Monday, June 30, 2014

कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह - कातिलाना अंदाज़

- वीर विनोद छाबड़ा

आज की पीढ़ी को बिलकुल विश्वास नहीं करेगी कि एक ज़माने में परदे की दुनिया में एक ऐसा खलनायक भी आया था जो सूटेड-बूटेड परफ़ेक्ट  जैंटिलमैन था। परंतु उसके चेहरे के हाव-भाव, सूट-बूट के ऊपर ओवरकोट, सिर पर हैट और मुंह में दबी सिगरेट से निकलते धूंए से उसको एक रहस्यमयी कातिलाना विलेन का दरजा मिलता था। उसकी एंट्री के अंदाज़ से ही दर्शक समझ जाते थे कि ये शख्स विलेन ही हो सकता है और आगे सीन में कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा है। मगर आशाओं के विपरीत
उसका चेहरा उस वक़्त बिलकुल खामोश दिखता था। क्रूर एक्ट के वक्त भी वो कोई बाअवाजे़ बुलंद रोंगटे खड़े करने वाले वाहियात संवाद नहीं बोलता था। उसके संवाद उनके होटों से लगी सिगरेट से निकलते धूंए, उसकी फैली हुई आखों पर उठती-गिरती भंवों व माथे पर चढ़ी त्योरियों से पढ़े जा सकते थे। उस ज़माने में यह विलेन की क्रूर अभिव्यक्ति का एक निराला अंदाज़ था। इसे दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा था। इसी कातिलाना स्टाईल के दम पर इस शख्स ने लगभग 250 फिल्मों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी। नाम था कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह।

देहरादून के.एन. सिंह की जन्म स्थली थी। वहीं पले, खेले कूदे जवान हुए। पिता चंडी प्रसाद उस ज़माने के प्रसिद्ध वकील सर तेज बहादुर सप्रु के समकक्ष फ़ौजदारी वकील थे। देहरादून से सीनीयर कैंब्रिज के बाद लेटिन की पढ़ाई करने लखनऊ आये। क्या बनना है? इसे लेकर दिल में उहापोह थी। मन का एक पहलू कहता था कि लंदन जाकर बैरीस्टरी करके पिता की तरह नामी वकील बनो और दूसरा पहलू कहता था कि फ़ौज में भरती हो जा। उन दिनों भी देहरादून और आस-पास के पहाड़ के वासियों में फौज में भरती होने की रवायत थी। उनके जीवन यापन के लिये आमदनी का यही एकमात्र ज़रिया था। परंतु होता वही है जो नियति में लिखा होता है।

कृष्ण अपनी बीमार बहन का हाल-चाल लेने कलकत्ता आये। कृष्ण के बहनोई जानी-मानी हस्ती थे। तमाम नामी-गिरामी हस्तियों का उनके घर आना-जाना था। मशहूर थियेटर और सिनेमा आर्टिस्ट पृथ्वीराज कपूर तो उनके पारिवारिक मित्र थे। एक दिन कृष्ण की यहीं पृथ्वीराज से मुलाकात हुई। कैरीयर के मामले में रोलिंग स्टोन की तरह इधर-उधर डोल रहे कृष्ण को पृथ्वीराज ने सलाह दी कि बरख़ुरदार
चेहरे मोहरे से ठीक-ठाक हो। जब तक वकील या फिर फौजी बनना तय नहीं होता तब तक सिनेमा क्या बुरा है। हो सकता है कि मुकद्दर में यही कैरीयर हो। कष्ण ने फिल्मी कैरीयर तो हसीन सपने में भी नहीं देखा था। थोड़ी सकुचाहट के बाद कृष्ण मान गये। उनकी मुलाकात देबकी बोस से करायी गयी। उन्होंने कृष्ण को ‘सुनहरा संसार’ में एक छोटी भूमिका दी। सन 1936 की 09 सितंबर को कृष्ण ने पहली मर्तबा कैमरे का सामना किया। इस तरह कृष्ण कृष्ण निरंजन सिंह का चोला उतार कर के.एन. सिंह बन गये।

