-वीर विनोद छाबड़ा
उस रोज़ आटो नहीं मिला। लिहाज़ा बंदा सिटी बस में सफ़र के लिए मजबूर हुआ। बस ख़चाख़च भरी थी। सांस तक लेना मुश्किल हो रहा था। बामुश्किल खड़े होने भर की जगह नसीब हुई। क़ाफ़ी देर तक बंदा धक्के खाता रहा। तभी एक साहब ने सीट खाली की। एक स्कूली लड़की और बंदा दोनों एक साथ खाली सीट हथियाने ख़ातिर लपके। बंदा तकरीबन कामयाब होने को ही था कि उसे ख्याल आया कि इस भीड़ में लड़़की ज्यादा परेशान है और लखनऊ की तहजीब़ का भी ये तकाज़ा था कि बड़ों, मजलूमों, औरतों और मासूमों को तरजीह दी जाए। लिहाज़ा सीट की ज़रूरत पहले लड़की को है। बंदे ने लड़की को सीट आफ़र की। मगर लड़की बड़े अदब से बोली-‘‘नहीं अंकल, आप बड़े हैं, लिहाज़ा पहले आप।‘‘ बंदे को बड़ी हैरानी हुई और खुशी भी। खुशी इस बात पर कि इक्कसठ साल के सीनीयर सिटीज़न बंदे को लड़की ने दादा जी नहीं कहा। और हैरत इस बात पर कि एक मुद्दत बाद के बाद ‘पहले आप’ सुनना नसीब हुआ था। लखनऊ की गुम हो रही तमाम पहचानों में एक ’पहले आप’ एक मासूम स्कूली लड़की में ज़िन्दा थी।
बहरहाल, बंदा दार्शनिक अंदाज़ में बोला-‘‘बेटी हमारा सफ़र तो अगले स्टाप पर खत्म होना है। लिहाज़ा पहले आप तशरीफ़ रखें।‘‘ लड़की ने मुस्कुरा कर पूरी इज़्ज़त दी-‘‘जी नहीं अंकल, पहले आप।’’ इससे पहले कि बंदा इस ‘पहले आप’ के सिलसिले को आगे बढ़ाता एक नौजवान ‘पहले आप, पहले आप’ के दरमियां चल रही कवायद का फायदा उठाते हुए सीट पर काविज़ हो गया और बड़ी हिकारत भरी नज़रों और व्यंग्य से बंदे को यों देखा मानों कह रहा हो आपकी ‘पहले आप’ गयी तेल लेने। तभी बंदे का स्टाप आ गया। उसका सफ़र खत्म हुआ।
बस से उतर कर बंदा अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हुए वक़्त की मोटी परते झाड़ते हुए उस दौर की याद ताज़ा करने लगा जब ‘पहले आप’ गंगा-जमुनी तहज़ीब और इल्मो-अदब के मरकज़ लखनऊ के हर खासो-आम के जीने के तरीकों में शुमार था। पहले आप... जी नहीं, हुजूर पहले आप... आप बड़े हैं, लिहाज़ा पहले आप... जी नहीं, आप मेहमान हैं, लिहाज़ा पहले आप...। पहले आप का यह सिलसिला बामुश्किल तभी ख़त्म होता था जब याद दिलाया जाता था कि हुजूर बिरयानी बासी हो चली है, गर्म मुर्गा ठंडा होकर आधा रह गया है और ख़ीर तो कब की बदबू मार गयी। कभी-कभी तो ‘पहले आप’ के चक्कर में ट्रेन भी छूट जाती थी।
’पहले आप’ से जुड़े तमाम मजेदार किस्सों के वर्क़ बंदा पलट ही रहा था कि एक साहब के धक्के ने उसे जगा दिया। बंदा अतीत से वर्तमान में लौटता है और पाता है कि ‘पहले आप’ की तकसीम हो चुकी है। यानि कि पहले आप ’मैं’ का दामन थाम कर ’पहले मैं’ हो गया है और एक बेहद गंदी शक़्ल अख्तियार कर ली है। ज्यादातर सड़क हादसों की वज़ह वाहन चालक की ‘पहले मैं’ ही है। टैªफ़िक जाम के ज्यादातर मामलों में भी वाहन चालक की ‘पहले मैं’ की ईगो के ही दीदार होते है। अक्सर देखा गया है कि ऐसी जगह जहां लोगों की लंबी कतारें होती है वहां कोई न कोई ‘पहले मैं’ के बदशक्ले जिन्न पर सवार हो कर भगदड़ मचाने चला आता है। हैरत की बात तो यह है कि हर तीसरा-चैथा ’पहले मैं’ किसी सियासी पार्टी या रसूखदार या माफ़िया से जुड़ा होने का दम भरता है और दावा करता है कि अनुशासनहीन होना उसका पैदाईशी हक़ है।
