Saturday, February 1, 2014

मुस्कुराने को कुछ भी नहीं है यहां!




-वीर विनोद छाबड़ा
सूबे की राजधानी लखनऊ इल्मो-अदब व गंगा-जमनी तहज़ीब का मरकज़ है। इस शहर में आने वाले हर वीआईपी के दिमाग में यही इ्रंप्रेशन होता है। वो हवाई जहाज से आता है। किसी बढ़िया स्टार होटल में ठहरता है। चमचमाती सड़कों से गुजरता है। काले शीशे वाली आलीशान कार में बैठ कर इमामबाड़ा-भूल भुलैया व रेज़ीडेंसी के दीदार करता है। इतिहास के नाम पर बेशुमार अवैध कब्जों से घिरे ये ओल्ड स्ट्रक्चर इस शहर की शान हैंपहचान हैं। फिर वो बढ़िया दुकानों पर शॉपिंग करता है लज़ीज़ खाना डकारता है। इस दौरान सभी शख्स यानी मेज़बानटैक्सी वालाहोटल के तमाम कारिंदेगाइडदुकानदार वगैरहएक पूर्व नियोजित प्लान के अंतर्गत बड़े कायदे से पेश आते हैं। फिर वो हवाई जहाज पर सवार होकर फुर्र... हो जाता है। मगर जाने से पहले शहर की नफ़ासतसंस्कृतिखूबसूरतीहर खासो-आम की आला इल्मी जानकारी के संबंध में तारीफों के पुल ज़रूर बांधता है। इसकी अज़ीम शान में कसीदे पढ़ता है। शहर की संस्कृति के नाम पर एनजीओ. चलाने वाले अलंबरदार इस बारे में खूब ढोल पीटते हैं।
इस शहर की असलियत तो तब पता चलती जब वो वीआईपी. बरास्ता ट्रेन या बस से शहर में दाखिल कराया गया होता। उत्तर रेलवे के नंबर एक प्लेटफॉर्म को छोड़कर उसे बाकी प्लेटफॉर्म व बस अड्डे गंदगी से पटे मिलते। छुट्टा गाय-भैंस जहां-तहां गोबर लीपतेजुगाली करते मिलते। कुत्ता-बिल्ली लुका-छिपी खेलते दिखते। बाज़ मोहल्लों में अगर बंदे अलर्ट न हो तो बंदर मुंह से निवाला छीन लें। यहां इंसान के भेस में शैतान गली-गली में हैंआपका और आपके सामान का बेड़ा पार लगाने को। हैवान सिर्फ़ रात में ही नहीं दिन में भी शराफत का चोगा धारण किए विचरते फिरते है।
 
सड़क घेर कर या पार्कों में कब्ज़ा जमा कर जगह-जगह धार्मिक समारोह बाजे-गाजे के साथ बारह महीनों दिन-रात आम आदमी का सुख-चैन हराम करते हैं वो भी कटिया लगा कर। इनको कौन इजाजत देता हैकिसने हक़ दिया है कि रात भर भगवान के नाम पर कानफाड़ू बेसुरा राग अलाप कर दूसरों की नींद हराम करें। कभी सोचा है कि बीमार पड़ोसी रात भर सो नहीं पाया है। भगवान को प्यारा होता-होता बचा। अब भगवान के नाम पर भला कौन दखल दे!

फुटपाथ परसड़क किनारेसर्विस लेनों में अवैध कब्जे हैंदुकानें हैं, रेस्तरां-ढाबे हैं।  शाम होते ही ये कटिया की रोशनी से जगमगा उठते हैं। इन्हें हटाने के लिये कोई सिपाही या प्रशासन का बंदा नज़र नहीं आता है। कभी-कभी बुलडोजर लेकर प्रशासन अवैध कब्जे नेस्तनाबूद करने का उपक्रम करता दिखता है। मगर उसके विदा होते ही सब पहले जैसा हो जाता है। यहां प्रशासन खुद से कुछ नहीं करता। उसका एक मुलाज़िम बड़ी बेचारगी से बताता है-‘‘भैया हमें आपको तंग करने का कोई शौक तो है नहीं। आप चार पैसे कमा रहे हो तो एक उसमें से हमें भी तो मिलता है। हम तो आराम से सो रहे थे। मगर माननीय कोर्ट के कहने पर मजबूर है। ऊपर से हुक्म हुआ कि कोर्ट को कुछ तो जवाब देना ही होगा।’’ साफ है कि यहां का प्रशासन माननीय कोर्ट चलाते हैं और उस टाइम में लगे तमाम अहम मुकदमों को तारीख़ मिलती हैसिर्फ़ तारीख़।

