Saturday, February 22, 2014

मधुबाला-नसीब में ‘वो’ न थे!

-वीर विनोद छाबड़ा

हिंदी सिनेमा का इतिहास जब भी खंगाला जायेगा तो एक बात निश्चित है कि खूबसूरत व दिलकश चेहरे और भली सीरत वाली हीराइनों की फेहरिस्त में अव्वल नाम मधुबाला का होगा। और बात जब ट्रेजडी क्वीनों की उठेगी तो भी मधुबाला पहले से दसवें नंबर तक मिलेगी। कितनी बड़ी ट्रेजडी है यह कि पिछली सदी के चौथे व पांचवें दशक में लाखों सिनेमा प्रमियों के दिलों में राज करने वाली इस बलां की खूबसूरत बाला की ज़िंदगी की शुरूआत ट्रेजडी से शुरू हुई और अंत भी ट्रेजडी पर हुआ। उसने तो लाखों के दिलों पर हुकूमत की परंतु उसके दिल पर हुकूमत करने वाला राजकुमार उसके करीब आकर भी उसे नहीं मिल पाया। यह राजकुमार उस दौर के परदे की दुनिया का टेªजडी किंग दिलीप कुमार था। दोनों एक-दूसरे से बेसाख्ता मोहब्बत करते थे। मगर एक ज़िद्द ने इनकी मोहब्बत का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया। नदी के दो किनारे बना दिये। जब भी सिनेमा की दुनिया की नाकाम मोहब्बतों के सच्चे अफ़सानों की दास्तान लिखी जायेगी तो उसमें मधुबाला-दिलीप कुमार का अफ़साना जरूर बयां होगा।


हुआ यों था कि प्रोडयूसर-डायरेक्टर बी.आर.चोपड़ा ने ड्रीम प्रोजेक्ट ‘नया दौर’ के लिये नायक दिलीप कुमार के कहने पर मधुबाला को साईन किया। तब तक मधुबाला से दिलीप की सगाई भी हो चुकी थी। दोनों के दरम्यां इक दूजे के लिये ज़बरदस्त पैशन था। सब ठीक चल रहा था। शादी भी करना चाहते थे। मगर मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान इसकी इज़ाज़त नहीं दे रहे थे। परिवार के प्रति पूर्णतया समर्पित मधुबाला की तरबीयत कुछ इस किस्म से हुई थी कि उसमें अपने पिता की सलाहियत की मुख़ालफ़त करने की हिम्मत नहीं थी। बचपन से ही उसके दिलो-दिमाग में ये बात बैठा दी गयी थी कि उसके बिना परिवार को रोटी तक मयस्सर नहीं होगी। अगर उसने ब्याह रचा लिया तो परिवार सड़क पर होगा। यह सोच कर उसकी रूह कांप उठती थी। उसकी इस भावुक कमजोरी का खूब फायदा उठाते थे अताउल्लाह।



तब मधुबाला महज़ नौ बरस की मासूमा थी, जब अताउल्लाह का पूरा बिजनेस चैपट हुआ था और फिर एक हादसे में घर फुंक गया था। दाने-दाने को मोहताज़ होने की कगार पर पहुंच गया था 13 सदस्यों का परिवार। अताउल्लाह की साख इतनी खराब हो चुकी थी उन्हें कोई काम तक देने के लिये तैयार नहीं था। मधुबाला 11 भाई-बहनों में पांचवें नंबर पर थी। देखने में बेहद दिलकश, चंचल और खूबसूरत। एक हमदर्द की सलाह पर कट्टर परिवार के मुखिया अताउल्लाह मधुबाला को स्टूडियो ले गये। देखते ही दिल में जगह बना लेने की खासियत की वजह से मासूमा मधुबाला को फौरन काम मिल गया। फिल्म थी ‘बसंत’ (1942), जिसमें उसे उस दौर की मशहूर हीरोईन मुमताज शांति की बेटी का किरदार करना था। तब वो मधुबाला नहीं थी बल्कि मुमताज जहां बेगम देहल्वी थी। बड़ी जल्दी बतौर चाईल्ड आर्टिस्ट बेबी मुमताज मशहूर हो गयी। 1944 में ‘ज्वार भाटा’ की शूटिंग के दौरान एक और मशहूर अदाकारा देविका रानी ने उसे मुमताज से मधुबाला बना दिया।


