Thursday, February 27, 2014

गोप---कॉमेडी किंग की ट्रेजडी!

- वीर विनोद छाबड़ा

मोटे व थुलथुल आदमी को देख कर अनायास हंसी आती है। हालांकि कुछ का मानना है कि यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। परंतु वास्तव में यह है विकृत सामाजिक मानसिकता का प्रतीक। ऐसा आदमी किस मानसिक यंत्रणा को से गुज़रता होता है, यह वही जानता है। इनमें विरले ही ऐसे रहे हंै जो अपने पर दूसरों को हंसता देखकर उनके साथ हंसे हैं। तीस से पचास के दशक के हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े मोटे व थुलथुले तथा गोल-मटोल चेहरे वाले मशहूर कामेडियन गोप ऐसी एक विरली शख्सियत थे। वह इस सच से भली-भांति परिचित थे कि वह हंसी के पात्र हैं। हर किसी का मुंह बंद नहीं कर सकते। इसलिये उन्होंने बेहतर समझा कि  भनभनाते हुए अपना खून जलाने की बजाये दूसरे की खुशी में शामिल हो कर आनंद लूटो। माना जाता है कि उदास को हंसाना यों भी दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। हंसाने वाले ऐसे लोग खुद अंदर से भले ही बेइंतेहा तकलीफ से क्यों न गुज़रते हों मगर दूसरों को हंसाना अपना पहला फर्ज़ समझते है। द शो मस्ट गो आन। इसका फ़ायदा भी है कि दूसरों को हंसाने से अपनी तक़लीफ़ का अहसास कमतर होता जाता है। ये सारी बातें शायद ये फ़लसफ़ा गोप की जिं़दगी की किताब को पढ़ कर ही किसी ने लिखा था।

गोप इतने मशहूर थे कि किसी मोटे आदमी को देखकर लोग कहते थे-‘‘वो देखो गोप!’’ यानि गोप और मोटापा एक दूसरे के पर्याय थे। उनका जन्म 11 अप्रेल 1914 को हैदराबाद सिंध (अब पाकिस्तान) के एक सिंधी परिवार में हुआ था। वो नौ भाई-बहन में से एक थे। उनका पूरा नाम था गोप कमलानी। गोप ने ही साबित किया था कि खूबसूरत-दिलकश चेहरे व जिस्म भले ही आकर्षण का केंद्र होते हैं, मगर दिलो-दिमाग पर छा जाने की कूवत सिर्फ़ मोटे-थुलथुले जिस्म और बड़े गोल चेहरे में ही होती है। इनके चेहरे पर टपकता भोलापन कुदरत की नायाब देन है जिससे इंकार करना मुश्किल है। दूसरा सच ये है कि ऐसे लोग पैदाईशी नेचुरल आर्टिस्ट होते है। गोप को अपनी इस खूबी का पूरा अहसास था। इसीलिये वे कभी अहसासे-कमतरी का शिकार नहीं हुए। बल्कि आईने में अपनी शक्लो-सूरत देखकर खुद पर हंसते ही नहीं फ़िदा भी रहते। उन्हें दूसरों पर गुस्सा नहीं आता था। आता भी था तो भी लोग हंसते थे-क्या कमाल की कामेडी कर रहा है गोप भाई!

Wednesday, February 26, 2014

हे राम! तेरही तक को न छोड़ा!

-वीर विनोद छाबड़ा

बंदे के एक अज़ीज़ मित्र हैं प्रेमबाबू। हमेशा अतीत की दुनिया में खोये रहने की आदत से बेतरह ग्रस्त। जहां भी जाते हैं। उठते-बैठते हैं। पुराने ज़माने को याद करते हुए सिर्फ़ उसकी अच्छाईयों का ही बखान करते है और वर्तमान की बखिया उधेड़ते फिरते हैं। उनकी इस आदत से नयी पीढ़ी उनसे इस कदर परेशान रहती है कि उनके नज़़दीक ही नही फटखती। बंदा उन्हें समझाने की कोशिश करता है कि बड़े भैया दुनिया परिवर्तनशील है। पुराने की जगह नया प्रतिस्थापित होता है तो कई अच्छाईयों के साथ कुछ बुराईयां भी आती हैं। परंतु सबसे अच्छी बात यह है कि कई आमूल-चामूल परिवर्तनों के बावजूद शाश्वत मूल्य अभी तक बरकरार हैं। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना। ये कल भी पाप था और आज भी है।