देबकी बोस की संस्तुति पर बी.एन. सिरकार ने न्यू टाकीज़ प्रोडक्शन के लिये 150 रुपये माहवार नौकरी पर रख लिया। वो ज़माना ‘स्टूडियो’ का था। स्टूडियो का मालिक ही सिनेमा बनाता था। सिनेमा में काम करने वाले हर शख्स को माहवार तय पगार मिलती थी। इस बीच वो दूसरे स्टूडियो की फिल्म में काम नहीं करता था। के.एन. सिंह ने यहां कई फिल्में की जिनमें ‘सुनहरा संसार’ के अलावा हवाई डाकू, अनाथ आश्रम, विद्यापति को काफी सराहना मिली। ‘मिलाप’ के निर्देशन के लिये बंबई के मशहूर ए.आर. कारदार को खासतौर पर न्यौता दिया गया। के.एन. सिंह से कारदार बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने के.एन. सिंह को पब्लिक प्रासीक्यूटर की भूमिका दे दी। वकील बनना कभी के.एन. सिंह का ख्वाब रहा था। उन्हें बेहद खुशी हुई। मगर साथ ही एक चुनौती भी मिली। चार सफ़े के संवाद याद करने थे सिर्फ दो दिन के वक़्त में। वो घबड़ाये कि कैसे होगा यह सब इतने थोड़े अरसे में। मगर पृथ्वीराज कपूर ने हौंसला बढ़ाया और रोशनी भी दिखायी। खूब रिहर्सल करायी। ऐन शूट से पहले पृथ्वीराज बोले- ‘‘तुम अच्छे नहीं बल्कि बहुत ही अच्छे हो।’’ और वाकई के.एन. सिंह ने कमाल कर दिया। याद करने की क्षमता बचपन से ही जबरदस्त थी। यह काम आयी। हर शाट पहले ही टेक में ओ.के. होता चला गया।

के.एन. सिंह के पिता को जब पता चला कि नूरेचश्म फिल्मों में जौहर दिखा रहे हैं तो सख़्त नाराज़ हुए। इस पुत्र से उन्हें बड़ी उम्मीदें थीं। क्योंकि वो पांच भाईयों में से सबसे बड़े थे। मगर के0एन0 सिंह के कदम दृढ़ता से आगे बढ़ चुके थे। भाग्य में पिता के पद्चिन्हो पर चलना नहीं बदा था। वो कहते थे कि हर शख्स को अधिकार है कि अपना भविष्य अपनी तरह संवारे। इस बीच पृथ्वीराज उनके अच्छे मित्र बन चुके थे। वो के.एन. सिंह से चार-पांच साल बड़े थे। उनकी दिली ख्वाईश थी कि पृथ्वीराज जैसे बड़े कद के आर्टिस्ट के सामने खड़े होकर अदाकारी की गहराई नापें। जल्दी ही यह तमन्ना पूरी हुई। फिल्म थी ‘आरजू’। मगर यह जानकर बड़ी मायूसी हुई कि उन्हें पृथ्वीराज के बाप का रोल करना है। वो हिचकिचाये। पृथ्वी से वो छोटे थे। भला बाप कैसे बनूं। लेकिन पृथ्वीराज ने उनको मना लिया और दिल की बात बतायी- ‘‘कृष्ण मैं चाहता हूं कि तुम अदाकारी के बाप बनो। मुझे मालूम है कि तुममें यह टेलेंट बखूबी है।’’

