-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा का शुरूआती इतिहास मैं जब तब खंगालता हूं तो किसी तिलस्मी दुनिया में खुद को विचरण करता हुआ पाता हूं। उस ज़माने में हर शख्स खासी मेहनत-मशक्कत के बाद ही इस तिलस्मी दुनिया में जगह बना पाता था, जहां सपने सच में तब्दील होते थे, चमत्कार घटित होते दिखते थे। लिहाजा़ हर शख्स की जिंदगी में ढेर रोमांचक व दर्दभरी कहानियां और एक-दो उपन्यास ज़रूर मिलते
थे। उस दिन सफे़ पलट रहा था कि निगाह होमी मास्टर के नाम पर टिक गयी। इनका नाम सुना हुआ लगा। याद आया। बंबई में मेरे दोस्त थे आनंद रोमानी। तुम हंसी मैं जवां, खलीफ़ा, अर्चना आदि कोई दर्जन भर फिल्मों के संवाद लिखे थे। उन्होंने मुझे होमी मास्टर का एक किस्सा सुनाया था। मेरी जिज्ञासा बढ़नी स्वाभाविक थी। समंदर में कई बार गोता लगाया तो कुछ जानकारी हासिल हुई पहले उसे पेश कर रहा हूं। बाद में किस्सा।
होमी मास्टर ने जैसे ही होश संभाला वो बाटीवाला के मशहूर पारसी थियेटर में शामिल हो गये थे। उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 13 साल की थी। वो दौर मूक फिल्मों का था। मगर सिनेमा की कशिश दिन दूनी और रात चैगुनी बढ़ रही थी। बहरहाल, होमी थोड़ा और बड़े हुए तो इनकी लियाकत से कायल होकर उनके पास यूरोप जाने का प्रस्ताव आया, जहां उन्हें दादा साहब फाल्के की फिल्मों की मार्किटिंग करनी थी। मार्किटिंग की लाईन उन्हें पसंद नहीं थी। मगर यूरोप जाने की ललक ने उन्हें हां कहने पर मजबूर कर दिया। यूरोप में उन्हें मज़ा नहीं आया। मन फिल्म मेकिंग की ओर लगा हुआ था। जल्दी ही भारत लौट आये। 1921 से 1949 तक फिल्म निर्माण के विभिन्न इदारों में सक्रिय रहे। इस दौरान 65 से ज्यादा हिंदी और गुजराती की मूक और बोलती फिल्में निर्देशित की। चार फिल्मों का लेखन किया और तीन फिल्मों में अभिनय भी किया। इसमें 20 फिल्में सुपर हिट रहीं। इनमें ज़्यादातर ’बी ग्रेड’ थीं। वो बी ग्रेड फिल्मों के बेताज बादशाह थे।
होमी मास्टर फ़िल्मों को ड्रामाई अंदाज़ में पेश करते थे। दरअसल वो दौर ही ऐसा था। फ़िल्मों पर थियेटर का असर बहुत ज्यादा था। फ़िल्मों के आने से पहले मनोरंजन के लिये थियेटर का चलन था। फिर जब फ़िल्मों का वक़्त शुरू हुआ तो थियेटर वालों ने ही फ़िल्में बनानी शुरू कर दी । ज्यादातर डायरेक्टर व आर्टिस्ट भी थियेटर से आते थे। होमी मास्टर ने ज़्यादातर फ़िल्में थियेटर करने वाली कोहिनूर कंपनी के लिये बनायी थीं। मूक फ़िल्म ‘काला नाग’ (1924) में वो हीरो भी बने। यह बेहद कामयाब रही। इनकी फ़िल्में मार-धाड़ के अलावा सामाजिक और धार्मिक विषयों की पृष्ठभूमि में बनती थीं। होमी मास्टर की गिनती बड़े कड़क व सख़्त मिजाज डायरेक्टरों में होती थी। मजाल नहीं थी कि कोई हीरो-हीरोईन