Monday, June 9, 2014

पत्नी पीड़ित मर्द, नहीं बदली तेरी कहानी!

व्यंग्य

-वीर विनोद छाबड़ा

उस दिन पड़ोसी श्रीबाबू सुबह-सुबह धमके। गुस्से से फड़फड़ा रहे थे। उनके चेहरे पर जहां-तहां आटा लगा देख मैं समझ गया कि आज फिर घेरेतिन से भिड़े हैं, बेलन चला है और शब्दों के तीर भी। ऊपर से कम मगर भीतर बहुत गहरे तक घायल हैं। अब दो घंटे से पहले यहां से हिलेंगे नहीं। कई प्याली चाय सुड़केंगे और नाश्ता भी घसीटेंगे। गुस्से में डबल समझें। खतरा ये है कि इनकी पत्नी, जिसे वह सरकार कहते हैं, इस
बीच तलाशती यहां आयेंगी। वह भी चाय-नाश्ता किये बिना मानेंगी नहीं और साथ ही श्रीबाबू की भी डबल फज़ीहत करेंगी। यह तो हम जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन हमारा जो मूल्यवान वक्त बरबाद होगा उसकी भरपाई मुश्किल होगी।

बहरहाल, मैं जैसे ही माज़रा पूछने को हुआ श्रीबाबू फट पड़े- ‘‘क्या हिमाकत है? इतने दिन हो गये निज़ाम बदले हुए। खबर है कि हर जगह तबादले हो रहे हैं। पुराने हटा कर ख़ासमख़ास रखे जा रहे हैं। हमें इससे कोई परेशानी नहीं। बड़े सरकार वादा किये थे ‘मुक्तिदिला देंगे। लेकिन हमें क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लू भी नहीं।’’ मैंने समझाने की कोशिश की- ‘‘श्रीबाबू भगवान का दिया आपके पास सब कुछ तो है। मकान-दुकान, फाईव फिगर आमदनी। दो लायक बच्चे, गुणसुंदरी पत्नी....।’’

‘‘बस, बस...’’ मेरी बात काटते हुए श्रीबाबू दहाड़े- ‘‘यही तो है परेशानी। निजाम बदला। छोटे-बड़े सबके दिन बदले। लेकिन हमारी ‘सरकार’ नहीं बदली। हालात जस के तस! वो अपने को धाकड़ सियासी पत्रकार कहने वाले छोटूआ से पूछा था। बोले था कि अभी सूबे के चुनाव दो साल दूर हैं। तब बात करियेगा। अपने सीनीयर से मज़ाक करते हैं। शर्म नहीं आती। सिर्फ हुक्म ही सुनते आये हैं हम अब तक। बड़ी हसरत से वोट किये थे कि निज़ाम बदलेगा, हमारी हुकूमत होगी। हम हुक्म सुनायेंगे और सरकार सुनेगी। हमारी मौजूदा ताकतों में इज़ाफा होगा जिसमें सरकार को बर्खास्त करने की ताकत शामिल होगी। निज़ाम तो बदला, लेकिन यहां सब कुछ पहले जैसा रहा। सरकार की मर्ज़ी का खाना। वो कहें, बैठो तो मैं बैठूं। जब कहें, तभी खड़ा होऊं। घर न हो गया अस्पताल हो गया। सरकार का बस चले तो दफतर भी घर पर शिफ्ट करा दें...’’


श्रीबाबू मुझे बोलने का मौका दिये बिना जारी रहते हैं- ‘‘आने-जाने में पांच मिनट इधर-उधर होते ही सरकार सवालों के गोले दागती हैं- ‘कहां ठहर गये थे? किसके घर चले गये थे? किस औरत की फाईल निबटाने बैठ गये थे? काम करना ही नहीं आता इनको तो भर्ती किसने किया? निकाल क्यों नहीं देती गवर्नमेंट इनको? कौन थी वो जिसे स्कूटर पर लिफ़्ट देकर घर तक छोड़ा?’ सफाई देने का मौका तक नहीं दिया और सजा सुना दी। बर्तन मांझने का काम पकड़ा दिया। सुबह सफाई वाली की मौज होती है। अब आज ही का मुद्दा लीजिये। आप तो जानते ही हैं कि कूलर-एयर कंडीशन में सोने की हमें परमीशन नहीं है। कहती हैं, जोड़ों में दर्द होगा। डाक्टर के पास भागो। कोई मुफ़्त में तो दखेगा नहीं। मोटी फीस लेगा। दवाओं का खर्च अलग...’’

