-वीर विनोद छाबड़ा
इंडिया में सिनेमा का इतिहास सौ साल की उम्र पार कर चुका है मगर यहां
बात साठ-सत्तर साल पहले के हिंदी सिनेमा से शुरू कर रहा हूं,, क्योकि इससे पहले का
युग मैंने देखा नहीं है। री-रन में भी इक्का-दुक्का फ़िल्में देखीं। हां, बचपन की धंधुली
यादों में से एक नज़ारा याद आता है। चालीस के दशक में बनी ‘शाहजहां’ का कंुदन लाल सहगल
पर फिल्माया व गाया गाना रेडियो पर बज रहा था- हम जी के क्या करेंगे जब दिल ही टूट
गया....और मेरे चाचा भावुक होकर गए दीवार पर सिर पटक रहे थे। अपनी
कमीज़ तक फाड़ दी थी।
यानि सिनेमा से पागलपन की हद तक बाज़ लोगों का जुड़ाव था। और इसका असर समाज पर भी था।
बेहद भावुक था उन दिनों का समाज। बहरहाल, यों सबको अपने युग से ज्यादा प्यार होता है।
मुझे भी लगता है कि मेरा युग सोना था और आज की पाढ़ी को भी अपने युग के बारे में यही
गुमान है। एक बात काॅमन है कि फिल्में तब भी ढेर बनती थीं और आज भी बनती हैं। दो राय
नहीं कि आज तकनीक बहुत बेहतर हुई है कल के मुकाबले। दरअसल मेरे युग में साधन के अलावा
पैसा भी ना के बराबर था। शूट के लिए राॅ-स्टाक तक के लिए विदेशी मुद्रा की ज़रूरत होती
थी जिस पर सरकारी कंट्रोल था। आज नए नए विषयों पर सोचा जा रहा है और बड़े बोल्ड अंदाज़
में उन पर फ़िल्में भी बन रही हैं। फ़िल्म की लंबाई भी छोटी हुई है। याद आता है साठ-सत्तर
के ज़माने में जब विदेशी फ़िल्मों की तर्ज़ पर कोई कम लंबाई की फ़िल्म बनाने की बात करता
था तो उसे हिकारत की निगाह से देखा जाता था। आज दावा हैं और जिसमें दम भी है, कि सिनेमा
रीअल्टी के ज़्यादा करीब है। पसंद करने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है, मगर कुछ बाक्स
आफिस पर बिना शोर-शराबा किए गायब भी होती हैं, जैसे ‘शाहिद’, जो यकीनन लाजवाब है। कुछ
मालामाल होती हैं, जैसे पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग, बिल्लू आदि। इन पंक्तियों के लिखते वक़्त खबर है कि राकेश रोशन की ‘कृष-3’, जो उनकी पिछली फ़िल्म का सीक्वेल है, ने तकनीक के मामले में बालीवुड की सुपरमैन टाईप साईंस फिक्शन सिनेमा को चुनौती दी है। शायद ये बाक्स आफिस पर आल टाईम इंडियन रेकार्ड भी बनाए। मगर तकनीक के ज्यादा प्रयोग से भावनाओं का नुक्सान होता है उसका भी कृष-3 नमूना है।
सिनेमा देखने वालों की एक नयी क्लास भी तैयार हो गयी है जिसे मल्टी-प्लैक्स
सिने गोअर्स कहते हैं। ये पिछले युग के सिनेमा प्रमियों की तरह दृश्यों से प्रभावित
होकर सीटी नहीं बजाती, ताली नहीं पीटती, आईटम सांग पर पैसा नहीं फेंकती, नाचती नहीं
है। मल्टी प्लैक्स सिनेमाहालों की तादाद बहुत ज्यादा है, जबकि सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल
गिने-चुने हैं और फाईनली दम तोड़ने से पहले वाली आख़िरी सांसें गिन रहे हैं। इनकी कमाई
से डिस्ट्रीब्यूटर का कोई भला नहीं होता। लिहाज़ा उसे कतई मज़़ा नहीं आता। कमाई मल्टी-प्लैक्स
से है। एक ही दिन में हज़ार-हज़ार स्क्रीन पर फिल्म रिलीज़ होती है और पहले ही दिन