ज़रा सी चूं- चपड भी कर दे कि उसके डायलाॅग में फलां लफ़्ज हटा दिया जाये या बढ़ा दिया जाये। एक बार फाईनल कर दिया गया सीन कतई बदलते नहीं थे। उनकी मक़बूल फिल्मों में घरवाली, जय रणछोड़, चमकारी बिजली, घर जमाई पार्ट-एक, घर जमाई पार्ट-दो, समझ की भूल, गुल सनोवर, दो घड़ी की मौज, नया ज़माना, हूरे मिó, जय बजरंग, शाही फ़रमान, शीरीं फरहाद आदि थीं। उनकी कामयाबी में लेखक मोहन लाल दवे और डी.डी. दाबके की बराबरी की हिस्सेदारी थी। मुफ़लिसी से कामयाबी और फिर मुफ़लिसी का दौर देखा। वो ज़िंदगी के आखिरी लम्हे तक काम करते रहे। 1949 में मौत के वक़्त वो कारदार स्टूडियो में प्रोडक्शन मैनेजर थे।
यों तो होमी मास्टर की ज़िंंदगी दिलचस्प किस्सों से भरी पड़ी है। मगर एक किस्सा बेहद दिलचस्प है जो इनके कड़क मिजाज को भी पूरी तरह से साबित करता है और जिससे इनकी इज़्ज़त और भी बढ़ गयी थी। साथ ही इसके असर से अदाकारी की दुनिया एक लंबे वक़्त तक ज़लज़ले का अहसास करके कांपती रही। किस्सा यों बयान किया गया है।
बात उस ज़माने की है जब फ़िल्में गूंगी होती थीं। तब आमतौर पर हीरो-हीरोइन नकचढ़े नहीं थे। वजह ये थी कि बाअदबी करने की गुस्ताखी करने वाले को डायरेक्टर कान पकड़ कर बाहर कर देता था। अंदाज़ा
लगाया जा सकता है कि कितना ताकतवर था उस ज़माने का डायरेक्टर। हीरो-हीरोइन की उंगलियों पर नाचता नहीं था। ऐसे ही डायरेक्टर थे, होमी मास्टर। दूसरों के मुकाबले वो इतने सख़्त थे कि पीठ पीछे उन्हें ‘कालिया नाग’ कहा जाता था।
होमी मास्टर ने अपनी एक फिल्म के लिये एक नखरेबाज़ी के लिये बदनाम हीरो को साईन किया। हमदर्दाें ने चेतावनी दी कि आग से खेलने जा रहे हैं। जल जाने या झुलस जाने का ख़तरा है। मगर मास्टर माने नहीं। बोले, सब ठीक हो जायेगा। कुछ दिन तक सब ठीक-ठाक चला। फिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था। हीरो बोला कि उसकी एंट्री इस दरवाज़े से नहीं उस दरवाज़े से होगी। हीरोईन शरमायेगी नहीं बल्कि हंसेगी। घड़ी में उस वक्त चार नहीं दस बजेगा। वगैरह, वगैरह। होमी मास्टर ने हीरो को पहले थोड़ा सा घुड़का कि शायद इतने में ही उसके होश ठिकाने आ जायें। मगर उस दिन हीरो का दिमाग कुछ ज्यादा ही खराब था। दरअसल, उस दिन वो भी तय करके आया था कि आज होमी मास्टर की सारी हेकड़ी निकाल देगा। और साबित कर देगा कि फ़िल्म का दम हीरो से होता है न कि डायरेक्टर से।
इधर होमी मास्टर भी समझ चुके थे कि हीरो की अक्ल डांट-फटकार से दुरुस्त नहीं होगी। और न ही चाबुक-हंटर से। उन्होंने मास्टर स्ट्रोक खेलने का फैसला किया। वो दहाड़े -‘’कुत्ता लाओ।’’
