Tuesday, February 11, 2014

झोलाछाप लेखक-एक विलुप्त प्रजाति!

-वीर विनोद छाबड़ा

झोलाछाप डाक्टरों के बारे में किसने नहीं सुना! दूर-दराज़ कस्बों-गांवों में बैठे मरीज़ जिन्हें सरकारी अस्पताल में डाक्टर के दर्शन होने नसीब नहीं होते। कब आता है? चला जाता है, पता ही नहीं चलता। ऐसे आड़े वक़्त यही झोलाछाप काम आते हैं। और मजे की बात यह कि पलक झपकते मर्ज पहचान कर सस्ते-मद्दे में ठीक भी कर देते है। बंदे के ज़माने में भी झोलाछाप डाक्टरों की भरमार थी। इसी की तरह हमारे ज़माने में झोलाछाप लेखक भी होता था। इनके झोले में हर विषय पर लेख, कविता, परिचर्चा, रपट, कहानी आदि मैटीरीयल प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता था। अक्सर स्थानीय अखबारों के संपादकीय कार्यालयों में या उनके आस-पास बने ढाबों में इनके दर्शन सुलभ होते थे।




बड़ा लेखक अपने बड़े कद के हिसाब से मोटी रक़म तो वसूलता था और साथ ही मूड बनने पर ही लिखता था। बिज़ी न होने पर भी बिज़ी दिखता होता था। वो संपादक की इस ज़रूरत को अक्सर पूरा नहीं कर सकता था कि तड़ से बोला और तड़ से लिख डाला। ऐसे आड़े वक़्त में झोलाछाप ही सहारा बनता था जो आस-पास ही किसी सस्ती चाय के ढाबे में बैठा संपादक के बुलावे का इंतज़ार करता होता था। उसके होने से ये फायदा तो था ही कि जैसा चाहो फौरन हाज़िर हो जाता था और दूसरा ये था कि बेहद मामूली रक़म में भी उसको संतोष हो जाता था। दरअसल उसके लिये बड़े अखबार में छपना ही बड़ी पूंजी होती थी जिसके बूते पर उसकी भविष्य की पतंग आसमान चढ़नी होती थी। लिखता भी वो बड़े मन से और खासी खोजबीन करने के बाद था। यही वज़ह थी कि झोलाछाप लेखक की ज़िंदगी में आमतौर पर मुफ़लिसी का राज काविज़ रहता था।
झोलाछाप लेखक की एक अमीर यानि सुविधा-संपन्न क्लास भी थी। ये किसी बड़ी प्राईवेट कंपनी में ऊंचे ओहदेदार या सरकारी नौकर हुआ करते थे। मुफ़लिस झोलाछाप लेखकों की तुलना में इनमें छपास भी कुछ ज्यादा ही होती थी। इनके कंधों पर परंपरागत झोले नहीं टंगे दिखते थे बल्कि हाथों में ब्रीफ़केस होता था। स्कूटर से तमाम अख़बारों की परिक्रमा आनन-फ़ानन में कर डालते थे। दिखने में भी खासे स्मार्ट होते थे। इसी वजह से बाज़ फीचर संपादक भी इन्हें ज्यादा भाव देते थे। बेचारे मुफ़लिस झोलाछाप बड़ी कातर दृष्टि से इन्हें आते-जाते देखा करते थे। एक-दूसरे से ज्यादा छपने की ज़बरदस्त होड़ लगी रहती थी। इनकी होड़बाजी के चरम से कई बार संपादकगण भी झल्ला जाते थे। इससे निजात पाने के लिये कुछ ने तो बकायदा छपने की अधिकतम सीमा तय कर दी थी। हरेक झोलाछाप एलर्ट रहता था कि दूसरे झोलाछाप को खबर नहीं होने पाये कि किस विषय पर लिखा है? और आगे किस विषय पर लिखना है?
फी़चर्स संपादकों को अक्सर पर्याप्त मात्रा में छपने में विफल झोलाछापों के इस आक्रमण का सामना भी करना पड़ता था कि वे अपने प्रिय झोलाछापों को बाकायदा ठेका देते हैं। इसकी वजह दरअसल ये थी कि ये कथित ‘प्रिय झोलाछाप’ वक़्त पर बड़ी पैनी नज़र रखते थे और साथ ही संपादक के मन को भी वे पल भर में पढ़ने में माहिर थे। बाकी ज्यादातर सपनों की दुनिया में विचरते थे। यदि संपादक कोई विषय सुझाता था तो कोई-कोई दबाव में आ जाता था। यों ये लिखते तो अच्छा थे और खूब लिखते भी थे मगर कथित प्रिय झोलाछापों के मुकाबले ससमय बज़र का बटन दबाने से चूक जाते थे। तब ये भाई लोग मजबूरन अपनी छपास कम प्रसार संख्या वाले दैनिक, साप्ताहिक या पाक्षिक टेबुलाईडों में छप कर बुझाते थे और इसके प्रचार में दिन-रात एक कर देते थे। इससे अख़बार को भी मुफ़्त प्रचार का लाभ मिलता था।
बंदा भी कभी लिखता था। महीने में छह-सात की मध्यम औसत थी छपने की। बंदा सुविधा-संपन्न की श्रेणी था। उसे देख कर दूसरों के चेहरों पर कभी-कभी आयी व्यंग्यात्मक मुस्कान देख कर उसे लगता था कि पीठ पीछे उसे भी शायद झोलाछाप कहा जाता होगा, जबकि बंदे का क्षेत्र सिनेमा व क्रिकेट तक सीमित था। लिखने वाले ज्यादा नहीं थे। मगर फिर भी घोर प्रतिद्वंदिता से सामना होता था।

