Thursday, March 20, 2014

इस शहर में धूंआ-धूंआ सा क्यों है?









-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन अख़बार में ख़बर छपी कि शहर के एक पाॅश इलाके में एक दुकानदार द्वारा फुटपाथ पर कूड़ा जलाने पर आस-पास के तमाम दूसरे दुकानदारों और दीगर सिटीज़न ने सख़्त एतराज़ किया। ये ख़बर पढ़ कर बंदा बेहद खुश हुआ। उसे विश्वास हो चला कि आख़िरकार समाज जाग रहा है। खुले आम यूं कूड़ा जलाने से निकलते उठते धूंए से इंसान की सेहत पर पड़ रहे नुक्सान की फ़िक्र अब समाज के कुछ अलंबरदारों को हो चली है।

अभी कुछ दिन पहले की बात है। कई बार मना करने के बावजूद उस अलसुबह बंदे के पड़ोसी सियाजी ने घर का ढेर सारा कूड़ा-करकट, जिसमें उनके लाॅन व आंगन की सूखी घास, रद्दी काग़ज, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, घिसा-फटा साईकिल का टायर, टूटा-फूटा फर्नीचर आदि शामिल था, अपने घर के द्वारे पर जलाया था। इसका बदबूदार रसायनज्ञी धूंआ खुली खिड़की के रास्ते से बंदे के घर भर में फैल गया था। चूंकि बंदा अस्थमा के अलावा अन्य नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित था, अतः उसे बेतरह खांसी के साथ-साथ सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी। बदन भी बुरी कांपने लगा था। इन्हेलर, नेबुलाईज़र द्वारा दी गयी डाक्टर की प्रेस्क्राईब्ड दवाएं भी कारगर सिद्ध नहीं हो पायी थीं। ऐसे में उनकी बड़बोली और मोहल्ले में आतंकी स्वभाव के लिये मशहूर पत्नी को मानों टेलर मेड पिच मिल गयी हो। उसने सियाजी को चुनींदा असंसदीय शब्दों के बाणों से बींध दिया। शायद ये बाणबाजी सियाजी की पिटायी में कनवर्ट होती कि इस बीच बंदे की तबीयत ज्यादा ही बिगड़ गयी। पत्नी ने झगड़े पर क्रमशः लगाया और अन्य पड़ोसियों की मदद से उन्हें सबसे नज़दीकी चिकित्सालय ले गयी। जहां बंदे को आक्सीजन देने के साथ-साथ तमाम ज़रूरी इंजेक्शन लगा कर कर बामुश्किल उसकी जिंदगी को पटरी पर लाया जा सका था।

बंदा जनता-जनार्दन के ज्ञानवर्द्धन के लिये अक्सर बताता था कि धूंए से थोड़ी बहुत एलर्जी तो सभी को होती है, चाहे ये मामूली सूखी घास-फूस से उठा धूंआ हो या किसी रसायनज्ञ पदार्थ से। चूंकि रसोई में खाना बनाने से उठा धूंआ भी अनेक सांस संबंधी दिक्कतों का सबब बनता है, इसीलिये एग्ज़ास्ट या फ्रेशऐयर फैन आजकल ज़रूरी फैशन बन चला है। बंदे का तो धूप-अगरबत्ती परफ़्यूम की महक से तथा सड़ांध से भी दम घुटता है। पिछले कई महीनों से बंदा सुबह की सैर पर भी इसलिये नहीं जा रहा है, क्योंकि बहुत से लोग नियमित रूप घर का कूड़ा सफाईकर्मी के हवाले की बजाये खुद ही जलाने में यकीन रखते हैं। खासतौर पर जब पतझड़ का मौसम होता है तो पड़ों से गिरे सूखे पत्तों का ढेर जलाने में कई लोगों को न जाने क्यों एक आंतरिक सुख की अनुभूति होती है। यों सफाईकर्मी भी कुछ कम नहीं हैं। कूड़ा-करकट ढोकर नियत स्थान पर फेंकने की बजाय उसे आस-पास में ही जला डालते हैं। ऐसा भी होता है कि कूड़ेदान में काग़ज-पत्तर आदि को फूंक दिया जाता है ताकि ये उड़-उड़ कर आस-पास दोबारा न फैले। मगर इसका उल्टा असर होता है। जले कूड़े के धूंए के साथ-साथ इसकी राख़ भी आस-पास के वातातरण को प्रदूषित करती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तेज हवाओं के सहारे धूंए के साथ उठी एक अदद चिंगारी भी आस-पास के कई आशियाने व कारोबार ख़ाक़ कर देती हैं। खासतौर पर अंधड़ जब चलता है तो मजदूरों की झुग्गी-झोंपड़ियां धूंए से उठी इन चिंगारियों की पसंदीदा चारागाह बनती हैं।


अलावा इसके गलियों में अलसुबह तेज रफ़तार से दौड़ती स्कूल बसों से उठता धूल-धक्कड़ का गुब्बार भी बंदे की सांस को चोक करता है। सिगरेट का धूंआ तो बंदे को बेहद खराब लगता है। ये बात अलबत्ता दूसरी है कि कई साल तक धूंआधार सिगरेट फूंकने के बाद बंदे ने कोई बारह साल पहले ये अहसास होने पर कि सिगरेट उसे पी रही है, इसे अलविदा कह दी थी। बंदा जब भी किसी नौजवान को सिगरेट पीता देखता है तो उसे सिगरेट से होने वाले नुकसान के बारे में अगाह ज़रूर करता है और साथ ही उसे छोड़ने का तरीका अपने तजुर्बे के साथ बताता है। बंदे को मालूम है कि उसकी नसीहत को नौजवान धूंए में उड़ा देते हंै। मगर इसके बावजूद उसने सिगरेट विरोधी अभियान की अलख को बुझने नहीं दिया है।