उनके असिस्टेंट सहित सेट पर मौजूद सारे लोग हैरान-परेशान कि मास्टर क्या मांग रहे है? सेट पर मौजूद हीरो-हीरोइन को भी ताज्जुब हुआ। हीरो सोचने लगा कि कहीं मुझे कुत्ते से कटवाने का इरादा तो नहीं? वो डर गया। दरअसल, उसे कुत्ते के नाम तक से एलर्जी थी। वो सेट से भाग निकलने का कोई
बहाना सोचने लगा। तभी होमी मास्टर की कड़क आवाज़ में आगे का ऐलान हुआ- ‘‘हैरान-परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं। अब हीरो का रोल खत्म हुआ। स्क्रिप्ट में फौरन तब्दीली की जाये। अब हीरो को श्राप मिलेगा। उसे आदमी से कुत्ता बनना होगा। हीरोइन अब कुत्ते से प्यार करेगी।’’
यह सुनते ही हीरो के पांव तले से ज़मीन खिसक गयी। वो कुत्ता बना दिया गया तो ज़बरदस्त बेइज्ज्ती होगी। बरसों से बड़ी मेहनत से कमाई सारी इज़्ज़त पर ख़ाक पड़ जायेगी। हीरो को आगे का मंज़र भी गर्दाे-गुब्बार से भरा और तबाही वाला दिखाई दिया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। बामुश्किल खुद को संभाला। उसे अपनी गल्ती का अहसास हो गया था। वो मास्टर के पांव पर गिर पड़ा। माफ़ी मांगी, गिड़गिड़ाया, नाक रगड़ी कि आइंदा ऐसी हिमाकत नहीं होगी।
मगर मास्टर टस से मस नहीं हुए। फिर जब हीरोइन और यूनिट के तमाम साथियों ने मिन्नतें की तो मास्टर को तरस आ गया। बरफ पिघलने के आसार नज़र आने लगे। मगर फिर एक दिक्कत आयी। मास्टर उस टफ मेंटल के शख्स थे कि एक बार जो कह दिया बस कह दिया वाले। अगर अब अगर अपने कहे से पीछे हटते हैं तो मास्टर की साख का क्या होगा? लेकिन दूसरी तरफ मास्टर माफ़ी भी दे चुके थे। बात अब दो मान रखने की हो गयी। फिर तो नज़ीर बन जायेगी कि गल्ती करो, हेकड़ी करो और फिर जब सज़ा मिले तो माफी मांग लो। अक्खा फिल्म इंडस्ट्री में मास्टर का मान खत्म हो जायेगा। हर ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा ऐसा ही करने लगेगा। ऐसे असमंजस्य से भरे टेंशन के इस माहौल में
सबको मास्टर के अगले कदम का इंतज़ार था।
मगर मास्टर कतई टेंशन में नहीं थे। अपने फै़सले वो खुद लेते थे। बड़े इत्मीनान से वो डायरेटर की कुर्सी पर बैठे। उन्होंने पूरा इंतज़ाम कर लिया था कि हीरो को यह सबक सारी ज़िंदगी याद रहे और साथ में उनकी साख भी बनी रहे। उन्होंने फरमान जारी किया- ‘‘स्क्रिप्ट लाओ।’’....और फिर देखते ही देखते दूध से पानी अलग कर दिया। सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। हीरो भी खुश और सारी यूनिट भी। होमी मास्टर ने एक दूसरा सीन लिखा था, जिसमें हीरो को श्राप देकर कुत्ता बनाया और फिर अगले सीन में श्राप से मुक्ति दिला कर हीरो को फिर से कुत्ते से आदमी बना दिया।
उक्त किस्सा सुनाने वाले मेरे मित्र आनंद रोमानी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
---
-वीर विनोद छाबड़ा
डी. 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ- 226016
मो. 7505663626
दिनांक 09.03.2014