‘ज्वार भाटा’ के सेट पर ही मधुबाला की इसके हीरो दिलीप कुमार से मुलाकात हुई थी। वो दिलीप कुमार को देखते ही मर मिटी। दिलीप उसके दिल के हीरो बन गये। यों मधु उस वक़्त महज 11 बरस की थी। मगर उसे अपने भविष्य का राजकुमार मिल गया था। जैसे-जैसे मधुबाला जवां हो रही थी ये राजकुमार भी उसके दिल में पल रहा था। उसकी रूह का हिस्सा बन रहा था। उसके दिल में उसने एक पुख्ता मकान तैयार कर लिया था। दोनों की अगली मुलाकात कई बरस बाद 1949 में ‘हर सिंगार’ के सेट पर हुई। दिलीप को भी नहीं मालूम था कि वो जिंदगी किस मोड़ पर मधु को कब दिल दे आये थे। यहीं से दोनों की मोब्बतत परवान चढ़नी शुरू हुई। बदकिस्मती से ये फिल्म दो-तीन रील से आगे नहीं बढ़ पायी। मगर मधु-दिलीप के रोमांस की फिल्म बड़ी मजबूती से कदम-कदम बढ़ती जा रही थी। 1952 में ‘तराना’ को इनकी परफेक्ट लव कमेस्ट्री ने खासी कामयाबी दिलायी। फिर महबूब की ‘अमर’ (1954) की कामयाबी की वजह भी यही जोड़ी बनी।





मगर हैरान करने वाली बात ये थी कि इस मोहब्बत में सिर से पैर तक डूबी इस जोडी की लव कैमेस्ट्री का फायदा चाहते हुये तमाम फिल्मकार नहीं उठा पाये। इसकी वजह मधुबाला के पिता अतालुल्लाह खान को ही बताया गया। वो हर सूरत में मधु को दिलीप कुमार से दूर रखना चाहते थे। क्याकि वही एक ऐसा शख्स था जो मधु नाम की चिड़िया को उसके पिंजड़े से आज़ाद करने का माद्दा रखता था और मधु भी उस बहुत यकीन रखती थी। इसी बीच दिलीप के कहने पर के.आसिफ ने ‘मुगल-ए-आज़म’ की अनारकली के लिये मधु को साईन कर लिया। एतिहासिक बैकग्राउंड पर बनने जा रहे इस शाहकार की अनारकली के किरदार को हासिल करने के लिये तमाम टेलेंटेड हीरोईनें किसी न किसी तरीके से आसिफ को घेरने में जुटी रहती थीं। मगर बाज़ी जब मधु के हाथ लगी तो कहा गया कि अगर दिलीप न होते तो मधु की जगह बनती नहीं है। अब अताउल्लाह ज्यादा चैकन्ने रहने लगे क्योंकि ‘मुगल-ए-आज़म’ बेहद धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी। परिवार पर खुद को न्यौछावर कर चुकी मधु पर अताउल्लाह को तो यकीन था कि मगर दिलीप कुमार पर नहीं। उन्हें शक था कि मोहब्बत करने में माहिर दिलीप उनकी भोली-भाली बेटी को कहीं बहका न ले। चिड़िया फुर्र से उड़ ना जाये। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हाथ से निकल न जाये।


