- वीर विनोद
छाबड़ा
आज की पीढ़ी को
बिलकुल विश्वास नहीं करेगी कि एक ज़माने में परदे की दुनिया में एक ऐसा खलनायक भी आया
था जो सूटेड-बूटेड परफ़ेक्ट जैंटिलमैन था। परंतु उसके चेहरे के हाव-भाव, सूट-बूट
के ऊपर ओवरकोट, सिर पर हैट और मुंह में दबी सिगरेट से निकलते धूंए से उसको एक रहस्यमयी
कातिलाना विलेन का दरजा मिलता था। उसकी एंट्री के अंदाज़ से ही दर्शक समझ जाते थे कि
ये शख्स विलेन ही हो सकता है और आगे सीन में कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा है। मगर आशाओं
के विपरीत
उसका चेहरा उस वक़्त बिलकुल खामोश दिखता था। क्रूर एक्ट के वक्त भी वो कोई
बाअवाजे़ बुलंद रोंगटे खड़े करने वाले वाहियात संवाद नहीं बोलता था। उसके संवाद उनके
होटों से लगी सिगरेट से निकलते धूंए, उसकी फैली हुई आखों पर उठती-गिरती भंवों व माथे
पर चढ़ी त्योरियों से पढ़े जा सकते थे। उस ज़माने में यह विलेन की क्रूर अभिव्यक्ति का
एक निराला अंदाज़ था। इसे दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा था। इसी कातिलाना स्टाईल के
दम पर इस शख्स ने लगभग 250 फिल्मों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी। नाम था कृष्ण
निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह।
देहरादून के.एन.
सिंह की जन्म स्थली थी। वहीं पले, खेले कूदे जवान हुए। पिता चंडी प्रसाद उस ज़माने के
प्रसिद्ध वकील सर तेज बहादुर सप्रु के समकक्ष फ़ौजदारी वकील थे। देहरादून से सीनीयर
कैंब्रिज के बाद लेटिन की पढ़ाई करने लखनऊ आये। क्या बनना है? इसे लेकर दिल में उहापोह
थी। मन का एक पहलू कहता था कि लंदन जाकर बैरीस्टरी करके पिता की तरह नामी वकील बनो
और दूसरा पहलू कहता था कि फ़ौज में भरती हो जा। उन दिनों भी देहरादून और आस-पास के पहाड़
के वासियों में फौज में भरती होने की रवायत थी। उनके जीवन यापन के लिये आमदनी का यही
एकमात्र ज़रिया था। परंतु होता वही है जो नियति में लिखा होता है।
कृष्ण अपनी बीमार
बहन का हाल-चाल लेने कलकत्ता आये। कृष्ण के बहनोई जानी-मानी हस्ती थे। तमाम नामी-गिरामी
हस्तियों का उनके घर आना-जाना था। मशहूर थियेटर और सिनेमा आर्टिस्ट पृथ्वीराज कपूर
तो उनके पारिवारिक मित्र थे। एक दिन कृष्ण की यहीं पृथ्वीराज से मुलाकात हुई। कैरीयर
के मामले में रोलिंग स्टोन की तरह इधर-उधर डोल रहे कृष्ण को पृथ्वीराज ने सलाह दी कि
बरख़ुरदार
चेहरे मोहरे से ठीक-ठाक हो। जब तक वकील या फिर फौजी बनना तय नहीं होता तब
तक सिनेमा क्या बुरा है। हो सकता है कि मुकद्दर में यही कैरीयर हो। कष्ण ने फिल्मी
कैरीयर तो हसीन सपने में भी नहीं देखा था। थोड़ी सकुचाहट के बाद कृष्ण मान गये। उनकी
मुलाकात देबकी बोस से करायी गयी। उन्होंने कृष्ण को ‘सुनहरा संसार’ में एक छोटी भूमिका
दी। सन 1936 की 09 सितंबर को कृष्ण ने पहली मर्तबा कैमरे का सामना किया। इस तरह कृष्ण
कृष्ण निरंजन सिंह का चोला उतार कर के.एन. सिंह बन गये।