हिंदी सिनेमा का शुरूआती इतिहास मैं जब तब खंगालता हूं तो किसी तिलस्मी दुनिया में खुद को विचरण करता हुआ पाता हूं। उस ज़माने में हर शख्स खासी मेहनत-मशक्कत के बाद ही इस तिलस्मी दुनिया में जगह बना पाता था, जहां सपने सच में तब्दील होते थे, चमत्कार घटित होते दिखते थे। लिहाजा़ हर शख्स की जिंदगी में ढेर रोमांचक व दर्दभरी कहानियां और एक-दो उपन्यास ज़रूर मिलते
थे। उस दिन सफे़ पलट रहा था कि निगाह होमी मास्टर के नाम पर टिक गयी। इनका नाम सुना हुआ लगा। याद आया। बंबई में मेरे दोस्त थे आनंद रोमानी। तुम हंसी मैं जवां, खलीफ़ा, अर्चना आदि कोई दर्जन भर फिल्मों के संवाद लिखे थे। उन्होंने मुझे होमी मास्टर का एक किस्सा सुनाया था। मेरी जिज्ञासा बढ़नी स्वाभाविक थी। समंदर में कई बार गोता लगाया तो कुछ जानकारी हासिल हुई पहले उसे पेश कर रहा हूं। बाद में किस्सा।
होमी मास्टर ने जैसे ही होश संभाला वो बाटीवाला के मशहूर पारसी थियेटर में शामिल हो गये थे। उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 13 साल की थी। वो दौर मूक फिल्मों का था। मगर सिनेमा की कशिश दिन दूनी और रात चैगुनी बढ़ रही थी। बहरहाल, होमी थोड़ा और बड़े हुए तो इनकी लियाकत से कायल होकर उनके पास यूरोप जाने का प्रस्ताव आया, जहां उन्हें दादा साहब फाल्के की फिल्मों की मार्किटिंग करनी थी। मार्किटिंग की लाईन उन्हें पसंद नहीं थी। मगर यूरोप जाने की ललक ने उन्हें हां कहने पर मजबूर कर दिया। यूरोप में उन्हें मज़ा नहीं आया। मन फिल्म मेकिंग की ओर लगा हुआ था। जल्दी ही भारत लौट आये। 1921 से 1949 तक फिल्म निर्माण के विभिन्न इदारों में सक्रिय रहे। इस दौरान 65 से ज्यादा हिंदी और गुजराती की मूक और बोलती फिल्में निर्देशित की। चार फिल्मों का लेखन किया और तीन फिल्मों में अभिनय भी किया। इसमें 20 फिल्में सुपर हिट रहीं। इनमें ज़्यादातर ’बी ग्रेड’ थीं। वो बी ग्रेड फिल्मों के बेताज बादशाह थे।
होमी मास्टर फ़िल्मों को ड्रामाई अंदाज़ में पेश करते थे। दरअसल वो दौर ही ऐसा था। फ़िल्मों पर थियेटर का असर बहुत ज्यादा था। फ़िल्मों के आने से पहले मनोरंजन के लिये थियेटर का चलन था। फिर जब फ़िल्मों का वक़्त शुरू हुआ तो थियेटर वालों ने ही फ़िल्में बनानी शुरू कर दी । ज्यादातर डायरेक्टर व आर्टिस्ट भी थियेटर से आते थे। होमी मास्टर ने ज़्यादातर फ़िल्में थियेटर करने वाली कोहिनूर कंपनी के लिये बनायी थीं। मूक फ़िल्म ‘काला नाग’ (1924) में वो हीरो भी बने। यह बेहद कामयाब रही। इनकी फ़िल्में मार-धाड़ के अलावा सामाजिक और धार्मिक विषयों की पृष्ठभूमि में बनती थीं। होमी मास्टर की गिनती बड़े कड़क व सख़्त मिजाज डायरेक्टरों में होती थी। मजाल नहीं थी कि कोई हीरो-हीरोईन ज़रा सी चूं- चपड भी कर दे कि उसके डायलाॅग में फलां लफ़्ज हटा दिया जाये या बढ़ा दिया जाये। एक बार फाईनल कर दिया गया सीन कतई बदलते नहीं थे। उनकी मक़बूल फिल्मों में घरवाली, जय रणछोड़, चमकारी बिजली, घर जमाई पार्ट-एक, घर जमाई पार्ट-दो, समझ की भूल, गुल सनोवर, दो घड़ी की मौज, नया ज़माना, हूरे मिó, जय बजरंग, शाही फ़रमान, शीरीं फरहाद आदि थीं। उनकी कामयाबी में लेखक मोहन लाल दवे और डी.