15-20 करोड़ झटक लेती है। और अगर दम हुआ तो हफ्ते भर में सौ करोड़ तो कहीं नहीं गए। सन
अस्सी तक फिल्म कम से कम पंद्रह हफ्ते चलने के बाद हिट मानी जाती थी और प्राफिट के
लिए लंबा इंतज़ार भी करना होता था। आज तो ज़बरदस्त पब्लिसिटी के दम पर शाहरुख खान की
बकवास ‘रा-वन’ भी सौ करोड़ से ऊपर की कमाई दे जाती है। सौ करोड़ क्लब की पिछले साल-दो
साल की फ़िल्में हैं-गज़नी, रेड्डी, बाडीगार्ड, सिघम, राउडी राठौर, बाॅस, चैन्नई एक्सप्रेस,
दबंग-2 वगैरह। बड़े नाम- शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन,
रणवीर कपूर खूब चलते हैं। मगर गारंटी साठ-सत्तर परसेंट से ज्यादा की नहीं है। करीना,
अनुष्का, दीपिका, सोनाक्षी आदि हीरोइनें बस शो-पीस हैं। पिछला युग भी इस मामले में
कमोबेश ऐसा ही था। बड़े नामों पर फाईनेंसर पैसा फेंकते थे। उस युग में फुल कामेडी फिल्में
इक्का-दुक्का थीं। जैसे प्यार किए जा, चलती का नाम गाड़ी, पड़ोसन वगैरह। आज इनकी रफ्तार
अच्छी-खासी है। जैसे हंगामा, हेरा-फेरी, फिर हेीरा-फेरी, छुप छुप के, हलचल, गोलमाल,
गोलमाल-2 वगैरह।
सौ साल तक के सिनेमा इतिहास में आज तक जितनी भी फिल्में बनी हैं, उनमें
से अपवाद स्वरूप कुछ एक्सपेरीमेंटल फिल्में छोड़ कर, सबका पहला उद्देश्य पैसा कमाना
रहा है। मगर आज के मुकाबले कल के सिनेमा में बुनियादी फ़र्क यह था कि उस ज़माने में फ़िल्म
बनाने का मकसद सामाजिक सरोकार होता था। दरअसल, इसकी वज़ह 1947 में मिली आज़ादी और उसके
नतीज़े में मुल्क की तकसीम से उपजे बिगड़े सामाजिक, सांप्रदाियक और आर्थिक माहौल का होना
था। फिल्मकार को भारत को अपने पैरों पर खड़ा करने के अलावा अतीत की गौरवशाली संस्कृति
को बचाने की फ़िक्र थी और पुराने सड़े-गले रीति-रिवाज़ों से छुटकारा पाने के लिए भी अपने
ही लोगों से लड़ना था। नई भारतीयता की तस्वीर भी उजली करनी थी। राजकपूर के आर.के.बैनर्स
तले बनी आवारा, श्री चार सौ बीस, जागते रहो, जिस देश में गंगा
बहती है आदि का मक़सद
देखिए। साफ नज़र आता है कि उनकी फिक्र उस ज़माने के समाज में व्याप्त बुराईयों कुरीतियों
से लड़ना था। इस सोशल मिथक को तोड़ना था कि बुरे आदमी का बेटा भी पैदाईशी बुरा होता है।
उन्होंने यह स्थापित करने की कोशिश की कि हालात इंसान को अच्छा या बुरा बनाते हैं।
दासता के चंगुल से बाहर निकली भारतीयता की तस्वीर उजली करने की फिक्र थी उन्हें। इसकी
एक बानगी देखिए। ‘श्री 420’ में राजकपूर गाते हैं- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी,
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी....इसी में एक पंक्ति ये भी है....निकल
पड़े हैं ठंडी सड़क पे अपना सीना ताने....।बी.आर.चोपड़ा ने धूल का फूल, धर्मपुत्र, कानून, वक़्त, गुमराह, आदि में यही कहने की कोशिश की। साठ के दशक की शुरूआत में ‘साधना’ में तो उन्होंने सीधे साधे समाज को ललकारा- औरत ने जन्म दिया मरदों को, मरदों ने उसे बाज़ार दिया...। कोई पंद्रह साल बाद मदन मोहला ने भी ‘शराफत’ में यही कहा। ‘नया दौर’ तो मशीन और इंसान के बीच ‘कौन बेहतर’ की जंग थी। एक तरफ तांगा चलाने वाला और दूसरी तरफ लारी यानि बस। इसी तरह आरा मशीन ने आरी से लकड़ी चीरने वाले तमाम मज़दूरों को बेकार कर दिया था। आखिर में जीत मशीन बनाने वाले इंसान की हुई इस नोट पर कि दोनो की भलाई एक-दूसरे के बिना