मगर प्रेमबाबू लकीर के फ़क़ीर रहते हैं। अभी कल ही की तो बात है। रात भोजन पश्चात टहलते हुए मिल गये। बंदे को देखते ही भड़क उठे-क्या ज़माना आ गया है? आज एक पुराने मित्र की तेरहीं में जाना हुआ। अब एक तेरहीं ही सहारा था, जहां डाईनिंग टेबुल की जगह ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी खाने के बहाने पुरानी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। सोचा था यहां भी यही होगा। मगर अब यहां भी सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। बताईये, बुफे यानि गिद्ध भोज सिस्टम लगा रखा था। और खाने में आईटम तो पूछिए मती। उस पर तुर्रा ये कि पूछते हैं वेज हैं या नान-वेज। शर्म आती है बताते हुए कि सबके सब नान-वेज के खाते में गिरते दिखे। हमारा तो खून खौल गया। तबीयत हुई जमीं फट जाये और समा जाऊं इसमें। अच्छा हुआ कि जमीं फटी नहीं। हद हो गयी मरहूम का नासपीटा बेटा खींसें निपोर सफाई दे रहा है कि पिताजी को जो पसंद था वही तो खिलायेंगे न! सिर पीट लिया हमने। एक गिलास ठंडा मिनरल वाटर पीकर चले आये।

Saturday, February 22, 2014

मधुबाला-नसीब में ‘वो’ न थे!

-वीर विनोद छाबड़ा

हिंदी सिनेमा का इतिहास जब भी खंगाला जायेगा तो एक बात निश्चित है कि खूबसूरत व दिलकश चेहरे और भली सीरत वाली हीराइनों की फेहरिस्त में अव्वल नाम मधुबाला का होगा। और बात जब ट्रेजडी क्वीनों की उठेगी तो भी मधुबाला पहले से दसवें नंबर तक मिलेगी। कितनी बड़ी ट्रेजडी है यह कि पिछली सदी के चौथे व पांचवें दशक में लाखों सिनेमा प्रमियों के दिलों में राज करने वाली इस बलां की खूबसूरत बाला की ज़िंदगी की शुरूआत ट्रेजडी से शुरू हुई और अंत भी ट्रेजडी पर हुआ। उसने तो लाखों के दिलों पर हुकूमत की परंतु उसके दिल पर हुकूमत करने वाला राजकुमार उसके करीब आकर भी उसे नहीं मिल पाया। यह राजकुमार उस दौर के परदे की दुनिया का टेªजडी किंग दिलीप कुमार था। दोनों एक-दूसरे से बेसाख्ता मोहब्बत करते थे। मगर एक ज़िद्द ने इनकी मोहब्बत का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया। नदी के दो किनारे बना दिये। जब भी सिनेमा की दुनिया की नाकाम मोहब्बतों के सच्चे अफ़सानों की दास्तान लिखी जायेगी तो उसमें मधुबाला-दिलीप कुमार का अफ़साना जरूर बयां होगा।


हुआ यों था कि प्रोडयूसर-डायरेक्टर बी.आर.चोपड़ा ने ड्रीम प्रोजेक्ट ‘नया दौर’ के लिये नायक दिलीप कुमार के कहने पर मधुबाला को साईन किया। तब तक मधुबाला से दिलीप की सगाई भी हो चुकी थी। दोनों के दरम्यां इक दूजे के लिये ज़बरदस्त पैशन था। सब ठीक चल रहा था। शादी भी करना चाहते थे। मगर मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान इसकी इज़ाज़त नहीं दे रहे थे। परिवार के प्रति पूर्णतया समर्पित मधुबाला की तरबीयत कुछ इस किस्म से हुई थी कि उसमें अपने पिता की सलाहियत की मुख़ालफ़त करने की हिम्मत नहीं थी। बचपन से ही उसके दिलो-दिमाग में ये बात बैठा दी गयी थी कि उसके बिना परिवार को रोटी तक मयस्सर नहीं होगी। अगर उसने ब्याह रचा लिया तो परिवार सड़क पर होगा। यह सोच कर उसकी रूह कांप उठती थी। उसकी इस भावुक कमजोरी का खूब फायदा उठाते थे अताउल्लाह।