डी. दाबके की बराबरी की हिस्सेदारी थी। मुफ़लिसी से कामयाबी और फिर मुफ़लिसी का दौर देखा। वो ज़िंदगी के आखिरी लम्हे तक काम करते रहे। 1949 में मौत के वक़्त वो कारदार स्टूडियो में प्रोडक्शन मैनेजर थे।
यों तो होमी मास्टर की ज़िंंदगी दिलचस्प किस्सों से भरी पड़ी है। मगर एक किस्सा बेहद दिलचस्प है जो इनके कड़क मिजाज को भी पूरी तरह से साबित करता है और जिससे इनकी इज़्ज़त और भी बढ़ गयी थी। साथ ही इसके असर से अदाकारी की दुनिया एक लंबे वक़्त तक ज़लज़ले का अहसास करके कांपती रही। किस्सा यों बयान किया गया है।
बात उस ज़माने की है जब फ़िल्में गूंगी होती थीं। तब आमतौर पर हीरो-हीरोइन नकचढ़े नहीं थे। वजह ये थी कि बाअदबी करने की गुस्ताखी करने वाले को डायरेक्टर कान पकड़ कर बाहर कर देता था। अंदाज़ा
लगाया जा सकता है कि कितना ताकतवर था उस ज़माने का डायरेक्टर। हीरो-हीरोइन की उंगलियों पर नाचता नहीं था। ऐसे ही डायरेक्टर थे, होमी मास्टर। दूसरों के मुकाबले वो इतने सख़्त थे कि पीठ पीछे उन्हें ‘कालिया नाग’ कहा जाता था।
होमी मास्टर ने अपनी एक फिल्म के लिये एक नखरेबाज़ी के लिये बदनाम हीरो को साईन किया। हमदर्दाें ने चेतावनी दी कि आग से खेलने जा रहे हैं। जल जाने या झुलस जाने का ख़तरा है। मगर मास्टर माने नहीं। बोले, सब ठीक हो जायेगा। कुछ दिन तक सब ठीक-ठाक चला। फिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था। हीरो बोला कि उसकी एंट्री इस दरवाज़े से नहीं उस दरवाज़े से होगी। हीरोईन शरमायेगी नहीं बल्कि हंसेगी। घड़ी में उस वक्त चार नहीं दस बजेगा। वगैरह, वगैरह। होमी मास्टर ने हीरो को पहले थोड़ा सा घुड़का कि शायद इतने में ही उसके होश ठिकाने आ जायें। मगर उस दिन हीरो का दिमाग कुछ ज्यादा ही खराब था। दरअसल, उस दिन वो भी तय करके आया था कि आज होमी मास्टर की सारी हेकड़ी निकाल देगा। और साबित कर देगा कि फ़िल्म का दम हीरो से होता है न कि डायरेक्टर से।
इधर होमी मास्टर भी समझ चुके थे कि हीरो की अक्ल डांट-फटकार से दुरुस्त नहीं होगी। और न ही चाबुक-हंटर से। उन्होंने मास्टर स्ट्रोक खेलने का फैसला किया। वो दहाड़े -‘’कुत्ता लाओ।’’
उनके असिस्टेंट सहित सेट पर मौजूद सारे लोग हैरान-परेशान कि मास्टर क्या मांग रहे है? सेट पर मौजूद हीरो-हीरोइन को भी ताज्जुब हुआ। हीरो सोचने लगा कि कहीं मुझे कुत्ते से कटवाने का इरादा तो नहीं? वो डर गया। दरअसल, उसे कुत्ते के नाम तक से एलर्जी थी। वो सेट से भाग निकलने का कोई