मुमकिन नहीं है, साथ-साथ चलने में ही बेहतरी है। ये जंग अगले कई साल तक जारी रही। याद आता है अस्सी के दशक में कम्प्यूटर की शुरूआत पर ज़बरदस्त हाय-तौबा हुई थी। आशंका थी कि तमाम कर्मचारी बेकार हो जाएंगे, उनके पेट पर लात मारी गयी हैेे। मगर कुछ महीने बाद साबित हो गया कि कम्प्यूटर तो इंसान का विश्वासपात्र दोस्त है।
चेतनानंद, देवानंद और विजयानंद बंधुओं ने काला बाज़ार, काला पानी, बात
एक रात की, हम दोनों, तेरे घर के सामने, टैक्सी ड्राईवर, जैसी समाज-सुधारक फिल्मों
के साथ साथ रोमांटिक फिल्में देने में पीछे नहीं रहेे। 1965 में बनी ‘गाईड’ उनकी आखिरी
बेहतरीन फिल्म थी। उसके बाद ‘ज्वेल थीफ’ से उन्होंने शुध्द मनोरंजन फिल्मों का दौर
शुरू किया। शक्ति सामंत ने शुध्द मनोरंजक फिल्में देने से पहले ‘इंसान जाग उठा’ बनाते
हुए भाखड़ा नांगल बांध की अहमियत पर नज़र रखी। इसी बांध पर प्रधान मंत्री पं. जवाहर लाल
नेहरू ने कहा था कि भारत के असली मंदिर यही हैं। इसी से मुल्क की तरक्की होनी है। गुरूदत्त
ने तो एक तरफ मनोरंजन से भरपूर आर-पार, बाज़ी, सी.आई.डी., चैदहवीं का चांद, जैसी फिल्में
दी वहीं साथ-साथ प्यासा, काग़ज़ के फूल और साहब बीवी और गुलाम सरीखी कालजयी फिल्में दी।इन
फिल्मों ने गुरू को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलायी। महज़ 39 साल की अल्पायु में गुरू
परलोकवासी हो गये। वो घरेलू जिं़़दगी की उथल-पुथल से परेशां थे। उनसे अभी ढेर सारी
कालजयी फिल्मों की उम्मीद थी।
कालजयी फिल्म या कालजयी किरदार से मुराद ऐसी लैंडमार्क फिल्मों से है
जो सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर साबित होती हैं, आर्टिस्ट अदाकारी के नये प्रतिमान
स्थापित करता है जिससे किरदार भी अमर हो जाता है। यहां व्ही. शांताराम का ज़िक्र करना
चाहूंगा।
उन्होंने यों तो दहेज, पड़ोसी, झनक झनक पायल बाजे, नवरंग, डा.कोटनीस की अमर
कहानी जैसी ढेर सारी बेहतरीन सोशल-म्यूजिकल फिल्में बनायीं। मगर कालजयी रही पचास के
दशक में बनी ‘दो आंखें बारह हाथ’। यह एक आदशर््ावादी विचार, कैदियों के वास्ते ‘प्राचीर
विहीन शिविर’ यानि ‘वाललैस जेल’, पर आधारित थी जिसमें हत्या, डकैती जैसे संगीन जुर्माें
की सजा काट रहे खंूखार कैदियों के दिलों को सुधारने की बात की गयी थी। ये उन लोगों
के मुंह पर तमाचा थी जो ऐसे विचार को महज़ यूटोपिया मानते थे। फिल्म का नायक खुद अंत
में भले ही हिंसा का शिकार हो गया था मगर वो अपने इस मकसद में पूरी तरह कामयाब दिखा
था कि नफ़रत पाप से करो पापी इंसान से नहीं और उसे सुधरने का एक मौका जरूर मिलना चाहिए।
बाद में इसी तर्ज़ पर सत्तर के दशक में बनीं खोटे सिक्के, चोर मचाए शोर खासी कामयाब
