सिनेमा
- वीर विनोद
छाबड़ा
सर्वमान्य सत्य
भले न सही, लेकिन अर्द्धसत्य तो है ही कि जो शराब नहीं पीते हैं उन्हें शराबियों की
महफ़िल में शराबियों की तुलना में ज्यादा नशा चढ़ता है। वो मज़ा भी ज्यादा लेते हैं। ऐसी
ही मिसाल थे
साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में फक्कड़ और बिंदास किस्म के शराबी के बेशुमार
किरदार अदा करने वाले केश्टो मुखर्जी। पेट के लिये सब करना पड़ता है। जिंदगी में खुद
कभी शराब नहीं पी। शराब गटकने के लिये इतनी आमदनी ही नहीं थी।
अब ये मुकद्दर
की ही बात है कि भरपूर काबलियत के बावजूद केश्टो को लोकप्रियता बतौर पियक्कड़ ही मिली।
यही उनकी पहचान भी थी। इसकी शुरूआत होती है 1970 में रिलीज़ ‘मां और ममता’ से। डायरेटर
असित सेन को एक पियक्कड़ की ज़रूरत थी। केश्टो मुखर्जी काम की तलाश में वहीं मंडरा रहे
थे। हालांकि तब तक वो कई फिल्में कर चुके थे। तमाम प्रोड्यूसर-डायरेक्टर उन्हें एक
ऐसे टेलेंटड एक्टर के रूप में जानते थे जो कामेडी भी अच्छी करता है। असित दा भी जानते
थे। लेकिन सपनों के संसार में सिर्फ सपने देख कर पेट नहीं भरता। साल में तीन-चार छोटी
छोटी भमिकाओं से काम नहीं चलता। अब असित दा तो बंगाल के थे। अपने मुलुक के लोगों को
काम नहीं देंगे क्या? इस ख्याल और आस से केश्टो आये थे असित दा से मिलने। असित दा ने
केश्टो से पूछा- ‘‘शराबी की एक्टिंग करेगा?’’
ना करने की स्थिति
में नहीं थे केश्टो। फिर वो एक्टर ही क्या जो जिंदगी के आस-पास मंडराते-डोलते किरदारों
को आत्मसात न कर सके। केश्टो ने खुद को धमकाया - ‘‘अगर जिंदा रहना है तो हां कर दे।’’
उन्होंने हामी भर दी। बेमिसाल कामयाबी मिली। बस, फिर क्या था? लाईन लग गयी, पियक्कड़
की भूमिकाओं की। केश्टो बार-बार बताते और समझाते- ‘‘भाई मैं दारूबाज़ नहीं।’’ मगर उनकी
बात कोई मानने-सुनने के लिये तैयार ही नहीं था। भले ही फिल्म में नशे में धुत्त रहने
का किरदार दो ही मिनट
का क्यों न रहा हो। किसी को भी केश्टो के सिवाय दूसरा कोई नज़र
नहीं आया।
दारू पीना कोई
बड़ी बात नहीं। हर आदमी पीने के बाद नौटंकी करता है भले ही वो कामेडी न हो। कुछ बिगड़ते
हैं, कुछ मचलते हैं और कुछ खूंखार होकर हंगामा करते हैं। कुछ चुपचाप बिस्तर पर गिर
कर सोते हैं। और बाज़ किसी गुज़रे मुद्दे पर विलाप करने बैठ जाते हैं। और कुछ वाकई ऐसी
हरकतें करते हैं जिससे जनता-जनार्दन को टैक्स फ्री मुफ़्त मनोरंजक सामग्री प्रचुर मात्रा
में प्राप्त होती है। केश्टो ने यह आखिर वाला विकल्प चुना। शायद असित दा को भी नहीं
पता रहा होगा कि वो शराबी में जिस हल्के-फुल्के हास्य के एलिमेंट की तलाश में थे यह
वो नहीं था जो केश्टो कर रहे थे, बल्कि केश्टो ने बहुत आगे निकल कर एक ऐसी अविश्वसनीय
परफारमेंस दे रहे थे जो शराबी की विशिष्ट पहचान बन गयी। आगे चल कर केश्टो ने इसे इतना