बहाना सोचने लगा। तभी होमी मास्टर की कड़क आवाज़ में आगे का ऐलान हुआ- ‘‘हैरान-परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं। अब हीरो का रोल खत्म हुआ। स्क्रिप्ट में फौरन तब्दीली की जाये। अब हीरो को श्राप मिलेगा। उसे आदमी से कुत्ता बनना होगा। हीरोइन अब कुत्ते से प्यार करेगी।’’
यह सुनते ही हीरो के पांव तले से ज़मीन खिसक गयी। वो कुत्ता बना दिया गया तो ज़बरदस्त बेइज्ज्ती होगी। बरसों से बड़ी मेहनत से कमाई सारी इज़्ज़त पर ख़ाक पड़ जायेगी। हीरो को आगे का मंज़र भी गर्दाे-गुब्बार से भरा और तबाही वाला दिखाई दिया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। बामुश्किल खुद को संभाला। उसे अपनी गल्ती का अहसास हो गया था। वो मास्टर के पांव पर गिर पड़ा। माफ़ी मांगी, गिड़गिड़ाया, नाक रगड़ी कि आइंदा ऐसी हिमाकत नहीं होगी।
मगर मास्टर टस से मस नहीं हुए। फिर जब हीरोइन और यूनिट के तमाम साथियों ने मिन्नतें की तो मास्टर को तरस आ गया। बरफ पिघलने के आसार नज़र आने लगे। मगर फिर एक दिक्कत आयी। मास्टर उस टफ मेंटल के शख्स थे कि एक बार जो कह दिया बस कह दिया वाले। अगर अब अगर अपने कहे से पीछे हटते हैं तो मास्टर की साख का क्या होगा? लेकिन दूसरी तरफ मास्टर माफ़ी भी दे चुके थे। बात अब दो मान रखने की हो गयी। फिर तो नज़ीर बन जायेगी कि गल्ती करो, हेकड़ी करो और फिर जब सज़ा मिले तो माफी मांग लो। अक्खा फिल्म इंडस्ट्री में मास्टर का मान खत्म हो जायेगा। हर ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा ऐसा ही करने लगेगा। ऐसे असमंजस्य से भरे टेंशन के इस माहौल में
सबको मास्टर के अगले कदम का इंतज़ार था।
मगर मास्टर कतई टेंशन में नहीं थे। अपने फै़सले वो खुद लेते थे। बड़े इत्मीनान से वो डायरेटर की कुर्सी पर बैठे। उन्होंने पूरा इंतज़ाम कर लिया था कि हीरो को यह सबक सारी ज़िंदगी याद रहे और साथ में उनकी साख भी बनी रहे। उन्होंने फरमान जारी किया- ‘‘स्क्रिप्ट लाओ।’’....और फिर देखते ही देखते दूध से पानी अलग कर दिया। सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। हीरो भी खुश और सारी यूनिट भी। होमी मास्टर ने एक दूसरा सीन लिखा था, जिसमें हीरो को श्राप देकर कुत्ता बनाया और फिर अगले सीन में श्राप से मुक्ति दिला कर हीरो को फिर से कुत्ते से आदमी बना दिया।
उक्त किस्सा सुनाने वाले मेरे मित्र आनंद रोमानी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी. 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ- 226016
मो. 7505663626
दिनांक 09.03.2014
nice post .thanks to share here .
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