रही थीं। ‘शोले’ तो अरसे तक आल टाईम ब्लाक-ब्लस्टर साबित रही। बंगाल से आकर बिमल राय ने देवदास दोबारा बनाने के बाद बंदिनी, सुजाता, मधुमती में दिल को बहुत भीतर तक झकझोरा। नूतन अभिनित सुजाता में उन्होंने छूआ-छूत के बंधनों से समाज को मुक्त होने की सलाह दी थी।
ऊपर जिनका ज़िक्र किया गया है वे महज़ उदाहरण हैं। इतिहास खंगाला जाए तो
एक से बढ़ कर एक नायाब फिल्में दिखेंगी। सन 1960 में के. आसिफ ने सही मायने में हिंदी
सिनेमा का पहला शाहकार ‘मुगल-ए-आज़म’ दिया।
हालीबुड के खाते में बेनहर, किलियोपेट्रा आदि शाहकार फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है।
हालांकि इसी तर्ज़ व विषय पर फिल्मिस्तान लि. ने ‘अनारकली’ पहले बना दी। चली ये भी
खूब मगर शाहकार नहीं बन सकी ये। मुगल-ए-आज़म का कैनवास बहुत बड़ा था। उस युग की सबसे
महंगी फिल्म थी। साफ झलकता था कि इसके हर शाट पर कितनी मेहनत की गई थी। मजाक नहीं था
पंद्रहवी-सोलहवीं सदी की बैकग्राउंड के मुगल बादशाहों के राजसी ठाठ-बाट, चमक-दमक और
सामाजिक ताने-बाने को ऐसे पेश करना कि दर्शक को अहसास हो कि वो उस इरा में विचर रहा
है। के. आसिफ ने इसे मुमकिन कर दिखाया था। तख्तो-ताज की परवाह न करके एक कनीज़ को दिल
की ही नहीं हिंदोस्तां के तख्त पर भी बैठाने पर अमादा शहजादे सलीम, दिलीप कुमार, और
सम्राट पिता अकबर, पृथ्वीराज कपूर, के दरम्यान
जंग सिर्फ तलवारों से ही नहीं लफ्ज़ों
से भी बखूबी लड़ी गई थी। इसके संवाद जोरदार थे मगर उससे ज्यादा खूबसूरती इसकी अदायगी
थी। नौशाद का संगीत भी इसकी आत्मा का ज़रूरी हिस्सा था। इसके सारे गाने सुपरहिट थे।
खासतौर पर वीनस आफ इंडिया मधुबाला पर फिल्माए गये ये गाने.......प्यार किया कोई चोरी
नहीं की छुप छुप कर आहें भरना क्या... मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये....और ऐ मोहब्बत
ज़िदाबाद....। दावा है कि ऐसी खासियत न इससे पहले बनी फिल्मों में देखी गई थी और न बाद
में। बेजा न होगा अगर कहा जाए कि ये मुकमिल्ल फिल्म थी। आज की पीढ़ी अगर इसे देखे तो
ताज्जुब नहीं उसे अपने पुरखों पर गर्व होगा कि उन्होंने साधन न होते हुए भी हालीवुड
की एपिक फिल्मों की टक्कर की फिल्म बनायी थी। ब्लैक एंड व्हाईट में बनी इस फिल्म का
थोड़ा सा हिस्सा रंगीन था। इधर कुछ साल पहले जब पुराने दौर की चुनींदा फिल्मों को कलर
करने की मुहिम शुरू हुई थी तो मुगल-ए-आज़म पहले नंबर पर थी। इसके बाद नया दौर व हम दोनों
का नंबर आया था।
जी.पी. सिप्पी की ‘शोले’ का कैनवास भी बहुत बड़ा था। इसमें एक जेलर से
बदला लेने के लिए उसके पूरे खानदान को डकैतों ने भून डाला था और साथ ही उसके हाथ भी
काट डाले थे। मगर दिलेर जेलर ने दो निडर कैदियों की मदद से डकैतों का खात्मा करके बदला
लिया। कामयाबी के लिहाज़ से मुगल-ए-आज़म को पीछे छोड़ने वाली शोले का रिकार्ड नब्बे के
दशक में राजश्री फिल्मस की ‘हम है आपके कौन’ ने तोड़ा। मगर हम आपके हैं कौन शाहकार नहीं
थी।
हालांकि बाद में 100 से 200 करोड़ बटोरने वाली भी अनेक फिल्में आयीं मगर मुगल-ए-आज़म
और शोले जैसे शाहकार कोई भी साबित नहीं हुए, जिनका हर शाट हर दृश्य, संवाद एक्शन खुद