के.एन. सिंह 1937 की सर्दियों में कलकत्ता छोड़कर बंबई आ गये। वहां फज़लभाई ब्रदर्स की कंपनी के लिये बागबान, इंडस्ट्रियल इंडिया और पति-पत्नी जैसी कामयाब फिल्में कीं। बाद में नानूभाई देसाई और सोहराब मोदी का मिनर्वा स्टूडियो ज्वाईन किया। वहां उन्हें 500 रुपये महीने पर नौकर रखा गया। उस जमाने में किसी एक्टर के लिये ये बड़ी पगार थी। इससे यह भी साबित होता था कि के.एन. सिंह का बतौर एक्टर कद काफी ऊंचा हो गया था। के.एन. सिंह को हीरो के लिये कभी नहीं विचारा गया। इसका उन्हें कोई अफ़सोस नहीं हुआ। उन्हें अच्छी तरह इल्म था कि वो हीरो के लिये बने ही नहीं है। और फिर एक एक्टर का काम सिर्फ एक्टिंग करना है। किरदार कैसा भी हो। अगर वो उसमें डूब कर ईमानदारी से
काम करेगा तो उसे पब्लिक रिसपांस ज़रूर मिलेगा। और अगर नहीं भी मिला तो भी उसे संतोष रहेगा कि उसने अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठा से किया है। वो विदेशी फिल्मों के बहुत शौकीन थे। इसमें हर करेक्टर को बड़े ध्यान से देखते ही नहीं उसके हाव-भाव के जरिये उसके दिल में हो रही उथल-पुथल को भी पढ़ते थे। उन्होंने एक्टिंग की ढेरों किताबें भी पढ़ीं। अदाकारी के गुण सीखने का यही उनका स्कूल था और तरीका भी। खुद को पैदाईशी अदाकार नहीं माना। सदैव छात्र मानते रहे। संपूर्ण इंसान कोई नहीं होता। वो फोकस होकर काम करते थे। सीखने की क्षमता बहुत तेज थी ही। किरदार को पढ़ने में और उसकी काया में घुसने में ज्यादा वक़्त नहीं लगता था।

जब के.एन. सिंह बंबई आये थे तो याकूब सबसे कामयाब विलेन हुआ करते थे। वो इस मैदान के बेताज बादशाह थे। मगर के.एन. सिंह के आगमन से वो परेशान हुये। उन्हें लगा - ‘‘अरे ये तो मेरा भी बाप है।’’ वो समझ गये कि अब यहां दाल नहीं गलेगी। इससे पेश्तर कि ज़माना उन्हें नकार दे, उन्होंने फौरन करेक्टर रोल्स लेने शुरू कर दिये। यह बात खुद याकूब ने एक इंटरव्यू में कबूल की थी। इस तरह से एक अच्छे कलाकार ने एक अच्छे कलाकार का सम्मान किया। इसके बाद के.एन. सिंह ‘सिंह इज किंग’ कहलाने लगे थे।

के.एन. सिंह पर बांबे टाकीज़ की मालकिन देविका रानी की नज़र पड़ी। देविका बहुत बड़ा नाम थी उन दिनों। परदे की दुनिया में और बाहर की दुनिया में भी। उनकी पारखी आंखों ने भांप लिया कि के.एन. सिंह लंबी रेस का जिताऊ घोड़ा हैं। उन पर आंख मूंद कर विश्वास करने में कोई खतरा नहीं है। लिहाज़ा उन्होंने ज्यादा वक़्त बरबाद न करके के.एन. सिंह को साईन कर लिया। पगार 1600 रुपया महीना और घर से स्टूडियो लाने और फिर छोड़ने की टैक्सी से सुविधा अलग। ऐसा करारनामा उस ज़माने में सिर्फ ऊंचे कद की हैसीयत वाले आर्टिस्ट को ही नसीब था। बांबे टाकीज में के.एन. सिंह को नामी डायरेक्टर अमिया चक्रवर्ती और शक्ति सामंत के साथ काम करने का मौका मिला।

के.एन. सिंह अपनी इस खासियत के लिये भी पहचाने जाते थे कि वो किरदार में घुस कर एक्टिंग तो करते हैं लेकिन ओवर एक्टिंग नहीं। उनका किरदार परदे पर चीखने-चिल्लाने से सख़्त परहेज़ रखता था। उन्हें यकीन था कि हर किरदार में एक क्रियेटीविटी है, स्कोप है। सुधारने और संवारने की असीम संभावनाए हैं। बस उसको कायदे से पारिमार्जित करने की ज़रूरत है ताकि परदे पर उसकी क्षणिक मौजूदगी का अहसास भी पब्लिक को होता रहे। परदे पर उनकी पोषाक अधिकतर सलीकेदार शख्स की रही। आम जीवन में भी वो ख्याल रखते थे कि ड्रेस कायदे की हो। बेहतरीन कपड़ों के वो सदैव शौकीन रहे।