Monday, February 17, 2014

थैला-लिफ़ाफ़ा युग की वापसी की आहट!

-वीर विनोद छाबड़ा
पोलीथीन को पर्यावरण तथा ज़िंदगी के लिये ज़हर मान चुके हमारे एक अज़ीज़ मित्र उस दिन अख़बार में ये ख़बर पढ़ कर बेहद खुश थे कि लखनऊ शहर की एक बड़ी मार्किट के व्यापारियों ने तय किया है कि वे आइंदा पोलीथीन बैग्स का इस्तेमाल नहीं करेंगे। इलावा इसके एक समाजसेवी संस्था ने भूतनाथ मार्किट को पोलीथीन-मुक्त करने की मुहिम के अंतर्गत मुफ़्त झोले व लिफा़फे़ बांटे। इत्तिफ़ाक़ से मित्र उस वक़्त वहीं मौजूद थे। इससे पहले इतना खुश तब हुए थे जब कुछ साल पहले सरकार ने पोलीथीन बैग्स पर पाबंदी का ऐलान किया था।

उनको वो ज़माना याद आया जब पोलीथीन बैग्स का किसी ने नाम तक नहीं सुना था। हर सामान काग़ज़ से बने लिफ़ाफ़ों में पैक हो कर मिलता था। चूंकि भारी और ज्यादा सामान का बोझ काग़ज़ी लिफ़ाफे़ बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण जल्दी फट जाते थे इसलिये इन लिफ़ाफ़ों को एक बड़े कपड़े के थैले में रख दिया जाता था। सब्ज़ी-तरकारी आदि की खरीद के वक़्त पहले आलू-प्याज़ जैसी सख़्त जान वाले आईटम थैले में सबसे पहले रखे जाता थे और बाद में मुलायम आईटम का नंबर आता था। सबसे ऊपर लाल-लाल टमाटर और हरी धनिया को जगह मिलती थी।

Tuesday, February 11, 2014

झोलाछाप लेखक-एक विलुप्त प्रजाति!

-वीर विनोद छाबड़ा

झोलाछाप डाक्टरों के बारे में किसने नहीं सुना! दूर-दराज़ कस्बों-गांवों में बैठे मरीज़ जिन्हें सरकारी अस्पताल में डाक्टर के दर्शन होने नसीब नहीं होते। कब आता है? चला जाता है, पता ही नहीं चलता। ऐसे आड़े वक़्त यही झोलाछाप काम आते हैं। और मजे की बात यह कि पलक झपकते मर्ज पहचान कर सस्ते-मद्दे में ठीक भी कर देते है। बंदे के ज़माने में भी झोलाछाप डाक्टरों की भरमार थी। इसी की तरह हमारे ज़माने में झोलाछाप लेखक भी होता था। इनके झोले में हर विषय पर लेख, कविता, परिचर्चा, रपट, कहानी आदि मैटीरीयल प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता था। अक्सर स्थानीय अखबारों के संपादकीय कार्यालयों में या उनके आस-पास बने ढाबों में इनके दर्शन सुलभ होते थे।