इसी दौरान दिलीप के कहने पर बी.आर.चोपड़ा ने ‘नया दौर’ के लिये मधुबाला को साईन किया। दरअसल दिलीप कुमार चाहते थे कि मधुबाला किसी न किसी वजह से उनके करीब रहे और साथ ही मजबूत किरदारों को अदा करके अपने उस टेलेंट से दुनिया को रूबरू कराये जिस पर उसकी खूबसूरती की वजह से कोई ध्यान नहिं देता था। सब उसके हुस्न के दीवाने थे। बहरहराल, सब ठीक चल रहा था कि अचानक अताउल्लाह को विस्फोट करने का एक मौका मिल गया। हुआ ये कि ‘नया दौर’ की आउटडोर पर ग्वालियर जाने का शेडयूल तैयार हुआ। मधुबाला ने अताउल्लाह के कहने पर ग्वालियर जाने से मना कर दिया। बहाना ये बनाया गया कि आउटडोर में भीड़ के उपद्रव के कारण मधुबाला की जान को खतरा हो सकता है। जबकि असली वजह तो अताल्लाह खान का वही पुराना डर था कि मधु घर से इतनी दूर शूट करते-करते दिलीप के इतने करीब ना आ जाए कि पविार से दूर हो जाये। अताउल्लाह ने बंबई के आस-पास की कई लोकेशन सुझायीं। मगर बात बनी नहीं। चोपड़ा अड़े रहेे। दरअसल सारी तैयारियों मुक्कमल हो चुकी थी। इनमें बदलाव का मतलब था कि दोबारा शेड्यूल बनाना। वक़्त और पैसे की बरबादी अलग से। अताउल्लाह इसमें दिलीप का हाथ देख रहे थे।


चोपड़ा बड़े फिल्म मेकर थे। उन्हें इंकार करना या उनके काम में दखलंदाजी के मायने से निकले नतीजे उस बंदे के लिये खराब हो सकते थे। मगर उन्होंने सब्र से काम लिया और उस कान्ट्रेक्ट का हवाला दिया, जिसे मधुबाला ने साईन किया था और जिसमें साफ-साफ लिखा था कि मधु पर प्रोडयूसर की मर्जी की आउटडोर लाकेशन पर जाना लाज़िम होगा। मगर अताउल्लाह नहीं माने और मधुबाला चाह कर भी अब्बू की मुख़ालफ़त नहीं कर सकी। विवाद बढ़ता गया। इस सारे विवाद में हर कदम पर दिलीप कुमार बी.आर.चोपड़ा के साथ खड़े दिखे। मधु को ये अच्छा नहीं लगा। हालांकि उसे बखूबी मालूम था कि दिलीप उनके अब्बू को पसंद नहीं करते हैं। मगर नाक का बाल बन चुके इस मसले में उन्हें दिलीप का चोपड़ा का साथ देना नागवार गुज़रा। विवाद गहराता ही जा रहा था। और कोई नतीजा निकलने की सूरत भी नहीं दिख रही थी। ऐसे में बी.आर.चोपड़ा का सब्र जवाब दे गया और उन्होंने आखिरी हथियार के तौर पर वो कदम उठा लिया जिसे ऐसे मौकों पर एक प्रोड्यूसर उठाता है। मधुबाला को फिल्म से निकाल दिया और उसकी जगह वैजयंती माला आ गयी। मधु और अताउल्लाह खान को ये बेइज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं हुई। मामला अदालत में पहंुच गया। भरी अदालत में बतौर गवाह खड़े दिलीप कुमार ने कबूला कि वो मधुबाला से बेइंतहा मोहब्बत करते है। बस यहीं से दिलीप कुमार-मधुबाला की मोहब्बत पर मट्ठा पड़ गया। मधु को लगा कि मोहब्बत सरे आम रुसवा की गई है। अदालत का फैसला बी.आर. चोपड़ा के हक़ में गया।


अपनी इस हार के बावजूद शायद अताउल्लाह अंदर ही अंदर बेहद खुश थे। उन्हें आखिर दिलीप कुमार से छुटकारा जो मिल रहा था। मगर दिल की बहुत गहराईयों में बसी मोहब्बत इतनी आसानी से दम नहीं तोड़ती। अब भी दोनों दिलो-जान से फिदा थे इक-दूजे पर। बस रिश्तों पर बर्फ़ की परत जम गयी थी, जिसके पिघलते ही सब ठीक हो जाना था। इंतज़ार तो सिर्फ़ वक़्त के थोड़ा सा गुज़र जाने का था, जो ज़ख्मों को भरने का रामबाण ईलाज था। मधु को यह बात रह-रह कर शूल की तरह चुभ रही थी- ‘आपकी चाहत यहां थी। मोब्हबत यहां थी। फिर आपने ऐसा क्यों किया? चोपड़ा साहब का साथ दे दिया।’ वक़्त गुज़र रहा था। मगर बर्फ पिघलने का नाम नहीं ले रही थी। आखिरकार मधु ने पहल की। पैग़ाम भेजा। वो शादी करना चाहती थी। बस दिलीप एक बार यहां आ जायें। अब्बू के गले लग जायें और ‘साॅरी’ कह दें। सारे गिले-शिकवे जाते रहेंगे। दिलीप तैयार थे शादी के लिये। मगर साॅरी के लिये नहीं। हरगिज़, हरगिज़ नहीं। वो चाहते कि मधु अपने अब्बू को छोड़ कर चली आये। इसके लिये मधु तैयार नहीं थी। बस मामला यहां फंस गया और पेचीदा होता ही चला गया।