को जस्टीफाई करता ही नहीं ािा बल्कि देखने वाले को मंत्र-मुग्ध भी करता था। ये वो फिल्में
थी जिनकी मेकिंग ही एक हैरतअंगेज़ दास्तां थी। लफ्ज़ों में इन फिल्मों की खूबसूरती व
खासियतों का बखान करना मुश्किल है। असली लुत्फ़ इन्हें देखने में है। यों भी फिल्म देखने
के लिए ही होती है लिखने के लिए नहीं।
मील का पत्थर फिल्मों की सूची बेहद लंबी है। कुछेक का ज़िक्र ही मुमकिन
है। गुरूदत्त की ’प्यासा’ में एक गरीब कवि को सरमाएदारों ने इतना ज्यादा शोषित किया
कि वो हुकूमत व समाज दोनो से बगावत करते हुए चीख उठा था- हटा दो, हटा दो, मेरे सामने
से ये दुनिया तुम हटा दो...जिन्हें नाज़ था हिंद पे
वो कहां हैं...। सुना था कि साहिर
के लिखे इस गीत से प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू अपने पर कटाक्ष मान कर बेहद नाराज़
हुए थे। महबूब खान, जिन्होंने चालीस के दशक में ‘रोटी’ बना कर खूब नाम कमाया था, की
’मदर इंडिया’ ज़मींदार के जुल्मों को हद से गुज़र जाने की वजह से डकैत बने किसान पुत्र
को गोली मारने से नहीं हिचकती है। महबूब की एक इंकलाबी फिल्मकार के रूप में पहचान थी।
उनके बैनर का सिंबल हंसिया-हथौड़ा था और फिल्में की इस शेर से शुरूआत होती थी- क्या
हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है, हम ख़ाक नशीनों की ठोकर पे ज़माना है...। बहरहाल
मदर इंडिया से आगे राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है, दिलीप कुमार की गंगा-जमुना और सुनील दत्त की मुझे जीने दो में डकैत नायक अपने परिवार की बेहतर जिंदगी और परवरिश की खातिर आत्म-समर्पण को तैयार होकर ये संदेश देते नज़र आते हैं कि लूट-पाट, खून-खराबा वगैरह से इंसाफ हासिल नहीं हो सकता। बी.आर. चोपड़ा की ’वक़्त’ ने परिवार के सदस्यों के बचपन में बिछड़ने और फिर बरसों बाद जवान होकर मिलने की खोया-पाया की परंपरा को जन्म दिया जिसने हिंदी सिनेमा पर कई बरस तक राज किया। इसे आल-टाईम फैमिली इंटाटेनर्स में सबसे ऊपर रखना पसंद करूंगा। ये पहली हिट मल्टी स्टार कास्ट फिल्म थी। शक्ति सामंत की ’चाईना टाउन’ में शम्मीकपूर हालांकि एक अच्छे और एक खराब किरदार के डबल रोल में आ चुके थे मगर डबल रोल की लैंडमार्क फिल्म थी देवानंद की
’हमदोनों’, जिसमें दोनो ही किरदार पाजीटिव थे और अदाकारी में एक-दूसरे को हराते हुए दिखते थे। इसके बाद राम और श्याम, राजा और रंक, निशान, सीता और गीता, चालबाज़, किश्न कन्हैया, गोपी कृष्ण आदि दर्जनों फिल्मों में हीरो या हीरोईन दोहरी भूमिका करते दिखे मगर ‘हम दोनो’ं वाली बात किसी में नहीं मिली। खासियत ये ज़रूर रही कि दर्शक पहले से समझी-बुझी कहानी वाली ऐसी फिल्मों से ऊबे नहीं। नतीजतन सभी कामयाब रहीं।
साठ के दशक की शुरूआत में होश संभालने वालों को अदाकारी के मैदान में
दिलीप कुमार-राजकपूर-देवानंद की तिकड़ी राज करते हुए दिखती है।
अशोक कुमार सीनीयर थे,
अच्छा चलते थे। मगर रोमांटिक दुनिया से उनका वास्ता टूट चुका था। आज जितना क्रेज़ शाहरुख
