Sunday, January 12, 2014

वानर उवाच- हम किसी से कम नहीं!


वीर विनोद छाबड़ा

बंदे के शहर लखनऊ के कई इलाके पिछले कई महीनों से वानर उत्पात की ज़़बरदस्त चपेट में है। इनकी संख्या हजारों में है, जो पचास-साठ के कई झुंडो में बंटी है। इन दिनों तो इनकी धमा-चैकड़ी चरम पर है। जनता बेहाल-परेशान है। परंतु तमाम मोहल्ला सुधार समितियां और प्रशासन खामोश है। दरअसल हनुमानजी की सेना के विरूद्ध डायरेट एक्शन लेने से सभी को भय लगता है, बजरंग बली से भी और उनसे ज्यादा उनके मानव भक्तों से। उस दिन तो हद हो गयी। जब बंदे के मोहल्ले में वानर सेना के सुनामी समान उत्पात ने जनता-जनार्दन को रात भर सोने नहीं दिया। सुबह अधिकतर केबल टी0वी0 की तारें बुरी तरह कटीं-फिटी और डी0टी0एच0 की सारी छतरियां मुड़ी-तुड़ी पायी गयीं। इसके कारण घरों में टीवी देखना संभव नहीं था।  तब बंदे के पशु-प्रेम ने बंदे को बाध्य किया कि वानरों से संपर्क करके बात-चीत करके समझे कि वे इंसानों को क्यों तंग करे है? और फिर समस्या से मुक्ति का मार्ग तलाश करे। लिहाज़ा बंदे ने अनेक वानर समूहों की आदतों व चाहतों की गहन स्टडी की, उनसे संपर्क किया ओर उसके आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की। इसके चुनींदा अंश वानर समाज की जुबानी मानव जाति के सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत हैं।



ये सही है कि हम शरारती है, हमारी धमा-चौकड़ी से आपका खासा नुक्सान होता है। दरअसल ये हमारा पैदाईशी स्वभाव है, खासतौर पर बच्चों का। उन्हें इस छत से उस छत पर और इस दीवार से उस दीवार तक कूंदने-फांदने में मज़ा मिलता है, ठीक आपके बच्चों की तरह। फ़क़ऱ् ये है कि आपके बच्चे दीवार नहीं चढ़ सकते, लंबी-लंबी छलांगे नहीं लगा सकते। जब कभी वे ऐसा करने की चेष्टा करते हैं तो आप उन्हें डांटते-फटकारते व डराते हो-‘‘ये क्या बंदरों की तरह उछल-फांद लगा रखी है? ठीक से बैठो, वरना चोट लग जाएगी, फलां-फलां नुक्सान हो जाएगा।’’ अरे भई, बच्चों का इसमें क्या दोष? आखिरकार हम आपके पूर्वज ही तो हैं! हम सयाने और बुजु़र्ग वानर तो ठीक आपकी तरह शांत और गंभीर मुद्रा में बैठ कर अपने बच्चों को खेलता देख आनंदित होते है। साथ ही उनकी हिफ़ाज़त करते है। उन्हें देख कर हमें अपना बचपन याद आता है। साथियों की जूएं चट कर ज़रूरी प्रोटीन और विटामिन हासिल करते है। कभी गहन चिंतन भी करते है कि क्या कभी ऐसा समय आएगा जब हम राजा होंगे और आप प्रजा। आप ही लोगों के मुंह से सुना है कि दूसरे कई ग्रहों पर हम राजा है। हालीवुड में इस संबंध में कई फिल्में भी बन चुकी है जिसे देख कर आप लोग बहुत आनंदित होते हैं। आप ही में से कोई बता रहा था कि कल रात ही किसी चैनल पर ‘प्लानेट ऑफ दि ऐप्स’ चल रही थी।