ज्यादा पारिमार्जित किया कि हर शराबी मनोरंजन का पात्र बन गया। केश्टो और शराबी एक
दूसरे के पूरक बन गये। लोग ये भी समझने लगे कि केश्टो वाकई हर वक्त टुन्न रहते हैं
तभी तो शराबी की इतनी परफेक्ट एक्टिंग कर पाते हैं। केश्टो की पतंग उड़ चली। तमाम पटकथा
लेखकों को कह दिया गया कि शराबी का किरदार लिखते वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ केश्टो ही
दिमाग में हो और जिस स्क्रिप्ट में शराबी का किरदार नहीं है उसमें किसी न किसी तरह
इसे डालें। केश्टो की मौजूदगी एक शुभंकर है।
यों केश्टो मुखर्जी
की पहली फिल्म ऋतिक घटक की बांगला फिल्म ‘नागरिक’ (1952) थी। इसके बाद कुछ और बांगला
फिल्में भी की। लेकिन पेट की भूख ज्यादा थी जिसे बंगाल में छोटी-मोटी भूमिकाओं से खत्म
करना नामुमकिन था। उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी से संपर्क किया। उन्होंने ‘मुसाफिर’ में
उन्हें एक स्ट्रीट डांसर की भूमिका दी। बताया जाता है कि केश्टो एक बार काम के सिलसिले
में बिमल राय से मिले। बिमल दा बोले - ‘‘अभी तो नहीं है। फिर आना।’’ मगर केश्टो खड़े
रहे। बिमल दा ने उन्हें वहीं खड़े देखा तो झुल्ला कर बोले- ‘‘अभी कुत्ते की आवाज़ की
ज़रूरत है। भौंक सकते हो?’’ कोई और मौका होता तो केश्टो खुद को अपमानित मान कर निकल
चुके होते। मगर पेट की भूख ने उन्हें वहां से हिलने नहीं दिया। वो बोले -‘‘हां। भौंक
सकता हूं। मौका तो दें।’’ और केश्टो ने कुत्ते की परफेक्ट आवाज़ निकाल दी। बिमल दा उछल
पड़े। केश्टो का काम हो गया। एक बार केश्टो को बड़े संगीन हालात में काम करना पड़ा। वो
सख्त बीमार थे। ईलाज के लिये ज्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ी। अस्पताल के बिस्तर से उठ कर
‘बेरहम’ (1980) की। केश्टो की जान बच गयी।
ऐसा बिलकुल नहीं
है कि केश्टो सिर्फ शराबी की भूमिकाओं के लिय याद किये जाते हैं। जिन्होंने गुलज़ार
की ‘‘मेरे अपने’’ (1971) देखी होगी तो उन्हें याद होगा कि एक इसमें केश्टो चुनाव जीतने
के लिये स्थानीय गुंडों को मूर्ख बना रहे होते थे। महमूद की ‘‘बांबे टू गोवा’’
(1972) तो पूरी बस यात्रा थी। और
केश्टो यात्रा
भर में औंघाते ही रहे। इससे पहले 1970 में रिलीज़ शशि कपूर-शर्मिला टैगोर की लाईट कामेडी
‘सुहाना सुफ़र’ में भी केश्टो ऐसा ही किरदार कर चुके थे। गुलज़ार की ‘परिचय’ (1972) में केश्टो प्राण के शरारती पोते-पोतियों
को पढ़ाने के लिये निजी टयूटर रखे गये। बच्चों ने उन्हें भगाने के लिये चाल चली। रात
को एक कछुए की पीठ पर मोमबत्ती जला कर रख दी। ऐसे में केश्टो को सिर्फ जलती हुई मोमबत्ती
ही चलते हुए दिखी। ये तो कोई भूत-प्रेत का काम है! डर के मारे थर-थर कापंने लगे। और
अगली ही सुबह वो बोरिया-बिस्तर उठा कर भाग निकले। बच्चे अपने उद्देश्य में सफल हो गये।
