-वीर विनोद छाबड़ा
यों तो राजेश खन्ना को लाखों ने देखा है, मगर मैं उन चंद खुशकिस्मतों में हूं जिन्होंने राजेश खन्ना को उस वक़्त देखा था जब उनकी कोई भी फिल्म रिलीज़ नहीं हुई थी। ये 1966 का नवंबर महीना था। मैं अपने पिताजी ;रामलाल, उर्दू अदब के मशहूर अफ़सानानिगारद्धके साथ बंबई घ्ूामने गया था। मशहूर उर्दू अदीब, फ़िल्म संवाद-स्क्रीनप्ले राईटर तथा निर्माता-निर्देशक राजेन्द्र सिंह बेदी ;दस्तक, फागुनद्ध के घर जाना हुआ था। बेदी साहब का बेटा नरेंद्र, बेदी उन दिनों सिप्पी फिल्म्स के प्रोड्क्शन-इन-कंट्रोलर हुआ करते थे। नरेंद्र बेदी ने बाद में बंधन, जवानी दीवानी, खोटे सिक्के आदि कई हिट फिल्में डायरेक्ट की थीं। बहरहाल, मैं उस वक्त 16 साल का था और फिल्मों के प्रति दीवानगी हद दर्जे की थी। संयोग से उस दिन फेमस सिने लैब में ’राज़’ का ट्रायल शो था। फिल्मों के प्रति मूेरी दीवानगी के मद्देनज़र नरेंद्र बेदी ने हमें भी राज़ का ट्रायल शो देखने का न्यौता दिया। नरेंद्र बेदी ने बताया कि इस फ़िल्म का हीरो न्यू फेस राजेश खन्ना है जो युनाईटेड प्रो्यूसर्स टेलंट हंट की खोज है और आज ट्रायल शो से तय होना है कि फ़िल्म कैसी बनी है? क्या कमी है? इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए? कितनी चलेगी? वगैरह-वगैरह। और साथ ही यह भी तय होगा कि राजेश खन्ना नाम का हज़ारों में छांटा गया ’हीरा’ फ्यूचर में बाक्स आफिस पर कितना चमकेगा?
फैमस सिने लैब के छोटे से आडिटोरियम में फ़िल्म निर्माण से जुडे़ तमाम छोटे-बड़े चेहरे, जैसे निर्देशक रमेश सिप्पी, संवाद लेखक सतीश भटनागर, सह-अभिनेत्री माधवी आदि पहले से मौजूद थे। इंतज़ार था तो हीरो राजेश खन्ना और हीरोईन बबिता का। तभी खबर आयी कि बबिता नहीं आ रही हैं पर ’काका’ घर से चल दिये हैं। तब मुझे नहीं मालूम था कि राजेश खन्ना ही ’काका’ हैं। थोड़ी देर में काका आ गए। एक दरम्याने कद का साधारण चेहरे-मोहरे का नौजवान, जिसके थोड़े-थोड़े मुहासों वाले चेहरे पर कातिलना मुस्कान थी, परंतु भरपूर आत्मविश्वास भी था। मगर कुल मिला कर किसी भी दृष्टि से उस दौर के हीरो मनोज कुमार, धर्मेंद्र, शम्मी कपूर, शशिकपूर, जितेंद्र जैसी चमक-दमक नहीं थी। सच कहूं तो धक्का सा लगा था कि ये भी कोई हीरो है? क्या देख कर इसे हीरो चुना गया है। भारी मन से, परंतु कौतुहलवश फिल्म देखनी शुरू की। पहली बार किसी फिल्म का ट्रायल शो जो देख रहा था। ये एक कच्ची एडिटेड फिल्म थी, जिसमें बैक-ग्राऊंड म्युज़िक भी नहीं भरा गया था और ज़्यादातर हिस्सा ब्लैक एंड व्हाईट था। सिर्फ़ गाने कलर्ड थे। राजेश खन्ना का डबल रोल था। सच कहूं तो जिस भारी मन से फिल्म देखनी शुरू की थी, वह मन जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ रही थी खुश होता जा रहा था। दरअसल ये एक मिस्ट्री थ्रिलर था जो मेरा मनपसंद सबजेक्ट था। वास्तव में राजेश ने बड़ी मेहनत की थी, जो उसके अच्छे कलाकार होने का सबूत था। मगर मन फिर भी उसे ’स्टार’ मानने को तैयार नहीं था, क्योंकि तब भी दिलीप कुमार, राजकपूर व देवानंद की तिकड़ी ही स्टार का पैमाना थी।
उस ट्रायल शो में बाहरी दर्शको में मैं और मेरे पिताजी थे, बाकी फिल्म युनिट से जुड़े कलाकार और तकनीशियन थे। लिहाज़ा बेबाक राय के लिए सबने हमारी तरफ देखा। हम मेहमान थे। औपचारिकतावश तारीफ़ तो करनी ही थी। आखिर में नरेंद्र बेदी ने हमारा परिचय राजेश खन्ना से कराया। राजेश से मैंने लजाते हुए हाथ मिलाया और मुबारकबाद देते हुए कहा कि आपने बहुत अच्छा काम किया है। तब राजेश ने शक्रिया अदा करते हुए पूछा था- ‘‘फ़िल्म कैसी बनी है? चलेगी?’’