सन 1944 में स्टूडियो युग खत्म हुआ। अब एक्टर किसी स्टूडियो के माहवार नौकर नहीं रहे। इसकी जगह फ्रीलांसिग युग शुरू हुआ। अब एक्टर अपनी एक्टिंग के हुनर और बाज़ार में खुद की प्रसिद्धी के आधार पर अपनी औकात खुद तय करके अपनी कीमत लगा सकता था। अलावा इसके एक्टर अपने मिजाज़, कूवत और चेहरे-मोहरे के हिसाब से रोल भी चुन सकता था। और के.एन. सिंह को मुंहमांगी रकम मिली। 1947 तक वो खराब किरदारों की दुनिया के बेताज बादशाह बने रहे। कोई तगड़ा प्रतिद्वंदी नहीं आया जो के.एन. सिंह को टाप पोजीशन से बेदखल करने की चुनौती दे सके। मुल्क के विभाजन के बाद लाहोर से आये प्राण सिकंद और जीवन ने खलबली मचानी शुरू की। लेकिन के.एन. सिंह कतई विचलित नहीं हुए। बल्कि प्रतिद्वंदिता को उन्होंने प्रतिस्पर्धा का दरजा देकर खुद को और भी पारिमार्जित किया।

के.एन. सिंह एक बेहतरीन इंसान भी थे। दूसरों की मदद को हमेशा तत्पर रहे। वो भूले नहीं थे कि शरूआत में वो खुद भी दूसरों की मदद से आगे बढ़े थे। वो इस सिंद्धांत के कायल थे कि फिल्म इंडस्ट्री से जितना लिया और सीखा उसे साथ-साथ वापस भी करते चलो। जाने कब ऊपर से बुलावा आ जाये। उन दिनों दिलीप कुमार नये-नये दाखिल हुए थे। देविका रानी की ‘ज्वार भाटा’ कर रहे थे। यह उनकी पहली फिल्म थी। सामने के.एन. सिंह जैसे नामी खतरनाक विलेन को देख कर वह असहज हो गये। तब के.एन. सिंह ने दिलीप का हौंसला बढ़ाया और अहसास कराया कि पैदाईशी एक्टर कोई नहीं होता। सभी ईश्वर के मामूली बंदे हैं, अजूबा नहीं। इस तरह दिलीप नार्मल हुए। दिलीप ताउम्र उनके अच्छे दोस्त रहे। ज्वार भाटा के बाद उन्होंने दिलीप कुमार के साथ शिकस्त, हलचल और सगीना कीं।

के.एन. सिंह ने अपने दौर के सभी बड़े और कामयाब नायकों के साथ काम किया। कहीं वो खलनायक दिखे तो कहीं सहनायक। नायिका के पिता या पुलिस आफिसर या वकील की भूमिका में भी। अपनी कामयाबी के दौर में वो हीरो के लिये लिखे गये सीन में भी अपने चेहरे पर आ-जा रहे भावों से अपनी मौजूदगी का अहसास दर्ज कराते रहे। कई बार हीरो ने असहज होकर सीन से उन्हें हटाया भी। दरअसल फ्रीलांसिंग के दौर में हीरो को यह फायदा मिल गया कि वो अपने लिये  ताली बजाऊ डायलाग लेने, दूसरे को कैमरे की नज़र से दूर रखने का गंदा खेल भी खेलने लगा।

