चंद हफ्ते पहले शहर के अख़बारों में छपा था कि
फलां रसूखदार की ’देख लूंगा....वर्दी उतरवा दूंगा...’ की हाहाकारी धमकी की परवाह न
करते हुए हमारे बहादुर सिपाहियों ने उसकी महंगी एसयूवी के शीशों पर चढ़ी काली
फिल्म उखाड़ फेंकी थी। सीना गर्व से फूल गया था कि आखिर कानून का राज कायम हो ही
गया। अब देर नहीं जब सूबे की काली फिल्म की गाडि़यों की फेहरिस्त से अपना शहर सबसे
पहले गायब होगा। मगर जल्दी ही पता चला ये भ्रम था, सब्जबाग तो सिर्फ ख्वाबों में आते हैं। काली फि़ल्म चढ़ी
तमाम छोटी-बड़ी कारे व बसें शहर की सड़कों पर पुलिस को मुंह चिढ़ाती व ठेंगा
दिखाती बदस्तूर सरपट दौड़ रही हैं।
जगज़ाहिर है कि, सुरक्षा के मद्देनज़र कुछेक अपवादों को छोड़कर, गाड़ी पर काली फिल्म लगाना कानून की नज़र में
गुनाह है। मगर इसके बावजूद इसके प्रति दीवानगी है। ऐसा क्यों है ये जााने के लिए
हमने अपना सर्वे किया तो पाया कि काली फि़ल्म वाली गाडि़यों के मालिकान आमतौर पर
असामान्य जीव हैं, इनकी सोच बीमार व
काली है। इसमें खासी तादाद तो जनता के लिए और जनता के द्वारा चुने गऐ लीडरों की
मिली जो काली फि़ल्म की आड़ में जनता से इसलिए मुंह छिपाए घूम रहे हैं कि जनता ये
न पूछे-’क्या हुआ तेरा वादा....।’ लीडरों से ज्यादा उनके चमचों की फौज है जिनकी
धमक व ‘पहुंच’ की गहराई इनकी एसयूवी गाडियों पर चढ़ी फि़ल्म के कालेपन की गहराई से
आसानी से लगायी जा सकती है। माफियाओं की गाड़ी पर लगी काली फि़ल्म उन्हें पुलिस
तथा उनके हमपेशा विरोधियों से भले बचा लेती है मगर इनके जुल्मो-सितम की शिकार जनता
की हाय से इन्हें कोई नहीं बचा सकता। काली फि़ल्म के मायने ये भी हैं गाड़ी मालिक
की सियासी के अलावा प्रशासन व पुलिस के वजनी महकमों में भी गहरी पैठ है।
काली फि़ल्म अमीरों की अमीरी के नशे के अहंकार
की निशानी भी है। कुछ निहायत भोले व मासूम बने मिले। बोले-’भई हमें तो मालूम नहीं
था कि काली फि़ल्म लगाना गुनाह है। कार सजावटवालों ने फ्री में लगा दी तो मैं
क्यों मना करता? ये तो उन्हें ही
सोचना चाहिए था।’ एक साहब ने काली फि़ल्म की ज़रूरत की हिमायत फैमिली प्राईवेसी के
ना पर यों की-’चैराहे पर गाड़ी रुकी नहीं कि मनचले षोहदों का झुंड ताक-झांक में
जुट जाता है।’ कुछ को मोहल्ले के स्वंय-भू चैधरी बने रहने के लिए काली फि़ल्म जरूरी
लगती है। इन चतुर खिलाडि़यों को शहर के उन तमाम रास्तों व चैराहों की जानकारी है
जहां यातायात सिपाही तौनात नहीं है।
इन्हें ये भी मालुम है कि सुबह-शाम पीक आफिस टाईम पर चैराहों को जाम से बचाने में
जुटे मसरूफ़ सिपाहियों के पास कहां इतनी फुर्सत कि काले षीषों वाली गाडि़यों को
पकड़ने पीछे भागें। एक साहब शिकायत करते मिले कि चलती गाडि़यों में अबलाओं पर
जुल्मों की बढ़ती घटनाओं से आहत होकर उन्होंने खुद ही अपनी गाड़ी से काली फि़ल्म
उखाड़ दी तो सुनने को मिला-’डर गए न बच्चू!’
अबलाओं के अपहरण व रेप के हादसों में तेजी के
बावजूद, एक-दो दिखावटी आभियानों
को छोड़कर, मोटी काली फि़ल्म लगी
लाल-नीली बत्ती वाली एसी कारों में घूम-घूम कर जनता की भलाई के बारे में चिंतन
करते हाकिमों में काली फिल्म उतारने के प्रति गंभीर इच्छा शक्ति नज़र नहीं आती है
तो इसलिए कि उन्हें भय है कि कहीं ऐसा न हो शुरूआत ही उनकी गाड़ी से हो। यकीनन ये
काम अवाम को ही कभी न कभी अंजाम देना होगा। मगर शायद उन्हें भी ’दिल्ली बस गैंग
रेप’ जैसे किसी वीभत्स हादसे का इंतज़ार
है।
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