‘‘हां, क्यों नहीं!’’ मेरे पिताजी ने जवाब दिया था। साथ ही मेरे मुंह से भी एवैं ही निकल गया था-‘‘ आप भी खूब चलेंगे।’’ तब राजेश खन्ना एक खास कातिलाना अंदाज़ से सिर्फ़ मुस्कुरा दिये थे। कई साल बाद मुझे अहसास हुआ था कि उस खास कातिलाना मुस्कान में तनिक अहंकार भरा एक गर्वीलापन भी मौजूद था जो बोल रहा था कि ये तो मुझे भी मालूम है, आगे की बात करो। और आगे की बात तो इतिहास है। मेरा एवैं ही कहा गया सचमुच सिर्फ़ स्टार ही नहीं सुपर स्टार बन गया, हिंदी सिनेमा का पहला सुपर स्टार। तीन-चार साल बाद वो कलाकार, जिसमें मुझे पहली नज़र में स्टार मैटीरीयल कहीं भी नज़र नहीं आया था, स्टार ही नहीं सुपर स्टार बन गया था। हिंदी सिनेमा का पहला सुपर स्टार। एम मिथक की तरह। हर वर्ग, धर्म और समाज के बच्चे से लेकर बूढ़े तक का हरदिल अज़ीज़। राजेश के प्रति दीवानगी की ऊंचाई का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि ‘हाथी मेरे साथी’ जैसी बचकाना फिल्म भी हिट ही नहीं सुपर-डुपर हिट हुई थी। किसी दूसरे स्थापित स्टार के साथ अगर ये बनी होती तो इसके हिट होने की शर्त पर एक ढेला तक लगाने वाला कोई नहीं मिलता।
बहरहाल, पहली फिल्म होने के बावजूद ‘राज़’ से पहले चेतन आनंद की ‘आख़िरी ख़त’ और नासिर हुसैन की ‘बहारों के सपने’ रिलीज़ हो गयी। ये दोनों ही फ़िल्में बाक्स आफ़िस पर ठीक-ठाक चलीं थीं जिसने बाद में रिलीज़ ‘राज़’ के फ्लाप शो को दबा दिया था। मगर आलोचको ने ये ज़रूर दबे लफ्ज़ों में ऐलान कर दिया था कि राजेश में अच्छे कलाकार के गुण प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं।
तब से आज तक मैने राजेश खन्ना की बेशुमार फ़िल्में देखी हैं। वह यकीनन एक मिथक रूपी सुपर स्टार थे, जिस पर हमें हैरत होती है। हम आज भी उस दौर के ‘रहस्य’ को नहीं समझ पाए कि जनता किसमें क्या देख कर उसे ज़मीन से आसमान पर चढ़ा देती है। तब तो आज जैसा मीडिया हाईप भी नहीं था, जिसे राजेश को सुपर स्टार बनाने का श्रेय मिलता। अब ये बात दूसरी है है कि राजेश की मृत्यु को ज़रूर मीडिया ने उसके चैथे के बाद भी अस्थि विसर्जन तक खूब भुनाया और वर्तमान नई पीढ़ी को बताया कि कभी राजेश खन्ना नामक मिथक रूपी सुपर स्टार भी होता था। बहरहाल, राजेश की हर फिल्म में उसका सुपर स्टार होने का अहम छाया रहा और मैं उसमें सुपर स्टार के भार तले दबे कलाकार की तलाश करता रहा जो मुझे भरपूर मिला- आख़िरी ख़त, खामोशी, आराधना, अमर प्रेम, दो रास्ते, आनंद, इत्तिफ़ाक़, सफ़र, बावर्ची, नमक हराम, दाग़, अविष्कार, प्रेम कहानी, आपकी कसम, अमरदीप, अमृत, अवतार, थोड़ी सी बेवफ़ाई, जोरू का गुलाम, आखिर क्यों, सौतन, पलकों की छांव में आदि।