भूमिका को समझने उसे पढ़ने और उसे सुधारने की गज़ब की क्षमता के मालिक थे के.एन. सिंह। उन्हें चीखने-चिल्लाने वाले करेक्टर कतई पसंद नहीं थे। उनका एक लाइन का पसंदीदा जुमला था- ‘‘अपनी बकवास बंद करो। गधे कहीं के।’’ उनके मुंह से ये लाईन जैसे ही निकलती थी सारे माहौल में एक डरावनी सी खामोशी छा जाती थी। बाकी काम भवों को चढ़ाना, आंखें इधर-उधर घुमाना, माथे पर त्यौरियां चढ़ाने से हो ही जाता था। इसका दर्शकों पर भी भरपूर प्रभाव पड़ता था।  वो कहते थे कि अगर ‘शोले’ में अमजद खान की जगह वो होते तो ‘शाऊटी’ गब्बर सिंह के किरदार को ‘अंडरप्ले’ करके ज्यादा खूंखार बनाते। जोकरी करते विलेन उन्हें कभी पसंद नहीं आये। ज्यादा हिंसा, सैक्स व शोर से फिल्म असल मकसद से भटकती है। उनको गर्व था कि उनके ज़माने में विलेन की हनक इतनी ज्यादा थी कि हीरो की हिम्मत नहीं करता था कि विलेन को हरामजादा कह दे। क्योंकि उसे मालूम था कि विलेन के चोले के पीछे खड़ा शख्स एक्टिंग का बाप है, फिल्म इंडस्ट्री में उसकी धाक है। 

1936 से 1982 तक के.एन. सिंह ने लगभग 250 फिल्में कीं जिनमें चर्चित थीं- हुमायूं (1944), बरसात (1949), सज़ा व आवारा (1951), जाल व आंधियां (1952), शिकस्त व बाज़ (1953), हाऊस नं. 44 व मेरीन ड्राईव (1955), फंटूश व सी0आई0डी0 (1956), हावड़ा ब्रिज व चलती का नाम गाड़़ी (1958), काली टोपी लाल रूमाल (1959), रोड नं0 303, सिंगापुर व बरसात की रात (1960), करोड़पति, मंज़िल, मिस चालबाज़ व ओपेरा हाऊस (1961), सूरत और सीरत, वल्लाह क्या बात है, हांगकांग व नकली नवाब (1962), शिकारी (1963), वो कौन थी व दुल्हा दुल्हन (1964), रुस्तम-ए-हिंद, फ़रार व राका (1965), तीसरी मंज़िल, मेरा साया व आम्रपाली (1966), एन ईवनिंग इन पेरिस (1967), स्पाई इन रोम (1968), जिगरी दोस्त (1969), मेरे हुजूर व सुहाना सफ़र (1971), मेरे जीवन साथी व दुश्मन (1972), लोफर, कच्चे धागे, कीमत व हंसते ज़ख्म (1973), सगीना व मजबूर (1974), कै़द (1975), अदालत(1976), दोस्ताना (1980) और कालिया (1981)।


के.एन. सिंह का कैरीयर सत्तर के दशक में ढलान ‘मोड’ में आ गया। अस्सी के दशक में बहुत कम फिल्में हाथ आयीं। मगर निराश कभी नहीं हुए। हरेक की जिंदगी में अच्छे के बाद खराब दिन आते हैं। पुरानी पीढ़ी का स्थान लेने के लिये नयी पीढ़ी बेताब दिखती है। के.एन. सिंह समझदार थे। जो कमाया उसे लुटाया नहीं। सोच समझ कर खर्च किया और सही जगह नियोजित किया ताकि खराब दिनों में गुरबत न देखनी पड़े। आंख में मोतिया बिंदू आ जाने के कारण उन्हें दिखाई देना बंद हो गया था। उनके कैरीयर में ढलान का यह भी एक कारण रहा। बाध्य होकर 1984 में आंख का आपरेशन कराया। दुर्भाग्यवश आपरेशन सफल नहीं हुआ। उनकी दुनिया में अंधेरा छा गया। परंतु स्मरण-शक्ति पूर्ववत् लोहा-लाट रही।

के.एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फिल्मफेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था।

के.एन. सिंह का जन्म देहरादून में 01 सितंबर, 1908 में हुआ था और 31 जनवरी, 2000 में 82 साल की आयु में देहांत हुआ था। उस दौर के लोग आज भी पुराने दिनों की याद करते हैं तो कहते हैं- एक थे के.एन. सिंह।

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- वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ - 226016
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दिनांक 30.06.2014

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