दोनों के अहम की ज़िद्द ने फुटबाल की शक्ल अख्तियार कर ली थी। इसी को लेकर मुद्दतें गुज़रने लगीं। मधु और दिलीप अपने-अपने कैरीयर में मसरूफ़ हो गये। और अपने अहम के साथ जीने लगे। ऐसा लगा कि उनका ये अहम ही उनकी ताकत बन चुका है। इस दौरान ‘मुगल-ए-आज़म’ भी बनती रही। दोनों सेट पर मिलते। ऊपरी तौर पर दोनों जुदा-जुदा दिखते थे। मगर लव सीन में उनकी कमेस्ट्री से कुछ दूसरी ही कहानी बयां होती थी। उनके अहम की अकड़ दिलों को जुदा करने में नाकाम रही थी। इक दूजे के लिये ही बने थे वो। इसी दौरान वो मशहूर एतिहासिक लव सीन भी फिल्माया गया जिसमें शहजादे दिलीप कुमार को एक परिंदे के पंख से अनारकली मधुबाला को प्यार करते हुए दिखाया गया है। बिना एक लफ़्ज बोले इतना पुरअसर लव सीन दोबारा क्रियेट नहीं किया जा सका है। इस फिल्म में मधुबाला ने अपनी खूबसूरती के अलावा अनारकली के किरदार में जान फूंकने के लिये अपनी पूरी कूवत भर का टेलेंट उड़ेल दिया। ‘प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप के आहें भरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या...’ और ‘मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये...’ इन गानों में मधुबाला दिलीप कुमार को दिलीप कुमार से कहीं ज्यादा प्यार करती हुई दिखती है। सन 1960 में रिलीज़ हुई ‘मुगल-ए-आज़म’ सुपर-डुपर हिट हुई थी, जिसका रेकार्ड 1975 में ‘शोले’ ने आकर तोड़ा था।


इंतज़ार की भी हद होती है। मधुबाला थक गयी थी। दिलीप-वैजयंतीमाला के रोमांस की अफवाहें गश्त करतीं मधु के कानों तक भी पहुंची। तबीयत भी नासाज़ रहने लगी। बहुत पहले 1954 में वासन की ‘बहुत दिन हुए’ की शूटिंग के दौरान मद्रास में मधु को खून की उल्टी हो चुकी थी। तब मधु को लंबे आराम और मुकम्मल चेक-अप की सलाह दी गयी थी। मगर मधु ने परवाह नहीं की थी। ‘मुगल-ए-आज़म’ की शूटिंग के दौरान भी मधु की तबीयत कई बार बिगड़ी थी। खासतौर पर उन सीन में जिसमें मधु को भारी-भारी लोहे की जंजीरों में जकड़ा हुआ दिखाया गया था। मगर सीन में जान फूंकने की गरज़ से मधु ने सब बर्दाश्त किया। अब उसके लिये एक-एक पल भारी हो चला था। शायद वो दिलीप से रिश्तों से निजात पाना चाहती थी, जो उसे अंदर ही अंदर खाये जा रहे थे। उसने आखि़री फ़ैसला किया। किशोर कुमार से शादी कर ली। किशोर के साथ मधु ने चलती का नाम गाड़ी, झुमरू, हाॅफ टिकट आदि कई हिट फिल्में की थीं। मगर इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि वो किशोर को ठीक से समझती थी। मोहब्बत तो नहीं ही थी। दरअसल किशोर से शादी करके वो दिलीप कुमार को एक तरह से मैसेज देना चाहती थी कि वो अपने फ़ैसले खुद कर सकती है। वो खुदमुख़्तियार है। पूरी तरह से आज़ाद है। बहरहाल, मधु को नहीं मालुम था कि किशोर उसे चाहते भी है या नहीं, और अगर चाहते हैं भी हैं तो कितना। दरअसल यह किशोर की दूसरी शादी थी।