खान-सलमान-आमिर-अक्षय के लिए है वैसा ही क्रेज़ उस युग में दिलीप-राज-देव की तिकड़ी के
लिए था। तीनो की अलग-अलग स्टाईल थी, पहचान थी और अपनी शर्ताें पर काम करते थे।कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन अभ्निय के जिस स्कूल के स्टूडेंट थे दिलीप कुमार वहां के प्रिसिपल रहे थे। मुशीर-रियाज की रमेश सिप्पी निर्देशित ‘शक्ति’ ज़रूर देखनी चाहिए जिन्हें दो अलग-अलग पीढ़ियों के इन दो बेजोड़ कलाकारों का मुकाबला देखने का शौक हो।
दिलीप-देव-राज की तिकडी को बुढ़ापे ने रोमांटिक दुनिया से बाहर का रास्ता दिखाया तो उनकी जगह लेने धर्मेंद्र, संजीव कुमार जैसे संजीदा कलाकार आए। राजेंद्र कुमार और मनोज कुमार भी आस-पास थे। राजेश खन्ना और अमिताभ बाद में आए। सुपर हीरो का नया चलन इन्हीं की देन है। मगर अमिताभ बहुत
आगे निकल गए। शम्मीकपूर ने हीरो की स्थापित संजीदा स्टाईल को तोड़ कर जंगलीनुमा उछल-फांद मचायी जिसे खासा पसंद किया गया। उन्हें रीबल स्टार कहा जाता था। संजीव कुमार सबसे बेहतरीन कलाकार थे। मगर राजेश-अमिताभ जैसा सुपर स्टारडम उन्हें कभी नहीं मिला। अच्छे अभिनय में रुचि रखने वालों को संजीव कुमार की खिलौना, नया दिन नई रात और मौसम ज़रूर देखनी चाहिए। अमिताभ बच्चन ने यश चोपड़ा की ’दीवार’ के साथ ‘एंग्रीमैन’ का दौर स्थापित किया जो खूब चला और आज भी
जारी है। दिलीप-संजीव की सुभाष घई निर्देशित ’विधाता’, ऋषिकेश मुकर्जी की धर्मेन्द्र-अमिताभ की कामेडी ’चुपके चुपके’ का नाम लिया जाना भी ज़रूरी है। उछल-फांद की बात जब भी उठती है तो जीतेंद्र का नाम लिए बिना सूची अधूरी रहेगी। मगर इसके बावजूद इमेज से बाहर आकर जीतेंद्र ने परिचय और खुशबू में संजीदा रोल भी किए।
हीरोईनों के लिए कुछ खास करने को नही था। ज्यादातर नायक प्रधान फिल्में
ही बनती थीं। उस दौर में गांव की पृष्ठभूमि वाली फिल्म में हीरोईन अक्सर पेड़ पर चढ़
जाती मगर उतरना नहीं जानती थी। इसके लिए उसे हीरो का इंतज़ार करना होता था। इधर दर्शक
पूछते थे - अरे भई, जब उतरना नहीं आता था तो चढ़ी ही क्यों? इससे हीरोईन की अहमियत का
अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मगर इस ज़्यादती के बावजूद कुछेक हीरोईनों ने अपनी मौजूदगी
किसी न किसी कारण से दर्ज
कराने में कामयाबी हासिल की। मधुबाला बतौर अदाकारा बेहतरीन
भले नहीं थी मगर उसकी खूबसूरती और शोखी के दीवानों की कमी नहीं थी। उसे ’वीनस आफ इंडियन
सिनेमा कहा’ जाता था। किसी और को ऐसी मशहूरी आज तक नहीं मिली है। दिलीप कुमार से उनके
इश्क के चरचे फिल्मी सर्किल में शालीन दायरे में छाए रहते थे। इश्क में नाकामी से निराश
होकर वो किशोर कुमार की दूसरी पत्नी बनी और दिल की बीमारी उन्हें महज़ 36 साल की कम
उम्र में ले डूबी। पहली नज़र में अपनी शोख, चंचल व बिंदास अदाओं से दिल चुराने वाली
गीताबाली भी किसी से कम नहीं थी। उन पर ’जाल’ में फिल्माया ये गाना ज़बरदस्त हिट था-
तदबीर से तू बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, गर खुद है भरोसा है तो दांव लगा ले....। गीता
