पोलीथीन को पर्यावरण तथा ज़िंदगी के लिये ज़हर मान चुके हमारे एक अज़ीज़
मित्र उस दिन अख़बार में ये ख़बर पढ़ कर बेहद खुश थे कि लखनऊ शहर की एक बड़ी मार्किट
के व्यापारियों ने तय किया है कि वे आइंदा पोलीथीन बैग्स का इस्तेमाल नहीं करेंगे।
इलावा इसके एक समाजसेवी संस्था ने भूतनाथ मार्किट को पोलीथीन-मुक्त करने की मुहिम के
अंतर्गत मुफ़्त झोले व लिफा़फे़ बांटे। इत्तिफ़ाक़ से मित्र उस वक़्त वहीं मौजूद थे। इससे
पहले इतना खुश तब हुए थे जब कुछ साल पहले सरकार ने पोलीथीन बैग्स पर पाबंदी का ऐलान
किया था।
उनको वो ज़माना याद आया जब पोलीथीन बैग्स का किसी ने नाम तक नहीं सुना
था। हर सामान काग़ज़ से बने लिफ़ाफ़ों में पैक हो कर मिलता था। चूंकि भारी और ज्यादा सामान
का बोझ काग़ज़ी लिफ़ाफे़ बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण जल्दी फट जाते थे इसलिये इन लिफ़ाफ़ों
को एक बड़े कपड़े के थैले में रख दिया जाता था। सब्ज़ी-तरकारी आदि की खरीद के वक़्त पहले
आलू-प्याज़ जैसी सख़्त जान वाले आईटम थैले में सबसे पहले रखे जाता थे और बाद में मुलायम
आईटम का नंबर आता था। सबसे ऊपर लाल-लाल टमाटर और हरी धनिया को जगह मिलती थी।
मगर अस्सी के दशक की शुरूआत होते ही पोलीथीन की इंट्री ने काग़ज़ के लिफ़ाफ़ों
और कपड़े के थैलों को ही नहीं बल्कि इसके इस्तेमाल करने वालों को भी आऊटडेटेड बना दिया।
दूध-दही-मट्ठा, रसगुल्ला और यहां तक कि चाय तक पालीथीन में पैक होने लगी। बड़े साईज़ के
पालीथीन बैग्स ने तो कपड़े के थैलों का भट्टा बैठा दिया। मगर मित्र डटे रहे कि खाद्य
सामग्री प्रदूषित होगी ही, छुट्टा जानवर व परिंदे भी बेमौत मरेंगे, अस्तित्व खतरे में
पड़ जायेगा। पर्यावरण असंतुfलत होगा। उन्हें मालूम था कि पोलीथीन कभी नहीं मरता। रीसाईकिल
होकर जिंदगी में बार-बार दख़ल देगा।
मित्र की इस सोच को दकियानूसी करार देने में परिवार अव्वल था। मित्रों
व समाज ने उन्हें पुरातनपंथी, झक्की, सनकी, खड़ूस जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत किया।
जहां-तहां मज़ाक के पात्र बने। मगर उपयोगी रीति-रिवाजों व कायदे-कानूनों से चिपके रहने
की आदत से मजबूर मित्र ने पुरानी पतलूनों को काट-छांट कर बनाये गये थैलों का मोह अपने
उसूलों के नाम पर नहीं छोड़ा था। नतीजतन थैला उनकी पहचान बन गया। थैला और दकियानूस एक-दूसरे
के पर्याय बन गये। हर थैले वाले को इसी नज़र से देखा जाने लगा।
मगर कयामत तक थैले का साथ न छोड़ने का प्रण कर चुके मित्र उस दिन बेहद
डर गये थे, जब आईने में उन्होंने एक फटे-पुराने थैलेनुमा खड़ूस शख़्स की शक़्ल देखी।
अगला क़दम उन्हें खुदकुशी की कगार तक ले जाता। मगर शुक्र है कि अब सरकार की पालीथीन
पर पाबंदी के नतीजतन पर्यावरण पसंद अनेक संजीदा व्यापारियों की मेहरबानी से जूट के
थैले बाज़ार में दिखने लगे। बाज़ार में बड़ी मात्रा में जूट व मज़बूत काग़ज़ से बने बड़े-बड़े
डिज़ाईनर थैले उतरने लगे। मि़त्र को मानों जिंदगी वापस मिल गयी। अब ये बात दीगर है
कि पालीथीन बैग्स का इस्तेमाल अब भी बड़ी तादाद में हर सूबे के गली-कूचे में बदस्तूर
जारी है।
इधर पालीथीन बैग्स के विरूद्ध जागरूकता के ताज़ा अभियान से मित्र बेहद
खुश हैं। वो पालीथीन युग के समूचे विनाश तथा लिफाफा युग की पूर्ण वापसी की आहट साफ-साफ
सुन पा रहे हैं। बाज़ार में कागज के लिफाफे-थैले बनाने की मशीन भी आ गयी है। खुश होने
का फिर मौका मिला है। उन्हें पक्का यकीन है कि ये मुहिम आग की तरह समूचे देश में फैलेगी।
राशन व सब्जियां पहले की तरह फिर से थैलों-लिफ़ाफ़ों में मिलेंगे। काग़ज़ के हैंडमेड लिफ़ाफ़़ों
की डिमांड बढे़गी जिससे कई निठल्लों को रोज़गार का मौका मिलेगा और मित्र भी नाकाफ़ी पेंशन
से पैदा बदहाली को लिफाफे बना कर दूर करेगा।
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लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद व गोरखपुर से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स
दिनांक 17.02.2014 के उलटबांसी स्तंभ में प्रकाशित लेख का विस्तारित रूप।
-वीर विनोद छाबड़ा
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