इस शादी से अताउल्लाह खान खुश नहीं थे। मगर उनके पास इस रिश्ते को कुबूल करने के सिवा दूसरा रास्ता भी नहीं था। शायद उन्हें डर था कि कहीं मधु विद्रोह न कर दे। डिप्रेशन में न चली जाये। फिर तबीयत और भी ज्यादा बिगड़ने का खतरा था। किशोर को भी मधु की बीमारी का जानकारी थी। मगर इसकी गंभीरता का ज्ञान उन्हें भी नहीं था। मर्ज़ बढ़ता देख किशोर मधु को चेक-अप के लिये लंदन ले गये। वहां दिल दहलाने वाली ख़बर मिली। डाक्टरों ने बताया कि मधु के दिल में एक बड़ा सुराख है और बाकी जिंदगी दो-तीन साल है। अब मधु के नसीब में सिर्फ़ मौत का इंतज़ार करना बदा था। किशोर के पास काम से फुर्सत नहीं थी कि हर वक़्त मधु से चिपका रहे। और ऐसे ही मुकाम पर मधु को उस प्रेमी की श्द्दित से ज़रूरत थी जो उससे उससे से ज्यादा भी बेपनाह मोहब्बत करता हो। वो दिलीप कुमार ही थे। मगर अब बहुत देर हो चुकी थी।


मधु मायके आ गयी। किशोर इलाज का खर्च उठाते रहे। महीने दो महीने में एक-आध बार आकर मिल भी लेते। इसी दरम्यान 44 साल के दिलीप कुमार ने अपने से आधी उम्र की सायरा बानो से ब्याह रचा लिया। मधु ने सुना तो उदास हो गयी। यकीनन वो कतई खुश नहीं हो सकती थी। जो शख्स उसके नसीब में होना में चाहिये था वो किसी और के आगोश में चला गया था। काश उसने दिलीप से साॅरी कहलवाने की जिद्द न पकड़ी होती। या काश दिलीप ही मान जाते और छोटा सा सॅारी बोल देते। सारी कायनात बदल जाती। शहनाईयां बज उठतीं। घर के गोशे-गोशे में खुशियां झूम-झूम कर नाच उठतीं। हो सकता था कि मधुबाला की बीमारी चली जाती या दब जाती। या जिंदगी लंबी हो जाती। मौत इतनी लंबी और बेरहम न होती। अब किसे कसूरवार ठहराया जाये? खुद को। या दूसरे को। या दोनों को। या फिर फूटे नसीब को। या शायद किसी को भी नहीं। शायद नियति को ही मंज़ूर नही था दोनों का एक होना। लैला-मजनू एक नहीं हो पाये। शीरीं-फरहाद और सोहनी-महिवाल भी नहीं।


आखिरकार 23 फरवरी, 1969 को नरक सामान इस जिंदगी से मधुबाला छुटकारा पा गयी। मधु की ख्वाहिश के मुताबिक उसके जिस्म के साथ-साथ उसकी उस पर्सनल डायरी को भी उसके साथ दफ़न कर दिया गया जिसमें उसने उस शख्स का ज़िक्ऱ ज़रूर बार-बार किया होगा जिसे उसने दिल की गहराईयों से बेपनाह मोहब्बत की, जाने कितनी रातें तड़प-तड़प कर जागते हुए उसकी याद में गुज़ारीं। जिसका विछोह और बेवफ़ाई वो बर्दाश्त नहीं कर पायी और खुद को तकलीफ़ देती रही। उस शख्स की सलामती की दुआयें करती रही होगी जो ये नही समझ पाया कि आखिर अपने प्यारे अब्बू और उनके उस परिवार को वो कैसे हमेशा के लिये छोड़कर परायी हो जाती जो सिर्फ उसी की कमायी पर जिंदा था। उन्हें किनके सहारे छोड़ देती। मधु ने इनको कैसे और किन लफ़्जों में बयां किया होगा? इसे कोई नहीं जान पायेगा। सब मिट्टी हो गया मधु के जिस्म के साथ ही। फ़ना हो गया। इतने दिलकश और खूबसूरत जिस्म की मल्लिका का भरी जवानी में चले जाना यकीनन बड़ा दर्दनाक है। उसके लाखों चाहने वालों ने कैसे झेला होगा इस हादसे को? वो इसलिये भी चली गयी कि शायद नियति को भी मंजूर नहीं रहा होगा कि वो कभी बूढ़ी हो और उसे इस रूप में देख कर उसके चाहने वालोें के दिल टूटें।

