-वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरे घर नहीं आये थे। मैं ही
उनके घर गया। भयानक उलझन हो रही थी। बात करने कोई पात्र व्यक्ति मिला ही नहीं।
हमारी नज़र में ढंग के आदमी की पहचान वो होती है जो विधिवत चाय के लिए पूछे नहीं, बल्कि चाय ले आये।
लेकिन प्रॉब्लम यह रही कि ऐसा भला
माणूस मिला नहीं। कोई सुनाने या सुनने वाला मिला नहीं। एक अदद पत्नी भी व्यस्त
रही। सोचने लगा कि न सुनने वाला और न सुनाने मिला और कुछ दिनों न मिला और कुछ दिन
तक ऐसी स्थिति बनी रही तो पागल हो जाऊंगा। यार कोई मिले तो। लेकिन राजनीती पर
बकवास सुनाने वाला न मिले। आज जमावड़ा वाला कीर्तन भी नहीं हुआ। सब दिल्ली गए हुए
थे, कोई राजनीतीक उठा
पटक करने।
याद आया कि पड़ोस में रहने वाले एक
मित्र है। मैं उन्हें राजनीती सबसे कम बहस करते पाता हूँ। सिनेमा पर ज़बरदस्त बहस
करते पाता हूं ज्यादा मूड में तो तरन्नुम में रफ़ी का गाना सुनाने लगते हैं अगर
म्युज़िक शंकर जयकिशन का हो तो फिर तो फिर बात क्या। उठ कर गाने भी लगते हैं। यों
प्यानो भी उनके पास। कम दिक्कत देने वाले मित्रो में हैं। अलप भाषी हैं। मैं उनके
घर चला गया। थोङी तक कुशल-क्षेम का आदान प्रदान होता रहा। बहुत अच्छा लगा कि
इन्हें मेरी मानसिक उलझन का पता नहीं है।
लेकिन आखिर वही हुआ जिसका भय था।
यार, तुम्हारी बीमारी
का क्या हुआ? फ़लाने
मनोचिकित्सिक के पास जाओ। मनोविज्ञान के हर मर्ज़ का इलाज़ है उनके पास। हम सर
झुकाये चुपचाप बहुत देर तक सुनते रहे। काफी देर तक वो बोलते रहे।
अचानक हमने पूछा - आज मैच की पोजीशन
क्या रही?
वो चौंके - यानी मैं तुम्हें घंटे
भर तो जो भाषण देता रहा, तुमने उसे सुना
ही नहीं।
मैंने कहा - नहीं। बिलकुल नहीं। इस
कान से सुनो और उधर से निकाल दो। यही गुरुमंत्र दिया है परसों एक डॉक्टर ने। और अब
कुछ बेहतर लग रहा है।
वो बहुत जोर से हंसे। अब तुम बहुत
जल्द अच्छे हो जाओगे, पिचले एक घंटे से
मैं तुम्हें यही समझा रहा था।
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१४ अगस्त २०१७