अब यहां इक्के-तांगे वाले चाशनी भरे लहज़े में यह कहते नहीं मिलेंगे- आइए हुजूर यहां तशरीफ़ रखें। कहां चलेंगेउनकी जगह मिलेंगे बदतमीजी से पेश आते आटो-टेम्पो वाले जो मनमाना भाड़ा भी वसूलेंगे। बात-बात पर लड़ने-झगड़ने व मार-पीट पर उतारू रहते हैं। वीआईपी इलाकों और उनकी गलियों की सड़कों को छोड़ कर शहर की बाकी सड़कों की हालत बेहद खस्ता है। कॉलोनियों और गलियों का तो पुरसा-हाल पूछने वाला कोई नहीं। आधे से ज्यादा शहर की सड़क बीच में खोद कर सीवर लाइन डाली गयी है। मगर दो बरस गुज़र जाने के बाद भी कोई भी सड़क कायदे से समतल नहीं की गयी। कई जगह तो गहरे पिट हफ्तों से खुदे पड़े हैं। कई इनके बरास्ता स्वर्ग सिधार चुके हैं। सुना है अभी उम्मीद न रखी जाये। बाकी आधा शहर भी तो खुदना है। पूरे शहर में एक साथ सड़क बनायी जाएगी। मंत्रि जी फ़रमाते हैं-सारा शहर एक साथ चमचमायेगा तो मज़ा आयेगा!

अस्पताल की ओर जाने वाली तकरीबन सभी सड़कों पर जगह-जगह गहरे-गहरे गड्ढे हैं। यह कहना मुश्किल है कि गड्ढों में सड़क बनी है या सड़क में गड्ढे हैं। प्रसव पीड़ा से कराहती महिलाओं पर क्या गुजरती होगी इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। सड़क चाहे छह लेन की हो दो लेन कीवाहनों की भीड़ इस कदर है कि सड़क ही नहीं दिखती है। ऐसी कुछ खास जगहों पर सरकार ने मेहरबानी करके फुट-ओवर ब्रिज बनाये है। मगर उनका इस्तेमाल करने में यहां की आला तालीम याफ्ता पब्लिक में कतई दिलचस्पी नहीं है। नतीजा पुल पर वीराना पसरा है और नीचे सड़क पैदल क्रास करने का रिस्क बदस्तूर जारी है। आए दिन एक्सीडेंट होते हैं। उनमें से कुछ ज़िंदगियां बेवक्त खत्म होती हैं। लोग रोते-पीटते हैंजाम लगाते हैं। राजनीति की रोटियां सेंक कर खाने वाले छुटभैया नेताओं को गला फाड़ कर सरकार को गाली देने का भरपूर मौका बैठे-बिठाये मिलता है।

सचिवालय के सामने से गुज़रती चौड़ी सड़क शहर की धड़कन है। यहीं से होकर तमाम लोग दफ़्तर आते-जाते हैं। तमाम आला महकमों और कंपनियों के दफ्तर भी इसी के आप-पास हैं। आधे से ज्यादा गोमती पार बसे शहर को जाने के लिये भी आमतौर पर इसी सड़क का इस्तेमाल करने को लोग प्राथमिकता देते हैं। रेलवे स्टेशनबस अड्डे व हवाई अड्डे तक भी यह सड़क पहुंचाती है। मगर सूबे भर के तमाम महकमों और इदारों के संगठन के जुलूस यहां पर आकर जलसों और हुड़दंग की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं क्योंकि उनकी गला-फाड़ू बुलंद आवाज़ यहां से बहरी सरकार को साफ-साफ सुनायी देती है। इंकलाबजिंदाबाद तो ठीक है। मगर नतीज़तन भयंकर जाम लगता है। पूरे शहर का ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम घंटों पटरी से उतरा रहता है। जाने कितने लोग ट्रेनबस व फ्लाइट मिस कर जाते हैं। ज़रूरी काम अंजाम तक नहीं पहुंच पाते। स्कूल से छूट का घरों को लौटते बेशुमार छोटे-छोटे बच्चे प्यास से बेहाल हो जाते हैंभूख से तड़प कर बिलखने लगते हैं। कामकाज़ी महिलाओं के वक्त पर घर नहीं पहुंच पाने के कारण चूल्हा नहीं जल पाता। मरीज़ अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते है। कई स्वर्ग-वाहन भी फंस जाते है। क़फ़न में लिपटा मृतक लेटे-लेटे परेशान हो जाता है-भैयाभीड़ वाले भाई लोग पुतला फूंक तो रहे हैं! उन्हीं के हवाले कर दो। मुक्ति ही तो चाहिये। वहां स्वर्ग धाम में नहीं तो यहीं सही। क्या फ़र्क पड़ता है?