बहरहाल, शुक्र है कि एकला चलो की नीति पर चल रहा ‘पहले आप’ का दूसरा हिस्सा यानि ’आप’ पूरे जोशो-ख़रोश के साथ चंद लखनऊवासियों की सांसों में अभी ज़िन्दा है। पुराने लखनऊ के चंद गोशों में भी ये अभी तक अंगड़ाईयां ले रहा है। ऐ आज की पीढ़ी के नौजवानों, बंदे की आप से गुज़ारिश है कि इस ‘आप’ को अगली पीढ़ी को ज़रूर ट्रांसफ़र करें और थोड़ा वक़्त निकाल कर शहर का इतिहास भी ज़रूर कभी-कभी खंगाल लिया करें। इससे आपके इल्म में इज़ाफा तो होगा ही साथ में तहज़ीब का दायरा भी खुद-ब-खुद बढ़ जाएगा।
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हिन्दुस्तान, लखनऊ के ’मेरे शहर में’ स्तंभ में दिनांक 05.10.2012 अंक में प्रकाशित।
पहले आप |
नहीं, पहले मैं! |
बस से उतर कर बंदा अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हुए वक़्त की मोटी परते झाड़ते हुए उस दौर की याद ताज़ा करने लगा जब ‘पहले आप’ गंगा-जमुनी तहज़ीब और इल्मो-अदब के मरकज़ लखनऊ के हर खासो-आम के जीने के तरीकों में शुमार था। पहले आप... जी नहीं, हुजूर पहले आप... आप बड़े हैं, लिहाज़ा पहले आप... जी नहीं, आप मेहमान हैं, लिहाज़ा पहले आप...। पहले आप का यह सिलसिला बामुश्किल तभी ख़त्म होता था जब याद दिलाया जाता था कि हुजूर बिरयानी बासी हो चली है, गर्म मुर्गा ठंडा होकर आधा रह गया है और ख़ीर तो कब की बदबू मार गयी। कभी-कभी तो ‘पहले आप’ के चक्कर में ट्रेन भी छूट जाती थी।
’पहले आप’ से जुड़े तमाम मजेदार किस्सों के वर्क़ बंदा पलट ही रहा था कि एक साहब के धक्के ने उसे जगा दिया। बंदा अतीत से वर्तमान में लौटता है और पाता है कि ‘पहले आप’ की तकसीम हो चुकी है। यानि कि पहले आप ’मैं’ का दामन थाम कर ’पहले मैं’ हो गया है और एक बेहद गंदी शक़्ल अख्तियार कर ली है। ज्यादातर सड़क हादसों की वज़ह वाहन चालक की ‘पहले मैं’ ही है। टैªफ़िक जाम के ज्यादातर मामलों में भी वाहन चालक की ‘पहले मैं’ की ईगो के ही दीदार होते है। अक्सर देखा गया है कि ऐसी जगह जहां लोगों की लंबी कतारें होती है वहां कोई न कोई ‘पहले मैं’ के बदशक्ले जिन्न पर सवार हो कर भगदड़ मचाने चला आता है। हैरत की बात तो यह है कि हर तीसरा-चैथा ’पहले मैं’ किसी सियासी पार्टी या रसूखदार या माफ़िया से जुड़ा होने का दम भरता है और दावा करता है कि अनुशासनहीन होना उसका पैदाईशी हक़ है।
बहरहाल, शुक्र है कि एकला चलो की नीति पर चल रहा ‘पहले आप’ का दूसरा हिस्सा यानि ’आप’ पूरे जोशो-ख़रोश के साथ चंद लखनऊवासियों की सांसों में अभी ज़िन्दा है। पुराने लखनऊ के चंद गोशों में भी ये अभी तक अंगड़ाईयां ले रहा है। ऐ आज की पीढ़ी के नौजवानों, बंदे की आप से गुज़ारिश है कि इस ‘आप’ को अगली पीढ़ी को ज़रूर ट्रांसफ़र करें और थोड़ा वक़्त निकाल कर शहर का इतिहास भी ज़रूर कभी-कभी खंगाल लिया करें। इससे आपके इल्म में इज़ाफा तो होगा ही साथ में तहज़ीब का दायरा भी खुद-ब-खुद बढ़ जाएगा।
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हिन्दुस्तान, लखनऊ के ’मेरे शहर में’ स्तंभ में दिनांक 05.10.2012 अंक में प्रकाशित।
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