बड़ा लेखक अपने बड़े कद के हिसाब से मोटी रक़म तो वसूलता था और साथ ही मूड बनने पर ही लिखता था। बिज़ी न होने पर भी बिज़ी दिखता होता था। वो संपादक की इस ज़रूरत को अक्सर पूरा नहीं कर सकता था कि तड़ से बोला और तड़ से लिख डाला। ऐसे आड़े वक़्त में झोलाछाप ही सहारा बनता था जो आस-पास ही किसी सस्ती चाय के ढाबे में बैठा संपादक के बुलावे का इंतज़ार करता होता था। उसके होने से ये फायदा तो था ही कि जैसा चाहो फौरन हाज़िर हो जाता था और दूसरा ये था कि बेहद मामूली रक़म में भी उसको संतोष हो जाता था। दरअसल उसके लिये बड़े अखबार में छपना ही बड़ी पूंजी होती थी जिसके बूते पर उसकी भविष्य की पतंग आसमान चढ़नी होती थी। लिखता भी वो बड़े मन से और खासी खोजबीन करने के बाद था। यही वज़ह थी कि झोलाछाप लेखक की ज़िंदगी में आमतौर पर मुफ़लिसी का राज काविज़ रहता था।
झोलाछाप लेखक की एक अमीर यानि सुविधा-संपन्न क्लास भी थी। ये किसी बड़ी प्राईवेट कंपनी में ऊंचे ओहदेदार या सरकारी नौकर हुआ करते थे। मुफ़लिस झोलाछाप लेखकों की तुलना में इनमें छपास भी कुछ ज्यादा ही होती थी। इनके कंधों पर परंपरागत झोले नहीं टंगे दिखते थे बल्कि हाथों में ब्रीफ़केस होता था। स्कूटर से तमाम अख़बारों की परिक्रमा आनन-फ़ानन में कर डालते थे। दिखने में भी खासे स्मार्ट होते थे। इसी वजह से बाज़ फीचर संपादक भी इन्हें ज्यादा भाव देते थे। बेचारे मुफ़लिस झोलाछाप बड़ी कातर दृष्टि से इन्हें आते-जाते देखा करते थे। एक-दूसरे से ज्यादा छपने की ज़बरदस्त होड़ लगी रहती थी। इनकी होड़बाजी के चरम से कई बार संपादकगण भी झल्ला जाते थे। इससे निजात पाने के लिये कुछ ने तो बकायदा छपने की अधिकतम सीमा तय कर दी थी। हरेक झोलाछाप एलर्ट रहता था कि दूसरे झोलाछाप को खबर नहीं होने पाये कि किस विषय पर लिखा है? और आगे किस विषय पर लिखना है?

Wednesday, February 5, 2014

फिल्मबाज़ों के बिना सिनेमा का सौ साला सफ़र अधूरा !

वीर विनोद छाबड़ा
भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है। गुज़रे साल खूब बातें हुईं। धूल की मोटी परतें झाड़ कर इतिहास के ढेर सफ़े खंगाले और पलटे गये। छोटे-बड़े सभी बहुत याद किये गये। मगर सिनेमा के इस लंबे सफ़र में हर पल साये की तरह चिपके रहने वाले साथियों, यानि दर्शक, को एक बार भी दिल से याद नहीं किया गया। अगर ये साथ नहीं होते तो यकीनन ये सफ़र कभी खुशगवार न हुआ होता, इतनी कामयाबी के साथ कतई अपनी मंज़िले मकसूद को न छू पाया होता। बंदे की मुराद महज़ आम दर्शक से नहीं है, बल्कि इंतेहा पसंद उस दर्शक से है जिसने फ़िल्मों से दीवानावार मोहब्बत की है। इसी को फ़िल्मबाज़ यानि फ़िल्मक्र्रेज़ी कहा जाता था। बंदे ने भी बेसाख्ता मोहब्बत की है फ़िल्मों से। जिंदगी का बेशकीमती हिस्सा इसे अर्पित किया है। बहुत पाया है तो बहुत खोया भी है। कोई शिकायत नहीं। अपनी करनी का ही फ़ल पाया है। बंदे ने अपनी यादों में बहुत गहरा गोता लगा कर कुछ सफे़ तलाश किये हैं जिन्हें बंदा अपने एक सीनीयर फिल्मबाज़ मित्र स्व0 कृष्ण मुरारी सक्सेना उर्फ़ मुरारी भाई को याद करते हुए सौ साल के हो चुके सिनेमा के सफ़र में जोड़ रहा है।
एलफिंस्टन से आनन्द और अब आनन्द सिनेप्लेक्स