दिलीप कुमार उस दिन शूट पर बंबई से बाहर थे। अपनी जान से भी ज्यादा उन्हें चाहने वाली मधुबाला की कब्र पर सिर्फ फूल ही चढ़ा सके। उस दिन उन्होंने भी ज़रूर सोचा होगा कि काश वो ही दो कदम आग बढ लेते। सिर्फ ‘साॅरी’ ही तो बोलना था। ज़ुबां तो नहीं घिस जाती! मधु इतनी तकलीफ में तो न बिदा लेती! ये नामुराद दिल भी बड़ी अजीब शै है। नाजुक इतना कि ज़रा-ज़रा सी बात पर टूट जाये और ज़िद्दी इतना कि पत्थर से भी कहीं ज्यादा सख्त हो जाये।

मधुबाला ने तकरीबन 70 फिल्मों में काम किया। इसमें से सिर्फ 15 ही हिट थी। ज्यादा-ज्यादा से फिल्में साईन करके परिवार के लिये ढेर सारा पैसा कमाना ही उसका एकमात्र मकसद होता था। इसलिये वो कैसी भी फिल्म हो, फौरन करने के लिये तैयार रहती थी। हालांकि उसमें टेलेंट की कोई कमी नहीं थी। मुगले आज़म, हावड़ा ब्रिज, चलती का नाम गाड़ी, मिस्टर एंड मिसेज़ 55, जाली नोट, महल, तराना आदि फिल्में इस सच को पुख्ता करती हैं। अपने दौर के तमाम मशहूर अदाकारों के साथ काम किया। मसलन दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, गुरूदत्त, प्रदीप कुमार, अशोक कुमार, किशोर कुमार, जयराज, भारत भूषण, सुनील दत्त, रहमान, शम्मीकपूर आदि। एक मशहूर पत्रकार ने उसके बारे में कहा था कि मधु की खूबसूरती के सामने उसके टेलेंट को कभी इज़्ज़त नहीं मिली। हालीवुड के मशहूर फिल्मकार फ्रेंक कोपरा ने भी मधुबाला की खूबसूरती पर फ़िदा होकर दिलचस्पी दिखायी। परंतु पिता ने इतनी दूर भेजने से मना कर दिया। अमेरिका की मशहूर पत्रिका ‘थियेटर आर्टस’ ने अपने अगस्त, 1952 के अंक में मधुबाला को खास जगह देकर सारे बालीवुड को सन्न कर दिया था। इससे पहले किसी भारतीय हीरोइन को विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ने सिर आंखों पर नही बैठाया था।


‘भारतीय सिनेमा की वीनस’ कही गयी मधुबाला कब्र में जाने के बाद भी त्रासदी की शिकार रही। सन 2010 में उसकी कब्र को ध्वस्त कर दिया गया, इस वजह से कि उसूलन कब्र पलटी जानी ज़रूरी थी ताकि उस जगह कोई दूसरा लेट सके। इस तरह ‘खूबसूरती का पर्याय’ मधुबाला के जिस्म का अब ज़र्रा भी वहां अब मौजूद नहीं है जहां उसे दफ़न किया गया था। बस फिज़ा में उसके होने का अहसास भर बाकी है।

-वीर विनोद छाबड़ा














1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अमीर गरीब... ब्लॉग-बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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