सर्दियों में तो धूंआ ज़बरदस्त ग़ज़ब ढाता है। पूरा शहर कई दिनों के लिये कोहरे की मोटी चादर ओढ लेता है जिसमें ठंड में गर्माहट लाने के लिये जगह-जगह समाजसेवी संस्थाओं और स्थानीय लोक प्रशासन के सहयोग से जलाये जा रहे ‘अलावों’ के साथ रबड़ के टायरों, तमाम घरों के द्वारों पर जलते सूखे पत्ते व घास-फूस और कूड़ाघरों से उठते रसायनज्ञी धूंयें की भी अहम भूमिका होती है। और ऐसे माहौल में बंदे जैसा कोई शख्स पूछता फिरता है-ऐ दोस्त, इस शहर में ये धूंआं-धूंआ सा क्यों है? ये धूंआ गर्मियों और  बाकी मौसमों में भी उतना ही खतरनाक होता है। इसका प्रदूषण मरता नहीं मारता है। बंदे को अफ़सोस होता है कि इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता, न सरकार और न ही अस्थमा के उपचार से जुड़ी संस्थाएं। ये ठीक है कि अस्थमा आनुवंशिक रोग भी हो सकता है मगर इसे अग्रतर गंभीर होने से रोका तो जा सकता है, इसकी चपेट में आने से आमजन को दूर तो किया जा सकता है।

यों बंदा तो विचित्र प्राणी है। उसे तो लगभग सभी प्रदूषणों और समस्त प्रकार की खुश्बूओं व बदबू तक से एलर्जी है। उसे बहुत बच-बच कर चलना होता है। उस जैसे इस धरती पर हज़ारों में कोई एक होता हैं। कई बार उसे सुनने को भी मिलता है कि वो धरती पर बोझ है। लेकिन इसके बावजूद उन जैसों को जीने का हक़ तो है। ये सरकार के स्वास्थ्य विभाग के साथ-साथ समाज की भी ज़िम्मेदारी है कि शुद्ध हवा में उसके जीने की चाह को पूरा करने में उनकी मदद करे। बंदे की खुद की रिसर्च है कि हर दस में एक शख्स सांस के किसी न किसी रोग से ग्रस्त है। सबूत के लिये वो तमाम चेस्ट स्पेशलिस्ट चिकित्सकों के क्लीनिकों पर उमड़ी भीड़ और दवाखानों में बड़ी मात्रा में बिकती सांस की दवायें, इनहेलर, नेबुलाईज़र आदि का हवाला देते हैं। स्पष्ट है कि सांस की समस्या से जूझते हुए गली-गली में मौजूद हैं।

पहले दीवाली के आस-पास ज़हरीले बारूद का धूंआ चरम पर होता था। मगर अब शादी-ब्याह आदि तमाम मांगलिक कार्यक्रमों के अलावा भी हर तरह की जीत की खुशी के जश्न मनाने में बारूदी बम फोड़ने का दस्तूर आम हो गया है। हो सकता है कि आने वाले वक़्त में ग़म गलत करने के लिये भी बम-पटाखे फोड़ने का सहारा लिया जाये। बहरहाल, इससे बंदे की परेशानी और भी बढ़ गयी है। कानून-व्यवस्था संभालने वाले अलंबरदार कान में रूई ठूंस कर और आंख पर काली पट्टी बांध कर बैठे हैं और हर शहर की चारदीवारी से सटे इलाकों में बारूद के पटाखों की गै़रकानूनी खेती फल-फूल रही है। होली की पूर्व संध्या पर होलिका दहन की परंपरा युगों पुरानी है। मगर इधर इसका चलन इस कदर बढ़ गया है कि तमाम पार्काें व चैराहों पर लाखों टन बेशकीमती लकड़ी हर साल फूंकी जा रही है। कई-कई दिन तक इसका धूंआ उठता है और आमजन के फेफड़ों में समा कर उनको नुकसान पहुंचाता है, जिससे उनकी जिं़दगी के कुछ पल निसंदेह कम हो जाते हैं।

राजधानी होने के बावजूद लखनऊ शहर के नागरिक पिछले दो साल से जगह-जगह सीवर लाईन की खुदाई के कार्याें में बदइंतज़ामी के चलते हजारों टन धूल अपने फेफड़ों में उतार चुके हंै। इसका नतीजा आगे चल कर मिलेगा। ऐसे माहौल में बंदे और उस जैसे तमाम जैसे-तैसे जिं़दगी काटने पर मजबूर हैं। सांस से संबंधित रोगियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अगर धूंए और धूल को रोकने का बंदोबस्त जल्दी नहीं किया गया तो पक्का है कि कुछ सालों बाद पूरा इंसानी समाज खांसता और हांफता नज़र आयेगा और तमाम जिं़दगी इनहेलरों व नेबुलाईज़रों के भरोसे काटेगा।

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा नगर
लखनऊ -226016
मोबाईल 7505663626

दिनांक 21 03 2014

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