कहीं सीवर बजबजाता दिखेगा तो कहीं पानी के पाइप से फव्वारे निकलते दिखेंगे। चाट-पकौड़ी यहां दूसरे बड़े शहरों के मुकाबले सस्ती और बेहद उम्दा है। मगर ज्यादातर दुकानें नाले-नाली के किनारे ठेलों पर सजी मिलेंगी और झूठे पत्तल-दोने वहीं नाले में ठूंसने की आदत है। इसी वजह से इस शहर की ज्यादातर नालियां चोक रहती हैं। कितनी बड़ी त्रासदी है ये कि शहर को खतरा ऊंचे-चौड़े बांधों के बीच से बहती प्रदूषित गोमती नदी से नहीं है बल्कि नाले-नालियों और सीवर लाइनों से है। बाज़ारों में भीड़ इस कदर और तिस पर अवैध कब्जे कि सड़क पर चलना दूभर है। कहीं- कहीं तो सड़क भी नज़र नहीं आती है। यहां दुकानदारों ने बिना प्रशासन से अनुमति लिये बिना अंडरग्राउंड दुकानें बना रखी हैं। बाज़ बाज़ारों में तो चोरी-चुपके पूरा बाज़ार ही अंडरग्राउंड बस गया है। तमाम नामी इंजीनियर व आर्किटेक्ट इसकी अनोखी प्लानिंग व डिज़ाइन देखकर दंग है। यहां पार्किंग में लोग वाहन नहीं खड़ा करते। कहते हैंमहंगी है। बकवास करते है। यों जब पार्किंग रेट कम थे तब भी वाहन फुटपाथ या सड़क किनारे खड़े होते थे। अब पार्किंगों में अवैध कार बाजार और जुए-शराब के अड्डे चलते हैं। कभी बाग-बगीचों और दरख्तों का था ये शहर। पर अब पत्थरों का है। लोग भी पत्थर-दिल हो चले हैं।

जनता जनार्दन में ट्रैफिक सेंस का पुरज़ा मिसिंग है। बिना सिगनल वाहन मोड़ देंगेनो पार्किंग जोन में घुस जाएंगे। दूसरे के घर के सामने गाड़ी खड़ी कर देंगे। सिविक सेंस भी नदारद है। अपना कूड़ा रात को चुपके से दूसरे के घर के आगे डाल देंगे। जब और जहां मन किया हल्के हो लिये। कहीं भी पिच्च से थूकना तो लाइलाज बीमारी है। हर दूसरा-तीसरा दबंग है या कसी रसूखदार का रिश्तेदार होता है। सिपाही तक को हड़का देते हैं। कुल मिला कर शहर में बदहाली का माहौल है। नफ़ासततहज़ीबशीरीं ज़ुबानदास्तानगोई वगैरह सब इतिहास की बात हैएंटीक है। कभी-कभार नुमाइश लगाकर या विंटेज रैलियां करके याद ताज़ा कर ली जाती है। ऐसे में आयोजक व तमाशबीन भले मुस्करा लेंमगर शहर के चप्पे-चप्पे की रोजाना गर्दिश करने वाला और असलियत से वाक़िफ़ बंदा कतई नहीं कह सकता कि मुसकुराइये कि आप लखनऊ में हैं।

कुछ भी हो बंदा भले ही इस शहर में नहीं जन्मा मगर आज तकअच्छा या बुराजो कुछ भी पाया है इसी शहर की बदौलत पाया है। यहीं पला-बढ़ा है। उसका बचपन इसकी गलियों में दौड़ा है। पैदा करने वाले से ज्यादा बड़ा हक़ पालने वाले का है। लखनऊ का भी बंदे पर हक़ है। बंदा लखनऊ नहीं छोड कर कहीं दूसरी जगह जाने का ख्वाब देखना भी गुनाह समझता है। इसकी माटी की गंध उसकी सांसों में हैखून में है। आखिरी सांस भी यहीं लेने की ख्वाहिश है। इस शहर के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़़ है। यह शहर जैसा भी है बंदे का है। बंदे को बेसाख्ता मोहब्बत है इस शहर से। इसीलिये शहर को बदहाली में देखकर उसे इंतहाई तकलीफ़ होना लाज़िमी है।
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लखनऊकानपुरवाराणसीइलाहाबादव गोरखपुर से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स के उलटबांसी स्तंभ में दिनांक 31.01.2014 को प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप।

-वीर विनाोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मो0 7504663626
दिनांक 31.01.2014

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