समय एक जैसा कभी रहता। शहर से निकलने वाले कई अख़बार आर्थिक तथा नामालूम वजहों से एक के बाद एक बंद होने लगे। कई नामी अखबारों की प्रसार संख्या हज़ारों से गिर कर कुछ सौ तक सिमट गयी। एक-आध ही नया अख़बार आया। स्थिति एक अनार सौ बीमार की जैसी हो गयी। झोलाछापों में प्रतिद्वंदिता इतनी घनघोर हो गयी कि धड़ाधड़ विकेट गिरने लगे। ‘सरवाईवल आफ फ़िटेस्ट’ का सिद्धांत लागू हो गया।

इस बीच तमाम नामी अखबारों के नये मालिकान इंग्लैंड-अमरीका से तालीम हासिल करके आ बैठे। इधर इलेट्रानिक मीडिया से सीधी टक्कर शुरू हो चुकी थी जो ज्ल्दी ही भीषण हो गयी। इन हालातों में उनकी सोच में बड़ा बदलाव दिखना लाज़िमी था। इसका असर नीचे संपादकों पर भी आया। फोटो बड़े होने लगे और लेख छोटे। बहुतेरे इस बदलाव से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाये। उनकी समझ में ये नही आ रहा था कि अहम शख़्सियत या विषय को ‘छह गुणा तीन इंच’ के छोटे से फ़ोटो फ्ऱेम में कैसे समेटा जा सकता है? अख़बारों के मल्टीसिटी एडीशन की वजह से तमाम अखबारों के फ़ीचर्स पेज दिल्ली या नोयडा में छपने लगे। बड़े-बड़े ‘फीचर्स एंड न्यूज़ सिडींकेटों’ से पैकेज डील हो गयी। ऐसे में स्थानीय झोलाछाप लेखकों की तमाम छोटी-बड़ी गुमटियां-दुकानें बंद होनी लाज़िमी थीं। बंदे को भी अपने लेखन की शहादत इन्हीं वजहों से देनी पड़ी। बंदे के पलायन की दूसरी वजह ये भी थी कि उसे ये कतई मंजूर नहीं था कि लिखने से पहले फ़ीचर्स संपादक से डिस्कस कर ले या उनसे पूछ कर लिखे। उसे अपना वो लेखन मंज़ूर था जिसे उसने खुद से लिखा हो। दूसरे के कहने पर लिखे को उसने कभी जायज़ औलाद का दरजा नहीं दिया।