शुक्र्र है हमारी ज़िंदगी में सकून है। न कमाने की चिंता है और मंहगाई का रोना। न कत्लो-गारत है, न छल-कपट। न राहुल-मोदी और न आरक्षण। न हिंदू-मुसलमान। ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम...। अपनी मांगे मनवाने के लिए इंडिया गेट और जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करके न हमें अपनी ताकत झोंकनी पड़ती और न ही हम अपना वक़्त बरबाद करते हैं। किसी की भी सरकार हो, हमें तो भई कोई परेशानी नहीं। चिंता है तो बस यही कि आप मानव जाति सलामत रहो। मंदिरों पर भरपूर चढ़ावा बदस्तूर आता रहे ताकि हमारे खाने-पीने में कभी कमी नहीं आए।

आपकी तरह हमारी जिंदगी का ढेर सारा हिस्सा आपस में लड़ने-झगड़ने में गुज़रता है। हम किसी को बेवजह नुक्सान नहीं पहुंचाते। पलट कर हमला तभी करते है, जब हमें कोई छेड़ता या मारता है। यदि हम आस-पास हैं तो आपको सलाह है कि एलर्ट रहे क्योंकि आपके हाथ से बेआवाज़ निवाला छीनने की महारथ हमें हासिल है। आप में भी तो ऐसे बहुत लोग हैं जो दूसरों की मेहनत पर चुपचाप हाथ साफ कर जाते है। इस मामले में आप हमसे कई कदम आगे है। सुना है आजकल आपके बाज़ बंदे ‘पासवर्ड’ हैक करके एटीएम और बैको से किसी की भी खून-पसीने की गाढ़ी कमाई सैकेंडों में ले उड़ते हैं।

आपका अनुकरण करने में भी हम अव्वल है। हम फ्रिज खोल सकते है। पंखा-बत्ती ऑफ-आन कर सकते हैं। रूठी पत्नी को भी मना लेते हैं। आखिर आप मदारी और हम नकलची जो ठहरे। हमें आप नकलची बंदर कह कर नाहक बदनाम करते है। जबकि आप खुद हमसे बड़े नकलची होते हैं, जब आप पड़ोसी की नकल करके उधार में कार क्रय करते है। आपको ये कृत्य ज़ालिम की श्रेणी में खड़ा करता है जब आप हमें पिंजड़ों में ठंूस कर जू में नुमाईश के लिए रखते हैं। अरे भई हमारे करतब आपके बच्चों को टैक्स-फ्री मनोरंजन प्रदान करते हंै, बिलकुल मुफ़्त में। इसके लिए हमें बंद करने की क्या ज़रूरत है?

याद करें त्रेता युग में लंका विजय। यदि वानर सेना न होती और हनुमान जी के साथ सुग्रीव, अंगद, नल-नील आदि वीर योद्धा न होते तो निसंदेह रामकथा का रूप कुछ दूसरा ही होता। आपको हमारा ऋणी इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि आपकी बीमारी का उपचार करने और प्राणरक्षा की दवाएं आपको देने से पहले हम पर प्रयोग की जाती है। इन प्रयोगों की हम सफलता पर ही आपका निरोगी होना निश्चित होता है।

आपने हमारे यहां से दफ़ा से होने की कीमत हमसे पूछी है। तो सुन लें श्रीमान। ये जिस जगह पर आपकी कालोनी बसी है, बड़ी-बड़ी और ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी हैं, शापिंग माल-सिनेप्लैक्स बने हैं, यहां कभी हरे-भरे व ऊंचे-ऊंचे फलदार पेड़ों वाले घने जंगल थे। यही हमारे घर थे। पूरी जिं़दगी इन पर कटती थी। ज़मीन पर तो हम कभी-कभार ही उतरते थे। परंतु आपने अपना घर बनाने और विलासिता के बाज़ार बनाने के फेर में हमारे जंगल उजाड़ कर काट डाले और हमें बेघर कर दिया। अब हम जाएं तो कहां? आप हमें यहां से निकल जाने को कह रहे हैं। मगर हमारी भी एक शर्त है कि हम लौट जाएंगे और ये वादा भी है। लेकिन पहले आप हमारे जंगल हमें लौटा दो।

बंदे की इस रिपोर्ट को पढ़ कर मानव जाति के बंदे यों खामोश हो गए मानों उन्हें सांप सूंघ गया हो।
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हिन्दुस्तान, लखनऊ के ‘मेरे शहर में’ स्तंभ में दिनांक 19.03.2013 अंक में प्रकाशित।

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