Wednesday, August 9, 2017

चैनल मीडिया तय करता है समाज के ठेकेदार

- वीर विनोद छाबड़ा
बरसों से देख रहा हूं। सुबह-सुबह बाथरूम में घुस गए। घंटों लगाए। जम कर पानी बहाया। १०८ दफे ओम नमो शिवाय किया। पता नहीं नहाये भी कि नहीं। सर्दी के दिन हुए तो निसंदेह नहीं नहाया। मुंह-हाथ धोना ही पर्याप्त रहा। शीशा देखा। माथे पर लंबा और गहरा लाल-सिंदूर वाला टीका लगाया। गले में मणके वाली माला पहनी। खुद से बोला - जय श्री राम। और हिन्दू समाज के स्वयंभू प्रतिनिधि बन गए।
ऐसा ही नज़ारा एक और भी है। बाथरूम गए। पानी तब तक जा चुका है। इसलिए हल्का गुसल लिया। यह रोज़ की कहानी है। बेगम कहते कहते हार गई कि पहली नमाज़ के वक़्त उठा करो। बहरहाल, उन्होंने टखनों से ऊपर तक का अलीगढ़ीया पायजामा पहना। हवा में फहराती डाई की हुई लंबी दाढ़ी। सर पर काली टोपी। बदन पर कुरता। घड़ी में वक़्त देखा। घर पर ही नमाज़ पढ़ी।  हाथ में एक अदद कोई उर्दू का अख़बार या रिसाला। मुस्लिम समाज के स्वयंभू नुमाइंदे।
विचार दोनों के ही दकियानूसी और पुरातनपंथी। इन्हें मालूम ही नहीं ज़माना कहां से कहां पहुंच गया है। 

तक़रीबन सैंतीस साल हमने सरकार की नौकरी की है। अपवाद स्वरूप कुछ धोतियों और दाढ़ियों को छोड़ कर ऑफिस में पहनावा तक़रीबन पाश्चात्य रहा। वही शर्ट-पतलून वाला। जुमे के रोज़ दोपहर नमाज के वक़्त के अलावा पता नहीं चला कि कौन हिंदू है या मुसलमान।
हमारे टीवी में खराबी आई। एक मित्र ने एक नंबर दिया। हमने उसे कॉल किया। एक नौजवान आया। तेज धूप में पसीने से तर-बतर। उसने टीवी ठीक कर दिया। हमने पूछा - नाम क्या है तुम्हारा।
बोला - राजू।
स्कूटर खराब हुआ। मुन्ना मकैनिक के पास पहुंच गए। मोटर मकैनिक का नाम आशु है। मालूम नहीं कि यह आशु अशरफ़ुल है आशाराम। राजू और मुन्ना हिन्दू हैं या मुसलमान।
लेकिन न्यूज़ चैनल मीडिया को वही बंदे अच्छे लगते हैं जो लिबास और लुक से हिंदू या मुसलमान दिखें। प्रोजेक्ट किया जाता है कि यही हैं समाज के असली चेहरे। 

कभी दफ्तरों में काम करने वालों, व्यापार करने वालों, कल-कारखानों के कामगारों और दिहाड़ी पर मज़दूरी करने वालों में भी हिंदू या मुसलमान की तलाश करें।
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09 Aug 2017

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