बहरहाल बंदे ने कलम बंद करके दराज़ में बतौर यादगार रख ली। इसी तरह कई दूसरे भी वक़्त के बदलाव की इस आंधी में उड़ गये। वक़्त पंख लगा कर उड़ चला। बीच-बीच में बंदे को दूसरों का लिखा पढ़ कर ये अहसास ज़रूर सालता रहा कि वो अब एक स्थायी याद बन चला है। मगर एक दिन बंदे को मजबूरन यादों की बारह साल पुरानी धूल की मोटी परतें झाड़ कर खुद की बनायी कब्र को फाड़ कर बाहर निकलना पड़ा। हुआ यों कि जुलाई 2012 में मशहूर कलाकार राजेश खन्ना इतिहास का वर्क़ बन गये। इसी के साथ बंदे को किशोरावस्था के वो चंद पल, लम्हें याद आ गये जो उसने युवा राजेश के साथ बंबई की फेमज़ सिने लैब में ‘राज़’ के ट्रायल शो के दौरान बिताये थे। बंदा रोक न सका खुद को। बारह साल से बंद कलम फिर खोली। स्याही अभी पूरी तरह से सूखी नहीं थी। ‘लेबर पेन’ समान अथाह वेदना से गुज़र कर उसन राजेेश के साथ बिताये उन सुखद पलों को कलमबद्ध किया और उस याद को तमाम पाठकों से साझा करने की गरज़ से हिन्दुस्तान, लखनऊ के कार्यकारी संपादक नवीन जोशी के हवाले किया। वो बंदे के पुराने दौर के लेखन से परिचित थे। लिहाज़ा छपने में दिक्कत नहीं हुई।

दूसरे दिन जब बंदे का लिखा छपा तो उसे तमाम पुराने मित्रों से संदेश मिले। बंदे को महसूस हुआ कि स्थायी रूप से याद बन जाने का वक़्त अभी नहीं आया है। उसने प्रण किया कि वो दुनिया से बेआवाज़ कूच नहीं करेगा। गाड़ी फिर से चली।   मगर मंथर गति से चली रही। बंदा यह कछुआ चाल बर्दाश्त नहीं पा रहा था। दरअसल वो उड़ना चाहता था। पिछले बारह साल में कलम बंद रहने के दौरान उसने बहुत कुछ खोया था। वो उन पलों का पकड़ना चाह रहा था। एक सच ये भी था कि ज़माना बहुत बदल चुका था। सब कुछ हाईटेक व आनलाईन हो चुका था। सारे अख़बारों के फ़ीचर पेज अब दिल्ली या नोयडा में तैयार हो रहे थे। बंदा तो अभी उसी पुराने ज़माने की स्टाईल पर चल रहा था। हाथ से ही लिख कर काम चला रहा था।

ऐसे पुरातनपंथी माहौल में से बंदे को बाहर निकालने के लिये दिल्ली प्रस्थान कर गये बंदे के मित्र प्रमोद जोशी देवदूत बन कर आ गये। उन्होंने बंदे को उड़ने के लिये ज़रूरी पंख दिये। पड़ोसी मित्र खुर्शीद अहमद की मदद से वो साईबर की एक ऐसी दुनिया में पहुंच गया जहां लेखक के हाथ में क़लम-दवात नहीं थी। कम्प्यूटर और माऊस था। लेखक अब झोलाछाप नहीं रहा था। सूचना क्रांति की इस दुनिया में वो आनलाईन था। नये लेखकों की बहुत बड़ी फ़ौज जन्म ले चुकी थी। अब वो स्थानीय अखबारों तक महदूद नहीं था। विश्वव्यापी हो चुका था। पल भर में उनके लेख देश क्या दुनिया के दूर-दराज़ के इलाकों से निकलने वाले अख़बारों-रिसालों तक बारास्ता ई-मेल पहंुच जाते थे और खूब छपते भी थे।

बंदे को ये देखकर और भी हैरानी हुई कि अपने ज़माने के जिस झोलाछाप लेखक की प्रजाति को वो डायनासौर की भांति विलुप्त मानकर पीछे छोड़ आया था वे सब जिंदा हैं। बस सूरतें बदलीं हैं। उनमें से कई अपनी छपास की भड़ास फ़ेस बुक पर अपने ख़्यालातों के ज़रिये निकाल रहे हंै। कुछ अपने ब्लागों को भी भर रहे थे। कईयों की वेबसाईट्स भी चल रही थीं। ट्विट पर ट्विट चल रहे हैं। मानों कोई ‘स्टार वार’ चल रही हो। बंदा भी इस स्टार वार में यह सोच कर शामिल हो गया है कि आग़ाज़ तो मज़ेदार दिखता है, अब अंजाम खुदा जाने। परंतु एक समस्या भी उसने देखी कि लेखक को ख़बर किये बिना उसके लेख डाऊनलोड करके दूसरे नामों से छप रहे हैं। एक और दुखद पहलू यह भी पाया ज्यादातर लेखक कल भी मुफ़लिस था और आज भी है। वो सोच रहा है कि मुफ़लिसी शायद उसकी स्थायी नियति बन चुकी है!
---

लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, गोरखरपुर व इलाहाबाद से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स में दिनांक 11.2.2014 को प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप।

No comments:

Post a Comment