ने शम्मी कपूर से शादी करके फिल्में छोड़ दी थी। बाद में उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार
और ‘गरम कोट’ व ’दस्तक’ के निर्देशक राजेंद्र सिंह बेदी के नावेल ’एक चादर मैली सी’
के अहम किरदार रानो को अदा करने को वो राजी हुई। मगर निर्माण के दौरान उनकी आकस्मिक
मृत्यु हो गयी। गीता की कोई पुरानी फिल्म देखें तो आज की पीढ़ी शायद सहमत होगी कि गीता जैसी कोई नहीं। खूबसूरत न होने के बावजूद मीना कुमारी
बेहतरीन अदाकारा थीं। उनकी मौजूदगी से हीरो परेशान रहते थे। गुरूदत्त की ’साहब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहु के किरदार को इतना भीतर घुस कर जीया कि वो कालजयी हो गया। इसी तरह नरगिस ने महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ की राधा को कालजयी बनाया। तब से आज तक तकरीबन हर हीरोईन की पहली और आखिरी ख्वाहिश और तड़प मीनाकुमारी और नरगिस की ‘साहब बीवी और गुलाम’ और ’मदर इंडिया’ के कालजयी किरदार रहे हैं। हीराईन के इर्द-गिर्द घूमती नूतन की ’सुजाता’ और ’बंदिनी’ भी बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती हैं।
अभी बहुत बाकी है। अनेक पहलू अनछूए रह गए हैं। जैसे गीत-संगीत, सेटस,
स्क्र्रिप्ट, डायरेक्शन, फोटोग्रफी वगैरह। इन पर बात आगे फिर कभी। मगर आख़िर में आज
के दौर की बालीवुड को टक्कर देने वाली तकनीक और बोल्ड एप्रोच को सलाम करते हुए इस नोट
पर बात खत्म करता हूं कि आज के युग में ‘फिल्म’ बनती है और पचास से सत्तर के दौर में
‘तस्वीर’ बनायी जाती थी जिसमें फिल्म से जुड़ा छोटे से बड़ा हर शख़्स उसमें अपनी कूवत
का भरपूर उड़ेलता था। खूने जिगर से तस्वीर बनाने का वो जज़्बा आज नहीं दिखता। अब इसे
पिछली पीढ़ी का पूर्वाग्रह समझा जाए या जनरेशन गैप मगर ये सच है कि अब सोचने के लिए
इंसान के दिलो-दिमाग की और भावनाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती, क्योंकि इसकी जगह अब संवेदनहीन
कम्प्यूटर ने ले ली है। कृष-3 उदाहरण है। भले सुपर-डुपर हिट है मगर संवेदनाएं नहीं
हैं। एक बात और। रघुपति राघव राजा राम....भजन है, आम आदमी की ‘राम-धुन’ है। ये भारतीय
संस्कृति का प्रतीक है। मंदिरों में भी इसका गायन होता है और मजदूर आंदोलनों के धरना-प्रदर्शनों
में भी, जहां हर फिरके के लोग बड़े सम्मान से इसे भजते है। इसे बाज़ारू ना बनाईए, जैसे
कृष-3 में किया गया है।
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लेखन - अक्टूबर 2013.
लंदन, इंग्लैंड से प्रवासी भारतीयों की त्रैमासिक पत्रिका ‘पुरवाई’ के
जुलाई-सितंबर, 2013 अंक में प्रकाशित। इस अंक का संपादन अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के सुप्रसिद्ध
समालोचक श्री ललित मोहन जोशी ने किया है। यह विलंब से पिछले माह प्रकाशित हुआ है।
- वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मोबाईल 07505663626
दिनांक 11/03/2014
बहुत सुंदर प्रयास है आपका, और ब्लॉग की डिजाइन भी आकर्षक है। बधाई स्वीकारें।
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