चा मिलता है।
गीता उसे पा कर अपने दुख-दर्द भूल जाती है। उसे मां का प्यार, लाड़-दुलार देती है। अचानक
कई बरस बाद सरहद पार से वो परिवार आया और बच्चे पर अपना हक़ जमाने लगा। दो परिवारों
के बीच बच्चे को पाने की यह जंग कई दिनों तक चलती है। और अंत में दि हैप्पी एंड।
अच्छी कहानी
थी और ट्रीटमेंट भी ठीक था। लेकिन इसके बावजूद फिल्म फ्लाप हो गयी। इस महत्वाकांक्षी
प्रोजेक्ट पर राधा किश्न ने अपनी सारी पूंजी लगा दी थी। बाहर से लिया काफी कर्ज भी
था। लेकिन लंबे अरसे तक सेंसर में अटके रहने के कारण लिये कर्ज़ पर ब्याज बढ़ता रहा
और ऊपर से फिल्म का अच्छा बिजनेस नहीं होने के कारण राधा किश्न बहुत भीतर तक आहत हो
गये। बिलकुल टूट गये वो। जिंदगी को खुद पर बोझ समझने लगे वो। 1962 में उन्होंने आत्महत्या
कर ली। और इसी के साथ असमय बिदा हो गया राधा किश्न नाम का एक सबसे जुदा-जुदा सा दिखने
वाला नेचुरल आर्टिस्ट।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा
नगर,
लखनऊ-
226016
मोबाईल
7505663626
दिनांक
15.08.2014
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