दो राय नहीं कि राजेश खन्ना बेहतरीन कलाकार थे। पहले सुपर स्टार तो थे ही और शायद आखिरी भी क्योंकि उनके अलावा दूसरा कोई नहीं आया जिसे हर तबके के हर उम्र के लोगों ने बेपनाह मुहब्बत दी हो। मगर वो सब कुछ होते हुए ‘मुकम्मिल’ नहीं रहे क्योंकि उनके संपूर्ण कैरीयर और निज़ी जीवन में भारी उथल-पुथल चलती रही, जिसने सुर्खियां बन कर उनके सुपर स्टारडम और कलाकार मन को ग्रहण लगा दिया। एक वजह यह भी रही कि अपने हिस्से की बाक्स आफिस की चमक-दमक ’नमक हराम’ में सह-कलाकार अमिताभ बच्चन के हाथ अनजाने में सौंपने के बाद वह लाख कोशिशों और करतबों के बावजूद ‘बाऊंस बैक’ नहीं कर पाए। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म में मूल कहानी के अनुसार अमिताभ के चरित्र को मरना था परंतु राजेश को लगा कि ऐसा न हो सारी सहानूभूति अमिताभ के हिस्से में चली जाएगी। तब उन्होंने कहानी में हेर-फेर करा के खुद मरना पसंद किया। मगर दांव उल्टा पड़ा । अमिताभ अपनी पावरफुल परफारमेंस के दम पर सबका दिल जीत हरदिल अजीज़ हो गए।
सिल्वर-गोल्डन जुबली की लंबी फेहरिस्त का बादशाह, राजेश खन्ना, एक के बाद एक मिली अनेक नाकामियों को हज़म नहीं कर पाया। यही बात उन्हें ज़िंदगी भर सालती रही और 29 दिसंबर 1942 को अमृतसर में जन्मा ये मिथक 18 जुलाई 2012 को बेवक़्त और बेवजह ‘अच्छा तो हम चलते हैं’ कह गया। सन 1966 का फेमस सिने लैब आडिटोरियम में मेरे बिलकुल पीछे की कतार में बैठा राजेश खन्ना, जिससे सह-अभिनेत्री माधवी चुहल करती रही, के साथ बिताए ढाई घंटों का अहसास मुझे आज भी रह-रह कर गुदगुदाता है और साथ ही राजेश नाम के हर उस पैंतालीस-छियालिस साल के शख्स को देखकर मुस्कुराता हूं क्योंकि मुझे यकीन है कि इनमें नब्बे फीसदी का नाम राजेश खन्ना के दौर की लोकप्रियता की वजह से ही ‘राजेश’ है। मुझे आज भी गर्व है कि मैंने राजेश खन्ना नाम के कलाकार को पर्दे पर सुपर स्टार बनने से पहले देखा है।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मो0 7505663626
दिनांक 27.12.2013
Veer Ji, aap to hamesha se hi accha likhte aaye hai...ye lekh bhi usi shreni ka hai....pasand aaya....
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सर जी आप का जवाब नहीं है ,मैं कॉलेज के दिनों से आपको स्वतंत्र भारत के रविवासरीय अंको में पढ़ता था। आपका लेखन ह्रदय स्पर्शी ह vimlesh kumar dixit
ReplyDeleteyou are great story teller!
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