श्रीबाबू की दर्द-ए-दास्तां धाराप्रवाह जारी है- ‘‘क्या बताऊं आपको? गर्म कमरे में सोना पड़ता है। पंखा भी गर्म हवा फेंकता है। रात लो वोल्टेज ने तो जान ही निकाल ली। रात भर इधर-उधर भटके, बेतरह तड़पे। सुबह वोल्टेज कुछ ग़नीमत हुई। ठंडी हवा भी चल पड़ी। नींद गहरी आ गयी। थोड़ा देर तक क्या सो लिये कि सरकार ने बाल्टी भर पानी झोंक दिया। बोलती हैं- ‘पचास के होने को आये, अभी तक हसीन सपने
देखते हो। स्विटज़रलैंड की सैर करते हो। शर्म करो।’ अरे भाई, भला सपने भी कभी पूछ कर आये क्या! सपने देखने या न देखने पर किसी का बस तो आज तक न चला। और मान लो सपने में स्विटज़लैंड चले भी गये तो क्या गुनाह किया। वहां मेरा बैंक एकाउंट तो है नहीं। कालाधन भी नहीं। मगर सरकार है कि मानती नहीं। बोले है- ‘कमाऊ डिपार्टमेंट में काम करते हो। सुना है वहां सभी रिश्वत लेते हैं। ज़रूर तुम भी लेते होगे। दूध के धुले तो हो नहीं सकते। काली कमाई कहीं छुपा रखी होगी।’ सब जगह छान मारा। कुछ नहीं मिला तो शक कर रही है कि विदेशी बैंक में जमा कर रखी होगी। तभी तो स्विटज़रलैंड के सपने आते हैं और काली दाढ़ी बाबा से डरते हो। अब आप तो जानते ही हो हम ठहरे धर्म-कर्म वाले आदमी। ऊपरी कमाई से दूर-दूर तक वास्ता नहीं...’’

श्रीबाबू आज कुछ ज्यादा ही दुखी थे। रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे- ‘‘अब देखिये सरकार ने बच्चों को फरमान जारी कर दिया है कि सलवार-कमीज पहनो, फलां रंग और कट का। मुझे भी नहीं बख्शा। इन्हीं का छांटा हुआ पहनो। इधर से नहीं उधर से जाओ। इधर हर वक़्त मोहल्ले की औरतें पंचायत लगाये खड़ी होती हैं। भाइसाहब, आप ही बताओ। इसमें मेरी क्या गलती? औरतों को समझाओ। लेकिन वो उन्हें मना नहीं करेंगी। उनकी किट्टी पार्टी की मेंबर जो हैं सब! अब सब्र का बांध टूटने वाला है। बस, अब और नहीं, अब और नहीं। जिंदा कौमें इंतज़ार नहीं कर सकती। मुल्क़ में निज़ाम बदला है तो हमारा भी बदलना होगा। तमाशा है क्या? अब प्रजा राज करेगी। हम आज ही प्रधानमंत्री जी को पत्नी पीड़ित संघ की ओर से इस बावत चिठ्ठी ई-मेल करेंगे। अगर पंद्रह दिन में मांग पूरी नहीं हुई तो आमरण अनशन शुरू। कई नामी-गिरामी  चिरकुंआरों से बात भी हुई है। वो सब शिरकत करेंगे...’’

श्रीबाबू अब तक पांच प्याली चाय सुड़क चुके थे और दो बार प्लेट भर पकौड़ी-जलेबी पर भी हाथ साफ कर चुके थे, जो मेरे साले साहब के आगमन की खुशी में हमारी मेमसाब ने खासतौर पर मशहूर कालू हलवाई से मंगायी थी। अंदर से मेमसाब की भनभनाहट भी कानों में स्पष्ट गूंज रही थी जिसमें मेरे लिये स्पष्ट चेतावनी थी- ‘श्रीबाबू को रवाना करो अन्यथा मुझे साक्षात  पधार कर तुम्हारी और मेहमान की हजामत बनाने पर मजबूर होना पड़ेगा।’ मौके की नज़ाकत को भांप कर मैंने श्रीबाबू से क्षमा चाही कि कृपया इस पुराण पर यहीं क्रमशः लगाने की कष्ट करें।

श्रीबाबू बड़ी कसमसाहट से शाम को गतांक से आगे का वृतांत सुनाने का वादा लेकर टले। उनके जाते ही मैं तुरंत स्नान कर तैयार हुआ। भाई के आगमन की खुशी में पत्नी द्वारा बनाये पकवानों पर हाथ साफ किया और आफिस चल दिया। रास्ते में देखा- श्रीबाबू की सरकार बन-ठन कर काला चश्मा चढ़ाए घर से निकलीं। भीगे बिल्ले से दिख रहे श्रीबाबू ने मुझसे मुंह छुपाते हुए कार का पिछला दरवाजा खोला। सरकार ने श्रीबाबू को इस तरह कर्ज़ खाये आदमी सामान घूरा और धम्म से कार में बैठ गयीं। श्रीबाबू ने बाअदब हौले से दरवाजा बंद किया और ड्राईविंग सीट पर बैठ कर सरकार के अगले हुक्म का इंतज़ार करने लगे।

मैं हौले से मुस्कुरा कर आगे बढ़ लिया और खुद से मुखातिब होकर बोला- ‘‘कितना ही फड़फड़ाओ। न खंजर उठेगा न तलवार इनसे, ये बाजू मेरे आजमाए हुए हैं! सूबे और मुल्क के निज़ाम भले ही कितनी बार बदलें। लेकिन पत्नी पीड़ितों के दिन कभी नहीं बदलते। ये सात जन्मों का बंधन है प्यारे। पत्नी के सताये मर्द, तेरी कहानी यही रहेगी! ’’
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 -वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ - 226016
मो0 7504663626

दिनांक 10 06 2014 

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