Tuesday, January 7, 2014

सखी बस सेवा के वो दिन



वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ शहर के इंदिरा नगर इलाके का भीड़-भाड़ वाला मुंशी पुलिया चैराहा। सुबह का नौ बजा है। ठसाठस भरी बस देखते ही लगभग पचास बरस की एक सरकारी महिला कर्मचारी का दम घुटता है। आटो के लिए खासी मारा-मारी है। बामुश्किल एक आटो में जगह मिलती है। महिला को कोई बड़ा किला फतेह करने जैसी खुशी हासिल होती है। उस जैसी सैकड़ों महिलाएं-लड़कियां अभी भी आटो-बस के लिए जूझ रही हैं। आज वो महिला वक़्त पर आफिस पहुंचेगी। कभी-कभी दो बार आटो लेना पड़ता है। पहले बादशाहनगर तक का और फिर वहां से जवाहर भवन। उसके चेहरे की झुर्रियां से बहता चिपचिपा पसीना उसके लंबे संघर्षपूर्ण जीवन की दास्तां बयान कर रहा है। आफिस पहुंचते ही वो फाईलों का हिस्सा बन कर उसमें डूब जाती है। बाकी पुरुष व महिला कर्मचारी आदतन विलंब से आते है। वे ट्रैफिकजाम और कन्वेयंस मिलने में आयी दिक्कत का हवाला देकर सरकार को बेतरह कोसते है। उनके पास देर से आने के सौ और भी बहाने होते हैं। फिर वक़्त बरबाद करने के लिए चाय की चुस्कियों के साथ मौजूदा हालात पर टिप्पणि़यों-फब्तियों का दौर शुरू होता है। मगर वो महिला इस उसूल की मारी है कि जिसका नमक खाओ, उसका पूरा हक़ अदा करो। इसीलिए ऊपर से उसे सबसे ज्यादा फाईलें मार्क होती हैं।


शाम पांच बजे आफिस बंद होता है। उस महिला को अपने जैसी सैकड़ों महिलाओं के साथ आटो के लिए सुबह वाली जद्दोज़हद फिर करनी है। आज वो सुबह जैसी लकी नहीं है। खासी धक्का-मुक्की और इंतज़ार के बाद निशातगंज का आटो मिला। ज्यादा वक्त़ गंवाने के मूड में नहीं है वो। निशातगंज फ्लाईओवर के नीचे से पैदल मार्च करके मंदिर वाले चैराहे पर पहुंचती है। यहां दस-पंद्रह मिनट की भागम-भाग और इंतज़ार के बाद उसे पालीटेक्नीक तक का आटो मिलता है। अब यहां से उसे दो किलामीटर दूर मंशीपुलिया तक के लिए फिर से आटो के पीछे भागना है। संयोग से आज ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। बहरहाल, आटो में बैठे-बैठे वो घर के बारे में सोचती है... राशन-पानी तो पगार मिलते ही भर लिया था। सब्जी वाला द्वारे पर आ जाता है। थोड़ी महंगी देता है। तो क्या हुआ? टाईम तो नहीं वेस्ट करना पड़ता बाज़ार जाकर। जब कभी आफिस से मुंशीपुलिया के लिए सीधा आटो मिल जाता है तो टाईम बच जाता है। तब वो सब्जी के लिए बाज़ार का चक्कर लगा लेती है। उसके सपनों की उम्मीदें और उसका गुरूर दो बेटियां हैं, जो मेडिकल की तैयारी कर रही है। कोचिंग से लौटते-लौटते उन्हें आठ बज जाता है। घर से दो किलोमीटर दूर तकरोही बाज़ार में परचून की छोटी सी दुकान चला रहा उसका पति ’टुन्न’ होकर दस के बाद ही घर आएगा... मुंशी पुलिया आ गया उसे पता ही नहीं चला। अब यहां से उसे घर के लिए दस मिनट पैदल चलना पड़ेगा।

रात ग्यारह बज गया चैका-बरतन समेटते। बेटियां अभी टीवी से चिपकी हैं। वो उन्हें डांटती है। कंपीटीशन की तैयारी कब करोगी? वो थककर चकनाचूर हो चुकी है। धम्म से बिस्तर पर गिर जाती है। उसे उन सुखद दिनों की याद आती है... जब नगर परिवहन निगम की ’सखी बस सेवा’ के कारण वक़्त, एनर्जी और पैसों की खासी बचत हो जाती थी। मगर घाटा बता कर ये सेवा बंद कर दी गयी। मुश्किल से महीना भर चली होगी ये सेवा। वो हैरान है कि सुबह-शाम बेशुमार बहनें-बेटियां बस-आटो के लिए बेतरह भटकती है। इस दौरान होने वाली धक्का मुक्की में उन्हें पुरुषों की उलूल-जुलूल हरकतें भी बर्दाश्त करनी पड़ती है। ऐसे में घाटा कैसे हुआ। ये सब बकवास है। मुफ़्त लैपटाप-टैबलेट, बेरोजगारी भत्ता जैसी कई कल्याणकारी कार्यक्रम चलाने पर करोड़ों रुपया लुटाने वाली सरकार ’महिला सुरक्षा के नाम पर ’सखी बस सेवा’ का कथित छोटा सा घाटा क्यों नहीं वहन कर सकती? मर्दों की सरकार है। औरत की तकलीफ को ये क्या जानें? इनके लिए तो औरत बस बिस्तर की चीज है। महिला सुरक्षा और उत्थान के लिए बेहद फि़क्रमंद रहने वाली तमाम महिला संगठन भी इस मुद्दे पर खामोशी क्यों अख्तियार किए हैं? खुद से किए गए इन तमाम सवालों के जवाब उसे नहीं मिलते हैं। तब वो तय करती है कि कल इस सिलसिले में वो सीएम को पत्र लिखेगी। और ज़रूरत पड़ी तो उनके जनता दरबार में भी हाजि़री लगाएगी। पर ऐसा निश्चय वो पहले भी कई बार कर चुकी है। लेकिन अबकी पक्का है... मगर सुबह उठते ही काम-काज की जो भागम-भाग शुरू होती है तो रात में ख़त्म होती है और ऐसे में वो पिछली रात किया गया पक्का निश्चय भूल जाती है। ऐसा कई बार हो चुका है।

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-वीर विनोद छाबड़ा

डी0 2290, इंदिरा नगर,

लखनऊ-226016

मोबाईल 7505663626

हिन्दुस्तान, लखनऊ के ’मेरे शहर में’ स्तंभ में दिनांक 05.03.2013 को प्रकाशित

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