बासु भट्टाचार्य
की ‘तीसरी कसम’ (1966) में शिवरतन के किरदार में राजकपूर के साथ केश्टो दिखे थे। ‘पिंजरे
के पंछी’ (1966) में वो नाई थे और बरसों बाद सिप्पी की शोले (1975) में उन्हें फिर
नाई हरिराम बनना पड़ा जिसमें वो एक कैदी की आधी मूंछ साफ कर देते हैं। महमूद की पड़ोसन
(1968) में वो किशोर कुमार की संगीत नाटक मंडली के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे जिसमें उनके
किरदार का नाम कलकतिया था। इसी तरह महमूद की ही एक और फिल्म ‘‘साधु और शैतान’’
(1968) में वो एक बार फिर किशोर संगीत मंडली के सदस्य थे। बसु चैटर्जी की व्यंग्यात्मक
फिल्म ‘पिया का घर’ (1972) याद है। इसमें केश्टो एक टैक्सी ड्राईवर बाबू राव कुलकर्णी
थे। मगर हर समय पड़ोसी आगा के घर में अंडरवीयर पहन कर उन्हें ताश के पत्तों के साथ कोट-पीस
खेलते हुए ही देखा जाता था। नई बहु जया भादुड़ी जब घर आयी तो उन्हें पायजामा पहनाया
गया। ‘एक नारी एक ब्रम्हचारी’ (1971) में वो
डाक्टर दिखे।
यों दारूबाज़
की भूमिका में भी उन्होंने अनेक मजे़दार और सीन लूटने वाली फिल्में की है इनमें जो
फिल्म सबसे अच्छी कही जा सकती है वो ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’ (1975) है। इसमें
केश्टो ड्राईवर जेम्स डिकोस्टा थे जो असमंस्य फैलाने वाले सूत्रधारों में से एक था।
अन्य यादगार फिल्मों में परख, आस का पंछी, प्रेम पत्र, चाईना टाऊन, असली नकली, रखवाला
(पियक्कड़ मरीज़), लोफर, प्राण जाये पर वचन न जाये, इमान, अपराधी (आशिक मिजाज़ नवाब),
आपकी कसम, आक्रमण, कै़द, प्रतिज्ञा, गोल-माल, खूबसूरत, दि बरनिंग ट्रेन (टायलेट में
बिना टिकट यात्रा करता हुआ पियक्कड़), कातिलों के कातिल, नसीब, राकी और गज़ब (1985),
जिसमें वो चश्मे वाले बादशाह अकबर थे, उनकी आखिरी फिल्म रही। यह उनकी मृत्यु के बाद
रिलीज़ हुई थी।
केश्टो ने तकरीबन
150 फिल्मों में दर्शकों को हंसाने को काम किया था। 1985 में केश्व ने आखिरी सांस ली।
यों तो केश्टो ने अपने दौर के हर बड़े प्रोडयूसर-डायरेक्टर और नायक के साथ काम किया
परंतु ऋषि दा और गुलज़ार की फिल्मों में नियमित दिखे। उन्होंने उनकी प्रतिभा का श्रेष्ठ
प्रयोग किया। ऋषि दा की ‘खूबसूरत’ (1981) में वो कुक थे जिसके लिये फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ
हास्य अभिनेता का पुरुस्कार उनके नाम रहा। उनका बेटा बबलू मुखर्जी फिल्मों में है और
विभिन्न प्रकार की अनेक छोटी-मोटी में कुछ वर्ष पहले तक दिखता रहा। हर हास्य का अंत
त्रासदी में हुआ है। यह नियति रही है हास्य की। केश्टो मुखर्जी की भी फकीरी की हालत
में 1985 में मृत्यु हुई थी।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा
नगर,
लखनऊ-
226016
दिनांक 20
08 2014
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