बंदे को लखनऊ के फिल्मबाज़ों की फेहरिस्त से गायब हुए एक ज़माना गुज़र चुका है। मगर फिर भी अच्छी तरह याद है कि उसके  ज़माने, यानी साठ-सत्तर का दशक, में ऐसे क्रेजी फिल्मबाज़ साते-जागते, खाते- पीते, हंसते-रोते, गाते-बजाते यानी हर पल सिर्फ़ और सिर्फ़ सिनेमा की बात करते व सोचते थे। हर घटना को विजुएलाईज़ करते होते। बात-बात पर उन्हें फ़िल्म की किसी सिचुएशन की याद आती। रोज़ाना के एजेंडे में सिनेमा पहले नंबर पर होता। पहला दिन, पहला शो देखते थे। ऐसों को नंबर-वन फिल्मबाज़ कहा जाता था। ऐसों के लिये ये भी कहा जाता कि उन्हें फिल्मेरिया/फिल्मोनिया हो गया है। ये रोग पैदाईशी बताया जाता था। बंदा भी इसका एक लंबे अरसे तक इसका शिकार रहा। अच्छी फ़िल्म औसतन चार-पांच दफ़े देखी जाती थी। यों ऐसे भी ज़बरदस्त फिल्मबाज़ होते थे जो किसी खास फिल्म को सौ बार तक देख जाते थे।

Saturday, February 1, 2014

मुस्कुराने को कुछ भी नहीं है यहां!




-वीर विनोद छाबड़ा
सूबे की राजधानी लखनऊ इल्मो-अदब व गंगा-जमनी तहज़ीब का मरकज़ है। इस शहर में आने वाले हर वीआईपी के दिमाग में यही इ्रंप्रेशन होता है। वो हवाई जहाज से आता है। किसी बढ़िया स्टार होटल में ठहरता है। चमचमाती सड़कों से गुजरता है। काले शीशे वाली आलीशान कार में बैठ कर इमामबाड़ा-भूल भुलैया व रेज़ीडेंसी के दीदार करता है। इतिहास के नाम पर बेशुमार अवैध कब्जों से घिरे ये ओल्ड स्ट्रक्चर इस शहर की शान हैंपहचान हैं। फिर वो बढ़िया दुकानों पर शॉपिंग करता है लज़ीज़ खाना डकारता है। इस दौरान सभी शख्स यानी मेज़बानटैक्सी वालाहोटल के तमाम कारिंदेगाइडदुकानदार वगैरहएक पूर्व नियोजित प्लान के अंतर्गत बड़े कायदे से पेश आते हैं। फिर वो हवाई जहाज पर सवार होकर फुर्र... हो जाता है। मगर जाने से पहले शहर की नफ़ासतसंस्कृतिखूबसूरतीहर खासो-आम की आला इल्मी जानकारी के संबंध में तारीफों के पुल ज़रूर बांधता है। इसकी अज़ीम शान में कसीदे पढ़ता है। शहर की संस्कृति के नाम पर एनजीओ. चलाने वाले अलंबरदार इस बारे में खूब ढोल पीटते हैं।
इस शहर की असलियत तो तब पता चलती जब वो वीआईपी. बरास्ता ट्रेन या बस से शहर में दाखिल कराया गया होता। उत्तर रेलवे के नंबर एक प्लेटफॉर्म को छोड़कर उसे बाकी प्लेटफॉर्म व बस अड्डे गंदगी से पटे मिलते। छुट्टा गाय-भैंस जहां-तहां गोबर लीपतेजुगाली करते मिलते। कुत्ता-बिल्ली लुका-छिपी खेलते दिखते। बाज़ मोहल्लों में अगर बंदे अलर्ट न हो तो बंदर मुंह से निवाला छीन लें। यहां इंसान के भेस में शैतान गली-गली में हैंआपका और आपके सामान का बेड़ा पार लगाने को। हैवान सिर्फ़ रात में ही नहीं दिन में भी शराफत का चोगा धारण किए विचरते फिरते है।